Monday, December 25, 2017

सवाल इस्लाम का नहीं, महिलाओं के हक का है

केंद्र सरकार ने मुस्लिम महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा और हक के लिए एक बड़ी पहल की है। तीन तलाक को लेकर तमाम दुश्वारियों को खत्म करते हुए सरकार जल्द संसद में बिल पेश कर सकती है। पर उम्मीद के मुताबिक इस्लाम धर्म के चंद ठेकेदारों ने एक बार फिर अपना पुराना राग अलापना शुरू कर दिया है। पर मंथन का वक्त है कि जो चंद लोग इस बिल को इस्लाम के खिलाफ बताने पर तुले हैं क्या उन्हें मुस्लिम महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा और हक का सवाल वाजिब नहीं लगता। उन्हें समझना होगा कि सवाल इस्लाम का नहीं, महिलाओं के हक का है।
आॅल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने केंद्र सरकार के तीन तलाक बिल का सीधा विरोध शुरू कर दिया है। लखनऊ में रविवार को हुई बैठक के बाद बोर्ड ने केंद्र सरकार से बिल को संसद में पेश नहीं करने की मांग की है। बैठक में तीन तलाक के मुद्दे पर विस्तार से चर्चा की गई। बताया गया है कि यह बिल मुस्लिम महिलाओं की परेशानियों को और अधिक बढ़ा देगा। यह बिल औरतों के खिलाफ है। लॉ बोर्ड ने कानून के मसौदे को वापस लेने की मांग की है। बोर्ड ने कहा कि पहले से मौजूद कानून काफी थे, ऐसे में नए बिल की कोई जरूरत नहीं है। बोर्ड का मानना है कि तीन तलाक संबंधी विधेयक का मसौदा मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों, शरियत तथा संविधान के खिलाफ है। इसके अलावा यह मुस्लिम पर्सनल लॉ में दखलंदाजी की भी कोशिश है।
कुछ दिन पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की बैठक में मुस्लिम महिला (विवाह अधिकारों का संरक्षण) बिल यानि ट्रिपल तलाक बिल को मंजूरी दे दी गई थी। यह बिल संसद के शीतकालीन सत्र में सरकार के मुख्य एजेंडे में शामिल है। उम्मीद थी कि 22 दिसंबर के सत्र में इसे पेश कर दिया जाएगा। पर किसी कारण से यह पेश नहीं हो सका। लंबे समय के मंथन के बाद राजनाथ सिंह की अध्यक्षता में बने मंत्री समूह ने सलाह मशविरे के बाद बिल का ड्राफ्ट तैयार किया था। सुप्रीम कोर्ट ने इस साल तीन तलाक पर लगातार सुनवाई की। अगस्त में कोर्ट ने अंतिम फैसला देते हुए कहा कि तीन तलाक हर तरह से गैरकानूनी है और केंद्र सरकार को इस पर जल्द कानून लाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक इस बिल में तीन तलाक को आपराधिक करने के लिए कड़े प्रावधान शामिल किए गए। तमाम पहलुओं पर विचार के बाद इसे कैबिनेट की मंजूरी मिली थी। इस बिल के अनुसार तीन तलाक को अब गैरजमानती अपराध माना गया है। अब दोषी पाए जाने पर इसके लिए तीन साल की जेल के अलावा जुर्माना भी देना पड़ सकता है। प्रस्तावित कानून एक बार में तीन तलाक या 'तलाक-ए-बिद्दत' पर लागू होगा और यह पीड़िता को अपने तथा नाबालिग बच्चों के लिए गुजारा भत्ता मांगने के लिए मजिस्ट्रेट से गुहार लगाने की शक्ति देगा। पीड़ित महिला मजिस्ट्रेट से नाबालिग बच्चों के संरक्षण का भी अनुरोध कर सकती है और मजिस्ट्रेट इस मुद्दे पर अंतिम फैसला करेंगे। किसी भी तरह का तीन तलाक (बोलकर, लिखकर या ईमेल, एसएमएस और व्हाट्सएप जैसे इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से) गैरकानूनी होगा।
कैबिनेट की मंजूरी के साथ ही इस मुद्दे पर राजनीतिक बहस फिर तेज हो गई है। बहस अगर सार्थक दृष्टि से होती तो इसे पूरे देश के मुस्लिम समुदाय का समर्थन होता। पर इस मामले पर चंद लोग ही विरोध के सुर में सुर मिला रहे हैं। सबसे मुखर रूप से मुस्लिम महिलाओं ने इस बिल का स्वागत किया। मुस्लिम महिलाओं ने इसे अपनी सामाजिक सुरक्षा के लिए उठाया गया सबसे बड़ा कदम बताया।
रविवार को जब लखनऊ में इस बिल के विरोध में स्वर उभरे तो देहरादून में मैंने अपनी छोटी बहन शबनम को फोन लगाया। वकालत पेशे से जुड़ी शबनम से मैंने इस संबंध में इसलिए पूछा क्योंकि वकालत पेशे से पहले वह एक पारिवारिक मुस्लिम महिला है और बेहद धार्मिक भी। सीधा सवाल पूछा तीन तलाक का तुम समर्थन करती हो या विरोध। सीधा जवाब मिला, आज जब मुस्लिम महिलाओं के हक और सोशल सिक्योरिटी की बात हो रही है तो लोग परेशान हैं। हमारे लिए यह बिल किसी सौगात से कम नहीं। जब सभी इस्लामिक देशों में इस पर कानून है तो हमारे यहां क्यों नहीं? यह एक बड़ी पहल है। हम इस कानून के साथ हैं। 
  आॅल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सचिव जफरयाब जिलानी ने कहा है कि हमारे पास खुद के कानून मौजूद हैं। केंद्र सरकार को हमारे पर्सनल लॉ में दखल नहीं देना चाहिए। यह बिल महिलाओं की परेशानियों को और बढ़ा देगा। अब मंथन का समय है कि आखिर परेशानी किसे होगी। पुरुषप्रधान समाज को या महिलाओं को, जिन्हें अंदाजा ही नहीं होता है कि कब उसे तलाक..तलाक..तलाक..कहकर घर से निकाल कर सड़क पर फेंक दिया जाएगा। दरअसल समस्या उन्हें हैं जो हर जगह अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहते हैं। हर बात को इस्लाम से जोड़ने वाले धर्म के चंद ठेकेदारों ने कभी नहीं चाहा कि उनका समाजिक सुरक्षा अधिक मजबूत हो। क्योंकि अगर सामाजिक सुरक्षा बढ़ेगी तो उनका वर्चस्व कम होगा।
हां यह सच है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ में भी तीन तलाक वाली महिलाओं के लिए अलग फोरम है। पर क्या कोई यह आंकड़ा जारी कर सकता है कि इस फोरम ने कितने महिलाओं को न्याय दिलाया है। मंथन करना चाहिए कि अगर महिलाओं को यहां से न्याय मिलता रहता तो सुप्रीम कोर्ट को इतनी कड़ी टिप्पणी नहीं करनी पड़ती। और केंद्र सरकार को इतने कड़े कानून नहीं बनाने पड़ते।
मुस्लिम नेताओं को यह समझना चाहिए कि यह मामला किसी धर्म से जुड़ा मामला नहीं है, यह महिलाओं को उनका हक दिलाने से जुड़ा मामला है। सभी राजनीतिक दलों को अपने अपने हित से उठकर इसका समर्थन करना चाहिए। अगर इस मुद्दे का भी राजनीतिकरण किया गया तो महिलाओं को उनका हक नहीं मिल सकेगा। भारतीय समाज में अन्य धर्म की महिलाओं को भी शादी विवाह को लेकर संविधान के तहत कानूनन सुरक्षा मिली हुई है। ऐसे में हम मुस्लिम महिलाओं को कानूनी सुरक्षा से क्यों महरूम रखना चाहते हैं। यह कैसी राजनीति है? मंथन जरूरी है।
चलते-चलते
आॅल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड ने अपनी बैठक के बाद एक महत्वपूर्ण बात कही है। बोर्ड के अनुसार बिल को ड्राफ्ट करते समय मुस्लिम पक्ष को शामिल नहीं किया गया। अगर सच में ऐसा हुआ है तो सरकार को जरूर मंथन करना चाहिए, क्योंकि जब हमारी नियत साफ है तो सभी को साथ लेकर चलने में क्या बुराई है? ऐसे भी इस अहम मुद्दे पर समाज के अधिसंख्य लोग तो सरकार के साथ ही हैं।

Monday, December 18, 2017

हम ही हम हैं तो क्या हम हैं तुम ही तुम हो तो...

आज हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधानसभा के रिजल्ट आ रहे हैं। जीत और हार की भविष्यवाणी की जा चुकी है। उम्मीद लगाई जा रही है कि रिजल्ट भी इसके आसपास ही होंगे। इसके बाद भी रिजल्ट चाहे जो हो, पर यह चुनाव कई मायनों में एक अलग इबादत लिख कर समाप्त हो रहा है। दोनों दलों ने जिस राजनीतिक लालसा के लिए अपनी पराकाष्ठा को पार किया वह अपने आप में अलग रिसर्च का विषय हो सकता है। आज जब मैं अपना यह साप्ताहिक कॉलम मंथन लिखने बैठा हूं तो बरबस मुझे मशहूर शायर सरशार सैलानी के गजल की ये चंद पंक्तियां याद आ रही हैं। मंथन से पहले सैलानी जी की ये चार पंक्यिां भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के लिए..आप भी मजा लें.. 
चमन में इख्तिलात-ए-रंग-ओ -बू से बात बनती है
हम ही हम हैं तो क्या हम हैं तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो
अंधेरी रात तूफानी हवा टूटी हुई कश्ती
यही अस्बाब क्या कम थे कि इस पर नाखुदा तुम हो
हमारा प्यार रुस्वा-ए-जमाना हो नहीं सकता
न इतने बा-वफा हम हैं न इतने बा-वफा तुम हो
गुजरात का चुनाव खास इस बात के लिए याद रखा जाएगा कि सभी दलों के नेताओं ने अपनी वाणी की सीमाएं लांघ दीं। आरोप-प्रत्यारोप तो राजनीति का आधार बन चुके हैं पर निजी हमलों ने सभी को चौंकाया। किसका खानदान क्या है और कौन प्रतिदिन लाखों की मशरूम खाकर अपना गाल लाल कर रहा है, इस तरह के हैरान और परेशान कर देने वाले शब्दों ने सभी मर्यादाएं तोड़ कर रख दी। यह वक्त सभी पार्टियों के लिए मंथन का वक्त है कि हम अपनी राजनीति को किस दिशा में लेकर जा रहे हैं।
कांग्रेस के लिए इस चुनाव में बहुत कुछ खोने या पाने के लिए नहीं था। हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस पहले ही हार मान चुकी थी। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार होने के बावजूद कांग्रेस के दिग्गजों ने हिमाचल के चुनाव को खास तवज्जो नहीं दी। हिमाचल को लेकर कांग्रेस में कोई खास उत्साह नहीं दिखा था। राजनीतिक पंडितों की भाषा में कहा जाए तो कांग्रेस ने यहां बीजेपी को वॉकओवर दे दिया। कारण चाहे जो भी रहे हों, लेकिन कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का इस तरह हिमाचल से मुंह मोड़ना कहीं से भी तर्कपूर्ण नहीं दिखा। उसी कांग्रेस ने अपने नवनियुक्त अध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में बीजेपी के गढ़ में अच्छी चुनौती पेश की। जब आप यह मंथन पढ़ रहे होंगे तो टीवी स्क्रीन पर रिजल्ट के अपडेट भी आने शुरू हो गए होंगे। कांग्रेस पार्टी के लिए यह रिजल्ट कई मायनों में ऐतिहासिक होगा। खासकर राहुल गांधी के लिए। गुजरात चुनाव में जीत मिलेगी या हार यह चर्चा का केंद्र बिंदु होगा। पर राहुल गांधी ने जिस तरह गुजरात चुनाव के प्रचार में अपनी नेतृत्व क्षमता को दिखाया है वह प्रशंसनीय है। रिजल्ट आने से दो दिन पहले कांग्रेस की कमान उनके हाथ में सौंपा जाना भी एक स्ट्रैटेजी का हिस्सा हो सकता है। जीत मिली तब भी वाह-वाह और अगर हार मिली तब भी यह दिखाना उद्देश्य है कि जीत या हार मायने नहीं रखती। कांग्रेस को राहुल गांधी के नेतृत्व में भरोसा था और भविष्य में भी रहेगा।
सबसे अधिक अगर किसी को मंथन करना है तो वह भारतीय जनता पार्टी और उसका शीर्ष नेतृत्व है। जिस तरह कांग्रेस को हिमाचल में हार का डर सता रहा था तो उसने वहां वॉकओवर ही दे दिया। पर अपने गढ़ में बीजेपी ने ऐसा नहीं होने दिया। कांग्रेस ने निश्चित तौर पर गुजरात में फील्ड वर्क किया, तभी वहां जोरदार तरीके से कैंपेन करने की प्लानिंग की थी। न केवल प्लानिंग की बल्कि उसी तरीके से वहां ताबड़तोड़ बैटिंग भी की। बीजेपी को मंथन इस बात पर करना है कि आखिर इतने साल सत्ता में रहने के बावजूद ऐसी स्थिति क्यों बनी कि कांग्रेस को वहां सेंधमारी करनी पड़ी। सेंधमारी भी ऐसी की अंतिम दौर के चुनाव तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित केंद्र सरकार की पूरी कैबिनेट गुजरात में डेरा जमाए रखी। गुजरात का यह चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न है। जीत या हार के बाद उनकी भी विभिन्न तरीकों से समीक्षा की जाएगी। पर इस समीक्षा के पहले बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को यह जरूर मंथन करना चाहिए कि आने वाले समय में इस साख को कैसे कायम रखा जाए। हरियाणा और मध्यप्रदेश में बीजेपी की सरकार होने के बावजूद ग्राउंड रियलिटी किसी से छिपी नहीं है। अपने-अपनों की टांग खिंचाई में लगे हैं। गुजरात में पूर्व मुख्यमंत्री आनंदी बेन और मौजूदा सीएम विजय रुपाणी अपने बलबूते कुछ भी करने में सक्षम नहीं दिखे। 
मैं वर्ष 2016 में गुजरात गया था। वहां मुख्यमंत्री विजय रुपाणी से रूबरू होने का मौका भी मिला था। करीब बीस मिनट की मुलाकात में उन्होंने गुजरात को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सपनों का राज्य बताने में कोई कोर कसर बाकि नहीं रखी थी। आखिरकार मैंने उनसे पूछ ही लिया था कि गुजरात को लेकर नरेंद्र मोदी को जो करना था वो कर गए। एक प्रधानमंत्री दोबारा मुख्यमंत्री बनने आए ऐसा आज तक हुआ नहीं। अब तो जो करना है आपको या आपकी अगली पीढ़ी को करना है। ऐसे में गुजरात के विकास और उस विकास मॉडल को लेकर आपकी अपनी क्या राया है। आपका क्या विजन है। आप कैसे यहां से आगे ले जाएंगे गुजरात को। यकीन मानिए बेहद अफसोस हुआ था मुख्यमंत्री विजय रुपाणी का जवाब सुनकर। उन्होंने कहा, नरेंद्र मोदी ने हमें एक रास्ता दिखाया है हम उसी पर आगे बढ़ेंगे। उनके सपनों के गुजरात को और सजाएंगे संवारेंगे। विजय रुपाणी जब यह जवाब दे रहे थे उस वक्त उनके चेहरे का हाव भाव बता रहा था कि सच में उनके पास गुजरात के लिए अपना कोई विजन नहीं है। शायद यही कारण है कि चंद महीनों बाद ही प्रदेश में राजनीतिक भुचाल आना शुरू हो गया। आग में घी डालने का काम किया पाटीदार आंदोलन ने। धीरे-धीरे स्थितियां ऐसी हो गर्इं कि अपने सपनों के गुजरात को संंभालने में खुद नरेंद्र मोदी के पसीने छुटते दिखे।
आज चुनाव का परिणाम अगर बीजेपी के पक्ष में आ भी गया तो मेरे अनुसार यह बहुत जश्न का विषय नहीं होना चाहिए, बल्कि मंथन का समय होना चाहिए। जो सत्ता विकास के दम पर बहुत आसानी से बीजेपी को मिल जानी चाहिए वह गुजरात में मोदी के बाद नेतृत्व शून्यता के कारण इतनी संघर्ष से मिली। इसलिए भविष्य के लिए तैयारी करनी होगी।
सिर्फ गुजरात ही क्यों तमाम ऐसे राज्य हैं जहां बीजेपी की सरकार है वहां के लिए भी यह चुनाव बहुत कुछ सीख दे जाएगा। आने वाले समय में लोकसभा का चुनाव सामने होगा। ऐसे में कांग्रेस को युवा नेतृत्व के रूप में राहुल गांधी का साथ मिल चुका है। गुजरात चुनाव में राहुल गांधी ने जिस परिपक्वता के साथ फ्रंट फुट पर कमान संभाली है उसने कई संदेश एक साथ दे दिए हैं। राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद का कार्यभार संभालने के बाद अपने पहले भाषण में ही स्पष्ट कर दिया है आने वाले दिनों में उनकी व्यूह रचना क्या होगी।

Thursday, December 14, 2017

मोहाली के मैदान से... दिल तो लूटा रोहित ने, दिल में बस गया पांड्या

हार्दिक पांड्या की यह तस्वीर प्रतिकात्मक है, जो आईपीएल मैच की है। रोहित के दोहरे शतक के बाद कुछ ऐसा ही जश्न मोहाली के मैदान में मनाया हार्दिक  ने।
मोहाली के मैदान में दिल तो लूटा रोहित ने, लेकिन दिल में बस गया हार्दिक पांडया। जी मैं सच कह रहा हूं। काफी दिनों बाद मुझे अंतरराष्टÑीय मैच देखने का समय मिला। आॅफिस की तमाम व्यस्तताओं के बीच दो घंटे का समय निकाल सका पंजाब रणजी टीम के प्लेयर विश्वास की बदौलत। उनकी मेरे साथ मैच देखने की जिद मुझे बुधवार को मोहाली स्टेडियम लेकर गई। एक बजे स्टेडियम में पहुंचा। तय हुआ कि तीन बजे तक मैच देखा जाएगा। इंडियन इनिंग 3 बजे समाप्त हो जाएगी। मुझे तीन बजे एक जरूरी मीटिंग में जाना था। मीटिंग की टेंशन से हटकर मैं मैच के हर पल का मजा लेना चाहता था। मैंने अपनी टीम को मैसेज से सूचना दे दी कि मैं थोड़ा लेट हो जाऊंगा, इसलिए मीटिंग टाइम थोड़ा बढ़ा देना।
हम लोग जब एक बजे स्टेडियम पहुंचे तो रोहित से ज्यादा शबाब पर नजर आ रहे थे युवा बल्लेबाज अय्यर। दुर्भाग्यवश वो शतक पूरा नहीं कर सके, लेकिन रोहित ने अपना शतक शानदार अंदाज में पूरा किया। शतक पूरा करते ही रोहित गेंदबाजों की धुलाई करेगा, ऐसा तो अनुमान सभी लगा रहे थे, लेकिन इस तरह गेंदबाजों का हौसला तोड़ देंगे इसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी। श्रीलंका से पहला मैच बेहद खराब तरीके से हार चुकी भारतीय टीम में रोहित ने नई जान डाल दी थी। मैच को करोड़ों दर्शकों ने टीवी पर लाइव देखा। दनादन बरस रहे छक्कों और चौकों की बरसात में हर एक निगाह रोहित शर्मा की तरफ थी। टीवी कैमरों का फोकस या तो रोहित पर था या उनकी पत्नी पर। अंतिम ओवरों का रोमांच इस कदर चरम पर था कि रोहित..रोहित के शोर से मोहाली स्टेडियम गूंज रहा था। अंतिम ओवर में स्टेडियम में बैठे सारे दर्शक उठ खड़े हुए थे। तालियों की गड़गड़ाहट और रोहित..रोहित के शोर के बीच मैदान में एक ऐसा प्लेयर भी मौजूद था जिसने स्कूली दिनों में दोहरा शतक जड़कर अपनी हारी हुई टीम को जीत दिला थी।
मैं बात कर रहा हूं हर दिल अजीज हार्दिक पांड्या की। बहुत कम लोगों का पता होगा कि हार्दिक पांड्या ने बीसीसीआई के अंडर 16 टूर्नामेंट में अपना सर्वोच्य स्कोर 228 बना रखा है। बड़ौदा की तरफ से खेलते हुए उन्होंने अपनी टीम को उस वक्त जीत दिलाई थी जब 265 रन का पीछा करते हुए बड़ौदा ने 23 रन पर अपने 4 विकेट खो दिए थे। अपनी लाजवाब इनिंग (228) की बदौलत पांड्या ने न केवल बड़ौदा को जीत दिलाई बल्कि अपना लकी नंबर भी 228 ही रख लिया। टीम इंडिया में उन्होंने अपनी जर्सी का नंबर भी 228 ही रखा है।

  यह है मोहाली मैदान की तस्वीर। हार्दिक की खुशी हैलमेट के अंदर से भी झलक रही है। प्राउडी मूमेंट।
..तो मैं बता रहा था कि जब लाइव टेलिकास्ट कर रहे सभी टीवी कैमरों की नजर रोहित और उनकी पत्नी पर थी तो मैदान में खड़ा हर एक शख्स रोहित का साथ दे रहे हार्दिक पांडया को भी देख पा रहा था। जैसे ही रोहित ने रन दौड़कर अपना दोहरा शतक पूरा किया यकीन मानिए हार्दिक पांडया ने मेरा दिल जीत लिया। स्टेडियम के पवेलियन छोर की तरफ रोहित दौड़ते हुए उछल रहे थे, जबकि दूसरी तरफ हार्दिक पांड्या उछल रहे थे। दोगुनी रफ्तार से हार्दिक पांड्या ने बॉलिंग एंड पर उछाल भर कर रोहित के दोहरे शतक का जश्न मनाया था।
आज की टांग खिंचाई जिंदगी में स्पोर्ट्स ही एक ऐसा क्षेत्र है जहां दूसरों की सफलता में हम अपनी सफलता देख पाते हैं। खासकर मैदान के बीच जब ऐसे पल नजर आते हैं तो दिल को सुकून मिलता है। जितनी खुशी पूरे देश को हो रही थी उतनी ही खुशी मैदान में रोहित का साथ दे रहे हार्दिक पांड्या को भी हो रही होगी। पर उनका उछलना, बैट को हवा में लहराना, दौड़ते हुए आकर रोहित को गले लगाना ये कुछ ऐसे पल थे जो मेरे लिए जिंदगी भर न भूलने वाला पल होगा। सैल्यूट रोहित को जिन्होंने मोहाली स्टेडियम में दो घंटे सार्थक कर दिए। और डबल सैल्यूट हार्दिक पांड्या को जिन्होंने जिंदगी की बेहतरीन मिशाल पेश की। पांड्या का वह जश्न लाजवाब था। धोनी की तरह दिल में बस गया यह मुंडा...

Monday, December 11, 2017

यह अमेरिकी वर्चस्व का ‘ट्रंप’ स्ट्रोक है

अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने जब सत्ता संभाली थी उसके बाद से ही स्पष्ट हो गया था कि अरब वर्ल्ड में आने वाले समय में जोरदार हलचल रहेगी। यरुशलम को लेकर भी कुछ हल्के फुल्के बयान सामने आए थे। पर कोई यह कयास नहीं लगा सका था कि इतनी जल्दी इस अति संवेदनशील मुद्दे पर ट्रंप अपना मास्टर स्ट्रोक खेल देंगे। यरुशलम को इजरायल की राजधानी घोषित कर अमेरिका ने स्पष्ट कर दिया है कि उसका अरब वर्ल्ड को लेकर क्या सोचना है। फिलहाल भारत के लिए मंथन का सही वक्त है कि वह इस डेवेलपमेंट पर क्या स्टैंड ले। इस्लामिक देशों ने अपना छिटपुट विरोध जताकर स्पष्ट कर दिया है कि आने वाले समय में अरब वर्ल्ड सहित एशिया के देशों में भयंकर गुटबाजी सामने आएगी।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रही अपीलों को अनदेखा करते हुए राष्ट्रपति ट्रंप ने यरुशलम को इजरायल की राजधानी के तौर पर मान्यता दी। मान्यता देने के साथ ही ट्रंप ने तत्काल यह घोषणा भी कर दी कि अमेरिकी दूतावास तेल अवीव से यरुशलम शिफ्ट किया जाएगा। अमेरिका के इस कदम का इजरायल को छोड़कर फिलहाल किसी दूसरे देश ने समर्थन नहीं किया है। यूएन में भी अमेरिका इस मुद्दे पर अलग-थलग पड़ा है। यह एक ऐसा वैश्विक घटनाक्रम है जो आने वाले समय में नए तरीके से अमेरिका के वर्चस्व का इतिहास लिखेगा। यरुशलम का विवाद सिर्फ दो देशों का विवाद नहीं है, बल्कि तीन हजार साल से चली आ रही सभ्यताओं का विवाद है। एक झटके में अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपने फैसले से भले ही विवाद को सुलझा लेने की बात कही है, लेकिन यह इतना भी आसान नहीं है।
अमेरिका के ट्रंप स्ट्रोक को समझने से पहले हमें यरुशलम के विवाद पर नजर दौड़ानी होगी। यरुशलम में यहूदियों, ईसाइयों और मुस्लिमों यानि तीनों सभ्यताओं का अनोखा मेल है। तीनों का सबसे बड़ा धार्मिक केंद्र भी यहीं है। यही कारण है कि यरुशलम सिर्फ राजनीतिक मुद्दा न होकर अति संवेदनशील धार्मिक मुद्दा भी है। इजरायल पूरे यरुशलम पर अपना दावा करता आया है। 1967 के युद्ध के बाद इजरायल ने यरुशलम के पूर्र्वी हिस्से पर भी अपना कब्जा कर लिया। वहीं फिलिस्तीनियों का कहना है कि यह पूरा क्षेत्र उनका है। पूरे यरुशलम पर इजरायल का नियंत्रण होने के बावजूद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई मामलों में इजरायल पिछड़ रहा है। ऐसे में उसकी पूरजोर कोशिश थी कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यरुशलम को इजरायल की राजधानी के रूप में मान्यता मिल जाए। हालांकि इजरायल की पूरी सरकार यरुशलम से ही संचालित होती है। प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर संसद और सुप्रीम कोर्ट तक यरुशलम में ही है। पर अभी तक जितने भी देशों के दूतावास हैं वो तेल अवीव में है। ऐसे में यरुशलम में अपना दूतावास शिफ्ट करने की घोषणा करने के साथ ही अमेरिका ने यरुशलम को अंतरराष्ट्रीय मान्यता देने की घोषणा कर दी है। इजरायल को छोड़ कर किसी भी अन्य देश ने अमेरिकी राष्ट्रपति के ताजा कदम का समर्थन नहीं किया है। सभी ने इसे ट्रंप का एकतरफा फैसला बताया है।
हो सकता है यह ट्रंप का एकतरफा फैसला ही हो। पर मंथन करने की जरूरत है कि आखिर ट्रंप ने इतना दुस्साहसिक कदम कैसे उठा लिया? क्या ट्रंप को इस बात का इल्म नहीं कि पूरे इस्लामिक वर्ल्ड में उनका यह कदम इस्लाम के खिलाफ उनकी नीति का एक हिस्सा माना जाएगा? दरअसल ट्रंप ने यह घोषणा कर एक ऐसा मास्टर स्ट्रोक खेला है जिसका परिणाम आने वाले समय में नजर आएगा। फिलिस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने तो सीधे तौर पर कहा है कि मध्य पूर्व में शांति के लिए मध्यस्थ के तौर पर ट्रंप ने अपनी विश्वसनीयता खो दी है। फैसले के कारण पहले से अस्थिर इस क्षेत्र में नए सिरे से अशांति पैदा हो सकती है। तुर्की और ईरान ने भी ट्रंप के कदम की कड़ी आलोचना की है। तुर्की ने इसे गैर जिम्मेदाराना और गैरकानूनी फैसला बताया है, जबकि ईरान ने कहा है कि इस कदम से मुसलमान भड़केंगे। 
अब सवाल उठता है कि ट्रंप ने यह फैसला किसके दम पर और क्यों लिया है। वास्तव में बाहर से देखने पर अरब वर्ल्ड और इजरायल एक दूसरे के दुश्मन नजर आते हैं, लेकिन भीतर खाने बहुत कुछ पक रहा है। सऊदी अरब और इजरायल के बीच कभी कूटनीतिक रिश्ते नहीं रहे, लेकिन ईरान दोनों का साझा दुश्मन है। दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है। इसी कदम पर चलते हुए दोनों देश मध्य पूर्व में ईरान के बढ़ते प्रभाव को रोकना चाहते हैं। अमेरिका को यह सबसे मुफीद वक्त लगा, क्योंकि पूरे अरब वर्ल्ड में इस वक्त फूट चल रही है। अरब क्षेत्र में अलगाव की स्थिति बनी हुई है। अरब लीग और गल्फ कोआॅपरेशन काउंसिल में भी अलगाव हो चुका है। एक तरफ सऊदी अरब है तो दूसरी तरफ कतर है, जबकि तीसरी तरफ बाकी अरब देश हैं। सऊदी अरब में भी गृहयुद्ध की स्थिति है। उत्तराधिकारी को लेकर वहां लड़ाई चरम पर है। हाल यह है कि मौजूदा किंग अपने बेटे को राजा बनाने की कोशिश में हैं, इसलिए दूसरे महत्वपूर्ण किंग दावेदार सऊदी की जेल में बंद हैं। मुस्लिम देशों के लिए सऊदी अरब हमेशा से ही नेता की भूमिका निभाता आया है, ऐसे में वह अभी इस स्थिति में नहीं है कि अमेरिकी विरोध का नेतृत्व कर सके। इसके अलावा ज्यादातर इस्लामिक देश इस वक्त गृह युद्ध का दंश झेल रहे हैं। सीरिया, इराक, लीबिया सहित कई अन्य अरब देशों में इतनी शक्ति नहीं बची है कि वह गृह युद्ध के बीच यरुशलम को लेकर क्रांति का कोई झंडा उठाए। अमेरिका ने मौके का फायदा उठाया है। सऊदी अरब हो, पूरा खाड़ी क्षेत्र हो या फिर मिस्र हो। ये सारे राष्ट्र सुरक्षा को लेकर पूरी तरह अमेरिका पर ही निर्भर हैं, ऐसे में वे अमेरिका से सीधा पंगा नहीं लेंगे। छिपटपुट विरोध प्रदर्शन की बात छोड़ दें तो किसी में इतनी हिम्मत नहीं कि वह अमेरिका के सामने विरोध दर्ज कराए। सिर्फ मिस्र ही एक ऐसा देश था जो अमेरिका से आंखें मिला सकता था, लेकिन मिस्र का इजरायल के साथ शांति समझौता है, ऐसा उसके विरोध की कोई संभावना नहीं। जॉर्डन भी इजरायल के साथ बेहतर संबंध रखने को इच्छुक है।
फिलहाल इस्लामिक भावनाओं के मद्देनजर कुछ कट्टरपंथी संगठन विभिन्न इस्लामिक देशों में प्रदर्शन कर रहे हैं और अमेरिका को देख लेने की धमकी दे रहे हैं, पर यह विरोध भी क्षणिक ही साबित होगा। क्योंकि अमेरिका के विरोध के लिए बड़े इस्लामिक मूवमेंट की जरूरत पड़ेगी, फिलहाल इसकी संभावना कम ही है। इस्लामिक मूवमेंट के लिए किंग अब्दुल्ला जैसे किसी पराक्रमी किंग की जरूरत है, जबकि इस समय गृहयुद्ध में उलझे इस्लामिक देशों में कोई नेतृत्वकर्ता दूर तक नजर नहीं आता। इस्लामिक संगठनों का विरोध भी सिर्फ धार्मिक ही है। इसे कट्टरता से भी जोड़ा जा सकता है, क्योंकि यरुशलम में ही मक्का के बाद मुस्लिमों का दूसरा सबसे बड़ा धार्मिक केंद्र है। फिलिस्तीन कभी भी अरब देशों के राजनीतिक एजेंडे में नहीं है। इनका सबसे बड़ा दुश्मन ईरान है। ऐसे में अमेरिकी शह पाकर इजरायल ही एक ऐसा देश है जो सीधे तौर पर ईरान से पंगा ले सकता। 

ट्रंप के कदम के बाद पूरी दुनिया की नजर एशिया पर लगी है। खासकर भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी क्या कदम उठाते हैं इस पर कयास लगाए जा रहे हैं, क्योंकि हाल ही में मोदी ने इजरायल की यात्रा कर इतिहास रचा था। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि भारत किसकी ओर है, अमेरिका और इजरायल के साथ या फिर अरब वर्ल्ड के साथ। ट्रंप की इस्लाम विरोधी छवि अब भी कायम है, जबकि भारतीय प्रधानमंत्री ने हाल के वर्षों में तमाम मुस्लिम देशों खासकर सऊदी अरब, कतर और ओमान की यात्रा कर अरब वर्ल्ड में एक बेहतर छवि बनाने का प्रयास किया है। सऊदी अरब के साथ मोदी के गर्मजोशी के रिश्ते पूरी दुनिया में चर्चा का केंद्र भी बन चुका है। ऐसे में भारत के हर एक कदम पर दुनिया की नजर है। फिलहाल मोदी शांत हैं। उनकी तरफ से इस मामले पर कोई ट्वीट या बयान नहीं आया है। पूरी दुनिया फिलहाल इस बात के लिए फिक्रमंद है कि अगर अरब देशों में अशांति होती है तो इसका सीधा असर तेल की कीमतों पर पड़ेगा। वैश्विक मंदी से जूझ रहे देशों के लिए यह स्थिति बेहद चिंताजनक होगी।
चलते-चलते
यरुशलम मामले पर जहां एक तरफ पूरी दुनिया की नजर मोदी पर है, वहीं मोदी शांत हैं। जबकि बीजेपी के फायर ब्रांड नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने साफ तौर पर कहा है कि भारत को भी अपना दूतावास यरुशलम शिफ्ट कर देना चाहिए। हालांकि भारतीय विदेश मंत्रालय का बयान बेहद संतुलित है। भारत ने स्पष्ट किया है कि भारत का रुख स्वतंत्र और सतत है जो हमारे हितों एवं दृष्टिकोण के आधार पर बना है और यह किसी अन्य तीसरे देश के द्वारा तय नहीं किया गया है।

Monday, December 4, 2017

आर्थिक विकास का राजनीतिकरण घाटे का सौदा

लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीति के तमाम मुद्दे होते हैं। इन मुद्दों पर अल्पकालिक और दीर्घकालिक रणनीति बनाकर राजनीतिक पार्टियां अपनी रोटी सेंकती हैं। पर आर्थिक विकास दर का मुद्दा हमेशा से ही घाटे का सौदा साबित होता है, क्योंकि यह एक ऐसा मुद्दा है जो न जाने कब कौन सी करवट बैठ जाए। हाल के दिनों में (खासकर नोटबंदी के बाद) प्रमुख विपक्षी दलों ने इसे मुद्दा बनाया। पहली तिमाही का परिणाम जब आया तब विकास दर 5.7 के आंकड़ों के साथ बैक गेयर में थी। कांग्रेस सहित तमाम पार्टियों ने इसे तत्काल लपक लिया। अब दूसरी तिमाही के रिजल्ट आते ही यही पार्टियां बैकफुट पर हैं। वह भी गुजरात जैसे महत्वपूर्ण चुनाव के वक्त। मंथन करने का वक्त है कि क्या इस तरह के विकास दर को मुद्दा बनाकर हम भारत के लोगों का ध्यान भटकाने का काम करना चाह रहे हैं या फिर सच में भारत के विकास में सहयोग देना चाहते हैं।
आर्थिक विकास दर में उतार चढ़ाव एक सामान्य सी बात होती है। इसीलिए सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की वृद्धि दर में कभी गिरावट आए तो इसका राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए। इस पर मातम मनाने से कोई सार्थक परिणाम नहीं आने वाला। कांग्रेस का इसे दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए कि पार्टी में इतने बड़े-बड़े आर्थिक धुरंधरों के रहते पार्टी ने बिना विचार विमर्श किए गुजरात चुनाव में जीडीपी को मुद्दा बनाकर पेश किया। तीन महीने पहले जब केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) ने चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही के आर्थिक आंकड़े जारी किए तो कांग्रेस को लगा कि इससे बड़ा मुद्दा नहीं हो सकता। उस वक्त जीडीपी की विकास दर गिरकर 5.7 फीसदी पर आ गई थी। विपक्षी पार्टियों ने इसे सीधे तौर पर नोटबंदी का नतीजा बता दिया। लोगों के बीच ऐसा भ्रम फैलाने की कोशिश की जाने लगी कि मोदी सरकार ने भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी भूल कर दी है। केंद्र सरकार को घेरने के लिए पूरी ताकत झोंक दी गई। गुजरात चुनाव के लिए तो जैसे बैठे बिठाए एक मुद्दा मिल गया। नोटबंदी और जीएसटी के बाद वैसे भी गुजरात का व्यापारी वर्ग केंद्र सरकार से थोड़ा नाराज था। विपक्षी पार्टियों को लगा कि अर्थव्यवस्था के इस सबसे बड़े मायाजाल में व्यापारियों के अलावा सामान्य लोगों को भी उलझा दिया जाए। आर्थिक रणनीतिकारों के अनुसार यह किसी भी पार्टी की सबसे बड़ी भूल है कि वह आर्थिक मामलों का इतना हल्के से राजनीतिकरण करे।
अब विपक्षी पार्टियों की राजनीति औंधे मूंह गिर गई है। खासकर गुजरात चुनाव के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो यह विपक्षी पार्टियों की सबसे बड़ी भूल है। एक तरफ जहां सभी विपक्षी पार्टियां जीडीपी में गिरावट को लेकर मोदी सरकार पर हमलावर थीं, वहीं दूसरी तरफ केंद्र सरकार यह आश्वस्त करने में जुटी थी कि यह शुरुआती झटका है, जो आने वाले समय में भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करेगा।
अब जबकि सीएसओ ने दूसरी तिमाही के आंकड़े जारी कर दिए हैं तो कहा जा सकता है सरकार का आश्वासन सौ फीसदी सही था। सीएसओ द्वारा जारी आंकड़ों में आर्थिक विकास दर 6.3 प्रतिशत तक पहुंच गई है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन क्षेत्रों में छह फीसदी से अधिक की वृद्धि दर्ज की गई है उसमें मैन्यूफैक्चरिंग, बिजली, गैस, जल आपूर्ति, होटल परिवहन एवं संचार तथा प्रसारण से जुड़ी सेवाएं शामिल हैं। आर्थिक विश्लेषण के आधार पर प्रमाणित हो गया है कि उत्पादन और उपभोग दोनों ही मामलों में अर्थव्यवस्था की रफ्तार आगे बढ़ी है।
गुजरात चुनाव में केंद्र सरकार की नाकामियों के गिनाने के क्रम में सबसे ऊपर जीडीपी की चर्चा की जा रही थी। ऐसे में अब बीजेपी ने हालिया पेश आंकड़ों को प्रमुखता से बताना शुरू कर दिया है। पर सबसे अहम बात मंथन के लिए यह है कि सामान्य नागरिक को इस तरह के आंकड़ों में कोई दिलचस्पी नहीं होती है। राजनीतिक पार्टियों को भी यह अच्छी तरह पता है कि इस तरह के आंकड़े घटते बढ़ते रहते हैं। इससे सरकार की चाल पर भले ही असर पड़े, लेकिन सामान्य नागरिक की सेहत पर खास असर नहीं होता है। पर यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि सियासी होड़ में जुटे विरोधी दल और उसके बड़े-बड़े नेता ऐसे मामलों पर राजनीति शुरू कर देते हैं। राजनीति में विरोध के लिए दीर्घकालिक नजरिया अपनाने की जरूरत होती है। आर्थिक मामले हमेशा से ही अल्पकालिक होते हैं। सभी दलों में कुछ बड़े अर्थशास्त्री होते हैं जो इस तरह के आर्थिक मामलों को मुद्दा बनाने के लिए वृहत तैयारी करते हैं। पर अफसोस इस बात का है कि हाल के दिनों में परिस्थितियां बिल्कुल बदल गई हैं। मुद्दों की तलाश में भटक रही विपक्षी पार्टियां हर एक बात में मुद्दा खोज ले रही हैं।

भारत की आर्थिक व्यवस्था का विश्लेषण किया जाए तो हाल ही में विश्व बैंक की ईज आॅफ डूइंग बिजनेस (कारोबार में आसानी) सूची में भारत ने 30 पायदान की जबरदस्त छलांग लगाई है। अंतरराष्टÑीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसी मूडीज ने भी अपनी सूची में भारत का दर्जा बढ़ाया। इसके बाद एक अन्य रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने अपनी रिपोर्ट में इस बात को माना कि भारत की आर्थिक बुनियाद मजबूत है। जब आधार सशक्त हो, तो अर्थव्यवस्था का विकसित होना स्वाभाविक परिणाम होता है। अब सीएसओ की दूसरी तिमाही के आंकड़ों ने आर्थिक विकास की कहानी को सामने ला दिया है। हालांकि केंद्र सरकार के लिए भी यह अतिउत्साह का मुद्दा नहीं होना चाहिए। केंद्र सरकार के मंत्रियों को भी इस तरह के मुद्दों को लेकर संयमित बयान देने चाहिए, क्योंकि ये उतार चढ़ाव होते रहेंगे। भविष्य में अगर यह आंकड़े कम हुए तो मुंह छिपाना मुश्किल हो जाएगा। केंद्र सरकार संयम बरतते हुए अपने विकास कार्यों पर ध्यान केंद्रित करे इससे बेहतर परिणाम आने की संभावना बढ़ेगी। यह सही है कि गुजरात विधानसभा चुनाव से ठीक पहले ऐसे सकारात्मक आंकड़ों का सामने आना बीजेपी के लिए उत्साहवर्द्धक है। बीजेपी इसे भुना भी रही है। पर राजनीतिक लाभ हानि के बजाय देश हित में इसपर मंथन किए जाने की जरूरत है। मैंने पहले भी अपने इस कॉलम में इस बात पर चर्चा की थी कि भारत इस वक्त आर्थिक प्रयोगों के दौर से गुजर रहा है। नोटबंदी और जीएसटी जैसा ऐतिहासिक फैसला इन्हीं आर्थिक प्रयोगों की देन है। इन आर्थिक प्रयोगों का सकारात्मक परिणाम दीर्घकालिक होगा। ऐसे में बेवजह राजनीतिक दलों को इन आर्थिक प्रयोगों का राजनीतिकरण नहीं करना चाहिए। देशहित में हमें इन आर्थिक प्रयोगों में गंभीरता और सकारात्मक तरीके से योगदान करना चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए कि परिणाम सार्थक होंगे।
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चलते-चलते
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जीडीपी इस वक्त गुजरात में चुनावी मुद्दा बना है। बीजेपी के लिए दूसरे तिमाही का परिणाम भले ही खुशहाली प्रदान करने वाला है। पर चैन से बैठने का यह कदापि समय नहीं है। बीजेपी का घोषित लक्ष्य आठ प्रतिशत और उससे ज्यादा है। ऐसे में अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है।