Tuesday, November 14, 2017

न बंगाल न ओडिशा, बिहार के रसगुल्ले का जवाब नहीं


भले ही रसगुल्ले को लेकर चल रही रोचक कानूनी लड़ाई बंगाल ने जीत ली है। भले ही ओडिशा को रसगुल्ले की लड़ाई में पटखनी देते हुए ममता बनर्जी ने इसे पूरे बंगाल की जीत बताई हो। पर मेरे लिए तो अपने बिहार के रसगुल्ले से स्वादिष्ट कहीं और का रसगुल्ला नहीं लगता। रसगुल्ला खाना बेहद आसान है। पर जब बंगाल और ओडिशा के बीच चल रही कानूनी लड़ाई की बारिकियों से आप रूबरू होंगे तो अचंभित रह जाएंगे कि रसगुल्ला का स्वादिष्ट होना इतना अधिक तीखा हो सकता है। "मुसाफिर" आपको आज रसगुल्ले के हर एक पहलू से रूबरू करवाएगा, साथ ही बताएगा क्यों बिहार का रसगुल्ला सभी पर भारी है।
पहले बात, रसगुल्ले को लेकर चली लंबी कानूनी लड़ाई की
रसगुल्ले का आविष्कार ओडिशा में हुआ या पश्चिम बंगाल में इसको लेकर दोनों राज्यों के बीच वर्षों से कानूनी लड़ाई चली आ रही है। इस लड़ाई की शुरुआत ओडिशा ने की थी। वर्ष 2010 में एक मैग्जीन ने राष्टÑीय मिठाई को लेकर सर्वे करवाया था, जिसमें रसगुल्ले को राष्टÑीय मिठाई के रूप में पेश किया गया। उस वक्त इसने काफी सुर्खियां बटोरी। इसके बाद से ही ओडिशा सरकार रसगुल्ले पर अपनी दावेदारी पेश करता रहा। यहां तक तो ठीक था, पर जब वर्ष 2015 में ओडिशा के विज्ञान व तकनीकी मंत्री प्रदीप कुमार पाणिग्रही ने रसगुल्ले पर आधिकारिक बयान दे दिया तब विवाद बढ़ गया। पाणिग्रही ने न केवल आधिकारिक बयान दिया, बल्कि रसगुल्ले को लेकर जीआई यानि ज्योग्रॉफिकल इंडिकेशन टैग हासिल करने के लिए आवेदन करवा दिया। ओडिशा सरकार की इस पहल के बाद बंगाल सरकार ने कड़ा कदम उठाया। बंगाल की तरफ से मोरचा लिया खाद्य और प्रसंस्करण मंत्री अब्दुर्रज्जाक मोल्ला। उन्होंने रसगुल्ले के आविष्कार पर बंगाल का एकाधिकार बताते हुए अपील दायर कर दी।
क्या होता है जीआई टैग?
दरअसल जीआई यानि ज्योग्रॉफिकल टैग किसी वस्तु की वह भौगोलिक पहचान होती है जो उस वस्तु के उद्गम स्थल को बताती है। कहने का मतलब है कि वह वस्तु सबसे पहले कहां मिली या बनाई गई इसका आधिकारिक सर्टिफिकेट मिल जाता है। ओडिशा सरकार ने रसगुल्ले को राज्य की भौगोलिक पहचान से जोड़ने का जैसे ही कदम उठाया विवाद पैदा हो गया। दोनों राज्यों ने इसे अपनी अस्मिता का प्रश्न बताते हुए सरकारी समितियों तक का गठन कर दिया। लंबी कानूनी लड़ाई में दावों और दस्तावेजों के बीच बंगाल का पलड़ा भारी पड़ा। फाइनली पश्चिम बंगाल जीआई टैग हासिल करने में कामयाब रहा। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इसे पूरे बंगाल की जीत बताते हुए ट्वीट किया और राज्य के लोगों को बधाई दी।
ओडिशा के रसगुल्ले ने मुझे चौंकाया था
मैं साल 2001 में ओडिशा गया था। राज्य के जिस कोने में गया रसगुल्ले की सुलभता ने अंचभित किया। बचपन से समझता आया था कि रसगुल्ला मतलब बंगाल। पर ओडिशा में रसगुल्ले के स्वाद, रंग और सुलभता ने दुकानदारों से बात करने को मजबूर कर दिया। जगन्नाथपुरी प्रवास के दौरान मैंने एक दुकानदार से सवाल पूछ ही लिया कि ऐसा क्या है कि यहां हर दुकान में रसगुल्ला मौजूद है, जबकि यह तो बंगाल में सबसे अधिक मिलता है। दुकानदार ने पहले तो ऊपर से नीचे तक मुझे ताड़ा, फिर बोला रसगुल्ला हमारा है बंगाल का नहीं। उस दुकानदार ने अपनी बातों को और अधिक प्रमाणिकता देने के लिए यहां तक कह दिया कि ओडिशा से रसगुल्ला बंगाल तक सप्लाई किया जाता है। सच बताऊं तो मुझे अंदर ही अंदर हंसी आई, पर दुकानदार के तेवर देखकर चुप रहा।
उस वक्त एंड्रायड फोन और इंटरनेट की सुलभता का जमाना नहीं था। रांची लौटने पर जब अपने संस्मरण (डायरी) लिख रहा था तो रसगुल्ले की बातें भी लिखी। फिर एक दिन दफ्तर में इंटरनेट सर्फिंग के दौरान रसगुल्ले पर जानकारी हासिल की। जानकर बेहद आश्चर्य हुआ और उस दुकानदार की बात में भी दम लगा, जब मैंने यह पढ़ा कि कटक और भुवनेश्वर के बीच एक छोटी सी जगह पहाला में रसगुल्ले की होलसेल मार्केट है। उस रास्ते से हम भी गुजरे थे, पर रुके नहीं थे। हाईवे के दोनों तरफ मिठाई की दुकानें सजी थीं। पढ़ा कि कैसे वर्षों से पहाला में सड़क के दोनों किनारों पर रसगुल्ले की थोक मार्केट सजती है और यहां के रसगुल्ले देश के कोने कोने में जाते हैं। आज भी पहाला रसगुल्ले के लिए बेहद प्रसिद्ध है।
क्यों ओडिशा ने किया था दावा?
ओडिशा में रसगुल्ले की कहानी धर्म से जुड़ी है। यहां की सरकार का दावा है कि करीब छह सौ वर्षों से यह मिठाई यहां मौजूद है। ओडिशा सरकार और वहां के इतिहासकार इसे भगवान जगन्नाथ को चढ़ाए जाने वाले भोग ‘खीर मोहन’ से जोड़कर देखते हैं। विश्वप्रसिद्ध रथयात्रा के समापन पर भी भगवान जगन्नाथ द्वारा मां लक्ष्मी को रसगुल्ला भेंट करने की प्रथा सैकड़ों साल पुरानी है। इस दिन को निलाद्री विजय कहा जाता है और इस दिन महालक्ष्मी को रसगुल्ले का भोग लगाना अतिआवश्यक माना जाता है। माना जाता है कि खीर मोहन ही रसगुल्ले का जन्मदाता है। एक दूसरा तर्क पहाला गांव को लेकर है। भुवनेश्वर के छोटे से गांव पहाला में पशुओं की अधिक संख्या के कारण दूध की पर्याप्त उपलब्धता थी। दूध इतना अधिक होता था कि यूं ही बर्बाद हो जाता था। ऐसे में यहां के लोगों ने छेना बनाने की विधि का इजात किया। इसी छेने से मिठाई बनाने की परंपरा शुरू   हुई। इस मिठाई में रसगुल्ले ने अपनी विशिष्ट पहचान कायम कर ली। आज के इस दौर में भी इसमें दो राय नहीं कि पहाला गांव का रसगुल्ला सर्वश्रेष्ठ है। आज भी पहाला ओडिशा में रसगुल्ला सप्लाई का मुख्य केंद्र है। यहां से बंगाल सहित देश के अन्य राज्यों में भी रसगुल्ले की सप्लाई होती है। हां, एक ऐतिहासिक तथ्य यह है कि ओडिशा के किसी भी धार्मिक या ऐतिहासिक दस्तावेज में दूध, मक्खन, दही, खीर के अलावा छेना का जिक्र नहीं है। रसगुल्ला बनाने के लिए छेना का होना उतना की जरूरी है जितना दही जमाने के लिए दूध का।
क्यों प्रसिद्ध है बंगाल का रसगुल्ला?
धार्मिक दुनिया में खीर मोहन के प्रसाद से आगे बढ़कर रसगुल्ले तक की कहानी को भले ही ओडिशा सरकार ने मान्यता दे रखी है, पर बंगाल की कहानी इससे कहीं जुदा है। बंगाल के इतिहास में इस बात का स्पष्ट तौर पर उल्लेख मिलता है कि यहां के निवासी नबीन चंद्र दास ने वर्ष 1868 में रसगुल्ला बनाने की शुरुआत की थी। बंगाल में रसगुल्ला को रोसोगुल्ला कहा जाता है। बंगाल में जब डच और पुर्तगालियों ने आना शुरू किया तो उन्होंने दूध के जरिए छेना बनाने की कला का जिक्र किया। नबीन चंद्र दास जो मूलत: हलवाई का काम करते थे उन्होंने इस विधि को अपनाया। छेना को मिठाई का रूप में परिवर्तित करने के कारण ही नबीन चंद्र का नाम इतिहास के पन्नों में कोलंबस आॅफ रोसोगुल्ला के रूप में अंकित हो गया। बंगाल की ममता बनर्जी सरकार ने भी रसगुल्ला को लेकर चली कानूनी लड़ाई में नबीन चंद्र दास के वंशजों की मदद ली। इस वक्त बंगाल में नबीन चंद्र दास के वंशज केसी दास प्राइवेट लिमिटेड नाम से अपनी फर्म का संचालन करते हैं। यह मिठाई की दुकानों की एक चेन है जो रसगुल्लों के लिए प्रसिद्ध है। नबीन चंद्र दास के वंशजों ने रसगुल्ले की परंपरा को आगे बढ़ाया।
बंगालियों ने नकार दिया था रसगुल्ले को
बताया जाता है कि नबीन चंद्र दास ने  कोलकाता के जोराशंको में अपनी पहली मिठाई की दुकान खोली। पर बंगाल के लोगों ने रसगुल्ले के स्वाद को नकार दिया। उनकी जीभ पर संदेश का स्वाद चढ़ा था। जल्द ही यह दुकान बंद कर देनी पड़ी। दो साल बाद उन्होंने रसगुल्ले पर तमाम प्रयोग के बाद दूसरी दुकान बागबाजार में खोली। उन्होंने छेने के गोले को चीनी की चाश्नी में पिरोकर जब लोगों को पेश की तो लोगों ने इसे हाथो-हाथ लिया। चीनी की रस में डूबे होने के कारण ही बंगाल के लोगों ने इसे अपनी बोलचाल की भाषा में रोसोगुल्ला कहा। अर्थात रस में डूबा हुआ गुल्ला।
हर राज्य में बदलता गया रोसोगुल्ले का स्वरूप
कोलकाता से निकला रोसोगुल्ला विभिन्न राज्यों में अपने नए स्वरूप में अवतरित होता गया। कोलकात्ता से सटे बिहार में यह रसगुल्ला कहलाया, जबकि उत्तरप्रदेश में राजभोग। राजस्थान में इसे रसभरी या रसबरी के नाम से मान्यता मिली तो कई दूसरे प्रदेशों में इसे रसमलाई कहा जाने लगा।
बिहार के रसगुल्ले का जवाब नहीं
बंगाल और ओडिशा की तरह बिहार के कोने कोने में रसगुल्ला सुलभ है। छोटी दुकान हो बड़ी दुकान आपको बिहार का रसगुल्ला निराश नहीं करेगा। जब छोटा था तो ननिहाल नरपतगंज में गर्मी की छुट्टियां बितती थी। मेरे छोटे मामा की शादी कटिहार में हुई है। कटिहार में बंगालियों की अच्छी तादात है। वहां के कल्चर में भी बंगाल की छाप है। ऐसे में रोसोगुल्ला का स्वाद अपने आप अनूठा हो जाता है। छोटी मामी भी गर्मी की छुट्टियों में रांची से नरपतगंज आ जाती थीं। ऐसे में कटिहार से उनके पापा खूब सारे आम के साथ वहां की फेमस मिठाई लेकर नरपतगंज आते थे। हमें आम से अधिक रसगुल्ले का इंतजार रहता था। मिट्टी की हांडी में उस रसगुल्ले का स्वाद आज भी जीभ पर है। इसी तरह मुजफ्फरपुर के भारत जलपान और महाराजा स्वीट्स के रसगुल्ले का स्वाद जिसने एक बार चख लिया वह उसका मूरीद हो जाता है। आरा के रसगुल्ले का स्वाद हो या फिर बिहारशरीफ के रसगुल्ले का। नालंदा का रसगुल्ला हो या फिर लखीसराय के बढ़ैया का। बिहार में जिधर निकल जाएं हर जगह का रसगुल्ला अपनेपन का अहसास दिलाता है।
हाल ही में नया स्वाद मिला है
रसगुल्ला से विशेष लगाव रहा है। हाल ही में पंचकूला में रसगुल्ले का नया स्वाद मिला है। आकार में विशालकाय इस रसगुल्ले से रूबरू करवाया स्वामी संपूर्णानंद जी महाराज ने। अपने आश्रम में एक दिन प्रसाद के रूप में उन्होंने जब इस विशालकाय रसगुल्ले को दिया तो मैं हैरान रह गया। हैरान पहले तो उसके विशालकाय स्वरूप को लेकर था, बाद में उसके स्वाद ने भी अचंभित किया। विश्वास नहीं हो रहा था कि पंचकूला जैसे शहर में भी जहां बंगाली सभ्यता संस्कृति नाम मात्र की है वहां इतना बेहतरीन रसगुल्ला कैसे मिल सकता है। अब मैं उस रसगुल्ले का मूरीद हूं। आज ही आॅफिस में रसगुल्ले के खबर की चर्चा के दौरान साथियों से वादा किया है कि उस स्पेशल रसगुल्ले का स्वाद जल्द ही सभी को चखाऊंगा।

फिलहाल आप भी जश्न मनाइए कि रसगुल्ला रोसोगुल्ला ही रहेगा। बंगाल का ही रहेगा। अगर आर्टिकल का स्वाद मिठा लगा है तो दूसरों को भी इसका स्वाद चखाएं अर्थात शेयर करें। 

1 comment:

Shashie vermaa said...

Lage hatho Riga ke rasgulla ka bhi jikra kar dete..