Sunday, October 7, 2018

हम ‘सेव द टाइगर’ कहते रहे, संकट में शेर घिर गए


70 के दशक में पूरे विश्व में बाघों की घटती संख्या को लेकर मंथन शुरू हुआ। वैश्विक स्तर पर इस पर मुहर लग चुकी थी कि आने वाले दस वर्षों में यह प्रजाति विलुप्त हो जाएगी। सबसे अधिक चिंता भारत के लिए थी। भारत में इस मंथन का सबसे अधिक असर हुआ क्योंकि पूरे विश्व में उस वक्त मौजूद बाघों में आधे से ज्यादा संख्या भारत में ही थी। ‘सेव द टाइगर’ मुहिम की शुरूआत ने भारत के बाघों को खत्म होने से तो बचा लिया, पर अब एक बार और उसी तरह के मंथन की जरूरत आन पड़ी है जो 70 के दशक में किया गया था। इस बार मंथन एशियाई शेरों के लिए करना होगा, क्योंकि हम ‘सेव द टाइगर’ का नारा लगाते रहे, उधर एशियाई शेर संकट में घिर गए हैं। हैरान करने वाले आंकड़े हैं कि पिछले कुछ महीने में करीब 70 शेर ने गिर के जंगलों में दम तोड़ दिया है। पिछले तीन हफ्तों में ही करीब दो दर्जन शेर मर चुके हैं।
पहली बार भारत में 1972 में बाघों की गणना की गई थी। बेहद चुनौतीपूर्ण इस कार्य में कई महीनों का वक्त लगा। इस जनगणना के बाद भारत सरकार को बेहद चौंकाने वाले आंकड़े मिले थे। इन आंकड़ों ने यह बात स्थापित कर दी थी कि निश्चित तौर पर आने वाला वक्त एशियाई बाघों के लिए सबसे कठिन है। अगर जल्द कदम नहीं उठाए गए तो बाघ सिर्फ किस्से, कहानियों, किताबों और फोटो में ही नजर आएंगे। उस वक्त देश में मात्र 1,827 बाघ ही शेष बचने का रिकॉर्ड सामने आया था। इसी गणना के बाद अस्तित्व में आया था ‘सेव द टाइगर’ मुहिम। सात अप्रैल 1973 को केंद्र सरकार ने बाघ बचाओ परियोजना का शुभारंभ किया था। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण तथा बाघ व अन्य संकटग्रस्त प्रजाति अपराध नियंत्रण ब्यूरो के गठन संबंधी प्रावधानों की व्यवस्था करने के लिए वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 में संशोधन किया गया। तत्काल बाघों के संरक्षण के लिए नौ बाघ अभयारण्य बनाए गए। धीरे-धीरे इन अभयारण्यों की संख्या आज 50 के करीब पहुंच चुकी है। बाघ के शिकार पर प्रतिबंध लगाने के साथ-साथ सख्ती भी की गई। केंद्र सरकार और राज्य सरकार के प्रयासों का नतीजा यह हुआ कि साल 2014 की गणना में इनकी संख्या 2,226 रिकॉर्ड की गई। यह आंकड़ा उत्साहवर्द्धक इसलिए था क्योंकि 2010 की गणना में इनकी संख्या मात्र 1,706 रिकॉर्ड की गई थी। 2018 में एक बार फिर से बेहद हाईटेक और व्यापक स्तर पर भारत में मौजूद वन्य जीवों की गणना की गई है। उम्मीद जताई जा रही है इस गणना के भी बेहतर रिजल्ट आएंगे। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण द्वारा वर्ष 2022 तक बाघों की संख्या दो गुनी तक करने का लक्ष्य रखा गया है। इस समय पूरी दुनिया में मात्र 3200 बाघ ही शेष बचे हैं। इनमें से आधे भारत में निवास करते हैं।
एक तरफ ‘सेव द टाइगर’ मुहिम चलता रहा, बाघों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी दर्ज होती गई, लेकिन बेहद अफसोसजनक है कि हमारे एशियाई शेर हमसे बिछड़ते गए। एशियाई शेरों के लिए सुरक्षित अभयारण्य के रूप में गिर नेशनल पार्क ने विश्व स्तर पर अपनी अलग पहचान बनाई है। पर पिछले कुछ महीनों में यहां शेरों की लगातार हो रही मौत ने मंथन करने पर विवश कर दिया है। वर्ष 2014-15 की गणना के दौरान करीब 523 एशियाई शेरों के होने की पुष्टि हुई थी। अब इतनी बड़ी तादात में हो रही मौत ने सभी को हैरान कर दिया है। एशियाई शेरों का वैज्ञानिक नाम पेंथरा लियो पर्सिका है। पूरे एशिया में गुजरात के गिर क्षेत्र में स्थापित अभयाराण्य ही एकमात्र संरक्षण स्थल है जहां एशियाई शेर अपने प्राकृतिक रूप में निवास कर रहे हैं। गुजरात का जूनागढ़, अमरेली और भावनगर जिलों में गिर के जंगल करीब 2,450 हेक्टेयर भूमि पर फैले हुए हैं। वर्ष 1965 में शेरों के लिए आरक्षित वन क्षेत्र घोषित किया गया। 

भारतीय शेरों के शिकार के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के दौरान अंग्रेज शिकारी विशेष तौर पर भारत आया करते थे। भारत सरकार के आंकड़ें कहते हैं कि 1900 आते-आते भारत में शेरों की संख्या सिर्फ 15 रह गई थी। गिर वन क्षेत्र को संरक्षित घोषित करने के बाद निश्चित तौर पर शेरों के शिकार पर रोक लगी और इनकी संख्या लगातार बढ़ती गई। प्राकृतिक रूप में इनका विकास तो हो ही रहा था। भारत सरकार ने जूनागढ़ के सक्करबाग प्रणी संग्रहालय में लॉयन ब्रीडिंग प्रोग्राम की नींव डाली। कृतिम रूप से शेरों का प्रजनन करवाया गया। इसमें भी अप्रत्याशित सफलता मिली और करीब ढ़ाई से तीन सौ शेरों का सफल प्रजनन हो चुका है। निश्चित तौर पर शेरों को बचाने के लिए प्रयास हुए, पर गंभीरता से मंथन करने की जरूरत है कि क्या उस स्तर पर हुए जिसकी आज जरूरत है। एशियाई शेरों के अस्तित्व पर आए संकट का एक बड़ा कारण उनका एक ही क्षेत्र में निवास और संरक्षण करना है। कभी यह प्रयास नहीं किया गया कि गिर वन क्षेत्र के अलावा भारत के अन्य वन्य क्षेत्रों में भी इनके संरक्षण और पल्लवन के लिए रास्ता बनाया जाए। ऐसे वन क्षेत्र विकसित किए जाए जहां इनका प्राकृतिक रूप से संरक्षण किया जा सके। 

शेरों के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा संकट उनमें तेजी से फैलने वाला संक्रमण है। वर्ष 1994 में तंजानिया के सेरेनगेटी अभयारण्य में करीब एक हजार शेरों की जान इसी तरह के संक्रमण ने ले ली थी। कारण स्पष्ट था कि एक क्षेत्र विशेष में ही इनका निवास स्थान बना दिया गया था जहां वे एक दूसरे के करीब थे। ऐसा ही कुछ गुजरात के गिर वन क्षेत्र के साथ हो रहा है। संक्रमण के कारण होने वाली बीमारियों और आपदा के कारण इनका बचना मुश्किल हो जाता है। शायद यही कारण है कि आचनक पिछले तीन हफ्तों में दो दर्जन एशियाई शेर असमय मौत के आगोश में चले गए हैं। हालत इतने चिंताजनक हो चुके हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने इन मौतों का स्वत: संज्ञान लिया है। सर्वोच्य अदालत ने केंद्र और राज्य सरकारों को इस पर गंभीरता से ध्यान देने की बात कही है। हर वर्ष ‘सेव द टाइगर’ प्रोजेक्ट के लिए करोड़ों रुपए का बजट जारी होता है। शेरों के संरक्षण के लिए भी अलग से बजट का प्रावधान है। पर गंभीरता से मंथन करने की जरूरत है कि इस बजट को शेरों के संरक्षण के लिए कहां और किस तरह खर्च किया जाए।
वायरल इंफेक्शन और प्रोटोजोआ संक्रमण के कारण सबसे अधिक इनकी मौत होती है। इसके अलावा केनाइन डिस्टेंम्पर वायरस (सीडीवी) भी इनकी मौत का अहम कारण है। यह सभी संक्रमण तेजी से शेरों में फैलते हैं। ऐसे में सबसे अधिक जरूरत अन्य शेर अभराण्य विकसित करने की है। वर्ष 1850 से पहले बिहार, पूर्वी विंध्यास, बुंदेलखंड, दिल्ली, राजस्थान, मध्य भारत सहित पश्चिम भारत में एशियाई शेरों की उपस्थिति के प्रमाण मिलते हैं। ऐसे में इन क्षेत्रों में भी शेरों के लिए सुरक्षित ठिकाने बनाने और खोजने पर मंथन किया जा सकता है। ताकि गुजरात के अलावा भी ये अपने प्राकृतिक संरक्षण में पल और बढ़ सकें। ‘सेव द टाइगर’ मुहिम की तरह ही ‘सेव द लॉयन’ मुहिम को भी व्यापक स्तर पर लॉन्च करने की जरूरत है। कहीं ऐसा न हो कि हम ‘सेव द टाइगर’ रटते रहे और हमारे भारत के गर्व का सर्वोच्य निशान हमसे बिछड़ जाए।
(लेखक आज समाज के संपादक हैं )

Sunday, September 30, 2018

मुजफ्फरपुर अंडरवर्ल्ड की इनसाइड स्टोरी-6 बृजबिहारी की हत्या के साथ शांत हुआ मुजफ्फरपुर का अंडरवर्ल्ड

बृजबिहारी प्रसाद


मुजफ्फरपुर अंडरवर्ल्ड की इनसाइड स्टोरी के भाग 5 में आपने पढ़ा था कि कैसे चंपारण के सबसे ताकतवर नेता की एके47 की बौछार कर हत्या कर दी गई थी। कैसे उसके भतीजे ने इस हत्या का बदला लेने का खुला ऐलान किया था। कैसे इस हत्याकांड ने उत्तर प्रदेश, मुजपफरपुर, तिरहूत और कोसी क्षेत्र के अंडरवर्ल्ड के बड़े नामों को एकजूट कर दिया था। इन सभी का एक ही मकसद बन गया था बिहार के बाहूबली नेता बृजबिहारी प्रसाद की हत्या।

कैंपस की राजनीति की, कैंपस में ही फंस गए
मैंने आपको बताया था कि मुजफ्फरपुर में दो बडेÞ कैंपस थे, जहां से अपराध का रास्ता खुलता था। एक था लंगट सिंह और बिहार यूनिवर्सिटी का संयुक्त कैंपस, दूसरा था शहर के दूसरे छोर पर स्थापित एमआईटी यानि मुजफ्Þफरपुर इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी का कैंपस। बृजबिहारी प्रसाद इसी एमआईटी की पैदाइश थे। इस कैंपस ने उन्हें इतना सशक्त कर दिया था कि नब्बे के दशक में वो उत्तर बिहार के सबसे बाहूबली नेता बन चुके थे। पिछड़ों और दलितों की राजनीति करने वाले बृजबिहारी प्रसाद ने अपनी छवि रॉबिनहुड की बना रखी थी। इसीलिए कम समय में उनका वोट बैंक काफी मजबूत हो चुका था। यही कारण है कि वो लालू यादव के कोर टीम के हिस्सा थे। हाजीपुर से लेकर चंपारण तक में उन्होंने राष्टÑीय जनता दल (आरजेडी) को मजबूती देने में अहम भूमिका निभाई थी। लालू यादव से उनकी नजदीकियां इतनी अधिक थी कि बृजबिहारी प्रसाद उनके घर के सदस्य जैसे थे।

इस नजदीकी का एक और खुलासा पिछले साल तब हुआ था जब बिहार की राजनीति नई करवट ले रही थी। नीतीश कुमार ने लालू यादव से हाथ मिलाकर बिहार में नई सरकार बना ली थी। लालू यादव के दोनों सुपूत्र बिहार मंत्रीमंडल में ऊंचे ओहदे पर थे। लालू-नीतिश की इस दोस्ती से सबसे अधिक परेशान बीजेपी थी। खोज-खोज कर एक दूसरे पर आरोप लगाए जा रहे थे। तभी सुशील मोदी ने एक और धमाका करते हुए बताया था कि 23 मार्च 1992 में बृजबिहारी प्रसाद की पत्नी रमा देवी ने लालू यादव के बड़े पुत्र तेज प्रताप यादव को गिफ्ट में 13 एकड़ से ज्यादा जमीन दी थी। उस वक्त तेजप्रताप करीब तीन साल के थे। इस गिफ्ट के दस्तावेजों को गौर से पढ़ेंगे तो आपको बृजबिहारी प्रसाद की फैमिली और लालू यादव की फैमिली की नजदिकियों को समझने में और आसानी होगी।

लालू यादव के बड़े बेटे को गिफ्ट में दी गई जमीन मुजफ्फरपुर के किशनगंज मौजा में थी। दो भूखंड थे। एक भूखंड का रकबा नौ एकड़ 24 डिसमिल है और दूसरे का तीन एकड़ 88 डिसमिल। गिफ्ट के दस्तावेजों में अंकित है कि तेज प्रताप नाबालिग है लेकिन वो रमा देवी का यथासंभव ख्याल रखता है। रमा देवी ने उसके बर्ताव से खुश होकर उसे उपहार में जमीन देने का फैसला किया है। बताते चलें कि सुशील मोदी के खुलासे के बाद रमा देवी ने भी बिहार की मीडिया में स्वीकार किया था कि हां उन्होंने अपने पति के कहने पर यह जमीन तेजप्रताप को वर्ष 1992 में गिफ्ट की थी।

अब आप समझ सकते हैं कि बृजबिहारी प्रसाद और लालू यादव में कितने गहरे पारिवारिक रिश्ते थे। ये रिश्ते पारिवारिक होने के साथ-साथ राजनीतिक भी काफी गहरे थे। यही कारण था कि लालू यादव की सरकार में बृजबिहारी प्रसाद की तूती बोलती थी। 90 के दशक में पूरा देश नई उद्योग और विज्ञान क्रांति के दौर से गुजर रहा था। ऐसे में सबसे अधिक विकास की संभावनाएं इसी क्षेत्र में थी। ऐसे में बृजबिहारी प्रसाद को बिहार के विज्ञान एवं प्रोद्यौगिकी मंत्री का कार्यभार सौंपा गया था। यह विभाग उस वक्त सबसे अधिक कमाऊ विभाग के रूप में जाना जाता था। बृजबिहारी प्रसाद इंजीनियरिंग बैकग्राउंड के स्टूडेंट थे, इसलिए उनके लिए भी यह विभाग काफी फलदायी सिद्ध हुआ। बिहार में भले ही विज्ञान और प्रौद्योगिकी में तरक्की नहीं हुई, लेकिन इस विभाग के नेता सहित तमाम अफसरों, इंजीनियरिंग कॉलेज के प्राचार्यों और कर्ता धर्ताओं ने खूब तरक्की की।

इसी बीच वर्ष 1996 में बिहार में इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा में बड़ा घोटाला हुआ। मीडिया द्वारा इस घोटाले की खबर ने पूरी बिहार की सत्ता को हिला कर रख दिया। क्या था यह घोटाला, कैसे हुआ था घोटाला, कैसे शातिरों की एक पूरी कौम ने बिहार को बर्बाद करने के लिए इस घोटाले को अंजाम दिया था। यह एक बड़ी कहानी है। जिसे फिर कभी मौका मिला तो आप सभी को बताऊंगा।

फिलहाल इतना बता दूं कि एक पूरे नेक्सस ने बिहार कंबाइंड इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा का पूरा सिस्टम ही हैक कर लिया था। इसमें सबसे बड़ी भूमिका निभाई थी बृजबिहारी प्रसाद के सबसे खास रहे आरसी विकल ले। बहुत कम लोगों को पता होगा कि बृजबिहारी प्रसाद दरअसल डॉ. बृजबिहारी प्रसाद थे। प्रसाद ने आरसी विकल के गाइडेंस में ही पीएचडी की डिग्री प्राप्त की थी। बृजबिहारी प्रसाद की कृपा से ही आरसी विकल बिहार कंबाइंड इंजीनियरिंग परीक्षा के को-कनेवनर बनाए गए थे। सीबीआई की रिपोर्ट कहती है कि को-कनेवर का उस वक्त कोई पोस्ट ही नहीं था, लेकिन बृजबिहारी प्रसाद की हनक ने सभी नियमों को ताक पर रख दिया था।

जो लोग इस वक्त 30 से 40 उम्र के या उससे अधिक होंगे उन्हें पता होगा कि उस दौर में कैसे यह बात आम थी कि 50 हजार से एक लाख या दो लाख में इंजीनियर बना दिए जाते थे। प्रवेश परीक्षा में ही खेल कर दिया जाता था। बेहद शतिराना अंदाज में आरसी विकल ने प्रवेश परीक्षा में एक ऐसे सिस्टम को डेवलप कर दिया था कि जिसे नाम दिया गया था पैसा फेंको तमाशा देखो। सीबीआई जांच के दौरान 1996 की प्रवेश परीक्षा में करीब 246 बच्चे आइडेंडिफाई किए गए थे जिन्होंने इसी नेक्सस के जरिए परीक्षा दी और विभिन्न इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन लिया। अंदाजा लगाइए इससे पहले कितने बच्चे पास भी कर चुके होंगे। जब इस नेक्सस का खुलासा हुआ तो बिहार सरकार हिल गई। लालू प्रसाद यादव को राजनीतिक प्रेशर में सीबीआई जांच की अनुशंसा करनी पड़ गई। इस स्कैम के बाद लालू यादव और बृजबिहारी प्रसाद में तल्खी काफी बढ़ गई थी। अंदर के सूत्र बताते हैं कि लालू यादव और उनकी टीम को यह बात नागवार गुजरी कि अकेले-अकेले बृजबिहारी प्रसाद पूरे बिहार के साइंस और प्रौद्योगिकी का इतना उत्थान कैसे कर गए। खैर लालू यादव द्वारा सीबीआई जांच की अनुशंसा करते ही बृजबिहारी प्रसाद और लालू यादव का मनमुटाव खुलकर सामने आ गया। मीडिया में बृजबिहारी प्रसाद ने कुछ ऐसा बयान दे डाला जिसमें इस बात का जिक्र था कि सिर्फ प्रसाद ही इस स्कैम में शामिल नहीं, बल्कि कई बड़े नाम भी हैं। सीबीआई जांच शुरू हुई तो बृजबिहारी प्रसाद को अपने मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा गया। वो न्यायीक हिरासत में भेज दिए गए। न्यायीक हिरासत में उनके साथ वही हुआ जो आज तक सभी नेताओं को होता आया है। बृजबिहारी प्रसाद की सेहत खराब हो गई। सीने में जलन हो गई। दर्द होने लगा। और उन्हें पूरे तामझाम के साथ पटना के सबसे प्राइम लोकेशन में स्थित इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट आॅफ मेडिकल साइंस (आईजीआईएमएस) में भर्ती करा दिया गया।

तैयार हुआ फुलप्रूफ प्लान
(मर्डर की यह कहानी पुलिस सूत्रों, हत्याकांड में दर्ज एफआईआर और अंडरवर्ल्ड से जुड़े कुछ सूत्रों के आधार पर है)
उधर अपने करीबियों की हत्या का बदला लेने की संयुक्त रूप से कसम खाई जा चुकी थी। बदला भी ऐसा लेना था कि पूरा बिहार देखे। ऐसे में बृजबिहारी प्रसाद को आईजीआईएमएस में ही मौत के घाट उतारने की व्यूह रचना की गई। आईजीआईएमएस के जिस वॉर्ड के जिस कमरे में बृजबिहारी को रखा गया था उसकी बनावट कुछ ऐसी थी कि वहां एक साथ धावा बोलना असान नहीं था, क्योंकि वहां तक पहुंचने में काफी समय लगता। दूसरा, बृजबिहारी प्रसाद की सुरक्षा के लिए वहां बिहार पुलिस के कमांडो भी तैनात थे। बृजबिहारी प्रसाद के अपने लोग भी उसके आसपास ही रहते थे। बताते हैं कि ऐसे में तैयार किया गया शंकर शंभू को। वही शंभू जिसकी चर्चा मैंने पहले की थी, जो बाद में देहरादून से पकड़ा गया। भुटकुन शुक्ला की हत्या के बाद अंदरखाने शंभू बृजबिहारी का खास बना हुआ था। उस वक्त बृजबिहारी प्रसाद ने आईजीआईएमएस को ही अपना वर्किंग प्लेस बना लिया था। वहीं से वह अपनी सत्ता चला रहा था। शंभू को टास्क मिला था पूरी रेकी करने का। साथ ही तय समय पर किसी तरह बृजबिहारी प्रसाद को हॉस्पिटल के प्रांगण या पार्किंग एरिया तक लाने का। वहां उपयोग किया गया मोबाइल। उस वक्त मोबाइल यूज करना शान की बात मानी जाती थी। चुनिंदा लोगों के पास ही मोबाइल हुआ करता था। वॉर्ड के अंदर मोबाइल का टावर ठीक से नहीं मिलता था, इसलिए तय हुआ कि किसी जरूरी काम से मोबाइल बृजबिहारी प्रसाद तक पहुंचाया जाएगा, फिर बात करने के बहाने उन्हें नीचे लॉन में ले आया जाएगा।

सबकुछ प्लान के साथ ही हुआ। दिन तय हुआ 13 जून 1998। वक्त तय हुआ शाम के आठ बजे का। जगह तय हुई हॉस्पिटल का खुला कैंपस। जून के महीने में वैसे भी शाम को लोग टहलने निकलते हैं। जून के महीने में आठ बजे का समय न तो बहुत उजाला होता है और न बहुत अधिक अंधेरा। ऐसे में किसी की पहचान भी आसान है और निकल भागना भी आसान। तय समय के अनुसार बृजबिहारी प्रसाद अपने तीन-चार बॉडिगार्ड और उनसे मिलने आए क्षेत्र के लोगों के साथ मोबाइल पर बात करते हुए नीचे आए। ठीक 8 बजकर 15 मिनटर पर एक सूमो गाड़ी जिसका नंबर था बीआर 1पी-1818 , बेली रोड की तरफ से हॉस्पिटल के साउथ गेट से अंदर आई। इसी गाड़ी के साथ उजले रंग की अंबेसडर गाड़ी भी थी। बृजबिहारी प्रसाद और उनके सहयोगी और बॉडिगार्ड जहां खड़े थे वहां से ठीक बीस कदम पीछे दोनों गाड़ी रुकी। इससे पहले मैदान में बैठे कुछ लोग भी गाड़ी के अंदर प्रवेश करते ही हरकत में आ गए थे। वो पीछे की तरफ से आगे बढ़े, जबकि गाड़ी सामने की तरफ से आ रही थी। गाड़ी रुकते ही सबसे पहले बृजबिहारी प्रसाद की पहचान की गई। पहचान होते ही ताबड़तोड़ फायरिंग की आवाज से पूरा हॉस्पिटल कैंपस गूंज गया। जब तब बृजबिहारी प्रसाद और उनके बॉडिगॉर्ड हरकत में आते तब तक गोलियों की बौछार के बीच चारों तरफ खून ही खून पसर गया गया था। अपराधियों ने पिस्तौल, कार्बाइन और एके-47 की बौछार से बृजबिहारी प्रसाद का अंत कर दिया था। इस गोलीबारी में बृजबिहारी प्रसाद के बॉडिगार्ड लक्ष्मेश्वर शाह को भी गोली लगी। शाह भी मौके पर ही मारे गए। प्रसाद के साथ वहां खड़े एक दो और लोगों को गोली लगी। बृजबिहारी की हत्या के बाद अपराधियों ने हवा में गोलियां बरसाई और उसी सूमो और अबेंसडर गाड़ी से निकल गए। प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया था कि उस समय हमलावरों ने हत्या के बाद जय बजरंगबली का जयघोष भी किया था।

मुजफ्फरपुर में सन्नाटे के बीच गोलियों की गूंज
इधर बृजबिहारी की हत्या हुई उधर पूरे बिहार में कोहराम मच गया। पूरा हॉस्पिटल परिसर पुलिस छावनी में तब्दील हो गया। पटना से लेकर पूरे तिरहुत क्षेत्र में अलर्ट जारी कर दिया गया। बृजबिहारी प्रसाद की हत्या का मैसेज फ्लैश होते ही मुजफ्फरपुर में आनन फानन में पुलिस की अतिरिक्त टुकड़ी को तैनात कर दिया गया। उस वक्त मोबाइल, सोशल मीडिया और टीवी चैनल्स का जमाना नहीं था। लेकिन रेडियो से शाम के नौ बजे के समाचार प्रसारण के बाद पूरा मुजफ्फरपुर गोलियों के धमाकों से गूंजने लगा। माड़ीपुर से लेकर बैरिया तक सन्नाटा पसर गया था, लेकिन नया टोला से लेकर कलमबाग चौक, कॉलेज और यूनिवर्सिटी कैंपस से लेकर खबड़ा तक में गोलियों की तड़तड़ाहट ने खौफ पैदा कर दिया था। रह-रह कर हर्ष फायरिंग हो रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे दीपावली का जश्न मनाया जा रहा है। आम आदमी घरों में कैद हो गया था। पुलिस लगातार लाउडस्पीकर से शांति बनाने की अपील कर रही थी, पर उसी दोगुने रफ्तार से हवा में गोलियां दागी जा रही थी। अजब दहशत, खामोशी और हर्ष का माहौल था। पूरे दो से तीन दिन तक रह-रह कर हर्ष फायरिंग की आवाज आती रही। स्कूल कॉलेज बंद करवा दिए गए थे। हर तरफ पुलिस ही पुलिस नजर आ रही थी। मुजफ्फरपुर के मार्केट भी स्वत: बंद थे। अनजाने भय से हर कोई आशंकित था। मुजफ्फरपुर के अंडरवर्ल्ड का अब तक सबसे खौफनाक हत्याकांड हुआ था। वह भी बिहार की राजधानी पटना में।

पुलिस भी हैरान थी
उधर, पटना में 13 जून 1998 को पुलिस का शायद ही ऐसा कोई अधिकारी हो जो हॉस्पिटल में मौजूद न हो। शाम 8.15 में यह हत्या हुई और पटना पुलिस की पहली टीम को घटनास्थल पर पहुंचने में 45 मिनट का वक्त लग गया। इस बीच पूरे हॉस्पिटल कैंपस में अफरातफरी मच चुकी थी। हर कोई बदहवास इधर-उधर भाग रहा था। कई मरीजोें के परिजन उन्हें लेकर भाग गए थे। चप्पल से लेकर जूते तक हर तरफ कैंपस में बिखरा पड़ा था। रात नौ बजे घटनास्थल पर सबसे पहले पहुंचने वालों में थे शास्त्री नगर पुलिस स्टेशन के इंस्पेक्टर एसएसपी यादव। रात करीब 12 बजे इस हत्याकांड की पहली एफआईआर गर्दनीबाग पुलिस स्टेशन में दर्ज की गई। एफआईआर नंबर था 336/98। आईपीसी की धार 302/307/34/120बी और 379 के तहत मामला दर्ज हुआ। पहली एफआईआर सहित बाद की जांच में दर्ज नाम में सबसे बड़ा नाम था बाहूबली सूरजभान सिंह, श्रीप्रकाश शुक्ला, मुन्ना शुक्ला, मंटू तिवारी, राजन तिवारी, भूपेंद्र नाथ दूबे, सुनील सिंह सहित अनुज प्रताप सिंह, सुधीर त्रिपाठी, सतीश पांडे, ललन सिंह, नागा, मुकेश सिंह, कैप्टन सुनील उर्फ सुनील टाइगर का। केस की जांच की कमान दूसरे ही दिन सौंप दी गई आंखफोड़वा कांड से चर्चित हुए पुलिस अधिकारी शशि भूषण शर्मा को। शर्मा उस वक्त डीएसपी सेक्रेटिएट थे। इस वक्त तक शशि भूषण शर्मा अंडरवर्ल्ड डॉन अशोक सम्राट इनकाउंटर के साथ-साथ कई और बड़े एवं चर्चित मामलों में बिहार पुलिस के हीरो बन चुके थे। चुंकि मामला बृजबिहारी प्रसाद जैसे बड़े नाम का था, इसलिए बिहार पुलिस ने एकबार फिर शशि भूषण शर्मा पर भरोसा जताया। शशि भूषण शर्मा ने इस जांच में अपनी पूरी ताकत झोंक दी। तमाम धमकियों की परवाह किए बगैर उन्होंने तीस अक्टूबर 1998 को चार्जशीट दाखिल कर दी। चार्जशीट में कई धाराएं और लगाई गई। आरोपियों के खिलाफ आईपीसी की धारा 302/307/379/353/333/120बी के अलावा सेक्शन 27 की धाराएं लगाई गई। बाद में सात मार्च 1999 को बिहार सरकार ने मामले को सीबीआई को सौंपने के लिए मेंबर आॅफ दिल्ली पुलिस एस्टेबलिस्टमेंट को रिक्वेस्ट भेज दी। भारत सरकार के डिपार्टमेंट आॅफ पर्सनल एंड टेÑनिंग ने सात अप्रैल 1999 को स्पेशल पॉवर के साथ सीबीआई को मामला जांच के लिए सौंप दिया। कई आरोपी गिरफ्तार हुए। जेल भेज गए। कई जमानत पर रिहा हुए। सीबीआई ने लंबी जांच की। चार्जशीट दायर हुआ। पटना की निचली अदालत ने 12 अगस्त 2009 में दो पूर्व विधायकों राजन तिवारी और विजय कुमार शुक्ला उर्फ मुन्ना शुक्ला, पूर्व सांसद सूरजभान सिंह सहित 8 अभियुक्तों को इस मामले में दोषी पाया था। इन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई गई। सभी ने फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी। बाद में लंबी बहस के सबूतों के आभाव में पटना हाईकोर्ट ने बृजबिहारी हत्याकांड के सभी अभियुक्तों को 25 जुलाई 2014 को बरी कर दिया। न्यायमूर्ति इकबाल अहमद अंसारी और न्यायमूर्ति वीएन सिन्हा की खंडपीठ ने निचली अदालत के फैसले को पूरी तरह खारजि कर दिया। हाईकोर्ट ने जेल में बंद राजन तिवारी, मंटू तिवारी और मुन्ना शुक्ला को तुरंत रिहा करने का आदेश दिया। जबकि, जमानत पर चल रहे पूर्व सांसद सूरजभान सिंह, मुकेश सिंह, ललन सिंह, कैप्टन सुनील सिंह को बेल बांड से मुक्त कर दिया। शीर्ष अदालत ने अपने 278 पृष्ठ के फैसले में काफी अहम बातें की। साथ ही सीबीआई की वर्किंग पर भी सवाल उठाते हुए कहा कि सीबीआई यह साबित नहीं कर पाई कि इन अभियुक्तों ने प्रसाद की हत्या की साजिश रची थी। कोर्ट ने कहा कि सीबीआई ने जिन साक्ष्यों के आधार पर इन अभियुक्तों को हत्याकांड से जोड़ने का प्रयास किया है उसमें कोई दम नहीं है।

क्या हुआ तिरहुत और मुजफ्फरपुर के अंडरवर्ल्ड का
बृजबिहारी प्रसाद की हत्या के साथ तिरहुत और मुजफ्फरपुर के अंडरवर्ल्ड में शांति छा गई। सबसे अहम बात यह रही कि बृजबिहारी प्रसाद की पत्नी रमा देवी ने अपने पति की हत्या के लिए लालू प्रसाद और उनके सहयोगियों पर सीधा आरोप लगाया। रमा देवी तो मुख्यमंत्री निवास में धरना देने तक पहुंच गई थी। बृजबिहारी की हत्या का सबसे अहम किरदार डॉन श्रीप्रकाश शुक्ला बृजबिहारी हत्याकांड के तीन महीने के अंदर उत्तरप्रदेश एसटीएफ के इनकाउंटर में ढेर कर दिया गया। गाजियाबाद के निकट हुए इस इनकाउंटर ने बिहार और उत्तरप्रदेश में खौफ का बड़ा नाम बन चुके 26 साल के डॉन श्रीप्रकाश शुक्ला का अंत कर दिया। अरशद वारसी द्वारा अभिनित फिल्म ‘सहर’ कमोबेश श्रीप्रकाश शुक्ला के जीवन पर ही है। मुन्ना शुक्ला का अंडरवर्ल्ड में नाम उनके भाईयों के साथ अनायस ही जुड़ा। वो अपने राजनीतिक जीवन में लग गए। अंडरवर्ल्ड से जुड़े किसी बड़ी घटना में उनका नाम बाद में कहीं नहीं आया। मिनी नरेश, चंदेश्वर सिंह, हेमंत शाही, अशोक सम्राट, छोटन शुक्ला, भुटकुन शुक्ला और बृजबिहारी प्रसाद की हत्या के साथ ही मुजफ्फरपुर संगठित अपराधों से दूर होता गया।

वर्ष 2005 में नितीश कुमार मंत्री बने। इसके बाद पूरे बिहार में अपराधियों से सीधा मुकाबला हुआ। सुशासन का नारा देते हुए बिहार पुलिस ने इनकाउंटर की झड़ी लगा दी। हजारों अपराधी जेल की सलाखों के पीछे डाल दिए गए। जो समझदार से उन्होंने बिहार से बाहर भागने में भलाई समझी। हालांकि स्पेशल टीम का गठन कर इन भगौड़ो को भी खोज-खोज कर मारा गया या पकड़ा गया। मुजफ्फरपुर और तिरहुत का नाम छोटे-मोटे अपराधों में आता रहा। कई गैंगस्टर भी हीरो की तरह सामने आए, लेकिन तत्काल वे ढेर भी हो गए। संगठित अपराध का पूरा नेक्सस बृजबिहारी प्रसाद की हत्या के साथ खत्म हो चुका था। साल 2010 के बाद इस क्षेत्र में भू माफियाओं का संगठित नेक्सस पनपा। आज यह पूरा क्षेत्र संगठित भू माफियाओं के लिए बदनाम हो चुका है। इसी नेक्सस के तहत अपराध ने फिर से मुजफ्फरपुर में दस्तक दे रखी है। लगातार लाशें गिर रही है। पूर्व मेयर समीर की हत्या भी इसी नेक्सस का नतीजा है। देखना होगा नितीश कुमार की सरकार उत्तर बिहार की राजधानी कहे जाने वाले मुजफ्फरपुर को कैसे इस नेक्सस से आजाद करवाती है। फिलहाल एक दिन पहले ही यहां की एसएसपी हरप्रीत कौर का डिमोशन कर उनका तबादला कर दिया गया है। सिंघम स्टाइल के लिए फेमस आईपीएस मनोज कुमार को मुजफ्फरपुर की कमान सौंपी गई है।

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मुजफ्फरपुर अंडरवर्ल्ड की कहानी किसी अपराधी के महिमा मंडन के लिए नहीं लिखी जा रही है। इसका उद्देश्य सिर्फ घटनाओं और तथ्यों की हकीकत के जरिए कहानी बयां करने का प्रयास है। इसमें कुछ घटनाओं को आप स्वीकार भी कर सकते हैं और अस्वीकार भी। किसी को अगर इन कहानियों से व्यक्तिगत अस्वीकृति है तो वो इस आलेख को इग्नोर करें।

Saturday, September 29, 2018

मुजफ्फरपुर के अंडरवर्ल्ड की इनसाइड स्टोरी-5, जब एकजूट हुए अंडरवर्ल्ड के सभी अपर कास्ट के डॉन



मुजफ्फरपुर अंडरवर्ल्ड की इनसाइड स्टोरी के पार्ट चार में आपने पढ़ा था कि कैसे अंडरवर्ल्ड में गद्दारी ने अपना जाल बिछाया था। बिहार के अंडरवर्ल्ड की भी शायद यह पहली घटना थी जिसमें किसी अंडरवर्ल्ड डॉन की हत्या उसके अपने ही बॉडीगार्ड ने कर दी थी। इस घटना के बाद गद्दारी का सिलसिला लगातार चलता रहा।

पिछले कुछ अंकों के प्रकाशन के बाद कई लोगों ने कहा कि बाहूबली देवेंद्र दुबे के बारे में भी बताईए। अबतक देवेंद्र दुबे की चर्चा इसलिए नहीं कर रहा क्योंकि प्रत्यक्ष रूप से मुजफ्फरपुर अंडरवर्ल्ड से उसका कोई लेना देना नहीं था। पर इस सीरिज में उसकी चर्चा जरूरी हो गई है, क्योंकि देवेंद्र दुबे की हत्या के तार मुजफ्फरपुर के अंडरवर्ल्ड की इनसाइड स्टोरी से सीधे तौर पर जुड़ते हैं। इन सभी स्टोरी के केंद्र में बिहार सरकार के सबसे चर्चित मंत्री बाहूबली नेता बृजबिहारी प्रसाद ही हैं, क्योंकि बृजबिहारी की हत्या के साथ बिहार में बहुत कुछ बदल गया, खासकर मुजफ्फरपुर अंडरवर्ल्ड में।

देवेंद्र दुबे का खौफ 
नब्बे के दशक में जहां मुजफ्फरपुर सहित पूरे तिरहुत प्रमंडल में अशोक सम्राट, शुक्ला ब्रदर्श, बृजबिहारी प्रसाद आदि की तूती बोलती थी, वहीं स्वतंत्रता आंदोलन की धरती चंपारण के पूर्व से लेकर पश्चिम तक देवेंद्र दुबे का एकछत्र राज्य हुआ करता था। दूर-दूर तक उसे चुनौती देने वाला कोई नहीं था। करीब 35 हत्याओं सहित दर्जनों गंभीर अपराधों में उसकी सीधी भूमिका के कारण उस पर एफआईआर दर्ज थे।
मैंने पहले की सीरिज में बताया था कि 90 का दौर अपराध की दुनिया से राजनीति में आने का ट्रांजेक्शन का दौर था। देवेंद्र दुबे भी इसी ट्रांजेक्शन पीरियड से गुजर रहा था। राजनीति में उसने जातिगत बाहुबल के कारण अपनी अच्छी पैठ बना ली थी। देवेंद्र दुबे का पूरा नाम देवेंद्रनाथ दूबे था। अंडरवर्ल्ड उसे डीडी के नाम से जानता था। 1995 का विधानसभा चुनाव बिहार के माफियाओं के लिए कालजयी काल था। देवेंद्र दुबे भी मोतीहारी लोकसभा अंतर्गत आने वाले गोबिंदगंज विधानसभा सीट से समाजवादी पार्टी के टिकट से चुनाव लड़ रहा था। बताया जाता है कि समाजवादी पार्टी से टिकट दिलवाने में देवेंद्र दुबे को सीधी मदद पहुंचाई थी उस वक्त के उत्तरप्रदेश में आतंक का पर्याय बन चुके अंडरवर्ल्ड डॉन श्रीप्रकाश शुक्ला ने। और श्रीप्रकाश शुक्ला और डीडी के बीच मिलन करवाया था अंडरवर्ल्ड के एक और बड़े नाम राजन तिवारी ने। श्रीप्रकाश शुक्ला से डीडी की दोस्ती रेलवे ठेकों पर एकछत्र राज्य के कारण हुई थी। रक्सौल रेलप्रखंड उस वक्त परिर्वतन के दौर से गुजर रहा था। गोरखपुर से लेकर सोनपुर, मुजफ्फरपुर से लेकर रक्सौल, बेतिया तक के रेलवे ठेकों पर श्रीप्रकाश शुक्ला अपना एकछत्र राज चाहता था। इसीलिए उसने एक तरफ जहां भुटकुन शुक्ला से नजदीकी कायम की थी, वहीं चंपारण की तरफ उसका साथ मिला था डीडी का।

श्रीप्रकाश को पता था कि जबतक डीडी विधायक नहीं बनता, तबतक उसे पूरा फायदा नहीं मिल सकता। इसके लिए सबसे पहले समाजवादी पार्टी से टिकट दिलाने में उसकी मदद की, उसके बाद चुनाव जीताने में उसने अपनी पूरी ताकत झोंक दी। उत्तरप्रदेश की सीमा से लगे होने के कारण चंपारण में भी श्रीप्रकाश शुक्ला तब तक बड़ा नाम बन चुका था। इसका सीधा फायदा मिला डीडी को। 1995 के चुनाव में डीडी ने जनता दल के योगेंद्र पांडे को करारी शिकस्त दी। योगेंद्र पांडे को हराना आसान नहीं था, वह पिछले दस साल से वहां के विधायक थे। योगेंद्र पांडे की हार ने सभी को हैरान कर दिया था, पर डीडी की जीत ने वहां की राजनीति को नया मोड़ दे दिया था। यहां बता दूं कि डीडी ने यह चुनाव जेल में रहते हुए जीत लिया था, क्योंकि चुनाव में नॉमिनेशन के दिन ही पुलिस ने उसे छह लोगों को जहर देकर मारने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया था। इसके अलावा 35 अन्य गंभीर आरोपों में भी वह वांछित था। राजन तिवारी की इस एरिया में दिलचस्पी काफी पहले से थी, क्योंकि यहां उसका ननिहाल था। उत्तरप्रदेश में उसके पैरेंट्स बस गए थे, लेकिन ननिहाल में उसका आना जाना लगा रहता था। इसी क्रम में वह देवेंद्र दुबे के संपर्क में आया था। श्रीप्रकाश शुक्ला और राजन तिवारी की जोड़ी ने देवेंद्र दुबे को चुनाव जीतने में अहम रोल निभाया।

देवेंद्र दुबे की हत्या 
देवेंद्र दुबे

विधानसभा चुनाव के दौरान और उसके बाद देवेंद्र दुबे के कई विरोधी सामने आ गए थे। सबसे बड़े विरोधी बने बृजबिहारी प्रसाद और उनके समर्थित उम्मीदवार। बता दें कि 1998 के लोकसभा चुनाव में बृजबिहारी प्रसाद की पत्नी रमा देवी ने इसी लोकसभा से चुनाव जीता था। 1995 का विधानसभा चुनाव भारी मतों से जीतने के बाद देवेंद्र दुबे जमानत पर बाहर आ चुके थे। बाहर आने के कुछ दिनों बाद ही उन पर हमला हुआ। गोली लगी पर डीडी बच गए। अंडरवर्ल्ड में इस हमले ने काफी चौंकाया। हलचल बिहार से लेकर उत्तरप्रदेश तक हुई। पर कोई बड़ी वारदात नहीं हुई। क्योंकि डीडी ने अपना पूरा फोकस राजनीतिक कॅरियर पर कर लिया था। इसी बीच वर्ष 1998 में डीडी की हत्या ने बृजबिहारी प्रसाद की हत्या की पटकथा लिख दी।

गाड़ी पर मिले थे 65 गोलियों के निशान
25 फरवरी 1998 को डीडी अपने सहयोगियों के साथ पूर्वी चंपारण के अरेराज ब्लॉक के बरियरिया टोला में आने वाले थे। उनपर खतरा पहले से ही था, क्योंकि यह पूरा इलाका बृजबिहारी प्रसाद के प्रभुत्व वाला था। अंडरवर्ल्ड के सूत्र बताते हैं कि डीडी को उसके किसी खास व्यक्ति ने ही यहां लाने की प्लानिंग की थी। और यह प्लानिंग बनाई गई थी बृजबिहारी प्रसाद के इशारे पर। चंपारण रेंज के तत्कालीन डीआईजी वी नारायण ने एक इंटरव्यू में स्वीकार किया था कि डीडी की हत्या में उसके एक सबसे खास व्यक्ति ने गद्दार की भूमिका निभाई थी। बैरिया गांव में सुबह के वक्त चारों तरफ से घेर कर देंवेद्र दूबे को एके-47 से छलनी कर दिया गया था। डीआईजी वी नारायण का कहना था कि जिस गाड़ी में डीडी सवार थे उसपर गोलियों के 65 निशान मिले थे। देवेंद्र दुबे के साथ उसके चार सबसे खास सहयोगी भी मारे गए थे।
इस हत्याकांड ने पूरे उत्तर बिहार को सुलगाने का मशाला दे दिया था। क्योंकि देवेंद्र दुबे उस वक्त अपने धन और बाहूबल से काफी शक्तिशाली नजर आने लगे थे। इस हत्या का सीधा आरोप लगा बृजबिहारी प्रसाद पर। डीआईजी चंपारण रेंज वी नारायण काफी तेज तर्रार अधिकारी माने जाते थे। डीडी की हत्या के बाद उन्होंने तत्काल एक स्पेशल टीम तैयार की। सबसे पहले इस टीम को चंपारण से सटे नेपाल बॉर्डर को सील करने का जिम्मा मिला। हत्या के दूसरे ही दिन वी नारायण की टीम ने हत्याकांड में शामिल तीन अपराधियों को 26 फरवरी को रामगढ़वा इलाके से धर दबोचा। ये सभी इसी रास्ते नेपाल भागने की फिराक में थे। इन्हीं तीन अपराधियों में शामिल था गैंगस्टर जितेंद्र सिंह। बताते हैं कि बाद में जितेंद्र सिंह ने पुलिस पूछताछ में इस बात को कबूला था कि डीडी की हत्या की सुपारी उसे बृजबिहारी प्रसाद ने ही दी थी। हालांकि इस बात का जिक्र पुलिस रिकॉर्ड में कहीं नहीं है। लेकिन डीडी के भाई की तहरीर पर बिहार सरकार में तत्कालीन ऊर्जा मंत्री बृजबिहारी प्रसाद और उनकी पत्नी रमा देवी को मुख्य आरोपी बनाया गया। बता दें कि रमा देवी उस वक्त 1998 के लोकसभा चुनाव में मोतिहारी सीट से आरजेडी की प्रत्याशी थीं। डीडी की हत्या के बाद हुए चुनाव में रमा देवी उसी सीट से सांसद बनीं। बताते हैं कि रमा देवी की जीत में सबसे बड़े बाधक डीडी ही थे, जिसके कारण उन्हें रास्ते से हटा दिया गया।

डीडी की हत्या में प्रसाद दंपत्ति के अलावा अन्य पांच के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई थी। पर गैंगस्टर जितेंद्र सिंह और उसके दो सहयोगियों के अलावा पॉलिटिकल प्रेशर के कारण कोई गिरफ्तार नहीं किया जा सका। मोतिहारी गवर्नमेंट हॉस्पिटल में डीडी का पोस्टमार्टम हुआ। उसके शरीर से कई दर्जन गोलियां निकाली गई। इस विभत्स हत्याकांड ने डीडी के समर्थकों में आक्रोश भर दिया था। सीआईडी की रिपोर्ट कहती है कि दाह संस्कार के वक्त बिहार और उत्तरप्रदेश अंडरवर्ल्ड के करीबन सभी बड़े डॉन वहां मौजूद थे। बतातें चलें कि अंडरवर्ल्ड के ये सभी बड़े डॉन अगड़ी जाती का प्रतिनिधित्व करते थे। देवेंद्र दुबे की हत्या से पहले बृजबिहारी प्रसाद का नाम छोटन शुक्ला और भुटकुन शुक्ला की हत्या में भी आ चुका था।
यहीं दाहसंस्कार के वक्त डीडी का भतीजा मंटू तिवारी जो उक्त अंडरवर्ल्ड में अपनी एक अलग पहचान कायम कर चुका था, उसने कसम खाई। खुफिया विभाग की रिपोर्ट और तमाम मीडिया ने यह रिपोर्ट किया था कि मंटू तिवारी ने ऐलान किया है कि जब तक देवेंद्र दुबे की हत्या का बदला नहीं ले लेगा शादी नहीं करेगा। बृजबिहारी प्रसाद की हत्या के बाद दर्ज एफआईआर में डीडी के इसी भतीजे मंटू तिवारी को मुख्य आरोपी के रूप में चिह्नित किया गया था। हत्याकांड के फर्स्ट एफआईआर में मंटू तिवारी का नाम सबसे ऊपर था।

एकजूट हुआ अंडरवर्ल्ड
लालू यादव के तथाकथित जंगलराज में अगड़ी जाती के कई अंडरवर्ल्ड डॉन और बाहूबलियों की हत्या हुई। यहां मैं सिर्फ तिरहूत और आसपास के इलाके की चर्चा कर रहा हूं, लेकिन बिहार के करीबन हर क्षेत्र में राजनीतिक हत्याओं का दौर चला था। हाल यह था कि पूर्णिया में अजीत सरकार की हत्या के बाद सेंट्रल गवर्नमेंट को अपनी एक उच्च स्तरीय टीम को बिहार भेजना पड़ गया था। डीडी की हत्या ने तिरहूत और उत्तरप्रदेश के अंडरवर्ल्ड को एकजूट कर दिया था। डीडी की हत्या के बाद अघोषित रूप से डीडी का पूरा अंडरवर्ल्ड साम्राज्य राजन तिवारी के पास आ गया था। उधर भुटकुन शुक्ला की हत्या के बाद मुजफ्फरपुर अंडरवर्ल्ड में अघोषित रूप से मुन्ना शुक्ला की इंट्री हो चुकी थी। पूरे साम्राज्य पर मुन्ना शुक्ला का राज था, हालांकि इस वक्त मुन्ना शुक्ला की राजनीति में भी दमदार इंट्री हो चुकी थी, इसलिए प्रत्यक्ष रूप से किसी अपराध में उसकी संलिप्तता का कोई रिकॉर्ड पुलिस डायरी में नहीं था। उत्तर बिहार में रेलवे और पीडब्ल्यूडी के ठेकों पर अगड़ी जाति के अंडरवर्ल्ड का पूरा दबदबा था। शुक्ला ब्रदर्श के अलावा, सूरजभान सिंह, श्रीप्रकाश शुक्ला, राजन तिवारी सभी एक साथ मिलकर काम कर रहे थे। कहते हैं दुश्मन का दुश्मन एक दूसरे को दोस्त बना देता है। आपसी मतभेद भुलाकर सभी एक साथ थे। अब प्लानिंग हुई सभी दोस्तों के सबसे बड़े दुश्मन बृजबिहारी प्रसाद के हत्या की।

एक अहम किरदार जो देहरादून में था
बृजबिहारी प्रसाद की हत्या की इनसाइड स्टोरी से पहले आपको थोड़े समय के लिए देहरादून लेकर चलूंगा, क्योंकि अंडरवर्ल्ड के इस सबसे भयानक हत्याकांड का एक अहम किरदार उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में था।


यह साल 2013 की बात है। उस वक्त मैं देहरादून में ही पोस्टेड था। उधर, बिहार में नितीश कुमार की सरकार थी। पूरा जोर सुशासन की तरफ था। स्पेशल टीम अपराधियों को खोज-खोजकर या तो मार रही थी या गिरफ्तार कर रही थी। इसी वक्त बिहार के आईजी आॅपरेशन थे अमित कुमार। बेहद तेज तर्रार आईपीएस अमित कुमार ने अपनी एक बेहतरीन टीम बनाई थी। इसी टीम को लीड मिला कि बिहार का मोस्ट वांटेड अपराधी उत्तराखंड की वादियों में छिपा बैठा है। इस मोस्ट वांटेट अपराधी पर बिहार सरकार ने दस लाख का ईनाम रखा था। नाम था शंकर शंभू। शंकर शंभू की चर्चा इसलिए कर रहा हूं क्योंकि यह भी मुजफ्फरपुर के लंगट सिंह कॉलेज कैंपस की पैदाइश था। 90 के दशक में एलएस कॉलेज में एडमिशन लेने के बाद वह कैंपस में वर्चस्व की जंग में शामिल था। कैंपस में वर्चस्व की जंग के दौरान ही वह भुटकुन शुक्ला के संपर्क में आया था और उसके खास लोगों में शामिल हो गया था। कम समय में ही शंकर शंभू ने मुजफ्फरपुर और तिरहूत के अंडरवर्ल्ड में शॉर्प शूटर के रूप में अपनी पहचान बना ली थी। उत्तराखंड के एक सीनियर आईपीएएस अधिकारी जो मूल रूप से बिहार के ही हैं (नाम नहीं बता रहा) ने शंकर शंभू की गिरफ्तारी के बाद एक बड़ी बात बताई थी। उन्होंने बताया था कि शंकर शंभू ने भुटकुन शुक्ला की हत्या में बड़ी भुमिका निभाई थी। वह अपना अलग साम्राज्य खड़ा करना चाहता था जिसके कारण अंदर ही अंदर वह बृजबिहारी प्रसाद का खास बन चुका था। बताते हैं कि बृजबिहारी के कहने पर भुटकुन शुक्ला के मर्डर की सारी रूपरेखा उसी ने बनाई थी। भुटकुन शुक्ला के बाद मुजफ्फरपुर के अंडरवर्ल्ड में शंकर शंभू ने अपनी पैठ कायम करनी चाही, लेकिन उस पर खतरा अधिक था। वह चुपचाप गंगा पार पटना चला गया। वहीं पटना में ही शंभू ने कुख्यात बदमाश मंटू सिंह के साथ मिलकर अपना अलग गैंग बना लिया। शंभू-मंटू गैंग ने कुछ ही महीने में सीपीडब्ल्यूडी और रेलवे के ठेके पर अपनी बादशाहत का लोहा मनवाया लिया।
शंकर शंभू पुलिस की गिरफ्त में

उधर, बृजबिहारी की हत्या की पूरी प्लानिंग में एक अहम किरदार का आना बांकि था। यह किरदार था शंकर शंभू। बृजबिहारी प्रसाद को उसी स्टाइल में मारने की प्लानिंग की गई थी। भुटकुन शुक्ला की हत्या में कहीं न कहीं उसकी भुमिका थी, इसलिए वह बृजबिहारी का अंदर खाने काफी खास बना बैठा था। इसी शंकर शंभू को बृजबिहारी की हत्या में इस्तेमाल किया गया। कैसे इस्तेमाल किया गया इसे भी बताने का प्रयास करूंगा।

1998 में बृजबिहारी की हत्या के बाद वह बिहार पुलिस के मोस्ट वांटेड क्रिमिनल की सूची में आ गया था। वह बिहार छोड़कर अंडरग्राउंड हो गया। हालांकि मंटू सिंह की मदद से उसने पटना और आसपास के ठेकों में अपना प्रभुत्व कायम रखा। दिल्ली और यूपी के तमाम शहरों में रहते हुए भी वह अपना गैंग चलाता रहा। बिहार पुलिस से बचते बचाते उसे सबसे सुरक्षित ठिकाना मिला उत्तराखंड की राजधानी देहरादून। यहां बसने का सबसे बड़ा कारण उसकी प्रेमिका थी, जो देहारादून की ही थी। साल 2002-03 में उसने अपनी प्रेमिका से शादी कर ली और देहरादून को अपना ठिकाना बना लिया। देहरादून के सबसे पॉश एरिया जीएमएस रोड पर उसने अपना मकान लिया और एक बिजनेसमैन के रूप में अपनी नई पहचान बनाई। पटना में सीपीडब्ल्यू का शायद ही ऐसा कोई ठेकेदार रहा होगा जिसमें शंभू का भय नहीं था। रंगदारी की मोटी रकम इस गैंग के पास पहुंचती थी। इसी बीच 14 अक्टूबर 2011 को बिहार की राजधानी के पुनाईचक में सीपीडब्ल्यू ठेकेदार बसंत सिंह की हत्या कर दी गई। शास्त्रीनगर थाना के अंतर्गत इंजीनियर के आॅफिस में हुई इस हत्या ने पूरे बिहार में सनसनी मचा दी। इस हत्याकांड में फिर नाम आया शंभू और मंटू का। बिहार पुलिस की स्पेशल टीम को इस गैंग के खात्मे में लगाया गया। कमान संभाली आईजी आॅपरेशन अमित कुमार ने। टीम को बड़ी सफलता मिली एक साल बाद जब दुर्गेश शर्मा और शिवशंकर शर्मा की गिरफ्तारी हुई। यह बड़ी लीड थी। चंद दिनों बाद ही लखनऊ के गोमती नगर से मंटू को बिहार एसटीएफ ने अरेस्ट कर लिया। मंटू की गिरफ्तारी के बाद इस गैंग के कई शूटर्स या तो इनकाउंटर में मार गिराए गए या दबोचे गए। पर शंकर शंभू अपने सुरक्षित ठिकाने पर मौज में था। बिहार एसटीएफ के लिए वह अबुझ पहले बन चुका था। दस लाख का इनाम तक घोषित था। शंकर शंभू लंगट सिंह कॉलेज में साइंस का छात्र था। टेक्निकली बेहद स्ट्रांग था। पुलिस के सबसे घातक हथियार मोबाइल सर्विलांस से वह पूरी तरह वाकिफ था, यही कारण है कि वह लंबे समय तक एसटीएफ और आईपीएस अमित कुमार के चंगुल में नहीं फंस रहा था। अमित कुमार के लिए शंकर शंभू एक चुनौती बन चुका था। शंभू एक वक्त में सिर्फ एक सिम और एक मोबाइल का उपयोग करता था। गैंग के सदस्य शंभू से तब ही बात कर सकते थे जब शंभू चाहे। हुलिया बदलने में भी वह माहिर था। मंटू की गिरफ्तारी ने आईपीएम अमित कुमार और उनकी टीम को बड़ी लीड दे रखी थी। इतना पता चल चुका था कि वह उत्तराखंड में ही है। देहरादून में गिरफ्तारी से पूर्व वह हरिद्वार में भी बिहार पुलिस की स्पेशल टीम के हाथ लगा था, लेकिन बेहद शातिराना अंदाज में वह एसटीएफ की जाल से बाहर आ गया था। देहरादून में उसकी गिरफ्तारी भी पुलिस ने उससे भी अधिक शातिराना अंदाज में की। बिहार पुलिस के इस बेहद शातिराना  अंदाज को यहां बताना उचित नहीं। पर इतना बता दूं कि आईपीएम अमित कुमार और उनकी टीम ने अप्रैल 2013 में वह कर दिखाया था, जिसके लिए बिहार पुलिस एक दशक से इंतजार कर रही थी।शंकर शंभू पुलिस की गिरफ्त में था।

दोस्तों शंकर शंभू और देवेंद्र दूबे की बात करते-करते कहानी काफी लंबी हो गई। इसलिए इसे यहीं समाप्त कर रहा हूं। इस सीरिज का एक और पार्ट लिखूंगा, जो शायद अंतिम भाग हो। इसमें बताऊंगा कि कैसे मुजफ्फपुर और तिरहूत के अंडरवर्ल्ड का और संगठित अपराध का खात्मा हुआ। 

DISCLAIMERमुजफ्फरपुर अंडरवर्ल्ड की कहानी किसी अपराधी के महिमा मंडन के लिए नहीं लिखी जा रही है। इसका उद्देश्य सिर्फ घटनाओं और तथ्यों की हकीकत के जरिए कहानी बयां करने का प्रयास है। इसमें कुछ घटनाओं को आप स्वीकार भी कर सकते हैं और अस्वीकार भी। किसी को अगर इन कहानियों से व्यक्तिगत अस्वीकृति है तो वो इस आलेख को इग्नोर करें।

Friday, September 28, 2018

मुजफ्फरपुर के अंडरवर्ल्ड की इनसाइड स्टोरी -4, एक गद्दार ने की भुटकुन शुक्ला की हत्या





बिहार विधानसभा के 1995 के चुनाव से पहले उत्तर बिहार पर राज करने वाले दो बड़े अंडरवर्ल्ड डॉन मारे जा चुके थे। छोटन शुक्ला की हत्या कर दी गई थी, जबकि अशोक्र सम्राट को नौ साल सस्पेंड रहे एक इंस्पेक्टर द्वारा किए गए रहस्यमयी पुलिस इनकाउंटर में मार दिया गया था। इन दोनों की हत्या ने एक बात तो स्पष्ट कर दी थी कि बिहार में अंडरवर्ल्ड का राजनीति में प्रवेश आसान नहीं है।

दरअसल 1995 के बिहार विधानसभा से पहले की राजनीतिक पृष्ठभुमि कुछ ऐसी थी कि तमाम बड़े नेता अपराधियों को पालते थे। चुनाव के दौरान इन अपराधियों की सहायता से बूथ कैपचरिंग करवाई जाती थी। लोगों को धमकाया जाता था। बात न मानने वालों की हत्या कर दी जाती थी। उम्मीदवारों तक को धमका कर नामांकन वापस करवा दिया जाता था। उत्तर बिहार इसके लिए सबसे अधिक बदनाम रहा था। अपराधियों के लिए भी राजनीतिक सेल्टर बेहद जरूरी बन गया था, क्योंकि इसी की छत्रछाया में उन्हें ठेकदारी मिलती थी। टेंडर मिलता था। रुपए कमाने का जरिया मिलता था। पर 1995 तक आते-आते सभी राजनीतिक समीकरण बदल चुके थे। बिहार में बहुत तेजी से अपराधी छवि वाले लोग राजनीति में आ रहे थे। उन्होंने यह सोच लिया था कि बहुत हुआ दूसरे के लिए वोट की व्यवस्था करना। जब दूसरे के लिए धन और बल से वोट का जुगाड़ किया जा सकता है तो खुद के लिए क्यों नहीं। अंडरवर्ल्ड की यही बात बड़े राजनेताओं को रास नहीं आ रही थी। यही वो दौर था जब अशोक सम्राट, रामा सिंह, छोटन शुक्ला, तसलिमुद्दीन, देवेंद्र दुबे, सुनील पांडे, सतीश पांडे, अखिलेश सिंह, अवधेश मंडल, अशोक महतो, शहाबुद्दीन, सूरजभान सिंह, दिलीप सिंह, सुरेन्द्र यादव, राजन तिवारी, सुनील पांडे, कौशल यादव, बबलू देव, धूमल सिंह, अखिलेश सिंह, दिलीप यादव जैसे बाहूबली लोग नेता बनने की दौड़ में शामिल हो गए थे। इनमें से अधिकतर को जनता का भरपूर समर्थन हासिल था। जातिगत राजनीति ने इन्हें विधानसभा तक पहुंचा दिया और बिहार की राजनीति की पूरी तस्वीर बदल गई। इन सबके सुपर बॉस बने थे लालू प्रसाद यादव और उनका सगा साला साधु यादव। यहीं से वह दौर शुरू हुआ जिसे मीडिया ने जंगलराज का तमगा दिया।

लौटते हैं मुजफ्फरपुर की कहानी की तरफ...
दोनों बड़े डॉन की हत्या के बाद मुजफ्फरपुर की फिजाओं में एक अनजाना सा भय समा गया था। डीएम की हत्या के बाद आनंद मोहन और लवली आनंद सहित शुक्ला ब्रदर्श के भी दिन बदल गए थे। पर इन सबके बीच सबसे अधिक आक्रमक हुआ था छोटन शुक्ला का छोटा भाई भुटकुन शुक्ला। बडेÞ भाई की हत्या का बदला लेने की आग में उसने अपने सारे घोड़े खोल दिए थे। यही वो दौर था जब उत्तरप्रदेश का सबसे बड़े डॉन श्रीप्रकाश शुक्ला की तिरहूत में इंट्री हो चुकी थी। रेलवे के ठेकों पर उसका वर्चस्व था, जबकि पीडब्ल्यू के ठेकों पर भुटकुन शुक्ला और उसके साथियों का। श्री प्रकाश शुक्ला भुटकुन शुक्ला के जरिए हाजीपुर और सोनपुर के रेलवे ठेकों पर वर्चस्व चाहता था।

भुटकुन का भय बृजबिहारी प्रसाद को भी था। उसने अपना सुरक्षा दायरा जबर्दस्त तरीके से बढ़ा दिया था। बिहार पुलिस के अलावा उसने अपने सुरक्षा घेरे में प्राइवेट गार्ड्स या कहें कि अत्याधुनिक हथियार से लैस गुंडों की फौज खड़ी कर दी थी। भुटकुन शुक्ला के भय से उस वक्त पूरा शहर कांपता था। मैंने पहले कि पोस्ट में बताया था कि भुटकुन शुक्ला के बारे में किस तरह की किंवदंतियां मुजफ्फपुर की फिजाओं में तैरती थी। इसमें कितनी सत्यता थी और कितना झूठ, इसका दावा तो कोई कर नहीं सकता, लेकिन इतना तय है कि बिना आग के धुंआ नहीं उठता है।

बड़े भाई की हत्या के बाद भुटकुन शुक्ला का खुला ऐलान था खून के बदले खून। उसका एक मात्र मकसद बन गया था बृजबिहारी प्रसाद की हत्या। कुछ महीनों बाद ही भुटकुन शुक्ला ने बदला लिया। बृजबिहारी तो हाथ नहीं आया, लेकिन भुटकुन के हाथ लगा बृजबिहारी प्रसाद का सबसे खास गुर्गा ओंकार सिंह। भुटकुन शुक्ला के लोगों की सटीक मुखबिरी काम आई। मुजफ्फरपुर के जीरो माइल पर खून की होली खेलने की प्लानिंग की गई। सुबह सबेरे चारों तरफ से घेरकर शॉर्प शूटर ओंकार सिंह सहित सहित सात लोगों की हत्या कर दी गई। ये सभी बृजबिहारी के सबसे खास गुर्गों में से थे। जीरो माइल से ही सीतामढ़ी और दरभंगा जाने का रास्ता है। यहीं गोलंबर के पास चारों तरफ से घेर कर एके-47 की नली खोल दी गई। बताते हैं कि उस वक्त एक नहीं, दो नहीं, बल्कि एक दर्जन से अधिक एके-47 से करीब पांच से छह सौ राउंड फायर झोंक दिए गए थे। इस हत्या के बाद भुटकुन शुक्ला ने स्पष्ट कर दिया था कि बृजबिहारी प्रसाद को भी छोड़ा नहीं जाएगा।

जीरो माइल पर अपने सात खास लोगों की हत्या से बृजबिहारी प्रसाद भी सकते में आ गया। ओंकार सिंह उस वक्त मुजफ्फरपुर के अंडरवर्ल्ड का बड़ा नाम बनता जा रहा था। मुजफ्फरपुर के आउट साइड एरिया में जितने भी ठेके थे उसमें ओंकार सिंह का सीधा हस्तक्षेप था। बृजबिहारी प्रसाद का खास होने का भी उसे फायदा मिला था। तिरहूत के अंडरवर्ल्ड में इस बात के पुख्ता प्रमाण थे कि संजय सिनेमा ओवरब्रीज के पास बृजबिहारी गली के करीब छोटन शुक्ला की दिसंबर 1994 में एके-47 से हत्या करने वालों में शार्प शूटर ओंकार सिंह और उसके ही लोग शामिल थे। भुटकुन शुक्ला ने आेंकार सिंह को उसी की स्टाइल में चारों तरफ से घेरकर गोलियों की बौछार कर अपने भाई की हत्या बदला ले लिया था। पर अब भी उसका इंतकाम बांकि था। यह इंतकाम था बृजबिहारी प्रसाद से।

अंडरवर्ल्ड में गद्दारी की पहली स्क्रिप्ट
शॉर्प शूटर ओंकार सिंह की हत्या के बाद बृजबिहारी प्रसाद को अपनी हत्या का भी भय समा गया था। हर तरीके से खुद को सुरक्षित करने के बावजूद भुटकुन शुक्ला के गुस्से से वह वाकिफ था। अंडरवर्ल्ड के सूत्र बताते हैं कि ओंकार सिंह की हत्या के बाद बृजबिहारी प्रसाद ने अंदरुनी तौर पर भुटकुन शुक्ला से समझौते का प्रयास भी किया था, लेकिन भुटकुन ने किसी भी कीमत पर समझौता स्वीकार नहीं किया। अपने बड़े भाई छोटन शुक्ला से भुटकुन शुक्ला का प्यार जग जाहिर था। वह अपने भाई की हत्या को कभी भुला नहीं पा रहा था।

ऐसे में मुजफ्फरपुर या यूं कहें कि बिहार के अंडरवर्ल्ड की अब तक की सबसे बड़ी साजिश को अंजाम दिया गया। अंडरवर्ल्ड में गद्दारी की पहली स्क्रिप्ट लिखी गई। बताते हैं कि इस स्क्रिप्ट को लिखा बेहद शातिर दिमाग वाले बृजबिहारी प्रसाद ने। साजिश थी भुटकुन शुक्ला को उसके ही घर में अपनों के बीच ही मार देने की। बिहार के अंडरवर्ल्ड के इतिहास में इस वक्त तक जातिगत भावना उछाल मारने लगी थी। पर अब तक किसी ने यह नहीं सोचा था कोई अपना ही खास अपना दुश्मन बन जाएगा।

कहा जाता है कि बृजबिहारी प्रसाद ने भुटकुन शुक्ला को मारने की स्क्रिप्ट काफी पहले लिख दी थी। इसके लिए उसने दीपक सिंह नाम के युवा शूटर को भुटकुन शुक्ला के गैंग में शामिल करवा दिया था। दीपक सिंह चंद समय में ही भुटकुन शुक्ला का विश्वासपात्र बन गया था। वह भुटकुन शुक्ला के बॉडीगॉर्ड के रूप में हमेशा साये की तरह उसके साथ रहता था। भुटकुन शुक्ला को मारने के मौके तलाशे जाने लगे, लेकिन भुटकुन को मारना इतना आसान काम भी नहीं था। अपनी कमर में हमेशा आॅटोमेटिक जर्मनी मेड रिवॉल्वर रखने वाला भुटकुन शुक्ला मुजफ्फरपुर के अंडरवर्ल्ड का सबसे शातिर खिलाड़ी था। मूंह से बोलने से ज्यादा उसकी रिवॉल्वर बोलती थी। ऐसे में उस पर वार करना खुद को मौत को दावत देने के समान था।

घर में ही मारी गोली
शुक्ला ब्रदर्श का पुस्तैनी घर वैशाली के लालगंज के खंजाहाचक गांव में है। इस गांव की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि यहां आना आसान है, लेकिन निकलना मुश्किल। यह गांव ही भुटकुन शुक्ला का सबसे सुरक्षित ठिकाना भी था। यह गांव एक किले के समान था, जहां सिर्फ भुटकुन शुक्ला की मर्जी चलती थी। उसके आदेश के बिना वहां परिंदा भी पर नहीं मार सकता था। काफी हद तक गांव की भौगोलिक स्थित ने भुटकुन शुक्ला को लंबे समय तक पुलिस की पहुंच से दूर रखा था।

दरअसल गांव के ठीक बगल से नारायणी नदी बहती है। नारयणी नदी को को ही गंडकी या गंडक नदी भी कहते हैं। इस नदी को पार करते ही आप दूसरे जिले की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं। नदी के उस पास छपरा जिले की सीमा लगती है। सारण प्रखंड का यह जिला अपने आप में अपराधियों का सबसे बड़ा गढ रहा था, क्योंकि इसके बाद आप सीधे उत्तरप्रदेश की सीमा में प्रवेश कर सकते हैं। गांव में कभी पुलिस ने दबिश भी दी तो आसानी से भुटकुन शुक्ला और उसके साथी नदी पार कर दूसरे जिले की सीमा में प्रवेश कर जाते थे। पर यही भौगोलिक सीमा भुटकुन शुक्ला की मौत की जिम्मेदार बनी।

भुटकुन शुक्ला के साथ रहते दीपक सिंह को गांव से निकलने के सभी चोर रास्तों का पता था। उसे यह भी पता था कि सुबह के समय भुटकुन शुक्ला अपने हथियारों को साफ करता है और उसकी पूजा करता है। चंद दिनों पहले ही भुटकुन शुक्ला ने अपने बड़े बेटा का जन्मदिन मनाया था। इसके बाद वह दोबारा अपने गांव पहुंचा था। साल 1997 के शायद अगस्त का महीना था। नदी में स्रान करने के बाद भुटकुन शुक्ला अपने घर में हथियारों को साफ कर रहा था। जैसे ही उसने अपनी आॅटोमेटिक रिवॉल्वर साफ करने के लिए खोली दीपक सिंह को मौका मिल गया। वह उस वक्त वहीं था। वह अच्छी तरह जानता था कि एक बार आॅटोमेटिक रिवॉल्वर के पार्ट खोलने के बाद तुरंत उसे लोड करना आसान नहीं। इसी मौके का फायदा उठाकर दीपक सिंह ने अपनी एके-47 का मूंह भुटकुन शुक्ला की तरफ खोल दिया। मौके पर ही भुटकुन शुक्ला की मौत हो गई। जिस सुरक्षित रास्ते का उपयोग कभी भुटकुन शुक्ला करता था, उसी रास्ते से दीपक सिंह फरार हो गया। गांव में कोहराम मच गया। जबतक कोई कुछ समझता अंडरवर्ल्ड का एक बड़ा डॉन मारा जा चुका था।

यह बिहार के अंडरवर्ल्ड में गद्दारी की शायद पहली और सबसे घिनौनी घटना थी। जो अंडरवर्ल्ड विश्वास की बुनियाद पर टिका था, उसमें बड़ी दरार पड़ गई। बृजबिहारी प्रसाद और उसके समर्थकों ने खूब जश्न मनाया। यहां यह बात बताना जरूरी है कि भुटकुन शुक्ला हत्याकांड के बाद यह बात जोर शोर से फैलाई गई कि हत्यारा दीपक सिंह जाति से राजपूत था। इस बात का विश्लेषण करेंगे तो पाएंगे कि यह बात इसलिए फैलाई गई क्योंकि इसका राजनीतिक फायदा मिल सके। क्योंकि उस वक्त तक राजपूत और भुमिहार जातिगत रूप से एकजुट थे। उस वक्त अगड़ी और पिछड़ी जाति की राजनीति चरम पर थी। ऐसे में भूमिहार और राजपूत में एक दूसरे के प्रति वैमनस्य फैलाने का इससे बड़ा मौका नहीं मिल सकता था। राजपूत जाति के ही ओंकार सिंह को भुटकुन शुक्ला ने मौत की नींद सुलाई थी।

अंडरवर्ल्ड में गद्दारी का यह खेल आगे भी चला। इसी तरह की गद्दारी करवाकर कैसे एक साल के अंदर बाहुबली नेता बृजबिहारी प्रसाद को दो दर्जन कमांडो के बीच में एक-47 से छलनी कर दिया, यह अगली और इस सीरिज की अंतिम कड़ी में।

आपको यह सीरिज कैसी लग रही है। कमेंट बॉक्स में जरूर बताएं। 

DISCLAIMER
मुजफ्फरपुर अंडरवर्ल्ड की कहानी किसी अपराधी के महिमा मंडन के लिए नहीं लिखी जा रही है। इसका उद्देश्य सिर्फ घटनाओं और तथ्यों की हकीकत के जरिए कहानी बयां करने का प्रयास है। इसमें कुछ घटनाओं को आप स्वीकार भी कर सकते हैं और अस्वीकार भी। किसी को अगर इन कहानियों से व्यक्तिगत अस्वीकृति है तो वो इस आलेख को इग्नोर करें।

Thursday, September 27, 2018

मुजफ्फरपुर अंडरवर्ल्ड की इनसाइड स्टोरी-3

डॉन अशोक सम्राट की तस्वीर
छोटन शुक्ला की हत्या ने पूरे बिहार के अंडरवर्ल्ड में उथल-पुथल मचा दी थी। यह वह दौर था जब पूरे बिहार का अंडरवर्ल्ड बूथ कैपचरिंग से आगे बढ़कर खुद खादी वस्त्र धारण करने को बेताब था। मुंगेर, पटना, सीवान, छपरा, मधेपुरा, हर तरफ बिहार विधानसभा के 1995 के चुनाव में अंडरवर्ल्ड का कोई न कोई बड़ा नाम चुनाव लड़ रहा था। पूरे तिरहुत प्रमंडल में छोटल शुक्ला ने अपनी राजनीतिक पकड़ के जरिए बड़ी चुनौती दे दी थी। छोटन शुक्ला की हत्या ने बिहार को एक और राजनीतिक मुद्दा दे दिया था। यह मुद्दा था भूमिहार-राजपूत का संगठित वर्चस्व वर्सेज पिछड़े और दलितों की राजनीति।
छोटन शुक्ला की शव यात्रा में गोपालगंज के डीएम की हत्या ने बैठे बिठाए एक और मुद्दा भी दे दिया था। गोपालगंज के डीएम दलित थे। न्यायालय के पन्नों में दर्ज कई सौ पेज की रिपोर्ट में काफी विस्तार से इस हत्याकांड के बारे में बताया गया है। इन पन्नों में दर्ज तमाम गवाहों की गवाही कहती है कि किस तरह नया टोला स्थित छोटन शुक्ला के घर से निकली शव यात्रा जब भगवानपुर पहुंची तो वहां क्या हुआ था। भगवानपुर में करीब पांच हजार लोगों की भीड़ के बीच में आनंद मोहन ने एक आक्रोशित भाषण दिया था। जिसके कुछ अंश भी इन पन्नों में दर्ज हैं। आनंद मोहन ने अपने भाषण में छोटन शुक्ला की हत्या में शामिल लोगों को कुत्तों की मौत मारने और बिहार में खून की होली खेलने जैसी भड़काऊ बातें भी कही थी। भगवानपुर में भाषणबाजी के बाद शवयात्रा खबड़ा और रामदयालु होते हुए छोटन शुक्ला के पैतृक गांव लालगंज जानी थी। खबड़ा मूलरूप से भुमिहार बहुल क्षेत्र है। यहां जबर्दस्त भीड़ थी। लोग आक्रोशित थे। इसी बीच हाजीपुर से मीटिंग समाप्त कर गोपालगंज लौट रहे डीएम जी कृष्णैया भीड़ में फंस गए। सरकार और प्रशासन के खिलाफ आक्रोशित भीड़ में से किसी ने रिवाल्वर से उनपर फायर झोंक दिया। बहुत नजदीक से उन्हें गोली मार दी गई। सैकड़ों पुलिसकर्मी भी शवयात्रा के शांतिपूर्वक निकालने के लिए लगाए गए थे। पर पुलिसकर्मियों की मौजूदगी के बीच डीएम को गोली मार दी गई। गोली लगने के बाद वहां अफरातफरी मच गई। पुलिस ने भी जमकर लाठीचार्ज किया। इस लाठीचार्ज में सैकड़ों लोग घायल हुए। डीएम को घायलावस्था में एसकेएमसीएच ले जाया गया, जहां उन्हें मृत घोषित कर दिया गया। हाजीपुर पहुंचते-पहुंचते आनंद मोहन और लवली आनंद गिरफ्तार कर लिए गए। उधर लालगंज के पैतृक गांव में छोटन शुक्ला का दाह संस्कार कर दिया गया। पर डीएम की हत्या ने बिहार की पूरी राजनीति में भूचाल ला दिया। एक दलित अधिकारी को सवर्णों की भीड़ के बीच हत्या ने बिहार की राजनीति को नया जातिगत मुद्दा दे जो दे दिया था।
अशोक सम्राट का इनकाउंटर
डॉन अशोक सम्राट की तस्वीर

अशोक सम्राट ने भले ही मुजफ्फरपुर से अपना किनारा कर लिया था, लेकिन उसके प्रभाव से सभी वाकिफ थे। बताते हैं कि अशोक सम्राट के मुजफ्फरपुर से दूर जाने के पीछे उसका व्यापारिक दीमाग था। उन दिनों बरौनी और हाजीपुर रेल डिविजन में रेलवे का काम जोरों पर था। यहां एकाधिकार अशोक सम्राट ने जमाया। रेलवे के सभी ठेकों और निलामी में उसी की तूती बोलती थी। जिस सूरभान सिंह के नाम से बिहार कांपता था, उसी सूरजभान सिंह को अशोक सम्राट ने अपने जीते जी कभी मोकामा से बाहर नहीं निकलने दिया। अशोक सम्राट का असली नाम अशोक राय था। वह भी बेगुसराय की क्रांतिकारी धरती की पैदाइश था। कम्यूनिस्ट विचारधारा की जननी बेगुसराय के लोगों में सम्राट लगाने का प्रचलन था। इसी क्रम में अशोक राय से वह अशोक सम्राट बन गया था। अशोक सम्राट के इनकाउंटर की कहानी भी बेहद रोचक है।
डॉन अशोक सम्राट की तस्वीर

पूरी फिल्मी है इनकाउंटर की कहानी
उन दिनों अशोक सम्राट का पूरा ध्यान हाजीपुर रेलवे के ठेकों की तरफ था। इसी दौरान वैशाली थाने में पोस्टिंग हुई इंस्पेक्टर शशि भूषण शर्मा की। उस समय शशि भूषण शर्मा की पहचान एक तेज तर्रार पुलिस इंस्पेक्टर के रूप में थी। हाजीपुर और आसपास के क्षेत्रों में क्राइम का ग्राफ लगातार बढ़ रहा था। शशि भूषण शर्मा ने आते ही सबसे पहले अपने इंफॉर्मर सोर्स को मजबूत किया। इसी क्रम में सबसे बड़ी सफलता उन्हें हाथ लगी, अशोक सम्राट को लेकर। पुलिस डायरी में दर्ज इतिहास के अनुसार शशि भूषण शर्मा ने एक करीबी इनकाउंटर में अशोक सम्राट को मार गिराया। शशि भूषण शर्मा रातों रात हीरो बन चुके थे। इस सफलता पर उन्हें गैलेंटरी अवॉर्ड भी मिला। पर जिस अशोक सम्राट से पूरा बिहार कांपता था उसे एक मामूली इंस्पेक्टर ने कैसे मार गिराया यह किसी को समझ नहीं आ रहा था।
अंडरवर्ल्ड से जो अंदरुनी कहानी निकलकर आई वो चौंकाने वाली थी। दरअसल अशोक सम्राट ने भी खादी पहनने की चाहत पाल ली थी। आनंद मोहन की पार्टी से उसका टिकट भी पक्का हो गया था। पर बिहार में जातीवाद के राजनीतिक कॉकटेल ने अशोक सम्राट को हर तरफ से घेर लिया था। अशोक सम्राट के ही एक नजदीकी ने मुखबिरी की थी। पुलिस डायरी के अनुसार अशोक सम्राट के इनकाउंटर बाद उसके पास से पुलिस ने एके-47 बरामद किया था। इसलिए यह बात किसी को पच नहीं रही थी कि थ्री नॉट थ्री की राइफल और रिवॉल्वर के सहारे इंस्पेक्टर शशि भूषण शर्मा और उसकी टीम ने अशोक सम्राट का इनकाउंटर कैसे कर दिया। इतनी आसानी से कोई कैसे अशोक सम्राट तक पहुंच सका था। अंडरवर्ल्ड की बातों पर विश्वास करें तो किसी नजदीकी ने सम्राट को नशीला पदार्थ मिलाकर खिला दिया था और पैसों के लालच में मुखबिरी कर दी थी।
पहली बार अशोक सम्राट ने ही बिहार में एके-47 से हत्या का सिलसिला शुरू किया था और उसी अशोक सम्राट के पास से पहली बार बिहार पुलिस ने एके-47 भी बरामद किया था। बिहार पुलिस के पास यह सूचना तो पहले से ही थी कि बिहार के अपराधियों के पास पुरुलिया में गिरे अत्याधुनिक हथियारों के साथ मुंगेर में बनने वाले हथियार मौजूद हैं। पर यह पहली बार था कि किसी अपराधी के पास एके-47 जैसे हथियार बरामद हुए थे।
इंस्पेक्टर शाशि भूषण शर्मा रातों रात हीरो बन गए। उन्हें गैलेंटरी अवॉर्ड से नवाजा गया। अशोक सम्राट इनकाउंटर के बाद उन्हें आउट आॅफ टर्म प्रमोशन मिला। शर्मा को प्रेसिडेंट मेडल तक से नवाजा गया। वो डीएसपी बना दिए गए। इसके बाद उनके नाम के साथ कई और इनकाउंटर जुड़े और बिहार पुलिस के इनकाउंटर स्पेशलिस्ट बन गए। हालांकि अशोक सम्राट के इनकाउंटर से पहले शर्मा नौ साल तक सस्पेंड रहे थे। शशि भूषण शर्मा ही वो शख्स थे जिनके ऊपर फिल्म गंगाजल की स्क्रीप्ट लिखी गई थी।
आंखफोड़वा कांड 
शशि भूषण शर्मा साल 1979-80 में भागलपुर अंतर्गत नवगछिया थाने में पोस्टेड थे। सबसे पहले उनके ही थाने से 1979 में आंखफोड़वा कांड की शुरुआत हुई थी। उस वक्त के एसपी थे भारतीय पुलिस सेवा के 1973 बैच के अधिकारी बीडी राम। पूरा नाम था विष्णु दयाल राम। यही बीडी राम मुजफ्फरपुर के भी एसपी रहे। आंखफोड़वा कांड एक तथाकथित थर्ड डिग्री पुलिसिया कार्रवाई थी। देखते ही देखते भागलपुर को अपराध मुक्त बनाने के लिए करीब 34 अपराधियों की आंखों में तेजाब डाल कर उन्हें अंधा बना दिया गया। करीब एक साल तक भागलपुर में यह तांडव चलता रहा। मामला राजधानी पटना तक पहुंचा, लेकिन पुलिसकर्मियों पर असर नहीं हुआ। पर जल्द ही यह मामला मीडिया के जरिए दिल्ली तक पहुंच गया। भागलपुर के एक स्थानीय वकील ने दिलेरी दिखाते हुए आंखफोड़वा कांड के 11 पीड़ितों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाली थी। सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में जांच कमेटी का गठन हुआ। जांच कमेटी को पुलिस की दरिंदगी के कई सबूत मिले। मामला चलता रहा। इसकी कहानी काफी लंबी है। पर इतना बता दूं कि कोर्ट के आदेश पर कई पुलिसकर्मी सस्पेंड हुए। बड़े अधिकारियों का तबादला हुआ। पुलिस वालों के समर्थन में पूरे भागलपुर जिले में खूब प्रदर्शन हुआ। सस्पेंड हुए पुलिसकर्मियों में एक बड़ा नाम शशि भूषण शर्मा का भी था। करीब नौ साल सस्पेंड होने के बाद शर्मा को दोबारा पोस्टिंग मिली। इसी पोस्टिंग के बाद शशि भूषण शर्मा ने बिहार का अब तक का सबसे बड़ा इनकाउंटर कर डाला। उधर एसपी बीडी राम आंखफोड़वा एसपी के नाम से चर्चित हुए। जहां भी उनकी पोस्टिंग हुई अपराधियों में खौफ पैदा हुआ। आंखफोड़वा कांड की सीबीआई इंक्वायरी में बीडी राम कभी चार्जशीटेड नहीं हुए। हालांकि कई बार उनसे पूछताछ जरूर हुई।
शशि भूषण शर्मा की जिंदगी एक रहस्य से भरी रही। 9 दिसंबर 2010 को शशि भूषण शर्मा को उस वक्त गोली मार दी गई जब वो ड्यूटी से घर लौट रहे थे। उस वक्त शशि भूषण शर्मा पटना पुलिस टीम के हिस्सा थे और ट्रैफिक डीएसपी के पद पर थे। शशि भूषण शर्मा पर हमला पटना के सबसे पॉश एरिया छज्जूबाग में हुआ था। इस हमले में उन्हें दो से तीन गोलियां लगी थी। पहले उन्हें पटना मेडिकल कॉलेज में भर्ती करवाया गया फिर दिल्ली के वेदांता में उनका लंबे समय तक इलाज चला। पुलिस ने कई बार उनसे पूछा कि हमला करने वाले कौन थे, पर शर्मा हर बार अनजान बने रहे। पुलिस को शक था कि हमला करने वालों को शर्मा जानते थे, क्योंकि उन पर बेहद करीब से हमला हुआ था। शर्मा इस वक्त पुलिस सेवा से सेवानिवृत हो चुके हैं।  बताते चलूं कि शशि भूषण शर्मा छोटन शुक्ला हत्याकांड के तथाकथित मुख्य साजिशकर्ता बृजबिहारी प्रसाद हत्याकांड के इनवेस्टिगेशन आॅफिसर भी रहे थे। मेरी दिली इच्छा है कि जब मैं कभी बिहार में रहूं तो शशि भूषण शर्मा का साक्षात्कार करूं और वो सबकी सत्यता जानने की कोशिश करूं जो किस्से कहानियों में है। खासकर अशोक सम्राट के इनकाउंटर की अंदरूनी कहानी।

DISCLAIMER

मुजफ्फरपुर अंडरवर्ल्ड की कहानी किसी अपराधी के महिमा मंडन के लिए नहीं लिखी जा रही है। इसका उद्देश्य सिर्फ घटनाओं और तथ्यों की हकीकत के जरिए कहानी बयां करने का प्रयास है। इसमें कुछ घटनाओं को आप स्वीकार भी कर सकते हैं और अस्वीकार भी। किसी को अगर इन कहानियों से व्यक्तिगत अस्वीकृति है तो वो इस आलेख को इग्नोर करें। यहां प्रकाशित की गई अंडरवर्ल्ड डॉन अशोक सम्राट की तस्वीर मेरे ब्लॉग की संपत्ति है। इन तस्वीरों के प्रकाशन से पूर्व मेरी अनुमति जरूर लें। 

Wednesday, September 26, 2018

मुजफ्फरपुर अंडरवर्ल्ड की इनसाइड स्टोरी-2, कॉलेज कैंपस में गब्बर सिंह की हत्या से शुरू हुआ हत्याओं का नया सिलसिला



90 के दशक में मिनी नरेश और चंदेश्वर सिंह की हत्या ने मुजफ्फरपुर में एक अलग तरह का माहौल पैदा कर दिया था। लोग हमेशा सशंकित रहते थे कि कब किसकी लाश गिर जाए। सबसे ज्यादा दहशत का माहौल लंगट सिंह कॉलेज और बिहार यूनिवर्सिटी कैंपस में रहता था। किसी के साथ हाथापाई की मामूली खबर उड़ते ही धड़ाधड़ क्लासरूम में बंद हो जाते थे। कक्षाएं स्वत: स्थगित हो जाती थी। वर्चस्व की जंग अब जाति से ऊपर उठकर पूरी तरह क्षेत्रवाद की जद में आ चुकी थी। भूमिहार वर्सेज भूमिहार की जंग शुरू हो गई थी।

एक तरफ मुंगेर अंचल से आए भूमिहारों का ग्रुप था, जिसमें बेगुसराय के भूमिहार सबसे अधिक दबंग थे। वीरेंद्र सिंह, अशोक सम्राट से लेकर मिनी नरेश तक सभी इसी अंचल से आए दबंग थे। दूसरी तरफ तिरहूत अंचल के भूमिहार थे, जिसका प्रतिनिधित्व रघुनाथ पांडे, छोटल शुक्ला, भुटकुन शुक्ला जैसे दबंग कर रहे थे। भूमिहारों की इस आपसी लड़ाई का सबसे बड़ा फायदा उठाया बृजबिहारी प्रसाद ने। बृजबिहारी भी कैंपस की ही पैदाइश थे, लेकिन यह कैंपस लंगट सिंह कॉलज और बिहार यूनिवर्सिटी का कैंपस नहीं था। वह कैंपस था मुजफ्फरपुर इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी यानि एमआईटी का। दोनों कैंपस शहर के दो छोर पर था।

बिहार यूनिवर्सिटी कैंपस में बर्चस्व की जंग में भूमिहार आपस में लड़ रहे थे, वहीं शहर के दूसरी छोर पर बसे एमआईटी कैंपस से निकलकर बृजबिहारी ने पूरे बैरिया क्षेत्र में बेहद कम समय में अपनी दबंगई कायम कर ली थी। भूमिहारों की आपसी लड़ाई का सबसे अधिक फायदा बृज बिहारी प्रसाद ने ही उठाया। वह दलितों, पिछड़ों और बनियों का सबसे बड़ा मसीहा बन कर उभरा। तमाम पिछड़ी जातियों को उसने संगठित कर अपना साम्राज्य खड़ा कर लिया। बता दूं कि यही वो समय था जब बिहार की राजनीति में लालू यादव भी अपनी चरम पर थे।

1991 : गब्बर सिंह की हत्याउधर, इस बीच यूनिवर्सिटी कैंपस में लाशों का गिरना जारी रहा। मिनी नरेश की हत्या के बाद यूनिवर्सिटी और लंगट सिंह कॉलेज कैंपस में नया नाम उभरा गब्बर सिंह का। 1991 में हिन्दी फिल्म आई थी 100 डेज। इसी फिल्म का एक गाना था..गब्बर सिंह यह कहकर गया जो डर गया वो मर गया। कैंपस में इस गाने ने गब्बर सिंह को चमकाने में और मदद की। मैं उस वक्त बिहार यूनिवर्सिटी कैंपस में संचालित बिहार यूनिवर्सिटी कैंपस स्कूल का छात्र था। यह स्कूल बिहार यूनिवर्सिटी के ही रिटायर्ड शिक्षकों द्वारा संचालित किया गया था। मेरे पिताजी जी भी प्रोफेसर थे, इसलिए इसी स्कूल में पढ़ाई चल रही थी। इस स्कूल में ज्यादातर शिक्षकों के ही बच्चे पढ़ते थे। लंगट सिंह कॉलेज के आर्ट्स ब्लॉक के ठीक बगल में यह स्कूल था। इसलिए कैंपस में होती गतिविधियों के हम गाहे बगाहे साक्षी बनते थे। गब्बर सिंह का नाम पहली बार वहीं सुना था। उसे कभी देखा नहीं था। पर उसके नाम की दहशत पूरे कैंपस में थी। शयद वह फरवरी या मार्च के महीने की बात थी। लंगट सिंह कॉलेज का कैंपस बम के धमाकों से गूंज उठा। ताबर-तोड़ बम मारे जा रहे थे। स्कूल बिल्डिंग से बाहर गुनगुनी धूप में हमारी कक्षाएं लगी हुई थी। चारों तरफ अफरातफरी मच गई। तत्काल स्कूल की छुट्टी कर दी गई। मेरे घर जाने का रास्ता लंगट सिंह कॉलेज के मुख्य बिल्डिंग के सामने से ही था। कॉलेज ग्राउंड पार कर हम अपने घर जाया करते थे। बम धमाकों के करीब दस मिनट बाद जैसे ही हम मुख्य बिल्डिंग की तरफ से घर की ओर भागे, ठीक गांधी पार्क के सामने वाले चबूतरे पर चारों तरफ खून ही खून दिखा। हर तरफ अफरा तफरी मची थी। वहीं पता चला कि चबूतरे पर जिसकी लाश है वही गब्बर सिंह था। पहली और आखिरी बार गब्बर सिंह को वहीं देखा।
बगल में बाल्टी में रखा था बमसबसे आश्चर्य इस बात का था कि गब्बर सिंह को भी पता था कि आज उस पर हमला होने वाला है। वह भी पूरी तैयारी के साथ कैंपस में था। खुले कैंपस में चबूतरे पर बैठकर वह धूप सेंक रहा था। जहां उसकी हत्या हुई ठीक वहीं पर बाल्टी में उसने बम रखा हुआ था। मेरा अपना मानना है कि गब्बर सिंह के भी दिलो दिमाग पर भी वही गाना छाया हुआ था..गब्बर सिंह यह कहकर गया जो डर गया वो मर गया। इसीलिए वह बेखौफ अंदाज में अपने दुश्मनों को चुनौती देते हुए वहां खुले चबूतरे पर बैठा था। पर अपराधियों ने गांधी उद्यान में पीछे से उसपर हमला किया। एक के बाद एक कई बम दागे गए और गब्बर सिंह के आतंक का खात्मा हुआ। इसके बाद तो जैसे कैंपस में हत्याओं का दौर शुरू हो गया। चुन-चुनकर एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वियों की हत्या शुरू हुई। कई-कई दिनों तक कॉलेज और यूनिवर्सिटी बंद रहे। कॉलेज और यूनिवर्सिटी का हॉस्टल अपराधियों की पनाहगार बनी। हाल यह था कि पुलिस भी हॉस्टल के अंदर जाने से घबराती थी। इन दबंग छात्रों को अशोक सम्राट, छोटन शुक्ला, रघुनाथ पांडे, हेमंत शाही जैसे लोगों का अघोषित संरक्षण भी मिला था। मानस चौधरी और बबलू त्रिवेदी का उत्थान इसी दौर में हुआ था।

प्रोफेसर बागेश्वरी बाबू की हत्या ने चौंकाया
यही वह दौर था जब पूरे बिहार में शिक्षकों पर भी हमले शुरू हुए। ट्यूशन और कोचिंग करने वाले प्रोफेसरों से रंगदारी वसूली जाने लगी। सबसे सम्मानजनक पेशा समझा जाने वाले प्रोफेसर्स डर के साए में रहने लगे। प्रोफेसर्स से रंगदारी मानने की घटना ने पूरे बिहार को हिला कर रख दिया। इसी बीच लंगट सिंह कॉलेज कैंपस में वरिष्ठ प्रोफेसर बागेश्वरी बाबू की हत्या हो गई। कॉलेज हॉस्टल में अवैध रूप से रह रहे आउट साइडर्स के खिलाफ उनकी सख्ती और विरोध छात्रों को रास नहीं आई। मनोविज्ञान के प्रोफेसर वागेश्वरी प्रसाद सिंह दबंग छात्रों का मनोविज्ञान पढ़ नहीं सके। वे लंगट सिंह कॉलेज के ड्यूक हॉस्टल के अधीक्षक भी थे। उन्होंने हॉस्टल को अपराध मुक्त करने की ठानी और कड़ी कार्रवाई की। पुलिस की भी उन्होंने मदद ली। पर जानबूझकर या फिर बाहर बैठे आकाओं के इशारे पर मुजफ्फरपुर पुलिस ने कभी हॉस्टल के अंदर कदम नहीं रखा। प्रो. बागेश्वरी प्रसाद अकेले संघर्ष करते रहे। पर दबंग छात्रों ने उन्हें ही रास्ते से हटा दिया। साल 1994 में कार्तिक पूर्णिमा के दिन कॉलेज कैंपस में मॉर्निंग वॉक कर रहे बागेश्वरी बाबू को गोली मार दी गई। इस हत्या ने जहां एक तरफ कैंपस में अपराधियों के हौसले बुलंद कर दिए, वहीं दूसरी तरफ शिक्षकों में भय का माहौल पैदा हो गया। जो चंद शिक्षक कैंपस को अपराध मुक्त बनाने का संकल्प लेकर खड़े थे, उन्होंने चुप रहने में ही भलाई समझी। यह कैंपस के इतिहास की पहली और आखिरी घटना थी जिसमें किसी शिक्षक की हत्या कैंपस के अंदर की गई। इस हत्या का परिणाम यह हुआ कि बागेश्वरी बाबू शहीद माने गए और आम छात्रों में दबंगों के खिलाफ आक्रोश पैदा हुआ। एक निर्दोष शिक्षक की हत्या ने आम छात्रों का एक तरह से कहें तो हृदय परिवर्तन किया और कैंपस की गुंडगार्दी अपने आप कम होती गई। पुलिस की सख्ती भी बढाई गई। कैंपस में पुलिस चौकी खुल गई। दबंग छात्र कैंपस के बाहर से अपनी गतिविधियों का संचालन करने लगे। हालांकि मानस चौधरी और बबलू त्रिवेदी गैंग के बीच यदा कदा झड़प की खबरें आती रही। इसी दौर में लंगट सिंह कॉलेज के दो हॉस्टल बंद कर दिए गए। लंगट हॉस्टल और न्यू हॉस्टल को सीआरपीएफ के हवाले कर दिया गया। यहां सीआरपीएफ कैंप बना दिया गया। सिर्फ ड्यूक हॉस्टल में ही छात्रों के लिए जगह उपलब्ध थी। सीआरपीएफ कंपनी के कैंपस में आ जाने के बाद निश्चित तौर पर कैंपस में संगठित अपराधियों के गैंग पर लगाम लगी।

कैंपस के बार चल रही थी आदवत
कैंपस में भले ही शांति थी, लेकिन कैंपस के बाहर वर्चस्व की जंग बद्स्तुर जारी थी। बृजबिहारी दलितों और पिछड़ी जातियों का रॉबिन हुड बन चुका था। उसकी सीधी अदावत भूमिहार दबंगों से थी। बृजबिहारी को जहां एक तरफ शहर के बनियों का समर्थन हासिल था, वहीं पटना की राजनीति में भी उसने पैठ बना ली थी। उधर मिनी नरेश की हत्या और उसकी हत्या का बदला लेने के बाद अशोक सम्राट भी मुजफ्फरपुर में कम दिलचस्पी रखने लगा था। इसका सीधा फायदा मिला छोटन शुक्ला को। छोटन शुक्ला से अधिक दहशत उसके छोटे भाई भुटकुल शुक्ला की थी।

जातियों में बंटा अंडरवर्ल्ड
90 के शुुरुआती दौर में मुजफ्फरपुर का अंडरवर्ल्ड जातियों में पूरी तरह वर्गीकृत हो चुका था। अंडरवर्ल्ड के बड़े नाम राजनीतिक संरक्षण की जुगत में थे। संगठित अपराध का दौर अपने चरम पर था। एक तरफ बृजबिहारी अपने गैंग को शूटर्स के जरिए मजबूत करने में जुटा था, वहीं छोटन शुक्ला ने भूमिहार और भूमिहार ब्राह्मण जाति के युवाओं के दम पर अपनी पकड़ मजबूत कर रखी थी। दोनों के बीच सीधी अदावत चल रही थी। शहर दो भागों में विभाजित हो चुका था। एक छोर यानि बटलर के इस तरफ लेनिन चौक, छाता चौक, गन्नीपुर, खबड़ा, कॉलेज और यूनिवर्सिटी कैंपस, नया टोला, अघोरिया बाजार चौक, मिठनपुरा, रामदयालु क्षेत्र में शुक्ला ब्रदर्स की तूती बोलती थी, जबकि माड़ीपुर से लेकर भगवानपुर और बैरिया बस स्टैंड का क्षेत्र अघोषित रूप से बृज बिहारी के हिस्से था। दोनों तरफ मौके की तलाश रहती थी। जो जिसके क्षेत्र में आया दोबारा वापस नहीं गया। इसी बीच टाउन थाना के नजदीक छोटन शुक्ला पर हमला हुआ। गोलीबारी में वो बच गए, पर चंद दिनों बाद ही बृजबिहारी पर हमला हो गया। बृजबिहारी भी हमले में बच गए, लेकिन उनका बॉडिगार्ड पवन मारा गया।

भूमिहार बनाम पिछड़ी जाती
90 के दशक के शुरुआती वर्षों में जबर्दस्त मारकाट के बाद भूमिहारों को अहसास हो गया था कि आपसी रंजीश में उनकी स्थिति कमजोर हो रही है। क्योंकि चुनचुन कर पहले तो बेगुसराय के भूमिहारों को मारा गया फिर स्थानीय भूमिहारों पर भी हमले हुए। राजनीतिक रूप से भी यहां दो गुट थे। एक गुट का प्रतिनिधित्व कर रहे थे रघुनाथ पांडेय, जबकि दूसरे गुट के सरताज थे ललितेश्वर प्रसाद शाही। इन्हें लोग एलपी शाही के नाम से अधिक जानते थे। इन्हीं के एकलौते थे बेटे थे हेमंत शाही। पूरे तिरहूत इलाके में हेमंत शाही अपने पिता के दम पर एकछत्र राज चाहते थे। हर छोटे बड़े ठेकों और निलामी में उनका सीधा हस्तक्षेप था। इस वक्त तक वो वैशाली से एमएलए बन चुके थे। जबकि पिता एलपी शाही केंद्र की राजनीति में उभार पर थे। एलपी शाही 1980 में बिहार विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए थे और वर्ष 1984 में मुजफ्फरपुर से लोकसभा सदस्य निर्वाचित हुए। वर्ष 1988 में वे राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में केंद्रीय शिक्षा एवं संस्कृति मंत्री रहे। शुक्ला ब्रदर्श के ऊपर एलपी शाही और हेमंत शाही का हाथ था।

मार्च 1992 : हेमंत शाही की हत्या
मुजफ्फरपुर का अंडर वर्ल्ड चुपचाप अपनी अदावत और वर्चस्व की जंग में जुटा था। छोटन शुक्ला और बृजबिहारी पर हमले के बाद कोई सीधी लड़ाई में नहीं उलझ रहा था, क्योंकि बृजबिहारी और छोटन शुक्ला दोनों ही राजनीति की तरफ पैरा बढ़ा चुके थे। इसी बीच एक बड़ी वारदात ने बिहार की राजनीति में भूचाल ला दिया। वैशाली जिले के गोरौल प्रखंड में एक टेंडर विवाद में गांव के ही पिछड़ी जाति के दबंगों ने एमएलए हेमंत शाही की दिनदहाड़े हत्या कर दी। 28 मार्च 1992 को हेमंत शाही एक मेले के टेंडर को लेकर गोरौल प्रखंड में थे। यहीं उनका गांव के ही पिछड़ी जाती के लोगों से विवाद हुआ। वे टेंडर को हथियाना चाहते थे, लेकिन हेमंत शाही अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर टेंडर अपने पक्ष में करना चाहते थे। आपसी विवाद बढ़ने के बाद पिछड़ी जाती के दबंगों ने ब्लॉक आॅफिस में हेमंत शाही पर फायर झोंक दिया। दोनों तरफ से गोलियां चली। हेमंत शाही बूरी तरह घायल हुए। उन्हें उनके समर्थकों ने जिप्सी में लादकर मुजफ्फरपुर पहुंचाया, लेकिन उन्हें बचाया नहीं जा सका। 30 मार्च को उनकी मौत हो गई। इस मौत ने मुजफ्फरपुर को सुलगा दिया। जमकर आगजनी हुई। सरकारी वाहन फूंक दिए गए। कई दिनों तक शहर बंद रहा। हर तरफ दहशत का माहौल था। अनजाने भय से लोग सहमे हुए थे। क्षेत्र के अगड़ी जाति के सबसे बड़े और दबंग पॉलिटिशियन की हत्या हो चुकी थी।

बाहूबली आनंद मोहन की इंट्री
इसी बीच मुजफ्फरपुर अंडरवर्ल्ड में इंट्री हुई कोसी क्षेत्र के बाहूबली आनंद मोहन की। इन्हें साथ मिला शुक्ला ब्रदर्श का। 1980 में आनंद मोहन ने अपनी पार्टी का गठन किया था। नाम रखा था क्रांतिकारी समाजवादी पार्टी। इसी पार्टी से उन्होंने लोकसभा का चुनाव लड़ा पर कभी चुनाव जीत न सके। 1990 में उन्होंने जनता दल से विधानसभा का चुनाव लड़ा और विजयी हुए। इसी दौर में वो छोटन शुक्ला के संपर्क में आए और तिरहुत क्षेत्र में अपनी पार्टी के साथ पांव जमाना चाहा। आनंद मोहन और छोटन शुक्ला की दोस्ती ने मुजफ्फरपुर के अंडरवर्ल्ड के इतिहास में भूमिहार और राजपूत जातियों का मिलन करवाया। पहली बार भूमिहार और राजपूत एक साथ अपने अस्तित्व की लड़ाई में साथ आए। उधर, एमएलए हेमंत शाही की हत्या के बाद खाली हुई सीट पर दोबारा चुनाव हुए। खुले तौर पर लड़ाई भूमिहार और यादवों की थी। छोटन शुक्ला, आनंद मोहन की जोड़ी ने हेमंत शाही की पत्नी वीणा शाही को भारी मतों से चुनाव जितवाया। जनता दल से अलग होकर 1993 में आनंद मोहन ने बिहार पीपुल्स पार्टी की स्थापना की। साल 1994 में आनंद मोहन ने वैशाली लोकसभा सीट के उपचुनाव में इसी पार्टी के बैनर तले अपनी पत्नी लवली आनंद को खड़ा किया। छोटन शुक्ला का इस क्षेत्र में पूरा दबदबा था। लवली आनंद को खुलकर समर्थन मिला। वो चुनाव जीत गई। दरअसल छोटन शुक्ला आनंद मोहन के जरिए राजनीति में आने की पूरी तैयारी कर चुके थे। भूमिहार और राजपूत जातियों के गठबंधन ने बिहार में सियासी भूचाल ला दिया था। सबसे अधिक परेशान लालू प्रसाद यादव थे। क्योंकि तिरहूत क्षेत्र में उन्हें अपनी स्थिति कमजोर लगने लगी थी। 1995 में बिहार विधानसभा के चुनाव होने थे।

छोटन शुक्ला का राजनीतिक कद
छोटन शुक्ला की सबसे बड़ी खासियत सभी को मिलाकर चलने की थी। इसका उन्हें फायदा भी मिला। पहली बार राजपूत और भूमिहार एक साथ थे। इसका सीधा फायदा छोटन शुक्ला के राजनीतिक कद को मिल रहा था। उनका राजनीतिक कद लगातार बढ़ रहा था। वहीं पूरे बिहार में छोटन शुक्ला के छोटे भाई भुटकुन शुक्ला की तूती बोल रही थी। कई मामलों में वह जेल में भी थे, लेकिन भुटकुल शुक्ला के बारे में कई किंवदंतियां आज भी मुजफ्फरपुर की फिजाओं में तैरती रहती हैं। कहा जाता था कि भुटकुन शुक्ला अपने दुश्मनों से बचने के लिए खुद ही जेल में रहते थे। जब उन्हें बाहर आना होता था आते थे, फिर वहीं चले जाते थे। मुजफ्फरपुर सेंट्रल जेल ही उनका सुरक्षित ठिकाना था। यह भी कहा जाता है कि वो सिर्फ किसी की हत्या करने के लिए बाहर आते थे। इसी तरह की किंवदंतियों ने भुटकुन शुक्ला को अंडरवर्ल्ड का बेताज बादशाह बना दिया था।

उधर, धीरे धीरे छोटन शुक्ला राजनीति की ओर मुखातिब हो रहे थे। उनकी नजर 1995 के बिहार विधानसभा चुनाव पर थी। यह बात उनके दुश्मनों को नागवार गुजर रही थी। छोटन शुक्ला ने पूर्वी चंपारण के केशरिया विधानसभा जो एक भूमिहार बाहुल्य क्षेत्र था, वहां से चुनाव लड़ने की पूरी तैयारी की थी। वो आनंद मोहन की पार्टी बिहार पीपुल्स पार्टी के उम्मीदवार थे।

वर्ष 1994 : छोटन शुक्ला की हत्या
बिहार विधानसभा के चुनाव नजदीक थे। भूमिहार और राजपूत एकता ने यादवों की नींद उड़ा रखी थी। सबसे अधिक परेशान बृजबिहारी प्रसाद थे। बृजबिहारी ने अकेले दम पर पूरे तिरहूत क्षेत्र को पिछड़ी जातियों की राजनीति का गढ़ बना दिया था। मुजफ्फरपुर की राजनीति भूमिहार बनाम बनिया की होती है। 1985 से 1995 तक रघुनाथ पांडे ने इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। जबकि 1995 से 2010 तक विजेंद्र चौधरी विधायक रहे। विजेंद चौधरी ने बृजबिहारी के दम पर ही चुनाव जीता था। छोटन शुक्ला लगातार अपने क्षेत्र का दौरा कर रहे थे। अपने क्षेत्र में जाने का एक ही रास्ता था, वह रास्ता मुजफ्फरपुर के दूसरे क्षेत्र होकर जाता था। इस क्षेत्र में बृजबिहारी का राज था। 4 दिसम्बर 1994 को जब छोटन शुक्ला अपने साथियों के साथ अपने विधानसभा क्षेत्र से चुनावी बैठक और प्रचार कर लौट रहे थे तो बृजबिहारी गली में चारों तरफ से घेरकर उनपर एके 47 की बौछार कर दी गई। छोटन शुक्ला के साथ उनके बॉडिगार्ड भी मारे गए। सीधा आरोप बृजबिहारी पर लगा। बताते हैं कि छोटन शुक्ला की हत्या के बाद शहर के एक छोर पर कई घरों में चुल्हा नहीं जला, जबकि बृजबिहारी के क्षेत्र में पटाखों की गूंज सुनाई दी। जश्न हुआ।

छोटन शुक्ला की हत्या के बाद सुलगा मुजफ्फरपुर
छोटन शुक्ला की हत्या के बाद मुजफ्फरपुर एक बार फिर सुलग उठा। जिसकी किसी ने कल्पना नहीं की वो घटना घट गई। बिहार की राजनीति में एक भुचाल आ गया। छोटन शुक्ला की शवयात्रा निकाली गई। एनएच-24 होकर उनकी शवयात्रा उनके पैतृक गांव की ओर प्रस्थान कर रही थी। खबड़ा होकर यह शवयात्रा निकाली थी। हजारों हजार की संख्या में छोटन शुक्ला के समर्थक इस शवयात्रा में शामिल थे। इसी बीच गोपालगंज के जिलाधिकारी जी कृष्णैया की गाड़ी वहां से गुजर रही थी। भीड़ से साइड लेने के लिए ड्राइवर ने हॉर्न बजाया। आक्रोशित भीड़ और उग्र हो गई। किसी ने यह नहीं देखा कि कार में कौन बैठा है। बत्ती लगी गाड़ी देखकर भीड़ ने तोड़फोड़ शुरू कर दी। देखते-देखते चंद मिनट में गोपालगंज के जिलाधिकारी की भीड़ ने हत्या कर दी। उन्हें बेहद करीब से गोली मारी गई थी। बिहार में मॉब लिंचिंग की यह सबसे बड़ी घटना थी। पूरे बिहार में तहलका मच गया। इस हत्याकांड की गूंज दिल्ली तक पहुंच गई। स्पेशल टीम ने बिहार में कैंप किया। पूरे देश में अंडरवर्ल्ड डॉन छोटन शुक्ला और जिलाधिकारी जी कृष्णैया की हत्या गूंजने लगी। जिलाधिकारी हत्या के मुख्य आरोपी भुटकुन शुक्ला, आनंद मोहन, लवली आनंद, मुन्ना शुक्ला को बनाया गया। साथ ही कई अन्य लोगों पर भी मुकदमा दर्ज किया गया।

छोटन शुक्ला की हत्या ने मुजफ्फरपुर के अंडरवर्ल्ड के साथ-साथ पूरे बिहार के अंडरवर्ल्ड को अंदर से हिला कर रख दिया था। छोटे भाई भुटकुन शुक्ला के क्रोध से पूरा अंडरवर्ल्ड वाकिफ था। छोटन शुक्ला की हत्या के बाद बिहार का अंडरवर्ल्ड साजिशों और गैंगवार में उलझता ही गया।

कैसे लिया गया छोटन शुक्ला की हत्या का बदला, कहां गया अंडरवर्ल्ड डॉन अशोक सम्राट, कैंपस में किस तरह उगी छात्रों की नई दबंग पौध। जल्द पढ़ाऊंगा अगली कड़ी में। साथ ही दिखाऊंगा अशोक सम्राट की कुछ ऐसी एक्सक्लूसिव तस्वीर जो शायद पहली बार पब्लिक डोमेन में होगी।

Tuesday, September 25, 2018

मुजफ्फरपुर में अंडरवर्ल्ड की इनसाइड स्टोरी : मुजफ्फरपुर में पहली बार 1990 में अशोक सम्राट ने दिखाई थी एके 47 की हनक



बिहार में अंडरवर्ल्ड के इतिहास में मुजफ्फरपुर का अलग स्थान रहा है। इस धरती पर जहां कई क्रांतिकारियों ने जन्म लिया, वहीं अंडरवर्ल्ड के कई बड़े डॉन ने मुजफ्फरपुर को अपना ठिकाना बनाया। जिस दौर में भारत के बड़े माफियाओं के पास भी एके-47 जैसे अत्याधुनिक हथियार नहीं थे, उस दौर में मुजफ्फरपुर में इसकी गर्जना सुनी जाने लगी थी। एके 47 से बिहार में संभवत: पहली हत्या 1990 में हुई थी। अंडरवर्ल्ड डॉन अशोक सम्राट ने अपने प्रिय रहे मिनी नरेश की हत्या का बदला लेने के लिए मुजफ्फरपुर के छाता चौक पर एके 47 की हनक दिखाई थी। बिहार में पहली बार एके 47 से हत्या हुई थी। एके 47 की हनक का आलम यह था कि छाता चौक पर काजी मोहम्मदपुर थाने के ठीक सामने दिन दहाड़े मिनी नरेश की हत्या के मुख्य आरोपी डॉन चंद्रश्चर सिंह की हत्या की गई थी। इसके बाद न तो अशोक सम्राट ने पीछे मुड़कर देखा और न एके 47 की हनक ने। अंडरवर्ल्ड डॉन की लाश तो बिछती गई, लेकिन एके 47 की हनक आज तक कायम है। मुजफ्फरपुर के पूर्व मेयर समीर कुमार की हत्या ने एक बार फिर इस शहर में एके 47 के खौफ को कायम कर दिया है।

मुजफ्फरपुर में एके 47 की हनक और अंडरवर्ल्ड की कहानी जानने के लिए आपको थोड़ा पीछे की तरफ लेकर जाता हूं। इसकी इनसाइट स्टोरी काफी रोचक है। तीन से चार किस्तों में आपको यह कहानी बताऊंगा। आज पहली किस्त..
एलएस कॉलेज से शुरू होती है अंडरवर्ल्ड की कहानी
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि मुजफ्फरपुर में माफिया, गुंडागर्दी, अंडरवर्ल्ड चाहे कोई और नाम दे दीजिए, इसकी कहानी बिहार के सबसे प्रतिष्ठित कॉलेज लंगट सिंह महाविद्यालय से शुरू होती है। इस कॉलेज कैंपस से शुरू हुई वर्चस्व की जंग में अब तक सैकड़ों लाश गिर चुकी है। इसी कैंपस से निकले कई छात्रों ने अंडरवर्ल्ड में दशकों तक राज किया है।


1971-72 में पहली बार बम चला 1978 में पहली लाश गिरी कैंपस में
दरअसल उत्तर बिहार के सबसे बड़े शहर मुजफ्फरपुर को शैक्षणिक गढ़ भी माना जाता था। दो बड़े कॉलेज लंगट सिंह कॉलेज और रामदयालू कॉलेज के अलावा यहां बिहार यूनिवर्सिटी थी। जिसके कारण आसपास के सैकड़ों छात्र यहां शिक्षा ग्रहण करने आते थे। इन छात्रों में क्षेत्रवाद और जातिवाद बुरी तरह हावी था। इसके कारण यहां पढ़ने वाले छात्र कई गुटों में विभाजित रहे। हजारों एकड़ में फैले लंगट सिंह कॉलेज कैंपस में शुरुआती दौर में तीन हॉस्टल थे। जिसमें ड्यूक हॉस्टल का अपना वर्चस्व था। हॉस्टल में 60 के दशक से वर्चस्व की जंग शुरू हुई। जंग शुरू करने वालों में शामिल थे बेगूसराय और मुंगेर अंचल से आए छात्र। इनकी अदावत थी मुजफ्फरपुर जिले के स्थानीय युवाओं से। भुमिहार और राजपुतों के साथ शुरू हुई वर्चस्व की जंग में कैंपस में पहली लाश गिरी 1978 में। हालांकि इससे पहले साठ और सत्तर के दशक में भी कैंपस में मारपीट होती थी, पर किसी छात्र या दबंग की हत्या नहीं हुई थी। कॉलेज कैंपस में पहली बार बम और गोली भी चलाई थी बेगुसराय के छात्र ने ही। साल 1971-72 में बेगुसराय निवासी कम्युनिस्ट नेता सुखदेव सिंह के पुत्र वीरेंद्र सिंह ने अपनी दबंगई कायम करने के लिए पहली बार कैंपस में बम और गोली चलाई थी। ड्यूक हॉस्टल पर बम और गोलियों से हमला किया गया था। इस वारदात के बाद एलएस कॉलेज कैंपस में हर दूसरे महीने बम के धमाके सुने जाने लगे। धीरे-धीरे वर्चस्व की लड़ाई तेज होती गई। साल 1978 में कॉलेज कैंपस में पहली लाश गिरी मोछू नरेश के रूप में। यह वर्चस्व की जंग में पहली हत्या थी।

1978 : मोछू नरेश की हत्या से शुरू हुआ खूनी संघर्ष
दबंग छात्र रहे मोछू नरेश की हत्या ने कॉलेज और यूनिवर्सिटी कैंपस को आतंक का गढ़ बना दिया। मोछू नरेश की हत्या में नाम आया बेगूसराय के कामरेड सुखदेव सिंह के पुत्र वीरेंद्र सिंह का। कैंपस में हत्याओं की नींव डाली बेगूसराय के छात्रों ने ही। पर सबसे बड़ा तथ्य यह है कि सबसे अधिक लाश भी गिरी बेगुसराय के छात्रों की ही। मोछू नरेश के बाद कैंपस में दबंगई कायम की मिनी नरेश ने। मोछू नरेश की गद्दी संभालते ही मिनी नरेश कैंपस में अपनी दहशत कायम की। उसे राजनीतिक और बाहरी संरक्षण भी मिला। जिसके कारण विरेंद्र सिंह को शांत होना पड़ा। पर अंदरूनी अदावत जारी रही। दोनों का ठिकाना कॉलेज और यूनिवर्सिटी हॉस्टल ही रहा।

1983 : मिनी नरेश का वर्चस्व
मोछू नरेश की गद्दी संभाल रहे मिनी नरेश ने कॉलेज कैंपस से ही अपना वर्चस्व कायम किया। उसे अशोक सम्राट जैसे अंडरवर्ल्ड डॉन का समर्थन प्राप्त था। यह वह दौर था जब बिहार यूनिवर्सिटी का कई सौ एकड़ में अपना कैंपस बन रहा था। एलएस कॉलेज कैंपस से सटे इस नए साम्राज्य का विस्तार हो रहा था। इस साम्राज्य पर भी अपने अधिकार का जंग शुरू हो गया था। मिनी नरेश ने कई हॉस्टल और डिपार्टमेंट का ठेका भी लिया। इसमें मोटी कमाई हो रही थी। अशोक सम्राट का अपने ऊपर हाथ होने के कारण मिनी नरेश ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1983 में मिनी नरेश ने ठेकेदार रामानंद सिंह की हत्या कर दी। इसी दौर में मोतिहारी से मुजफ्फरपुर में आ बसे चंदेश्वर सिंह अपना वर्चस्व कायम कर रहा था। उसके रास्ते का सबसे बड़ा कांटा बना था वीरेंद्र सिंह। 1983 में चंदेश्वर सिंह ने छाता चौक पर वीरेंद्र सिंह की हत्या कर मुजफ्फरपुर के डॉन के रूप में अपनी दस्तक दी।

ठेकेदारी की जंग
एलएस कॉलेज और बिहार यूनिवर्सिटी कैंपस से शुरू हुई अंडरवर्ल्ड की कहानी से इतर कैंपस से बाहर भी अंडरवर्ल्ड की दूसरी कहानी चल रही थी। इस कहानी के नायक थे बाहूबली अंडरवर्ल्ड डॉन अशोक सम्राट और एलएस कॉलेज कैंपस से ही निकले छोटन शुक्ला। वैशाली जिले के साधारण परिवार से आने वाले छोटन शुक्ला ने 12वीं की पढ़ाई के लिए एलएस कॉलेज में नामांकन करवाया। इसी वक्त उनके पिता की हत्या हो गई। कलम थामने के लिए उठे हाथ ने बंदूक थाम ली। छोटन शुक्ला ने काफी तेजी से अंडरवर्ल्ड की दुनिया में अपनी दबंगता कायम की। यह वह दौर था जब पूरे तिरहुत प्रमंडल में ठेकेदारी में वर्चस्व की जंग चल रही थी। अशोक सम्राट का यहां एकछत्र राज था। उन्हें राजनीति संरक्षण मिला था बिहार के चर्चित नेता हेमंत शाही का। उधर मोतिहारी से मुजफ्फरपुर आए चंदेश्वर सिंह ने भी शहर में अपनी दहशत कायम कर ली थी। चंदेश्वर सिंह के ऊपर हाथ था उत्तर बिहार के सबसे दबंग नेता रघुनाथ पांडे का। चंदेश्वर सिंह के नाम से पूरा शहर कांपने लगा था। ठेकेदारी में सबसे अधिक पैसा था। इसलिए हर कोई इसमें वर्चस्व चाहता था। वर्चस्व की जंग में लाशें गिरनी शुरू हो गई थी। एक दूसरे के कारिंदों पर गोलियां दागी जाने लगी थी। पर सबसे बड़ी लाश गिरी चंदेश्वर सिंह के बेटे के रूप में।

1989 : मिनी नरेश की हत्या
बिहार यूनिवर्सिटी कैंपस के पीजी ब्वॉयज हॉस्टल नंबर तीन से अपना गिरोह संचालित कर रहे मिनी नरेश ने कैंपस में एकाधिकार जमा लिया था। हाल यह था कि एलएस कॉलेज और यूनिवर्सिटी में मिनी नरेश का ही आदेश चलता था। एक दशक से अधिक समय तक मिनी नरेश ने कैंपस में राज किया। उस दौर में कैंपस में सरस्वती पूजा का जबर्दस्त क्रेज था। हजारों रुपए का चंदा जमा होता था। सबसे बड़ी और भव्य पूजा पीजी हॉस्टल नंबर पांच में होती थी। यह पूजा पूरी तरह मिनी नरेश के संरक्षण में होती थी। दस फरवरी 1989 को ठीक सरस्वती पूजा के दिन ही पीजी हॉस्टल नंबर पांच बम और गोलियों के धमाके से गूंज उठा। हर तरफ से बमों के धमाकों की आवाज आ रही थी। चंदेश्वर सिंह और उसके गुर्गों ने मिनी नरेश को संभलने का मौका तक नहीं दिया। सरस्वती पूजा के दिन कैंपस में मिनी नरेश की हत्या कर दी गई। बेगूसराय के राहतपुर निवासी मिनी नरेश की हत्या के बाद कई दिनों तक कैंपस खाली रहा। हॉस्टल विरान हो गए। किसी बड़ी अनहोनी की आशंका में क्लास तक नहीं चले। चंदेश्वर सिंह के अलावा इस हत्याकांड में पहली बार नाम आया छोटन शुक्ला का।

1990 : मिनी नरेश की हत्या का बदला
जिस फिल्मी और बेखौफ अंदाज में मिनी नरेश की हत्या हुई थी उसने बिहार के अंडरवर्ल्ड को हिला कर रख दिया था। बताया जाता है कि उस वक्त हॉस्टल नंबर पांच में हर जगह बम के छर्रे के निशान थे। करीब दो सौ बम दागे गए थे। मिनी नरेश की हत्या के बाद चंदेश्वर सिंह अंडरग्राउंड हो गए थे। मिनी नरेश के आका रहे अशोक सम्राट ने बदला लेने का खुला ऐलान कर रखा था। यही वह दौर था जब बिहार के अंडरवर्ल्ड में एके 47 पहुंच चुका था, लेकिन अब तक उसका इस्तेमाल नहीं हुआ था। अशोक सम्राट ने ठीक एक साल बाद 1990 में उसी फिल्मी अंदाज में ठीक सरस्वती पूजा के दिन ही छाता चौक पर दिनदहाड़े चंदेश्वर सिंह की हत्या कर दी। छाता चौक पर ही काजी मोहम्मदपुर थाना है। पर एके 47 की गूंज ने पुलिसवालों को भी ठिठकने पर मजबूर कर दिया। बिहार के अपराध के इतिहास में पहली बार एके 47 का इस्तेमाल हुआ था। चंदेश्वर सिंह को करीब 40 गोलियां मारी गई थी। इस हत्या ने एक झटके में अशोक सम्राट को उत्तर बिहार का बेताज बादशाह बना दिया। यह एके 47 की धमक ही थी पूरे बिहार का अंडरवर्ल्ड अशोक सम्राट के नाम से कांपने लगा था। मिनी नरेश की हत्या का बदला ले लिया गया था। चंदेश्वर सिंह की हत्या ने छोटन शुक्ला को विचलित कर दिया था। इसके बाद दोनों तरफ लाशें गिरने लगी। अशोक सम्राट और छोटन शुक्ला की अदावत खुलकर सामने आ गई थी। ठेकेदारी के वर्चस्व से शुरू हुई लड़ाई अब अंडरवर्ल्ड में बादशाहत तक आ गई थी। एक दूसरे के करीबियों को चुन चुन कर मारा जाना लगा। अगली बड़ी लाश गिरी थी गब्बर सिंह की। लंगट सिंह कॉलेज कैंपस में ठीक महात्मा गांधी की मूर्ति के सामने। इस लाश का तात्लुक भी बेगुसराय से ही था।

मुजफ्फरपुर के अंडरवर्ल्ड में एक तरफ अशोक सम्राट था, दूसरी तरफ छोटन शुक्ला। पर इसी बीच एक तीसरा डॉन भी उभर गया था, जो दलितों का मसीहा बन बैठा था। इस तीसरे डॉन की इनसाइड स्टोरी अगली किस्त में..

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Friday, August 24, 2018

सरकार मीडिया में हस्तक्षेप करती है क्या?



जब देहरादून में जागरण ग्रुप के साथ था तब की एक कहानी है। पढ़िए फिर पता चलेगा कि सरकार मीडिया के साथ क्या करती है और क्या नहीं कर सकती है?

पिछले कुछ दिनों से मीडिया की आजादी उसकी बेबाकी और उस पर प्रतिबंध को लेकर बहुत कुछ कहा जा रहा है। खासकर तब, जबसे टीवी न्यूज के कुछ प्रमुख चेहरों की विदाई हुई है। उन लोगों को मीडिया के एक धड़े ने अघोषित शहीद का दर्जा दे दिया है। उनके नाम से मोदी सरकार को कोसा जा रहा है। कहा जा रहा है मीडिया पर ऐसा प्रतिबंध लगा दिया गया है कि वह न कुछ बोल सकता है, न लिख सकता है। सरकार ही तय करेगी कि क्या लिखना है, क्या बोलना है। आपको यह कुछ ज्यादा हास्यास्पद नहीं लगता?
अगर ऐसा ही है तो शहीद का दर्ज मिलने के बाद वे कैसे लिख रहे हैं? अब उनपर कैसे प्रतिबंध नहीं लग रहा। जिस दुर्भावना से प्रेरित होकर वो अपनी बातों को बेबाकी से सोशल मीडिया और वेब न्यूज प्लेटफॉर्म पर लिख रहे हैं वह कैसे संभव हो रहा है? जब मोदी सरकार न्यूज चैनल पर प्रतिबंध (जैसा की शहीद पत्रकारों द्वारा बताया जा रहा) लगा सकती है तो वेब न्यूज प्लेटफॉर्म को तो झटके में ब्लॉक करवा सकती है। फिर कूदते रहिए। और हां सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म की टीआरपी तो ऐसी है कि उस तक पहुंचने में चैनल्स को सात जनम तक लग जाएंगे। वहां तो आप बेबाकी के साथ, पूरी हनक के साथ लिख रहे हैं। कौन रोक रहा है आपको? अब सवाल उठता है कि सरकार मीडिया के मामले में हस्तक्षेप करती है या नहीं।

इसका जवाब हां में है बिल्कुल सच है सरकार मीडिया के मामले में कुछ हद तक हस्तक्षेप करती है। खासकर तब जब उसे दर्द होता है। इस दर्द के भी कई प्रकार होते हैं। उसकी चर्चा फिर कभी। फिलहाल बात सरकार के हस्तक्षेप की।
आप अपनी निजी जिंदगी में झांक कर देखिए। आप किसी को दो पैसे भी देते हैं तो उसे आप अपना अहसानमंद मान लेते हैं। अपेक्षा रखते हैं कि वह आपकी हर बात माने। घर के बच्चे को भी पांच रुपए का लॉलीपॉप देकर आप उससे अपने अनुसार काम करवाने की इच्छा रखते हैं। बच्चा नहीं करता है तो उसे जरूर कहते हैं जाओ, अब तुम्हें मैं लॉलीपॉप नहीं दूंगा। फिर आप कैसे यह कैसे सोच सकते हैं कि जो सरकार आपको करोड़ों रुपए का विज्ञापन दे रही है वह आपसे अपेक्षा नहीं रखेगी?
सरकारें अपेक्षा रखती हैं। बहुत ज्यादा अपेक्षा रखती हैं। तभी तो केंद्र में इतना भारी भरकम सूचना और प्रसारण मंत्रालय अस्तित्व में है। राज्य में डिपार्टमेंट आॅफ पब्लिक रिलेशन है। यहां तक की जिलों और तहसीलों तक में सूचना विभाग के प्रतिनिधि मौजूद हैं। यही वो लोग हैं जो मीडिया और सरकार के बीच रिलेशनशिप बनाए रखते हैं। इन्हीं के माध्यम से अखबार या चैनल्स को विज्ञापन मिलता है जहां से करोड़ों रुपए की आमदनी मीडिया हाउसेस के खाते में जाती है। बताइए जरा इतनी भारी भरकम रकम देने वाली सरकार क्यों नहीं अपेक्षा रखेगी। लेकिन क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि सरकार के हाथों मीडिया हाउसेस बिक गई?

इसका जवाब न में हैलोकतंत्र का चौथा स्तंभ इतना भी कमजोर नहीं है।
विज्ञापन एक साधन है, साध्य नहीं। यह सरकार की भी मजबूरी है कि वह विज्ञापन देकर अपने कार्यों का प्रचार-प्रसार करवाए। अखबार के पन्नों और चैनल्स की टाइमिंग में सभी के रेट्स तय हैं। सब इसी के अनुसार होता है। हां सरकार जरूर चाहती है कि उसके कामों का न्यूज के जरिए भी प्रचार प्रसार हो, ताकि आम लोग लाभांवित हो सके। अब इस अपेक्षा को हस्तक्षेप मान लिया जाए तो इसमें दोष किसका है? अगर हस्तक्षेप कह दिया जाए तो सरकार के इतने बड़े-बड़े घोटाले मीडिया के जरिए कैसे सामने आ जाते हैं? क्यों मीडिया की ही रिपोर्ट पर कई मंत्री और मुख्यमंत्री की कुर्सी तक चली जाती है। यह मीडिया की मजबूती ही है कि वह अपेक्षा और हस्तक्षेप में समानांतर लकीर खींच कर चलती है। अब बात आती है कि आखिर क्यों मीडिया का एक तबका अपने ही प्रोफेशन को बिका हुआ बताने पर तुला हुआ है।
इस सवाल का जवाब देने से पहले अपनी निजी जिंदगी के दो अनुभवों से आपको रू-ब-रू करवाता हूं।
पहला अनुभव है उत्तराखंड की राजधानी देहरादून का। जुलाई 2011 की बात है। पत्रकार से नेता बने रमेश पोखरियाल निशंक उस वक्त उत्तराखंड के मुख्यमंत्री थे। वे खुद दैनिक जागरण में रिपोर्टर के तौर पर नौकरी कर चुके थे। एक अच्छे पत्रकार के रूप में उनकी पहचान थी, शायद आज भी उनके स्वामित्व का एक समाचार पत्र देहरादून से प्रकाशित होता है। बाद में वे राजनीति में आ गए। राजनीतिक पारी दमदार तरीके से निभा रहे हैं। उत्तराखंड सरकार में मुख्यमंत्री के पद तक पहुंचना एक बड़ी उपलब्धि रही। इस वक्त हरिद्वार से सांसद भी हैं। 

तो मैं बता रहा था निशंक मुख्यमंत्री थे। चूंकि मुख्यमंत्री बनने से पहले वे स्वास्थ मंत्री थे, इसलिए यह विभाग भी उन्होंने अपने ही पास रखा था। मैं उस वक्त देहरादून में दैनिक जागरण ग्रुप के बाइलिंगवल टैब्लॉइड न्यूजपेपर ‘आई-नेक्स्ट’ का संपादकीय प्रभारी था। भारत में टैब्लॉइड जर्नलिज्म के क्षेत्र में जागरण गु्रप का यह अभिनव प्रयोग था। टैब्लॉइड जर्नलिज्म के इतिहास को जानेंगे और पढ़ेंगे तो समझ में आएगा टैब्लॉइड जर्नलिज्म का मतलब था सनसनी। पर आई-नेक्स्ट ने इसके विपरीत आम लोगों की भाषा में अखबार निकालकर और गंभीर पत्रकारिता के जरिए अपनी अलग पहचान कायम थी।
आई नेक्स्ट की रिपोर्टिंग टीम में आफताब अजमत मेडिकल और एजुकेशन की बीट कवर करते थे। आफताब इन दिनों अमर उजाला देहरादून की सिटी टीम को हेड कर रहे हैं। उन दिनों हेल्थ बीट उन्हें नई-नई मिली थी। उनके हाथ एक दस्तावेज लगा। यह दस्तावेज क्या था बम था। धमाका था। वे उसे लेकर मेरे पास आए। कहा, सर इस दस्तावेज को देखिए मुझे तो बड़ा घालमेल वाला मामला लग रहा है। मैंने उस दस्तावेज को रख लिया और कहा कल इसे देखेंगे। आज वाली खबरों पर फोकस करो। दूसरे दिन सुबह की मीटिंग के बाद जब मैंने दस्तावेज का अध्ययन किया तो बड़ी खबर हाथ लग गई। मेरी एक दो और क्योरी थी, जिसे आफताब ने अपने सूत्रों से बातचीत कर क्लियर कर दिया। शाम तक एक बड़ी खबर डेवलप हुई।
खबर सीधे तौर से मुख्यमंत्री से जुड़ी थी। उनके स्वास्थ विभाग में बड़ा घोटाला हो रहा था। एक साधारण इंजेक्शन जिसकी मार्केट वैल्यू रीटेल में 4 रुपए थी, उसे करीब 15 रुपए के हिसाब से खरीदा जा रहा था। जबकि थोक भाव में वही इंजेक्शन करीब दो रुपए पचास पैसे की पड़ रही थी। इसी तरह करीब 35 दवाइयों और लाइफ सेविंग इंजेक्शन की पूरी डिटेल हमारे पास थी। बड़ी खबर बन गई। पूरे तथ्यों के आधार पर।

आई-नेक्स्ट अब जागरण के मूल अखबार के साथ मर्ज हो गया है। नाम भी इसका दैनिक जागरण आई-नेक्स्ट हो गया है। अब तो कोई कॉम्टिशन ही नहीं। पर उस दौर में एक ही आर्गेनाइजेशन के अखबारों के बीच जबर्दस्त प्रतिद्वंदिता थी। यह प्रोफेशनल कॉम्पिटशन था। कोई निजी अदावत नहीं थी। खैर हम लोगों ने यह खबर चुपके-चुपके बनाई। आज यह बड़ा हास्यास्पद लगता है, पर उस वक्त दोनों ही तरफ के लोगों को यह शक होता था कि हमारी खबरें चुरा ली जाती हैं। मैंने यह पेज और खबर अंतिम समय तक अपनी टीम से भी डिस्कस नहीं की। सिर्फ मुझे और आफताब को इस बात की जानकारी थी। पेज डिजाइनर हरीश भट्ट से पेज बनवाकर मैंने उसे अलग फोल्डर में रखवा दिया।
इतना तो तय था कि कल उत्तराखंड सरकार की थू-थू तो होगी और मामला गरम होगा। जागरण के संपादक थे कुशल कोठियाल जी। वह अब स्टेट हेड के तौर पर जागरण में हैं। हमेशा मेरे आदरणीय रहे। हमारी टीम में भले ही अंदरुनी तौर पर प्रोफेशनल कॉम्पिटशन था पर हम दोनों के बीच ऐसी कोई बात नहीं थी। मैं हर बात उनसे शेयर करता था। खासकर किसी बड़ी खबर को लेकर। रात साढ़े दस बजे मैं ऊपरी तल पर उनके पास गया। वहां उनसे इस खबर के बारे में चर्चा की। वे हैरान हो गए। बोले, यह तो बहुत बड़ी खबर है। पूछा आपके पास सभी तथ्य तो हैं। मैंने कहा बिल्कुल। उन्होंने एप्रीशिएट किया, पर उनकी भी दाद देनी होगी, उन्होंने भी अपनी टीम को इसकी भनक तक नहीं लगने दी कि सुबह क्या धमाका होने जा रहा है।

जैसा की उम्मीद थी सुबह खबर के प्रकाशित होते ही सरकार की हालत खराब हो गई। विरोधियों ने सरकार को निशाने पर ले लिया। सरकार के पुतले फूंके जाने लगे। हाल यह हुआ कि दिल्ली में कांग्रेस ने इस मुद्दे को लेकर प्रेस कॉन्फे्रंस तक कर दी। चूंकि मामला स्वास्थ विभाग से जुड़ा था और यह विभाग मुख्यमंत्री निशंक के पास ही था, इसलिए निशंक की अपनी ही पार्टी के लोग भी मुखर हो गए।

बात यहीं थमती तो ठीक। पर निशंक ने सीधा फोन किया जागरण के मालिकों को। चूंकि वे जागरण में ही रिपोर्टर रह चुके थे। इसलिए मालिकों से उनके सीधे संबंध थे। सीधा फोन गया नोएडा में बैठे संजय गुप्ता जी के पास। उनका फोन आया जागरण देहरादून के यूनिट हेड अनुराग गुप्ता जी के पास। सभी तरफ जबर्दस्त टेंशन का माहौल बन गया था। मेरी भी पेशी हो गई। यूनिट हेड अनुराग जी के केबिन में मैं, कुशल जी और अनुराग जी बैठे थे। संजय गुप्ता जी उधर से फोन पर थे। फोन स्पीकर पर करवा दिया गया था। पहला सवाल मुझसे पूछा गया। क्या आपकी खबर सही है। मैंने पूरे कॉन्फिडेंस के साथ कहा, हां। यह पूरी तरह तथ्यों के आधार पर है। फिर सवाल कुशल कोठियाल जी से था। वह रेफरी की भूमिका में थे। उनसे भी यही पूछा गया। कुशल जी ने भी कहा सर खबर काफी अच्छी है और पूरे तथ्यों के आधार पर है। फिर सवाल था, तो मुख्यमंत्री क्यों नाराज हैं? निशंक कुशल जी के अच्छे मित्रों में रहे हैं।

कुशल जी ने बताया कि मेरे पास भी निशंक जी का फोन सुबह-सुबह आया था। वो खबर के लिए नाराज नहीं थे, बल्कि खबर के साथ उनकी बड़ी सी फोटो लग गई है इसीलिए नाराज हैं। उनको खबर से अधिक फोटो से आपत्ति है। कुणाल युवा खून हैं। उन्होंने अति-उत्साह में उनकी बड़ी फोटो भी लगा दी थी। मुझे अति-उत्साह से बचने की सलाह देने के साथ बरी कर दिया गया।
पर असली कांड अब शुरू हुआ। एक मालिक, एक डायरेक्टर और संपादक की हैसियत से संजय गुप्ता जी ने जो कुछ भी किया वह मेरी पत्रकारिता की जिंदगी के लिए एक सबक बन गया। दरअसल उत्तराखंड सरकार ने जागरण गु्रप को झुकाने के लिए दो दिन बाद प्रकाशित होने वाले सप्लीमेंट से अपना हाथ एक झटके में पीछे खींच लिया था। मुझे ठीक से तो मालूम नहीं, लेकिन यह विज्ञापन डील करीब 35 से 40 लाख रुपए की थी। संजय गुप्ता जी ने साफ निर्देश दिया। अगर खबर सही है। तथ्यात्मक है। किसी बायसनेस से नहीं है, तो फिर झुकने की जरूरत नहीं। ऐेसे लाखों रुपए की कोई वैल्यू नहीं। खबर है तभी अखबार है।

कुशल जी को निर्देश मिले कि जो आई-नेक्स्ट में प्रकाशित होगा वही खबरें आप भी जागरण के मुख्य एडिशन में लगाएं। मन गदगद हो गया। कहां मैं कठघरे में था, कहां पूरे ग्रुप के संपादक ने खबरों को लेकर ऐसा स्टैंड लिया। मन हो रहा था, काश फोन की जगह सामने संजय गुप्ता जी होते, सैल्यूट जरूर कर देता। पूरे तेवर के साथ खबरों को लगाया गया। जबर्दस्त फॉलोअप में पूरी टीम को झोंक दिया गया। एक से बढ़कर एक फॉलोअप किया गया। एक फॉलोअप की चर्चा जरूर करना चाहूंगा।

हमारी टीम सभी सरकारी अस्पतालों में गई। जिन मरीजों को मुफ्त में दवाइयां दी जाती थीं, उनसे भी कैसे बाहर से दवाइयां मंगाई जा रही थी, इसकी पड़ताल की गई। इसी को फोकस करती हुई खबर प्रकाशित हुई...हेडिंग थी .. यह घोटाला करतम सिंह के साथ है.. दरअसल करतम सिंह एक मरीज का नाम था। करतम सिंह बाद में घोटाले का पोस्टर ब्वॉय बन गए। स्टोरी का थीम था कि चलो महंगी दवाइयां खरीद ली गई, पर यह करतम सिंह जैसे जरूरतमंद मरीजों तक तो पहुंचे।

उधर, सबसे खराब स्थिति निश्ांक जी की थी। कहां वो जागरण के मालिकों से सीधी बात कर अपनी हनक दिखा रहे थे। लाखों का विज्ञापन रोक कर दबाव बना रहे थे। कहां, अब लारजेस्ट सर्कुलेशन वाले अखबार में उनकी पोल पट्टी खुलने लगी। आई-नेक्स्ट का सर्कुलेशन देहरादून सिटी तक ही सीमित था, क्योंकि इसे शहर का अखबार ही बनाया गया था। लेकिन जागरण की धमक पूरे उत्तराखंड में थी। दैनिक जागरण के जरिए देहरादून से लेकर गंगोत्री तक उत्तराखंड सरकार का दवाई घोटाला सामने आ गया। हर तरफ सरकार की थू-थू होने लगी। सरकार बैकफुट पर आ गई। अनआॅफिशियली सबसे पहले विज्ञापन रोकने को लेकर माफी मांगी गई। सप्लीमेंट का प्रकाशन भी हुआ। बावजूद इसके दवाई घोटाले से जुड़ी खबरें नहीं रुकी। उधर, सरकार ने अपनी साख बचने के लिए दोषियों पर कड़ी कार्रवाई की। हालांकि बाद में निशंक को भी इस्तीफा देना पड़ा था। आॅफ द रिकॉर्ड यही दवा घोटाला निशंक की कुर्सी खिसकाने के लिए जिम्मेदार था।

लौटते हैं मोदी सरकार के सेंसरशिप वाले प्रोपेगेंडा की तरफ। मीडिया के ही कुछ शहीद टाइप पत्रकारों ने यह बात फैलानी शुरू की है कि मोदी सरकार ने मीडिया पर लगाम कस रखा है। पर यही शहीद पत्रकार वेब मीडिया पर, सोशल मीडिया पर अपनी खूब भड़ास निकाल रहे हैं। इनसे कोई क्यों नहीं पूछता कि यहां उन पर लगाम क्यों नहीं लग रही?

दरअसल बात पत्रकारिता में बैलेंंस और बायसनेस की है। आपकी रिपोर्ट कितनी बैलेंस है, इस पर निर्भर करती है आपकी क्रेडेबिलिटी। हर चीज को अगर आप बायसनेस से रिपोर्ट करेंगे तो किसी को भी कष्ट होगा ही। खासकर आपके संस्थान को, क्योंकि उसकी क्रेडेबिलिटी डाउन होती है। बार-बार की चेतावनी के बाद भी अगर आप एजेंडा पत्रकारिता करेंगे तो आपका खात्मा तय है। कारक कोई भी हो सकता है। यह नहीं भूलना चाहिए कि तमाम घोटाले पत्रकारों ने ही उजागर किए हैं। वो आज भी उसी हनक के साथ पत्रकारिता कर रहे हैं। कोई भी सरकार नहीं चाहती कि मीडिया से उसका छत्तीस का आंकड़ा हो। निंदक नियरे राखिए के फॉर्मूले पर सरकार चलती है। लोकतंत्र चलता है। तमाम खबरों पर ही सरकार एक्शन लेती है, तभी पत्रकारिता की साख कमजोर नहीं होती है। यह नहीं भूलना चाहिए। पत्रकार के तौर पर आप सरकार को आइना दिखाइए। एजेंडा मत चलाइए।

दूसरे भाग में एक और उदाहरण के जरिए आपको बताऊंगा कि अगर आपकी पत्रकारिता बायसनेस से भरी नहीं है तो सरकार क्यों आपके साथ चलती है।