Monday, December 4, 2017

आर्थिक विकास का राजनीतिकरण घाटे का सौदा

लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीति के तमाम मुद्दे होते हैं। इन मुद्दों पर अल्पकालिक और दीर्घकालिक रणनीति बनाकर राजनीतिक पार्टियां अपनी रोटी सेंकती हैं। पर आर्थिक विकास दर का मुद्दा हमेशा से ही घाटे का सौदा साबित होता है, क्योंकि यह एक ऐसा मुद्दा है जो न जाने कब कौन सी करवट बैठ जाए। हाल के दिनों में (खासकर नोटबंदी के बाद) प्रमुख विपक्षी दलों ने इसे मुद्दा बनाया। पहली तिमाही का परिणाम जब आया तब विकास दर 5.7 के आंकड़ों के साथ बैक गेयर में थी। कांग्रेस सहित तमाम पार्टियों ने इसे तत्काल लपक लिया। अब दूसरी तिमाही के रिजल्ट आते ही यही पार्टियां बैकफुट पर हैं। वह भी गुजरात जैसे महत्वपूर्ण चुनाव के वक्त। मंथन करने का वक्त है कि क्या इस तरह के विकास दर को मुद्दा बनाकर हम भारत के लोगों का ध्यान भटकाने का काम करना चाह रहे हैं या फिर सच में भारत के विकास में सहयोग देना चाहते हैं।
आर्थिक विकास दर में उतार चढ़ाव एक सामान्य सी बात होती है। इसीलिए सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की वृद्धि दर में कभी गिरावट आए तो इसका राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए। इस पर मातम मनाने से कोई सार्थक परिणाम नहीं आने वाला। कांग्रेस का इसे दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए कि पार्टी में इतने बड़े-बड़े आर्थिक धुरंधरों के रहते पार्टी ने बिना विचार विमर्श किए गुजरात चुनाव में जीडीपी को मुद्दा बनाकर पेश किया। तीन महीने पहले जब केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) ने चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही के आर्थिक आंकड़े जारी किए तो कांग्रेस को लगा कि इससे बड़ा मुद्दा नहीं हो सकता। उस वक्त जीडीपी की विकास दर गिरकर 5.7 फीसदी पर आ गई थी। विपक्षी पार्टियों ने इसे सीधे तौर पर नोटबंदी का नतीजा बता दिया। लोगों के बीच ऐसा भ्रम फैलाने की कोशिश की जाने लगी कि मोदी सरकार ने भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी भूल कर दी है। केंद्र सरकार को घेरने के लिए पूरी ताकत झोंक दी गई। गुजरात चुनाव के लिए तो जैसे बैठे बिठाए एक मुद्दा मिल गया। नोटबंदी और जीएसटी के बाद वैसे भी गुजरात का व्यापारी वर्ग केंद्र सरकार से थोड़ा नाराज था। विपक्षी पार्टियों को लगा कि अर्थव्यवस्था के इस सबसे बड़े मायाजाल में व्यापारियों के अलावा सामान्य लोगों को भी उलझा दिया जाए। आर्थिक रणनीतिकारों के अनुसार यह किसी भी पार्टी की सबसे बड़ी भूल है कि वह आर्थिक मामलों का इतना हल्के से राजनीतिकरण करे।
अब विपक्षी पार्टियों की राजनीति औंधे मूंह गिर गई है। खासकर गुजरात चुनाव के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो यह विपक्षी पार्टियों की सबसे बड़ी भूल है। एक तरफ जहां सभी विपक्षी पार्टियां जीडीपी में गिरावट को लेकर मोदी सरकार पर हमलावर थीं, वहीं दूसरी तरफ केंद्र सरकार यह आश्वस्त करने में जुटी थी कि यह शुरुआती झटका है, जो आने वाले समय में भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करेगा।
अब जबकि सीएसओ ने दूसरी तिमाही के आंकड़े जारी कर दिए हैं तो कहा जा सकता है सरकार का आश्वासन सौ फीसदी सही था। सीएसओ द्वारा जारी आंकड़ों में आर्थिक विकास दर 6.3 प्रतिशत तक पहुंच गई है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन क्षेत्रों में छह फीसदी से अधिक की वृद्धि दर्ज की गई है उसमें मैन्यूफैक्चरिंग, बिजली, गैस, जल आपूर्ति, होटल परिवहन एवं संचार तथा प्रसारण से जुड़ी सेवाएं शामिल हैं। आर्थिक विश्लेषण के आधार पर प्रमाणित हो गया है कि उत्पादन और उपभोग दोनों ही मामलों में अर्थव्यवस्था की रफ्तार आगे बढ़ी है।
गुजरात चुनाव में केंद्र सरकार की नाकामियों के गिनाने के क्रम में सबसे ऊपर जीडीपी की चर्चा की जा रही थी। ऐसे में अब बीजेपी ने हालिया पेश आंकड़ों को प्रमुखता से बताना शुरू कर दिया है। पर सबसे अहम बात मंथन के लिए यह है कि सामान्य नागरिक को इस तरह के आंकड़ों में कोई दिलचस्पी नहीं होती है। राजनीतिक पार्टियों को भी यह अच्छी तरह पता है कि इस तरह के आंकड़े घटते बढ़ते रहते हैं। इससे सरकार की चाल पर भले ही असर पड़े, लेकिन सामान्य नागरिक की सेहत पर खास असर नहीं होता है। पर यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि सियासी होड़ में जुटे विरोधी दल और उसके बड़े-बड़े नेता ऐसे मामलों पर राजनीति शुरू कर देते हैं। राजनीति में विरोध के लिए दीर्घकालिक नजरिया अपनाने की जरूरत होती है। आर्थिक मामले हमेशा से ही अल्पकालिक होते हैं। सभी दलों में कुछ बड़े अर्थशास्त्री होते हैं जो इस तरह के आर्थिक मामलों को मुद्दा बनाने के लिए वृहत तैयारी करते हैं। पर अफसोस इस बात का है कि हाल के दिनों में परिस्थितियां बिल्कुल बदल गई हैं। मुद्दों की तलाश में भटक रही विपक्षी पार्टियां हर एक बात में मुद्दा खोज ले रही हैं।

भारत की आर्थिक व्यवस्था का विश्लेषण किया जाए तो हाल ही में विश्व बैंक की ईज आॅफ डूइंग बिजनेस (कारोबार में आसानी) सूची में भारत ने 30 पायदान की जबरदस्त छलांग लगाई है। अंतरराष्टÑीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसी मूडीज ने भी अपनी सूची में भारत का दर्जा बढ़ाया। इसके बाद एक अन्य रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने अपनी रिपोर्ट में इस बात को माना कि भारत की आर्थिक बुनियाद मजबूत है। जब आधार सशक्त हो, तो अर्थव्यवस्था का विकसित होना स्वाभाविक परिणाम होता है। अब सीएसओ की दूसरी तिमाही के आंकड़ों ने आर्थिक विकास की कहानी को सामने ला दिया है। हालांकि केंद्र सरकार के लिए भी यह अतिउत्साह का मुद्दा नहीं होना चाहिए। केंद्र सरकार के मंत्रियों को भी इस तरह के मुद्दों को लेकर संयमित बयान देने चाहिए, क्योंकि ये उतार चढ़ाव होते रहेंगे। भविष्य में अगर यह आंकड़े कम हुए तो मुंह छिपाना मुश्किल हो जाएगा। केंद्र सरकार संयम बरतते हुए अपने विकास कार्यों पर ध्यान केंद्रित करे इससे बेहतर परिणाम आने की संभावना बढ़ेगी। यह सही है कि गुजरात विधानसभा चुनाव से ठीक पहले ऐसे सकारात्मक आंकड़ों का सामने आना बीजेपी के लिए उत्साहवर्द्धक है। बीजेपी इसे भुना भी रही है। पर राजनीतिक लाभ हानि के बजाय देश हित में इसपर मंथन किए जाने की जरूरत है। मैंने पहले भी अपने इस कॉलम में इस बात पर चर्चा की थी कि भारत इस वक्त आर्थिक प्रयोगों के दौर से गुजर रहा है। नोटबंदी और जीएसटी जैसा ऐतिहासिक फैसला इन्हीं आर्थिक प्रयोगों की देन है। इन आर्थिक प्रयोगों का सकारात्मक परिणाम दीर्घकालिक होगा। ऐसे में बेवजह राजनीतिक दलों को इन आर्थिक प्रयोगों का राजनीतिकरण नहीं करना चाहिए। देशहित में हमें इन आर्थिक प्रयोगों में गंभीरता और सकारात्मक तरीके से योगदान करना चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए कि परिणाम सार्थक होंगे।
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चलते-चलते
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जीडीपी इस वक्त गुजरात में चुनावी मुद्दा बना है। बीजेपी के लिए दूसरे तिमाही का परिणाम भले ही खुशहाली प्रदान करने वाला है। पर चैन से बैठने का यह कदापि समय नहीं है। बीजेपी का घोषित लक्ष्य आठ प्रतिशत और उससे ज्यादा है। ऐसे में अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है।

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