Monday, November 27, 2017

  आम आदमी पार्टी से ‘चार आदमी पार्टी’ तक
आम आदमी पार्टी जिन मूल्यों के लिए स्थापित की गई थी, पार्टी अब उन सभी मूल्यों से भटक गई है। आज 5 साल बाद कहां खड़े हैं हम, ये कहां आ गए हम। आम आदमी पार्टी से लेकर चार आदमी पार्टी तक आ गए।’’ यह दर्द बयां किया है दिल्ली २सरकार के पूर्व मंत्री और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के कभी सबसे करीबी रहे कपिल मिश्रा ने। आम आदमी पार्टी के अस्तित्व में आए पांच साल हो रहे हैं। कपिल ने अपने ब्लॉग में आम आदमी पार्टी के पूरे अस्तित्व, विजन और कार्यों पर  व्यंग्यात्मक लेकिन तथ्यात्मक विश्लेषण करते हुए कई बड़े सवाल खड़े किए हैं। कपिल मिश्रा बागी हैं, इसलिए उनकी बातों से आम आदमी ज्यादा इत्तेफाक नहीं रखेगी, लेकिन निश्चित तौर पर यह समय आम आदमी पार्टी और इसे चला रहे चंद लोगों के लिए मंथन का वक्त है। मंथन इस बात पर कि क्या जिस उद्देश्य के लिए आम आदमी पार्टी की स्थापना की गई थी वह सही अर्थों में आम आदमी की पार्टी बन सकी।
दो दिन पहले ही एक तस्वीर वायरल हुई थी। इसमें आम आदमी पार्टी के सर्वेसर्वा अरविंद बीमार सी हालत में बिस्तर पर लेटे हैं और उनकी बगल में कवि कुमार विश्वास जमीन पर बैठे हैं। तस्वीर के कई पहलू हैं। यह तस्वीर शायद उन दिनों की है जब स्वराज आंदोलन पूरे शबाब पर था। पूरा देश अन्ना और केजरीवाल के साथ था। ऐसी ही तस्वीरों ने आम आदमी पार्टी के अस्तित्व में आने की पटकथा लिखी थी। उस वक्त ऐसा लगने लगा था कि सच में अब भारत की कई बीमारियों की जड़ इसी तरह के आंदोलन से खत्म की जाएगी। यही कारण था कि अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में जब आम आदमी पार्टी का गठन हुआ तो पूरे देश ने इसे एक तीसरे राजनीतिक विकल्प के रूप में देखा। 
यह आम आदमी की सोच और विश्वास का ही नतीजा था कि चंद महीनों में ही आम आदमी पार्टी ने राष्टÑीय राजधानी को अपने कब्जे में ले लिया। अन्ना आंदोलन के दौरान भी राष्टÑीय राजधानी पर इनका कब्जा था और विधानसभा चुनाव के बाद भी पार्टी के रूप में कब्जा कायम रहा। लोगों का भरोसा इस पार्टी पर इतना अधिक हो गया कि हर तरफ इसकी चर्चा होने लगी। राष्टÑवाद के उन्माद से निकली एक पार्टी पर लोगों को वैसे तो कई बार अफसोस आया, पर सबसे बड़ा अफसोस तब हुआ तब राष्टÑवाद और देशभक्ति का रस घोल कर लोगों को पिलाने वाली पार्टी ने ही भारतीय अस्मिता से जुडेÞ ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ पर ही निशाना साध दिया। केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी पहली ऐसी पार्टी बनी जिसने राष्ट्रवाद को तिलांजलि देते हुए सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत तक मांग डाले। 
आम आदमी से जुडेÞ सभी पुराने लोगों को तानाशाही रवैया दिखाते हुए पहले ही बाहर किया जा चुका था। चाहे योगेंद्र यादव हों या फिर प्रशांत भूषण। सभी को पार्टी ने बाहर का रास्ता सिर्फ इसलिए दिखाया क्योंकि इन लोगों ने पार्टी में लोकतंत्र की बात कहनी शुरू कर दी थी। आम आदमी पार्टी की स्थापना जिन लोकतांत्रिक मुल्यों की रक्षा के लिए की गई थी उन्हीं  लोकतांत्रिक मूल्यों की पार्टी के अंदर हत्या कर दी गई। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद पार्टी मुखिया अरविंद केजरीवाल का अगला लक्ष्य न तो तब नजर आया और न अब नजर आ रहा है। हां इतना जरूर है जिस तरह उन्होंने मोदी भगाओ देश बचाओ का झंडा उठा लिया उसने आम लोगों को यह विश्वास जरूर दिला दिया कि पार्टी अपने लक्ष्य और उद्देश्य से भटक गई है।
तूं जहां चलेगा मेरा साया साथ होगा की तर्ज पर अरविंद केजरीवाल ने अपना और अपनी पार्टी का सिर्फ एक ही लक्ष्य तय कर दिया, यह लक्ष्य था मोदी को हराना। उन्हें चुनौती देना। उन्हें ललकारना। लोकसभा चुनाव में बनारस पहुंच जाना। वहां से प्रत्याशी बन जाना। गोवा और पंजाब चुनाव में पूरी ताकत झोंक देना। बिहार में लालू को गले लगाकर अपना हमदम बना लेना। ये कुछ ऐसी घटनाएं हुर्इं जिसने सबसे ज्यादा दिल्ली के लोगों को निराश किया। 
एक पार्टी के रूप में हर जगह आम आदमी पार्टी की जग हंसाई हुई। जबकि एक व्यक्तित्व के रूप में अरविंद केजरीवाल की छवि को सबसे अधिक नुकसान हुआ। जिन मूल्यों के लिए पार्टी की स्थापना हुई, उन सभी मूल्यों से पार्टी भटक गई। पार्टी प्रमुख ने अपना सबसे अधिक समय या तो नरेंद्र मोदी के खिलाफ खर्च किया या फिर दिल्ली  के एलजी से भिड़ने में अपना समय गंवाया। नतीजा दोनों ही मामलों में शुन्य निकला, लेकिन पार्टी के तौर पर आम आदमी पार्टी माइनस में चली गई। इस बीच दिल्ली की जनता अपने निर्णय पर पश्चाताप करती रही दूसरी तरफ पार्टी के आधे से अधिक विधायक जेल की हवा खा आए। तमाम तरह के विवाद और घोटालों की कहानी ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया कि पार्टी कोई भी हो उसका मूल चरित्र न कभी बदला है और न कभी बदलेगा। 
सत्ता हासिल करना आसान हो सकता है, लेकिन उस सत्ता को कायम रखना बेहद मुश्किल है। इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता को कायम रखने के लिए जनता के दिल में रहना जरूरी है। और जनता दिल में सिर्फ उन्हीं को रखती है जो दिल में रहना जानते हैं। आम आदमी पार्टी के लिए यह समय मंथन का है। मंथन विभिन्न दिशाओं में करना है। दूसरे राज्यों में जाकर पार्टी ने अपना हर्ष देख लिया है। सिर्फ उन्माद में आकर सत्ता तक पहुंच जाने को अपनी जीत समझ लेने की भूल से बाहर निकलना होगा। कांग्रेस को पता है कि सत्ता उन्हें   परंपरागत मिलती रही है। भारतीय जनता पार्टी को पता है कि सत्ता पाने के लिए उन्होंने कितना संघर्ष किया है। कितनी जमीनी सच्चाइयों से उन्हें रूबरू होना पड़ा है। पर आम आदमी पार्टी का क्या? मंथन करना होगा कि क्या सिर्फ दिल्ली में हल्ला बोल कर वह पूरे देश में राज कर सकते हैं। क्या सिर्फ हवा हवाई बातें कर पूरे देश की आम आदमी पार्टी बन सकते हैं। 
चलते चलते
वैसे तो आम आदमी पार्टी के लिए कई बड़े नामों ने अपनी पूर्णाहूति दी और पार्टी से निकल गए या निकाल दिए गए। नामों की फेहरिस्त काफी लंबी है। सभी ने पार्टी के अस्तित्व पर सवाल उठाए। पर कपिल मिश्रा पार्टी की अंदरूनी हकीकतों से सबसे अधिक जुड़े रहे। शायद इसीलिए उन्होंने पांच साल की पार्टी पर सबसे बड़ा तंज कसते हुए लिखा है..
आंदोलन की हत्या करके उसकी लाश सजाए बैठे हैं
कुछ लोग अब भी केजरीवाल से आस लगाए बैठे हैं।।

Tuesday, November 14, 2017

न बंगाल न ओडिशा, बिहार के रसगुल्ले का जवाब नहीं


भले ही रसगुल्ले को लेकर चल रही रोचक कानूनी लड़ाई बंगाल ने जीत ली है। भले ही ओडिशा को रसगुल्ले की लड़ाई में पटखनी देते हुए ममता बनर्जी ने इसे पूरे बंगाल की जीत बताई हो। पर मेरे लिए तो अपने बिहार के रसगुल्ले से स्वादिष्ट कहीं और का रसगुल्ला नहीं लगता। रसगुल्ला खाना बेहद आसान है। पर जब बंगाल और ओडिशा के बीच चल रही कानूनी लड़ाई की बारिकियों से आप रूबरू होंगे तो अचंभित रह जाएंगे कि रसगुल्ला का स्वादिष्ट होना इतना अधिक तीखा हो सकता है। "मुसाफिर" आपको आज रसगुल्ले के हर एक पहलू से रूबरू करवाएगा, साथ ही बताएगा क्यों बिहार का रसगुल्ला सभी पर भारी है।
पहले बात, रसगुल्ले को लेकर चली लंबी कानूनी लड़ाई की
रसगुल्ले का आविष्कार ओडिशा में हुआ या पश्चिम बंगाल में इसको लेकर दोनों राज्यों के बीच वर्षों से कानूनी लड़ाई चली आ रही है। इस लड़ाई की शुरुआत ओडिशा ने की थी। वर्ष 2010 में एक मैग्जीन ने राष्टÑीय मिठाई को लेकर सर्वे करवाया था, जिसमें रसगुल्ले को राष्टÑीय मिठाई के रूप में पेश किया गया। उस वक्त इसने काफी सुर्खियां बटोरी। इसके बाद से ही ओडिशा सरकार रसगुल्ले पर अपनी दावेदारी पेश करता रहा। यहां तक तो ठीक था, पर जब वर्ष 2015 में ओडिशा के विज्ञान व तकनीकी मंत्री प्रदीप कुमार पाणिग्रही ने रसगुल्ले पर आधिकारिक बयान दे दिया तब विवाद बढ़ गया। पाणिग्रही ने न केवल आधिकारिक बयान दिया, बल्कि रसगुल्ले को लेकर जीआई यानि ज्योग्रॉफिकल इंडिकेशन टैग हासिल करने के लिए आवेदन करवा दिया। ओडिशा सरकार की इस पहल के बाद बंगाल सरकार ने कड़ा कदम उठाया। बंगाल की तरफ से मोरचा लिया खाद्य और प्रसंस्करण मंत्री अब्दुर्रज्जाक मोल्ला। उन्होंने रसगुल्ले के आविष्कार पर बंगाल का एकाधिकार बताते हुए अपील दायर कर दी।
क्या होता है जीआई टैग?
दरअसल जीआई यानि ज्योग्रॉफिकल टैग किसी वस्तु की वह भौगोलिक पहचान होती है जो उस वस्तु के उद्गम स्थल को बताती है। कहने का मतलब है कि वह वस्तु सबसे पहले कहां मिली या बनाई गई इसका आधिकारिक सर्टिफिकेट मिल जाता है। ओडिशा सरकार ने रसगुल्ले को राज्य की भौगोलिक पहचान से जोड़ने का जैसे ही कदम उठाया विवाद पैदा हो गया। दोनों राज्यों ने इसे अपनी अस्मिता का प्रश्न बताते हुए सरकारी समितियों तक का गठन कर दिया। लंबी कानूनी लड़ाई में दावों और दस्तावेजों के बीच बंगाल का पलड़ा भारी पड़ा। फाइनली पश्चिम बंगाल जीआई टैग हासिल करने में कामयाब रहा। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इसे पूरे बंगाल की जीत बताते हुए ट्वीट किया और राज्य के लोगों को बधाई दी।
ओडिशा के रसगुल्ले ने मुझे चौंकाया था
मैं साल 2001 में ओडिशा गया था। राज्य के जिस कोने में गया रसगुल्ले की सुलभता ने अंचभित किया। बचपन से समझता आया था कि रसगुल्ला मतलब बंगाल। पर ओडिशा में रसगुल्ले के स्वाद, रंग और सुलभता ने दुकानदारों से बात करने को मजबूर कर दिया। जगन्नाथपुरी प्रवास के दौरान मैंने एक दुकानदार से सवाल पूछ ही लिया कि ऐसा क्या है कि यहां हर दुकान में रसगुल्ला मौजूद है, जबकि यह तो बंगाल में सबसे अधिक मिलता है। दुकानदार ने पहले तो ऊपर से नीचे तक मुझे ताड़ा, फिर बोला रसगुल्ला हमारा है बंगाल का नहीं। उस दुकानदार ने अपनी बातों को और अधिक प्रमाणिकता देने के लिए यहां तक कह दिया कि ओडिशा से रसगुल्ला बंगाल तक सप्लाई किया जाता है। सच बताऊं तो मुझे अंदर ही अंदर हंसी आई, पर दुकानदार के तेवर देखकर चुप रहा।
उस वक्त एंड्रायड फोन और इंटरनेट की सुलभता का जमाना नहीं था। रांची लौटने पर जब अपने संस्मरण (डायरी) लिख रहा था तो रसगुल्ले की बातें भी लिखी। फिर एक दिन दफ्तर में इंटरनेट सर्फिंग के दौरान रसगुल्ले पर जानकारी हासिल की। जानकर बेहद आश्चर्य हुआ और उस दुकानदार की बात में भी दम लगा, जब मैंने यह पढ़ा कि कटक और भुवनेश्वर के बीच एक छोटी सी जगह पहाला में रसगुल्ले की होलसेल मार्केट है। उस रास्ते से हम भी गुजरे थे, पर रुके नहीं थे। हाईवे के दोनों तरफ मिठाई की दुकानें सजी थीं। पढ़ा कि कैसे वर्षों से पहाला में सड़क के दोनों किनारों पर रसगुल्ले की थोक मार्केट सजती है और यहां के रसगुल्ले देश के कोने कोने में जाते हैं। आज भी पहाला रसगुल्ले के लिए बेहद प्रसिद्ध है।
क्यों ओडिशा ने किया था दावा?
ओडिशा में रसगुल्ले की कहानी धर्म से जुड़ी है। यहां की सरकार का दावा है कि करीब छह सौ वर्षों से यह मिठाई यहां मौजूद है। ओडिशा सरकार और वहां के इतिहासकार इसे भगवान जगन्नाथ को चढ़ाए जाने वाले भोग ‘खीर मोहन’ से जोड़कर देखते हैं। विश्वप्रसिद्ध रथयात्रा के समापन पर भी भगवान जगन्नाथ द्वारा मां लक्ष्मी को रसगुल्ला भेंट करने की प्रथा सैकड़ों साल पुरानी है। इस दिन को निलाद्री विजय कहा जाता है और इस दिन महालक्ष्मी को रसगुल्ले का भोग लगाना अतिआवश्यक माना जाता है। माना जाता है कि खीर मोहन ही रसगुल्ले का जन्मदाता है। एक दूसरा तर्क पहाला गांव को लेकर है। भुवनेश्वर के छोटे से गांव पहाला में पशुओं की अधिक संख्या के कारण दूध की पर्याप्त उपलब्धता थी। दूध इतना अधिक होता था कि यूं ही बर्बाद हो जाता था। ऐसे में यहां के लोगों ने छेना बनाने की विधि का इजात किया। इसी छेने से मिठाई बनाने की परंपरा शुरू   हुई। इस मिठाई में रसगुल्ले ने अपनी विशिष्ट पहचान कायम कर ली। आज के इस दौर में भी इसमें दो राय नहीं कि पहाला गांव का रसगुल्ला सर्वश्रेष्ठ है। आज भी पहाला ओडिशा में रसगुल्ला सप्लाई का मुख्य केंद्र है। यहां से बंगाल सहित देश के अन्य राज्यों में भी रसगुल्ले की सप्लाई होती है। हां, एक ऐतिहासिक तथ्य यह है कि ओडिशा के किसी भी धार्मिक या ऐतिहासिक दस्तावेज में दूध, मक्खन, दही, खीर के अलावा छेना का जिक्र नहीं है। रसगुल्ला बनाने के लिए छेना का होना उतना की जरूरी है जितना दही जमाने के लिए दूध का।
क्यों प्रसिद्ध है बंगाल का रसगुल्ला?
धार्मिक दुनिया में खीर मोहन के प्रसाद से आगे बढ़कर रसगुल्ले तक की कहानी को भले ही ओडिशा सरकार ने मान्यता दे रखी है, पर बंगाल की कहानी इससे कहीं जुदा है। बंगाल के इतिहास में इस बात का स्पष्ट तौर पर उल्लेख मिलता है कि यहां के निवासी नबीन चंद्र दास ने वर्ष 1868 में रसगुल्ला बनाने की शुरुआत की थी। बंगाल में रसगुल्ला को रोसोगुल्ला कहा जाता है। बंगाल में जब डच और पुर्तगालियों ने आना शुरू किया तो उन्होंने दूध के जरिए छेना बनाने की कला का जिक्र किया। नबीन चंद्र दास जो मूलत: हलवाई का काम करते थे उन्होंने इस विधि को अपनाया। छेना को मिठाई का रूप में परिवर्तित करने के कारण ही नबीन चंद्र का नाम इतिहास के पन्नों में कोलंबस आॅफ रोसोगुल्ला के रूप में अंकित हो गया। बंगाल की ममता बनर्जी सरकार ने भी रसगुल्ला को लेकर चली कानूनी लड़ाई में नबीन चंद्र दास के वंशजों की मदद ली। इस वक्त बंगाल में नबीन चंद्र दास के वंशज केसी दास प्राइवेट लिमिटेड नाम से अपनी फर्म का संचालन करते हैं। यह मिठाई की दुकानों की एक चेन है जो रसगुल्लों के लिए प्रसिद्ध है। नबीन चंद्र दास के वंशजों ने रसगुल्ले की परंपरा को आगे बढ़ाया।
बंगालियों ने नकार दिया था रसगुल्ले को
बताया जाता है कि नबीन चंद्र दास ने  कोलकाता के जोराशंको में अपनी पहली मिठाई की दुकान खोली। पर बंगाल के लोगों ने रसगुल्ले के स्वाद को नकार दिया। उनकी जीभ पर संदेश का स्वाद चढ़ा था। जल्द ही यह दुकान बंद कर देनी पड़ी। दो साल बाद उन्होंने रसगुल्ले पर तमाम प्रयोग के बाद दूसरी दुकान बागबाजार में खोली। उन्होंने छेने के गोले को चीनी की चाश्नी में पिरोकर जब लोगों को पेश की तो लोगों ने इसे हाथो-हाथ लिया। चीनी की रस में डूबे होने के कारण ही बंगाल के लोगों ने इसे अपनी बोलचाल की भाषा में रोसोगुल्ला कहा। अर्थात रस में डूबा हुआ गुल्ला।
हर राज्य में बदलता गया रोसोगुल्ले का स्वरूप
कोलकाता से निकला रोसोगुल्ला विभिन्न राज्यों में अपने नए स्वरूप में अवतरित होता गया। कोलकात्ता से सटे बिहार में यह रसगुल्ला कहलाया, जबकि उत्तरप्रदेश में राजभोग। राजस्थान में इसे रसभरी या रसबरी के नाम से मान्यता मिली तो कई दूसरे प्रदेशों में इसे रसमलाई कहा जाने लगा।
बिहार के रसगुल्ले का जवाब नहीं
बंगाल और ओडिशा की तरह बिहार के कोने कोने में रसगुल्ला सुलभ है। छोटी दुकान हो बड़ी दुकान आपको बिहार का रसगुल्ला निराश नहीं करेगा। जब छोटा था तो ननिहाल नरपतगंज में गर्मी की छुट्टियां बितती थी। मेरे छोटे मामा की शादी कटिहार में हुई है। कटिहार में बंगालियों की अच्छी तादात है। वहां के कल्चर में भी बंगाल की छाप है। ऐसे में रोसोगुल्ला का स्वाद अपने आप अनूठा हो जाता है। छोटी मामी भी गर्मी की छुट्टियों में रांची से नरपतगंज आ जाती थीं। ऐसे में कटिहार से उनके पापा खूब सारे आम के साथ वहां की फेमस मिठाई लेकर नरपतगंज आते थे। हमें आम से अधिक रसगुल्ले का इंतजार रहता था। मिट्टी की हांडी में उस रसगुल्ले का स्वाद आज भी जीभ पर है। इसी तरह मुजफ्फरपुर के भारत जलपान और महाराजा स्वीट्स के रसगुल्ले का स्वाद जिसने एक बार चख लिया वह उसका मूरीद हो जाता है। आरा के रसगुल्ले का स्वाद हो या फिर बिहारशरीफ के रसगुल्ले का। नालंदा का रसगुल्ला हो या फिर लखीसराय के बढ़ैया का। बिहार में जिधर निकल जाएं हर जगह का रसगुल्ला अपनेपन का अहसास दिलाता है।
हाल ही में नया स्वाद मिला है
रसगुल्ला से विशेष लगाव रहा है। हाल ही में पंचकूला में रसगुल्ले का नया स्वाद मिला है। आकार में विशालकाय इस रसगुल्ले से रूबरू करवाया स्वामी संपूर्णानंद जी महाराज ने। अपने आश्रम में एक दिन प्रसाद के रूप में उन्होंने जब इस विशालकाय रसगुल्ले को दिया तो मैं हैरान रह गया। हैरान पहले तो उसके विशालकाय स्वरूप को लेकर था, बाद में उसके स्वाद ने भी अचंभित किया। विश्वास नहीं हो रहा था कि पंचकूला जैसे शहर में भी जहां बंगाली सभ्यता संस्कृति नाम मात्र की है वहां इतना बेहतरीन रसगुल्ला कैसे मिल सकता है। अब मैं उस रसगुल्ले का मूरीद हूं। आज ही आॅफिस में रसगुल्ले के खबर की चर्चा के दौरान साथियों से वादा किया है कि उस स्पेशल रसगुल्ले का स्वाद जल्द ही सभी को चखाऊंगा।

फिलहाल आप भी जश्न मनाइए कि रसगुल्ला रोसोगुल्ला ही रहेगा। बंगाल का ही रहेगा। अगर आर्टिकल का स्वाद मिठा लगा है तो दूसरों को भी इसका स्वाद चखाएं अर्थात शेयर करें। 

Monday, November 13, 2017

इंटरनेट भी है और डाटा भी, पर सुरक्षा का क्या?

भारत में एक तरफ जहां इंटरनेट यूजर्स की संख्या में जबर्दस्त बढ़ोतरी हो रही है, वहीं उसी रफ्तार में साइबर क्राइम भी बढ़ता जा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने डिजिटल इंडिया का नारा देकर गांव-गांव तक इंटरनेट की उपलब्धता सुनिश्चित कराने का वादा किया है। सरकार इस दिशा में काम कर भी रही है। पर क्या सिर्फ इंटरनेट की उपलब्धता दे देना ही काफी है। अभी इस बात पर विशेष ध्यान नहीं दिया जा रहा है कि आने वाले समय में इंटरनेट की सुगमता हमें किस तरह की परेशानियों की तरफ धकेलने वाली है। इस वक्त हमारा पूरा जोर इंटरनेट यूजर्स को बढ़ाने और हर एक सरकारी व्यवस्था को डिजिटलाइज करने पर लगा है। साथ ही साथ मंथन करने का वक्त है कि वर्चुअल वर्ल्ड में हमारा डाटा कितना सुरक्षित है। हमारे भारत में मजबूत डाटा संरक्षण कानून की जरूरत लंबे वक्त से महसूस की जा रही है। पर अफसोस इस बात का है कि इतना लंबा वक्त गुजर जाने पर भी हम डाटा संरक्षण कानून को अब तक मूर्त रूप नहीं दे सके हैं।
अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, कनाडा, चीन, जर्मनी, आॅस्ट्रेलिया सहित करीब चालीस देशों में मजबूत डाटा संरक्षण कानून मौजूद है। पड़ोसी देश चीन में तो इतना मजबूत कानून है कि वहां ट्वीटर जैसा वैश्विक सोशल मीडिया प्लटेफॉर्म तक प्रतिबंधित है। हाल ही में आॅस्ट्रेलिया ने भी अपने कानून को और भी मजबूती प्रदान करते हुए कई कड़े कदम उठाए हैं। इसमें सबसे बड़ा कदम बच्चों द्वारा सोशल मीडिया के उपयोग को लेकर है। 14 साल से कम उम्र के बच्चों के फेसबुक और ट्वीटर इस्तेमाल को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया है। वहां की एक कमेटी ने सरकार को रिपोर्ट सौंपी थी जिसमें बाल यौन शोषण को रोकने के लिए ऐसे प्रतिबंध को जरूरी बताया गया था। आॅस्ट्रेलिया के पास अपना मजबूत कानून था, जिसके कारण उसे इसे लागू करने में जरा भी देर नहीं लगी।
भारत में इंटरनेट को लेकर स्थिति आश्चर्यजनक रूप से विपरीत है। एक तरफ यहां की सरकार इंटरनेट के इस्तेमाल पर पूरा जोर दे रही है। वहीं दूसरी तरफ इस इंटरनेट का उपयोग और उससे होने वाली विसंगतियों की तरफ पर्याप्त ध्यान केंद्रित नहीं कर रही है। डिजिटल इंडिया के इस युग में इंटरनेट पर आपका डाटा कितना असुरक्षित है यह बताने की जरूरत नहीं है। अभी हाल ही में आधार कार्ड की अनिवार्यता को लेकर जिस तरह वाद विवाद शुरू हुआ उसमें सरकार की तैयारियों की पोल खुल गई। यह बहस अभी थमी नहीं है। आने वाले समय में अभी और भी बहस होगी।
भारत में इस वक्त सबसे बड़ा सवाल इंटरनेट पर मौजूद हमारे व्यक्तिगत डाटा के संरक्षण और सुरक्षा को लेकर है। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि मौजूद समय में भारत में डाटा संरक्षण को लेकर कोई कानून ही नहीं है। न ही कोई संस्था है जो डाटा की गोपनीयता की सुरक्षा प्रदान करती हो। हां इतना जरूर है कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 43-ए के तहत डाटा संरक्षण के लिए उचित दिशा निर्देश दिए गए हैं। पर ये निर्देश सिर्फ कागजों तक ही सीमित माने जाते हैं। जानकारों का कहना है कि जबतक ठोस डाटा संरक्षण कानून का गठन नहीं होता ये निर्देश अप्रभावी और अपर्याप्त हैं।
भारत में इस वक्त इंटरनेट को लेकर सर्वाधित दुरुपयोग हो रहे हैं। यहां तक कि जातीय हिंसा फैलाने और आतंकी घटनाओं तक में इंटरनेट का उपयोग किया जा रहा है। जातीय उन्माद फैलाने में इंटरनेट का उपयोग इतना अधिक हो रहा है कि आए दिन किसी न किसी राज्य में सरकार को इंटरनेट सेवा कुछ समय या दिन के लिए बंद करनी पड़ रही है। हाल के महीनों में जम्मू कश्मीर, हरियाणा, बिहार और पश्चिम बंगाल की सरकारों ने कई मौकों पर इंटरनेट सेवा कई दिनों तक बाधित रखी। सरकार का मानना था कि अगर इंटरनेट सेवा बंद नहीं की जाती तो हिंसा और अधिक बढ़ी और कंट्रोल से बाहर हो जाती।
यह अलार्मिंग सिचुएशन है। छोटी सी छोटी घटना इंटरनेट की सुलभता के कारण कितनी हिंसात्मक हो जा रही है यह मंथन की बात है। इंटरनेट के दुरुपयोगी पकड़े जाने पर भी आसानी से कानूनी शिकंजे से छूट जाते हैं। सोशल मीडिया के जरिए इस तरह का दुरुपयोग हाल के दिनों में काफी बढ़ा है। सबसे अधिक प्रभावित महिला और बच्चे हो रहे हैं। बिना कानूनी संरक्षण के इस तरह के दुरुपयोग पर पूरी तरह लगाम नहीं लगाया जा सकता है। भारत उन देशों की कतार में है जहां आने वाले समय में इंटरनेट ही सबकुछ होगा। हर काम का डिजिटलाइजेशन हो रहा है। सरकारी तंत्र पूरी तरह कंप्यूटर और इंटरनेट पर आधारित हो गया है। ऐसे में आधार और बायोमेट्रिक्स सुविधाओं पर बहस लाजिमी है। सुप्रीम कोर्ट भी सरकार को इन मुद्दों पर कठघरे में खड़ा कर चुकी है। कई बार सवाल पूछे जा चुके हैं। 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डिजिटल इंडिया का जो सपना देखा है वह निश्चित रूप से भारत को कई दम आगे ले जाने वाला होगा। आने वाले समय में इससे बेहतर कुछ दूसरा नहीं हो सकता है। पर यह सपना सार्थक तब होगा जब हम आम लोगों में यह विश्वास दिलाने में कामयाब होंगे कि इंटरनेट पर आप सुरक्षित हैं। आपका डाटा सुरक्षित है। आपका निजी जीवन सुरक्षित है। यह विश्वास तभी कायम हो सकता है जब भारत का अपना एक ठोस डाटा संरक्षण कानून वजूद में हो।
चलते-चलते
भारत सरकार ने डाटा संरक्षण कानून के लिए इसी साल जुलाई में सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज बीएन कृष्णा की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया था। यह कमेटी भारत में डाटा संरक्षण के लिए उपयोगी कानून पर मंथन कर ही है। उम्मीद की जा रही है अगले महीने तक कमेटी अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को सौंप देगी। कमेटी अपनी रिपोर्ट में क्या कहेगी यह तो आने वाला समय बताएगा, फिलहाल उम्मीद की जानी चाहिए कि कमेटी की रिपोर्ट पर सरकार तत्काल कार्रवाई करते हुए एक उपयोगी डाटा संरक्षण कानून को लागू करेगी।