Monday, December 11, 2017

यह अमेरिकी वर्चस्व का ‘ट्रंप’ स्ट्रोक है

अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने जब सत्ता संभाली थी उसके बाद से ही स्पष्ट हो गया था कि अरब वर्ल्ड में आने वाले समय में जोरदार हलचल रहेगी। यरुशलम को लेकर भी कुछ हल्के फुल्के बयान सामने आए थे। पर कोई यह कयास नहीं लगा सका था कि इतनी जल्दी इस अति संवेदनशील मुद्दे पर ट्रंप अपना मास्टर स्ट्रोक खेल देंगे। यरुशलम को इजरायल की राजधानी घोषित कर अमेरिका ने स्पष्ट कर दिया है कि उसका अरब वर्ल्ड को लेकर क्या सोचना है। फिलहाल भारत के लिए मंथन का सही वक्त है कि वह इस डेवेलपमेंट पर क्या स्टैंड ले। इस्लामिक देशों ने अपना छिटपुट विरोध जताकर स्पष्ट कर दिया है कि आने वाले समय में अरब वर्ल्ड सहित एशिया के देशों में भयंकर गुटबाजी सामने आएगी।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रही अपीलों को अनदेखा करते हुए राष्ट्रपति ट्रंप ने यरुशलम को इजरायल की राजधानी के तौर पर मान्यता दी। मान्यता देने के साथ ही ट्रंप ने तत्काल यह घोषणा भी कर दी कि अमेरिकी दूतावास तेल अवीव से यरुशलम शिफ्ट किया जाएगा। अमेरिका के इस कदम का इजरायल को छोड़कर फिलहाल किसी दूसरे देश ने समर्थन नहीं किया है। यूएन में भी अमेरिका इस मुद्दे पर अलग-थलग पड़ा है। यह एक ऐसा वैश्विक घटनाक्रम है जो आने वाले समय में नए तरीके से अमेरिका के वर्चस्व का इतिहास लिखेगा। यरुशलम का विवाद सिर्फ दो देशों का विवाद नहीं है, बल्कि तीन हजार साल से चली आ रही सभ्यताओं का विवाद है। एक झटके में अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपने फैसले से भले ही विवाद को सुलझा लेने की बात कही है, लेकिन यह इतना भी आसान नहीं है।
अमेरिका के ट्रंप स्ट्रोक को समझने से पहले हमें यरुशलम के विवाद पर नजर दौड़ानी होगी। यरुशलम में यहूदियों, ईसाइयों और मुस्लिमों यानि तीनों सभ्यताओं का अनोखा मेल है। तीनों का सबसे बड़ा धार्मिक केंद्र भी यहीं है। यही कारण है कि यरुशलम सिर्फ राजनीतिक मुद्दा न होकर अति संवेदनशील धार्मिक मुद्दा भी है। इजरायल पूरे यरुशलम पर अपना दावा करता आया है। 1967 के युद्ध के बाद इजरायल ने यरुशलम के पूर्र्वी हिस्से पर भी अपना कब्जा कर लिया। वहीं फिलिस्तीनियों का कहना है कि यह पूरा क्षेत्र उनका है। पूरे यरुशलम पर इजरायल का नियंत्रण होने के बावजूद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई मामलों में इजरायल पिछड़ रहा है। ऐसे में उसकी पूरजोर कोशिश थी कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यरुशलम को इजरायल की राजधानी के रूप में मान्यता मिल जाए। हालांकि इजरायल की पूरी सरकार यरुशलम से ही संचालित होती है। प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर संसद और सुप्रीम कोर्ट तक यरुशलम में ही है। पर अभी तक जितने भी देशों के दूतावास हैं वो तेल अवीव में है। ऐसे में यरुशलम में अपना दूतावास शिफ्ट करने की घोषणा करने के साथ ही अमेरिका ने यरुशलम को अंतरराष्ट्रीय मान्यता देने की घोषणा कर दी है। इजरायल को छोड़ कर किसी भी अन्य देश ने अमेरिकी राष्ट्रपति के ताजा कदम का समर्थन नहीं किया है। सभी ने इसे ट्रंप का एकतरफा फैसला बताया है।
हो सकता है यह ट्रंप का एकतरफा फैसला ही हो। पर मंथन करने की जरूरत है कि आखिर ट्रंप ने इतना दुस्साहसिक कदम कैसे उठा लिया? क्या ट्रंप को इस बात का इल्म नहीं कि पूरे इस्लामिक वर्ल्ड में उनका यह कदम इस्लाम के खिलाफ उनकी नीति का एक हिस्सा माना जाएगा? दरअसल ट्रंप ने यह घोषणा कर एक ऐसा मास्टर स्ट्रोक खेला है जिसका परिणाम आने वाले समय में नजर आएगा। फिलिस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने तो सीधे तौर पर कहा है कि मध्य पूर्व में शांति के लिए मध्यस्थ के तौर पर ट्रंप ने अपनी विश्वसनीयता खो दी है। फैसले के कारण पहले से अस्थिर इस क्षेत्र में नए सिरे से अशांति पैदा हो सकती है। तुर्की और ईरान ने भी ट्रंप के कदम की कड़ी आलोचना की है। तुर्की ने इसे गैर जिम्मेदाराना और गैरकानूनी फैसला बताया है, जबकि ईरान ने कहा है कि इस कदम से मुसलमान भड़केंगे। 
अब सवाल उठता है कि ट्रंप ने यह फैसला किसके दम पर और क्यों लिया है। वास्तव में बाहर से देखने पर अरब वर्ल्ड और इजरायल एक दूसरे के दुश्मन नजर आते हैं, लेकिन भीतर खाने बहुत कुछ पक रहा है। सऊदी अरब और इजरायल के बीच कभी कूटनीतिक रिश्ते नहीं रहे, लेकिन ईरान दोनों का साझा दुश्मन है। दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है। इसी कदम पर चलते हुए दोनों देश मध्य पूर्व में ईरान के बढ़ते प्रभाव को रोकना चाहते हैं। अमेरिका को यह सबसे मुफीद वक्त लगा, क्योंकि पूरे अरब वर्ल्ड में इस वक्त फूट चल रही है। अरब क्षेत्र में अलगाव की स्थिति बनी हुई है। अरब लीग और गल्फ कोआॅपरेशन काउंसिल में भी अलगाव हो चुका है। एक तरफ सऊदी अरब है तो दूसरी तरफ कतर है, जबकि तीसरी तरफ बाकी अरब देश हैं। सऊदी अरब में भी गृहयुद्ध की स्थिति है। उत्तराधिकारी को लेकर वहां लड़ाई चरम पर है। हाल यह है कि मौजूदा किंग अपने बेटे को राजा बनाने की कोशिश में हैं, इसलिए दूसरे महत्वपूर्ण किंग दावेदार सऊदी की जेल में बंद हैं। मुस्लिम देशों के लिए सऊदी अरब हमेशा से ही नेता की भूमिका निभाता आया है, ऐसे में वह अभी इस स्थिति में नहीं है कि अमेरिकी विरोध का नेतृत्व कर सके। इसके अलावा ज्यादातर इस्लामिक देश इस वक्त गृह युद्ध का दंश झेल रहे हैं। सीरिया, इराक, लीबिया सहित कई अन्य अरब देशों में इतनी शक्ति नहीं बची है कि वह गृह युद्ध के बीच यरुशलम को लेकर क्रांति का कोई झंडा उठाए। अमेरिका ने मौके का फायदा उठाया है। सऊदी अरब हो, पूरा खाड़ी क्षेत्र हो या फिर मिस्र हो। ये सारे राष्ट्र सुरक्षा को लेकर पूरी तरह अमेरिका पर ही निर्भर हैं, ऐसे में वे अमेरिका से सीधा पंगा नहीं लेंगे। छिपटपुट विरोध प्रदर्शन की बात छोड़ दें तो किसी में इतनी हिम्मत नहीं कि वह अमेरिका के सामने विरोध दर्ज कराए। सिर्फ मिस्र ही एक ऐसा देश था जो अमेरिका से आंखें मिला सकता था, लेकिन मिस्र का इजरायल के साथ शांति समझौता है, ऐसा उसके विरोध की कोई संभावना नहीं। जॉर्डन भी इजरायल के साथ बेहतर संबंध रखने को इच्छुक है।
फिलहाल इस्लामिक भावनाओं के मद्देनजर कुछ कट्टरपंथी संगठन विभिन्न इस्लामिक देशों में प्रदर्शन कर रहे हैं और अमेरिका को देख लेने की धमकी दे रहे हैं, पर यह विरोध भी क्षणिक ही साबित होगा। क्योंकि अमेरिका के विरोध के लिए बड़े इस्लामिक मूवमेंट की जरूरत पड़ेगी, फिलहाल इसकी संभावना कम ही है। इस्लामिक मूवमेंट के लिए किंग अब्दुल्ला जैसे किसी पराक्रमी किंग की जरूरत है, जबकि इस समय गृहयुद्ध में उलझे इस्लामिक देशों में कोई नेतृत्वकर्ता दूर तक नजर नहीं आता। इस्लामिक संगठनों का विरोध भी सिर्फ धार्मिक ही है। इसे कट्टरता से भी जोड़ा जा सकता है, क्योंकि यरुशलम में ही मक्का के बाद मुस्लिमों का दूसरा सबसे बड़ा धार्मिक केंद्र है। फिलिस्तीन कभी भी अरब देशों के राजनीतिक एजेंडे में नहीं है। इनका सबसे बड़ा दुश्मन ईरान है। ऐसे में अमेरिकी शह पाकर इजरायल ही एक ऐसा देश है जो सीधे तौर पर ईरान से पंगा ले सकता। 

ट्रंप के कदम के बाद पूरी दुनिया की नजर एशिया पर लगी है। खासकर भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी क्या कदम उठाते हैं इस पर कयास लगाए जा रहे हैं, क्योंकि हाल ही में मोदी ने इजरायल की यात्रा कर इतिहास रचा था। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि भारत किसकी ओर है, अमेरिका और इजरायल के साथ या फिर अरब वर्ल्ड के साथ। ट्रंप की इस्लाम विरोधी छवि अब भी कायम है, जबकि भारतीय प्रधानमंत्री ने हाल के वर्षों में तमाम मुस्लिम देशों खासकर सऊदी अरब, कतर और ओमान की यात्रा कर अरब वर्ल्ड में एक बेहतर छवि बनाने का प्रयास किया है। सऊदी अरब के साथ मोदी के गर्मजोशी के रिश्ते पूरी दुनिया में चर्चा का केंद्र भी बन चुका है। ऐसे में भारत के हर एक कदम पर दुनिया की नजर है। फिलहाल मोदी शांत हैं। उनकी तरफ से इस मामले पर कोई ट्वीट या बयान नहीं आया है। पूरी दुनिया फिलहाल इस बात के लिए फिक्रमंद है कि अगर अरब देशों में अशांति होती है तो इसका सीधा असर तेल की कीमतों पर पड़ेगा। वैश्विक मंदी से जूझ रहे देशों के लिए यह स्थिति बेहद चिंताजनक होगी।
चलते-चलते
यरुशलम मामले पर जहां एक तरफ पूरी दुनिया की नजर मोदी पर है, वहीं मोदी शांत हैं। जबकि बीजेपी के फायर ब्रांड नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने साफ तौर पर कहा है कि भारत को भी अपना दूतावास यरुशलम शिफ्ट कर देना चाहिए। हालांकि भारतीय विदेश मंत्रालय का बयान बेहद संतुलित है। भारत ने स्पष्ट किया है कि भारत का रुख स्वतंत्र और सतत है जो हमारे हितों एवं दृष्टिकोण के आधार पर बना है और यह किसी अन्य तीसरे देश के द्वारा तय नहीं किया गया है।

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