Monday, February 12, 2018

सेना के मामले में तुष्टिकरण की नीति न अपनाएं


आज मंथन से पहले आप पहले इन दो खबरों को पढ़ें।
पहली खबर कश्मीर के शोपियां है। यहां पत्थरबाजों पर कार्रवाई करने पर मेजर आदित्य कुमार और उनकी टीम के खिलाफ एफआईआर दर्ज की जाती है। शोपियां में हिंसक हो चुके पत्थरबाजों से बचने के लिए मेजर आदित्य और उनकी टीम को फायरिंग करनी पड़ी थी। 
दूसरी खबर जम्मू से है। सुजवां आर्मी कैंप में आतंकी हमले में सेना के पांच जवान शहीद हो गए हैं। सबसे बुरी खबर यह है कि आतंकियों की इस कार्रवाई में एक जवान के पिता भी मारे गए, जबकि दस से अधिक महिलाएं और बच्चे घायल हैं। एक बच्ची की हालत बेहद नाजुक है। 
अब आप मंथन करें। उस जवान की मनोस्थिति को समझने की कोशिश करें। जिसके ऊपर आपके हमारे और पूरे देश के परिवार की सुरक्षा की जिम्मेदारी है, वह अपने पिता को बचा नहीं सका। उसके समाने ही आतंकियों ने उसके पिता सहित तमाम महिलाओं और बच्चों पर दनादन गोलियां बरसा दीं। आप उस मेजर आदित्य कुमार के पिता की मनोस्थिति को भी समझने की कोशिश करें। किन परिस्थितियों में मेजर आदित्य के पिता ने कोर्ट से गुहार लगाई होगी कि उनके बेटे सहित उनकी टीम पर की गई एफआईआर वापस ली जाए। एक तरफ एक बेटा है जिसकापिता आतंकियों द्वारा मार दिया गया। एक तरफ एक पिता हैं जो भगवान के शुक्रगुजार हैं कि उनका बेटा देशद्रोही पत्थरबाजों की हिंसक भीड़ से सुरक्षित निकल सका। आत्मरक्षा में अगर उनके बेटे और उनकी टीम ने फायरिंग न की होती तो शायद आज कोई पिता आंसू बहा रहा होता। 
पत्थरबाजों पर कार्रवाई के तत्काल बाद घड़ियाली आंसू लेकर टीवी चैनलों पर नुमायां होते रहने वाले, सोशल मीडिया पर सेना के खिलाफ जहर उगलने वाले, अवॉर्ड वापसी गैंग के तथाकथित बुद्धीजीवि वर्ग के लोग इस वक्त कहां हैं जब आतंकियों ने महिलाओं और बच्चों पर गोलियां बरसाने में भी हिचक नहीं दिखाई। पैलेट गन से घायलों के समर्थन में मानवाधिकार की पैरवी करने वाले वे तथाकथित पत्रकार और वकिलों की फौज भी क्या उन जवानों का हाल जानने पहुंचेगी जिन जवानों के सामने उनके परिवार वालों पर गोलियां बरसाई गर्इं। आप उन जवानों की मानसिक स्थिति को समझने की कोशिश करें कि जिन जवानों के ऊपर पूरे देश की सुरक्षा की जिम्मेदारी है वो अपने ही परिजनों को सुरक्षित न कर सके। उन जांबाजों पर क्या बीत रही होगी।
ऐसे में जब ये जवान अपने प्राणों की रक्षार्थ गोलियां चलाते हैं तो उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाकर जम्मू-कश्मीर की सरकार क्या संदेश देना चाहती है? केंद्र की सरकार इन एफआईआर को हटवाने के लिए किसका मुंह ताक रही है? ये कैसी तुष्टिकरण की नीति है जो हमारे सैन्यकर्मियों और उनके परिजनों का हौसला तोड़ रही है। मेजर आदित्य कुमार के पिता को सुप्रीम कोर्ट की शरण लेनी पड़ी है। उन्होंने अदालत से अपील की है कि उनके सैन्य अफसर बेटे और उनकी टीम के खिलाफ शोपियां में दर्ज की गई एफआईआर रद की जाए। आखिर ऐसी नौबत क्यों आई कि एक पिता को याचिका दाखिल करनी पड़ी। सवाल रक्षा मंत्रालय से भी पूछा जाएगा कि क्यों नहीं यहां बैठे वरिष्ठ अधिकारियों ने एफआईआर खारिज करवाने का प्रयास किया। क्या उन्हें नहीं पता कि कश्मीर में किन हालातों में सेना के जवान अपनी ड्यूटी दे रहे हैं। क्या उन्हें नहीं पता कि आखिर अपने ही देश में क्यों सेना के जवान मुंह पर काले कपड़े डाले कश्मीर में ड्यूटी कर रहे हैं। क्या उन्हें नहीं पता कि किस तरह पत्थराबाजों की आड़ लेकर आतंकियों को भगाया और संरक्षित किया जा रहा है। पूरा देश सवाल कर रहा है कि आखिर सेना के जवानों पर यह गैरजरूरी एफआईआर क्यों? 
कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती सहित सहयोगी दल बीजेपी को भी मंथन करने की जरूरत है। एक तरफ केंद्र से सेना की हौसलाआफजाई की हुंकार भरी जाती है। रक्षा मंत्री बयान देती हैं कि सेना का मनोबल नहीं टूटने दिया जाएगा। खुद कश्मीर की मुख्यमंत्री बयान देती हैं कि कश्मीर में अभी ऐसे हालात नहीं हैं वहां अफस्पा (आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट) को हटाया जाए, और दूसरी तरफ कश्मीर की पुलिस को ही सेना के अधिकारी और जवानों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया जाता है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि तुष्टिकरण की इसी नीति ने जम्मू कश्मीर को उसके विकास से कई दसक पीछे धकेल रखा है। आज जब भारतीय सेना अपनी जान पर खेल कर घाटी में आॅपरेशन आॅल आउट चला रही है तो उनके हौसले को तोड़ने की साजिश रची जा रही है। क्या होगा ऐसी तुष्टिकरण की नीति अपनाकर। जिन पत्थरबाजों पर एफआईआर दर्ज करवाई गई उन्हें पहला मौका कहकर माफ करने की रणनीति के नतीजे क्या होंगे। क्यों ऐसे करीब 9730 पत्थरबाजों के खिलाफ दर्ज किए गए एफआईआर को सरकार ने वापस ले लिया। तुष्टिकरण की इसी नीति के चलते ही कश्मीर में आतंकियों के समर्थक पत्थरबाजों में न तो पुलिस का खौफ है और न आर्मी का। उनका दुस्साहस बढ़ता ही जा रहा है। 
पत्थरबाजों के खिलाफ दर्ज मुकदमे वापस लेने के पीछे का तर्क देते हुए जम्मू कश्मीर की सरकार का कहना है कि उन्होंने पहली बार यह गुनाह किया था। उन्हें माफ करने से अच्छा संदेश जाएगा। पर इस सवाल कर जवाब कोई देने को तैयार नहीं है कि इन पत्थरबाजों से जूझ रहे   सैन्य कर्मियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाने से कौन सा संदेश जाएगा। क्या सैन्यर्मियों के लिए मानवाधिकार नहीं है। क्या उन्हें अपनी रक्षा करने का हक नहीं है। केंद्र की मोदी सरकार अगले साल चुनाव की तैयारी में जुटी है। पर कश्मीर के हालातों पर जल्द मंथन नहीं किया गया तो हो सकता है उनकी यह तुष्टिकरण की नीति उल्टी न पड़ जाए। 
जम्मू कश्मीर के हालात को तमाम राजनीति परिवेश से अलग तरीके से देखने और समझने की जरूरत है। सेना के नाम पर अगर तुष्टिकरण किया गया तो हालात और भी बद से बदतर होते जाएंगे। सैन्यकर्मियों का मनोबल कई गुणा बढ़ जाता है जब देश का प्रधानमंत्री उनके साथ माइनस पचास डिग्री सेल्सियस में दीपावली मनाता है। इन जवानों का हौसला आसमान छूने को बेताब हो जाता है जब देश के रक्षामंत्री के रूप में एक महिला कमान संभालती है और पूरी दुनिया यह देखकर हैरत में पड़ जाती है कि कैसे यह महिला रक्षामंत्री सुखोई में उड़ान भर लेती है। भारतीय सेना हमेशा से ही उच्च गौरवशाली परंपराओं का निर्वहन करती आई है। जब-जब देश पर बाहरी और आंतरिक संकट आए हैं हमारे वीर जवानों ने अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया है। ऐसे में चंद देशद्रोहियों, आतंक के समर्थकों और बेवजह मानवाधिकार का झंडा बुलंद करने वाले अवॉर्ड वापसी गैंग के सदस्यों के दबाव में आए बिना सेना को अपना काम करने की छूट मिलनी चाहिए। तुष्टिकरण की राजनीति में सैन्यकर्मियों को बलि का बकरा बनाने से हमारे जांबाजों का मनोबल टूटता है। भारतीय सेना में अनुशासन की इतनी उच्च परंपरा है कि वहां किसी गलती पर न किसी अधिकारी को बख्शा जाता है न किसी जवान को माफ किया जाता है। ऐसे में बेवजह इस एफआईआर की राजनीति से ऊपर उठने की जरूरत है।

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