Monday, October 30, 2017

इशारों को अगर समझो, ताज को ताज रहने दो

विश्व की अमूल्य धरोहरों में से एक ताजमहल को पूरी दुनिया मोहब्बत की निशानी के तौर पर मानती, समझती और देखती आ रही है। विश्व के किसी भी कोने में अगर यह सवाल पूछा जाए तो शायद एक ही जवाब होगा, ताजमहल प्यार की निशानी है। एक सामान्य भारतीय नागरिक को भी इसके हिंदु और मुस्लिम प्रतीक से कोई सरोकार नहीं। क्योंकि प्यार का कोई मजहब नहीं होता। कोई जाति नहीं होती। पर सियासत में वोट की राजनीति हमेशा से ही ऐतिहासिकता पर भारी पड़ी है। कभी ऊंट सही करवट बैठ लेता है कभी गलत करवट ले लेता है।
राममंदिर और बाबरी मस्जिद के विवाद ने जिस तरह पूरे भारत के हिंदुओं और मुस्लिमों को पृथक करते हुए अपने-अपने धर्म के प्रति एकजुट कर दिया था, क्या अब एक बार फिर उसी तरह की सियासती कार्ड खेलने का प्रयास किया जा रहा है? यह सवाल मंथन करने के लिए इसलिए मजबूर कर रहा है क्योंकि जिस तरह उत्तर प्रदेश में इस विवाद को हवा दी गई वह अपने आप में आश्चर्यजनक है। बेहद प्लांड तरीके से इसे अंजाम तक पहुंचाने का प्रयास किया गया। पहले यूपी पर्यटन के कैलेंडर से ताजमहल को गायब कर दिया गया। फिर सालाना बजट से भी इसे निकाल दिया गया। इसके बाद प्रदेश के सबसे विवादित नेताओं और हिंदुओं के तथाकथित बड़े चेहरों का धड़ाधड़ बयान आने लगा। इन सभी प्रकरणों ने यह तथ्य स्थापित करने में मदद कर दी कि ताजमहल और तेजोमहालय शिवमंदिर का विवाद बेहद प्लांड था। फिलहाल जिस तरह यूपी के मुख्यमंत्री ने आनन फानन में ताजहमल का दौरा किया, भगवा वस्त्र पहने वहां झाड़ू लगाई और ताजमहल से जुड़ी नई परियोजनाओं के लिए तत्काल 370 करोड़ रुपए के बजट की घोषणा की वह अपने आप में साबित करता है कि डैमेज कंट्रोल की यह बड़ी कवायद थी।
बीजेपी की थिंक टैंक यूपी में योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाने के बाद से ही भविष्य (2019 लोकसभा चुनाव) के लिए बड़ा सियासती दांव खेलने में जुटी है। ऐसे में मोहब्बत की निशानी से जुड़े विवाद को भी इसी सियासती दांव के नजरिए से देखा जाने लगा है। हालांकि डैमेज कंट्रोल की कवायद ने अहसास दिला दिया है कि यह सियासती दांव फिलहाल उल्टा पड़ गया है। सबसे आश्चर्यजनक है योगी आदित्यनाथ द्वारा ताज को भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं होने का बयान देना फिर उसी ताज का दर्शन कर वहां झाड़ू लगाना। बीजेपी के थिंक टैंक के साथ-साथ हम भारतीयों को भी मंथन जरूर करना चाहिए कि हम किस राजनीति की भेंट चढ़ जाते हैं।
ताजमहल के साए में अबतक करोड़ों लोगों ने मोहब्बत की कसमें खाई होंगी। करोड़ों लोगों की मोहब्बत परवान चढ़ी होगी। हर दूसरे दिन किसी विदेशी जोड़े के ताज के साए में शादी करने की खबरें आती हैं। बावजूद इसके हम अपनी इस अमूल्य धरोहर को राजनीतिक रोटी सेंकने का जरिया कैसे बना सकते हैं। ताजमहल और तेजोमहालय का विवाद कोई नया नहीं है, लेकिन इस बार जिस तरह इसका राजनीतिकरण किया जा रहा है वह हमारे लिए बेहद शर्मनाक है। 
इतिहास हमेशा से ही हमें तर्क वितर्क की इजाजत देता है। या यूं कहें कि मौका देता है। हजारों ऐसे उदाहरण हमारे सामने मौजूद हैं जब इतिहासकारों ने अपनी-अपनी तरह से इतिहास की व्याख्या की और हमारे विचारों को बदलने में अहम भूमिका निभाई। मेरे पिताजी इतिहास के प्रोफेसर रहे हैं। उन्होंने इतिहास की कई किताबें लिखीं। आज भी उनके सानिध्य में कई शोधार्थी काम कर रहे हैं। मैं भी इतिहास का विद्यार्थी रहा हूं। इसलिए इतिहास को करीब से देखने और समझने का मौका मिला। पिताजी ने जब अपनी पहली किताब लिखी तो वह गांधी के चंपारण आंदोलन पर थी। हम भाई-बहन काफी छोटे थे, पर अच्छी तरह याद है कि उस किताब को लिखने के लिए पिताजी ने कितना लंबा वक्त चंपारण के गांवों में गुजारा। जब बड़ा हुआ तो चंपारण के इतिहास से जुड़ी हजारों किताबों को सामने पाया। कंफ्यूज था कि किसे पढ़ूं। किसे सही मानूं। क्योंकि हर एक किताब में नई कहानी, नई बातें और कुछ नए तथ्यों से रूबरू हो रहा था। कुछ आजादी से पहले के इतिहासकारों की किताबें थीं, कुछ आजादी के बाद की और कुछ गांधी की मृत्यु के बाद के इतिहासकारों की किताबें थीं। सब अपने-अपने चश्मे से चंपारण को देख रहे थे। संयोग देखिए मेरा एक मित्र भी चंपारण का शोधार्थी बन गया। उसने अपनी पीएचडी कंप्लीट की। उसने कई नए तथ्यों का अपने शोधग्रंथ में समावेश किया।
कहने का तात्पर्य है इतिहास की प्रमाणिकता होने के बावजूद उसमें कल्पनाशीलता इतना अहम किरदार निभाती है कि आपके विचार बदल सकते हैं। इतिहासकारों की भी अपनी विचारधारा है, जिसके आधार पर वो अपनी लेखनी चलाते हैं। इसीलिए शायद एक इतिहासकार ही दूसरे इतिहासकार के तथ्यों को घटिया और बेतुका बताता है। कुछ ऐसा ही ताजहमल के साथ हुआ। आधुनिक भारत के बड़े इतिहासकारों में पुरुषोत्तम नागेश ओक का नाम आता है। उनकी किताब ताजमहल एक हिंदू टेंपल ने भारतीय लोगों को एक थ्योरी दी। यह थ्योरी है कि ताजमहल कोई मोहब्बत की निशानी नहीं, बल्कि वह एक शिवमंदिर था। उन्होंने ही बताया कि ताजमहल का वास्तविक नाम तेजोमहालय था और इस शिवमंदिर को जयपुर के राजा मानसिंह प्रथम ने बनवाया था। इसे ही मोडिफाई किया गया और ताजमहल का नाम दिया गया।
अपने इन दावों के आधार पर उन्होंने अदालत का दरवाजा भी खटखटाया। लंबे वाद विवाद के बाद वर्ष 2000 में सुप्रीम कोर्ट ने उनके दावों को खारिज कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने इस दावे को पूरी तरह ओक साहब का दिमागी कीड़ा बताया। वर्ष 2005 में भी इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक याचिका को पूरी तरह खारिज कर दिया था जिसमें यह दावा किया गया था कि ताजमहल को 1196 में हिंदू राजा परमार देव ने बनवाया था। 

जब विद्यार्थी था तो पिताजी का यह कथन हमेशा से दिलो दिमाग में बैठ गया। पापा का कहना है कि इतिहास को कभी भी वर्तमान के चश्मे से मत देखो। इतिहास को इतिहास के नजरिए से देखो फिर इसे पढ़ने, कहने और लिखने में मजा आएगा। ताजमहल को लेकर उस वक्त के इतिहासकारों, विदेशी यात्रियों के संस्मरण और लेखकों ने जो कुछ भी लिखा है उसे पूर्ण सत्य मानकर भले ही हम न चलें, लेकिन इतना तो जरूर है कि स्थापित तथ्यों से इतनी अविवेकपूर्ण छेड़छाड़ भी न करें। बीजेपी की थिंक ब्रिग्रेड ताजलमहल और तेजोमहालय में विवाद पैदा कर क्या हासिल करना चाह रही है इस पर मंथन करने की जरूरत है। देश के मूड को देखते हुए योगी सरकार ताज को लेकर फिलहाल बैकफुट पर है। बीजेपी की थींक ब्रिग्रेड भी अगर यह इशारा समझ चुकी है तो फिर ताज को ताज ही रहने दिया जाए इसी में सभी की भलाई है, क्योंकि ताजमहल राममंदिर की तरह वोट नहीं दिला सकती। मंथन हमें और आपको भी करना है कि अनावश्यक के विवादों में खुद को न झोंकें।
चलते-चलते
मेरे प्रिय शायर मुनौव्वर राणा की चंद पंक्तियां आप सभी पाठकों के मंथन के लिए हैं...
मोहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है
सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है।।
तवायफ की तरह अपने गलत कामों के चेहरे पर
हुकूमत मंदिर-मस्जिद का पर्दा डाल देती है।।

Tuesday, October 24, 2017

विकास = भात-भात कहकर बच्ची ने तोड़ा दम

जब से यह खबर देखी और पढ़ी मन अंदर से विचलित हो गया। कितना दर्दनाक होगा वह पल जब एक बच्ची ने अपनी मां के सामने भात-भात कहते हुए दम तोड़ दिया होगा। कितनी बेबश होगी वह मां जो अपने कलेजे के टुकड़े को अपनी आंखों के सामने तिल-तिल मरता देख रही होगी। यह सोचकर ही रूह कांप जाती है कि आज के इस सभ्य और 21वीं सदी के समाज में भी कोई भूख और कुपोषण से काल का ग्रास बन सकता है। पर झारखंड के सिमडेगा जिले में एक बच्ची की मौत ने मंथन करने पर विवश कर दिया है कि आखिर क्या कारण है कि हम अपनी आधारभूत जरूरतों को पूरा करने में भी नाकाम हो रहे हैं।
सिमडेगा में जिस 11 साल की बच्ची ने दम तोड़ा उसकी मां ने जब पूरी कहानी बयां कि तो एक अजीब सी स्तब्ध कर देने वाली बातों का खुलासा हुआ। मां ने बताया कि हमारी बेटी के भूख मिटाने का साधन मिड डे मील था। दुर्गा पूजा की छुट्टियों के कारण कई दिनों से स्कूल बंद था। राशन कार्ड के जरिए पीडीएस स्कीम के तहत जो राशन मिलता था वह कई महीनों से बंद कर दिया गया था। क्योंकि सरकार का आदेश था राशन कार्ड को आधार कार्ड से लिंक करवाओ। पिछले आठ दिनों से घर में अन्न का एक दाना नहीं था। और अंतत: उस बच्ची ने मां के सामने भात-भात कहते दम तोड़ दिया। भूख से उसका पेट अकड़ गया था।
यह खबर निश्चित तौर पर सोचने और समझने पर हमें मजबूर कर देती है। ऐसी खबरों पर मंथन इसलिए भी जरूरी है क्योंकि वैश्विक भूखमरी सूचकांक यानी ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) में भारत कई कदम और नीचे उतर गया है। हाल ही में जारी हुए जीएचआई के सूचकांक में भारत का स्थान 119 देशों में 100वें नंबर पर है। यह चिंता का सबब इसलिए भी है क्योंकि वर्ष 2016 में भारत का स्थान 97वां था, जो तीन स्थान और पीछे खिसक गया है। यह एक ऐसा तथ्य है जिसे नकारा नहीं जा सकता है। यह कैसी विडंबना है कि हम जहां एक तरफ डिजिटल भारत की परिकल्पना लिए आगे बढ़ रहे हैं वहीं हमारे यहां भूख से मरने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। मंथन जरूरी इसलिए भी है क्योंकि इस ग्लोबल इंडेक्स में उत्तर कोरिया, बांग्लादेश और इराक जैसे देश भी भारत से ऊपर हैं।
वॉशिंगटन स्थित इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईएफपीआरआई) द्वारा हर साल भूखमरी सूचकांक बनाया जाता है। इस सूचकांक में भारत हमेशा से नीचे रहता आया है। केंद्र सरकार लगातार भारत की जमीनी समस्याओं को दूर करने के लिए प्रयासरत हैं। तमाम सरकारी एजेंसियां भी इस काम में लगी हैं। हर साल करोड़ों रुपए का बजट भी जारी होता है। हर मंच से भारत से भूखमरी और कुपोषण समाप्त करने का वादा किया जाता है। फिर भी अगर हमारी स्थिति में सुधार नहीं हो रहा है तो यह गंभीर विषय है। कहां चूक हो रही है। क्या केंद्र सरकार अपनी नीतियों के कार्यान्वयन में मात खा रही है, या फिर आज भी नोडल एजेंसियों से भ्रष्टाचार खत्म नहीं किया जा सका है। ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिन पर गंभीरता से मंथन जरूरी है। आईएफपीआरआई ने भारत के परिपे्रक्ष्य में एक और गंभीर विषय की तरफ ध्यान दिलाया है। यह है यहां की विषम अर्थव्यवस्था। रिपोर्ट के अनुसार भारत की एक फीसदी आबादी के पास देश के कुल धन का आधे से ज्यादा हिस्सा है। 
इस विषमता का आशय यह है कि जो धन देश में पैदा हो रहा है उसका ज्यादातर हिस्सा कुछ धनाढ्य लोगों के हाथों में सिमट कर रह जाता है। कहने का तात्पर्य है कि देश तो धनी हो रहा है, लेकिन उसका लाभ देश के बहुसंख्य लोगों को नहीं मिल रहा है। हमारी आधी से अधिक आबादी आज भी बुनियादी सुविधाओं से वंचित है। इन बुनियादी सुविधाओं में सबसे बड़ा मसला भूख मिटाने का है। जिस देश में दो वक्त की रोटी से अगर हमारी बहुसंख्य आबादी वंचित रह जा रही है वहां हम सिर्फ बुलेट ट्रेन चलाकर विकास का सपना नहीं बुन सकते हैं। केंद्र सरकार ने कई वर्ष पहले जब पोलियो उन्मूलन का संकल्प लिया था जो एक नारा दिया था। वह नारा था एक भी बच्चा छूट गया, समझो सुरक्षा चक्र टूट गया। कुछ ऐसा ही भूखमरी के मामले में हैं। अगर आज के इस विकासात्मक समाज में भूख से एक इंसान की मौत होती है तो समझिए हम विकास के किस पायदान पर मौजूद हैं। केंद्र सरकार, राज्य सरकार, विभिन्न नोडल और सरकारी एजेंसियों के अलावा भारत की सवा सौ करोड़ आबादी को भी इस पर मंथन करने की जरूरत है। 
भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य बनता है कि खुद की भूख मिटाने के साथ उन असंख्य लोगों के बारे में सोचे जहां दो वक्त चुल्हा नहीं जल रहा है। डस्टबिन में खाना फेंकने से पहले यह जरूर सोचे कि कई बच्चे आज भूखे सो रहे होंगे। देश की संपूर्ण आबादी को अन्न उपलब्ध करवाने के लिए केंद्र सरकार अपनी पूरी ताकत झोंक दे। यही सही मायने में सरकारी तंत्र की जीत है, क्योंकि वैश्विक स्तर पर जीएचआई जैसे आंकड़ों में हमारे पिछड़ने का मतलब साफ है। हम चाहे जितनी भी तरक्की कर लें, पर भूख से होने वाली एक भी मौत हमारे सभ्य और विकसित होने पर तमाचा ही है। क्या हम कुछ ऐसा नहीं कर सकते कि सभी को दो वक्त की रोटी मयस्सर हो। आप भी मंथन करें।

Monday, October 9, 2017

भारत के अर्थिक मोर्चे पर प्रयोगों का दौर

आर्थिक मोर्चे पर भीषण प्रयोगों के दौर से गुजर रही केंद्र की मोदी सरकार ने दीपावली के पहले कुछ फैसलों से मार्केट को थोड़ी राहत देने का प्रयास किया है। इस राहत को भले ही फौरी सहायता राशि के तौर पर देखा जा रहा है, लेकिन मार्केट एक्सपर्ट्स की राय है कि यही फौरी राहत आने वाले समय में मार्केट के लिए स्थायित्व प्रदान करने वाली साबित होगी। राजनीतिक पंडितों की राय में गुजरात चुनाव की तैयारी में जुटी केंद्र सरकार ने खासकर व्यापारियों के हितों की रक्षा में अपना मास्टर स्ट्रोक खेला है। कारण चाहे जो भी हो पर मंथन का समय जरूर है कि इतने भीषण प्रयोगों के दौर से गुजर रही केंद्र सरकार के पास क्या इतना समय है कि वह अपने कार्यकाल में देश के अंदर अर्थव्यवस्था के उस सार्थक माहौल को स्थापित कर सके जिसकी परिकल्पना नोटबंदी और जीएसटी लागू करने के साथ हुई थी।
नोटबंदी लागू हुए करीब एक साल पूरा होने जा रहा है। इस बीच नोटबंदी को लेकर जितने प्रयोग केंद्र सरकार ने किए वह विश्व इतिहास में शायद इससे पहले कभी नहीं हुआ। हर दूसरे दिन नए और पुराने नोटों को लेकर नए-नए नियमों को लागू किया गया। लोग इतने कंफ्यूज हुए कि उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि करना क्या है और छोड़ना क्या है। बैंकों की हालत और भी बेकार थी। न वहां ग्राहकों को समझाने वाला कोई था और न समझने वाला। संभलते संभलते महीनों गुजर गए। नोटबंदी से क्या हासिल हुआ और क्या नुकसान इसका सटिक जवाब न तो केंद्र सरकार के पास है न विपक्षी दलों के पास। सिर्फ अनुमान के आधार पर वार और पलटवार हो रहा है।
केंद्र सरकार से पूछा जाता है कि नोटबंदी से क्या कालाधन पूरी तरह खत्म हो गया? क्या टेरर फंडिंग पर पूरी तरह लगाम लग गई? क्या बैंकों की वित्तीय हालत सुधर गई? क्या रातों रात बैंक कर्जमुक्त हो गए? कितना कालाधान बैंकों में आया? अभी तक केंद्र सरकार का जवाब गोलमोल ही रहा है। कोई भी तथ्यात्मक आंकड़ा जनता के सामने नहीं आया है। दूसरी तरफ विपक्षी दल सिर्फ एक ही रट लगाए रहते हैं कि नोटबंदी भारत का सबसे बड़ा वित्तीय घोटाला है। कई बार तो इसे करीब 45 लाख करोड़ रुपए का घोटाला भी कोट करते हैं। कैसे हुआ यह घोटाला? कैसे हम इसे स्थापित करेंगे कि नोटबंदी एक घोटाला है? कैसे हम इस घोटाले के लिए केंद्र सरकार को कटघरे में खड़ा करेंगे? तमाम सवालों के जवाब के लिए जवाब आता है समय आने पर इसका खुलासा किया जाएगा।
नोटबंदी से स्थिति थोड़ी सामान्य होने की हालत में आती इससे पहले ही केंद्र सरकार ने जीएसटी का एक ऐसा जिन्न मार्केट में उतार दिया जिसके नाम से ही लोगों की जेब ढिली होने लगी। न कोई अधिकारी इसे समझ पा रहा, न व्यापारी। आम आदमी का हाल तो सबसे बुरा रहा। बस एक ही बात रटाई जाने लगी कि पहले हम अलग-अलग टैक्स देते थे। अब एक ही टैक्स देना होगा। यह पाठ सिर्फ एक लाइन था, लेकिन सामान्य लोगों के लिए इस पाठ को समझना और याद करना जिन्नों के देवता का साक्षात्कार करने जैसा ही है। सब कंफ्यूज हैं। सरकार ने क्या किया है। सरकार को क्या करना है। अधिकारी क्या कर रहे हैं। उन्हें क्या करना है। व्यापारी क्या करेंगे क्या नहीं करेंगे। छोटे व्यापारी कहां है। कहां जाएंगे। आम आदमी की बात तो सबसे जुदा है ही। वह तो होटल और रेस्टोरेंट में बिल पर सी-जीएसटी और एस-जीएसटी का नाम पढ़कर बिल काउंटर पर लड़ने मरने को उतारू है कि मोदी जी तो कहते हैं सिर्फ एक टैक्स है। फिर यह सी-जीएसटी और एस-जीएसटी क्या बला है।
अब जब धीरे-धीरे आम आदमी को सी-जीएसटी और एस-जीएसटी का मतलब समझ आने लगा है तो दशहरे के बाद दीपावली की मार्केटिंग में वह जीएसटी का फायदा खोजने में जुट गया है। उसे वहां कुछ भी पल्ले नहीं पड़ रहा है। वह अखबारों में प्रकाशित हो रहे सरकारी विज्ञापनों को पढ़कर खुश हो रहा है कि जीएसटी लागू होने से क्या-क्या चीज सस्ती हो गई है। भले ही मार्केट में उसे कुछ समझ में आए न आए, लेकिन जैसे ही व्यापारी यह बोलता है कि बिल कच्चा चाहिए कि पक्का। वह तुरंत समझ जाता है कि उसे बिल न कच्चा चाहिए न पक्का। उसे तो सामान सस्ता चाहिए। पक्की बिल मांगने पर जैसे ही दुकानदार उसे 28 परसेंट टैक्स का फंडा समझता है, ग्राहक पैर पीछे खींच लेता है और दांते निपोड़ कर बस इतना कह देता है। छोड़िए बिल का चक्कर। थोड़ा सस्ता मिल जाए तो बिल काहे का।
दो दिन पहले ही जीएसटी काउंसिल की 22वीं बैठक के बाद मोदी सरकार ने जीएसटी को लेकर चल रहे प्रयोगों के दौर में एक और प्रयोग जोड़ दिया है। अब कंपोजिशन स्कीम की लिमिट बढ़ाना, रिटर्न दाखिल करने की प्रक्रिया को मासिक के बजाए तिमाही आधार पर भरना अनिवार्य करना और कुछ वस्तुओं पर टैक्स की दरों को कम करना प्रमुखता से शामिल है। इससे पहले भी जीएसटी काउंसिल की 21 बैठक हो चुकी है। हर बार कोई न कोई नया नियम लागू किया जाता है। यानि प्रयोगों का दौर आने वाले समय में भी चालू रहेगा। फिलहाल जो रियायतें मिली हैं उसमें राजनीतिक गंध आने लगा है। शायद यही कारण है कि अपने दो दिवसीय गुजरात यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री मोदी के भाषण का मुख्य फोकस जीएसटी को लेकर ही था।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रयोग होना अच्छी बात है। शायद इसी कारण भारतीय जनता ने भी प्रयोग के तौर पर पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ भारतीय जनता पार्टी को अपार समर्थन देकर गद्दी सौंपी थी। पर जिस तरह यह लोकतांत्रित सरकार आर्थिक मोर्चे पर प्रयोगों में जुटी है उसका रिजल्ट भी लोग देखना चाहते हैं। आम आदमी को आंकड़ों की जादूगरी से मतलब नहीं होता है। उसे सीधे-सपाट शब्दों में अपना आर्थिक नुकसान और फायदा देखना होता है। अगर सही अर्थों में नोटबंदी और जीएसटी के जिन्न ने आमलोगों को मजबूत तरीके से आर्थिक फायदा पहुंचाया है तो सरकार का यह कर्तव्य है कि वह सीधे-सपाट शब्दों में ही भारत की जनता को उसके फायदे गिनवाए। नहीं तो नोटबंदी और जीएसटी आने से पहले भी लोग दुकान पर कच्चे और पक्के बिल के झोलझाल में फंसते थे और आज भी स्थिति उससे जुदा नहीं है।

चलते-चलते
गुजरात दौरे पर पहुंचे पीएम मोदी ने जीएसटी काउंसिल की 22वीं बैठक का हवाला देते हुए कहा है कि जीएसटी से जुड़े फैसले की वजह से देश में 15 दिन पहले दीपावली आ गई। हमने पहले ही कहा था कि एक बार लागू करने के बाद तीन महीने तक अध्ययन करेंगे। जहां जहां कमियां होंगी, जो शिकायतें होंगी, व्यवहारिकता में कमी होगी, उसे दूर किया जाएगा। हम नहीं चाहते कि देश का कारोबारी फाइलों, बाबुओं और साहबगीरी में फंस जाए। उम्मीद की जानी चाहिए पीएम मोदी अब 23वीं बैठक का इंतजार किए बिना देश को जीएसटी के और भी फायदे गिनवाने में कामयाब हों।

Monday, October 2, 2017

इस प्लांड मर्डर को रोकने की पहल करें

आज दो अक्टूबर है। पूरा राष्ट्र आज राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जन्मदिन मना रहा है। हर तरफ जश्न का माहौल है, पर राष्ट्रीय राजधानी के बेहद नजदीक के तीन घरों में मातम है। यह मातम है उन घरों के तीन सदस्यों के प्लांड मर्डर के कारण। गांधी जयंती के इस मौके पर आप भी कह रहे होंगे कि मैं यह क्या हत्या की बात लेकर बैठक गया। पर आज के दिन से बेहतर कोई मौका नहीं हो सकता है कि मैं इस प्लांड मर्डर की चर्चा करूं। यह वह प्लांड मर्डर है जिसके विरुद्ध महात्मा गांधी ने लंबा संघर्ष किया था। वे इस तरह के प्लांड मर्डर के न केवल विरोधी थे, बल्कि यह भी कहा करते थे कि यह मानव जाति का सबसे घिनौना रूप है। आज अगर गांधी जिंदा होेते तो वो हैरान रह जाते कि इतनी तरक्की करने के बावजूद औसतन प्रतिदिन करीब तीन से चार लोग तमाम तरह की सीरवरेज की सफाई के दौरान दम घूंटने से मर जा रहे हैं। 
सीवरेज में सफाई के दौरान मरने वालों की संख्या प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही है। सफाई कर्मचारी आंदोलन (एसकेए) के आंकड़े बताते हैं कि प्रतिवर्ष दो से ढ़ाई हजार लोग इससे प्रभावित होते हैं। अधिकतर की मौत हो जाती है। ऐसा तब है जबकि सुप्रीम कोर्ट ने इसे एक अमानवीय कृत बताते हुए इसे पूरी तरह बैन कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में सीवरेज के अंदर जाकर सफाई करने पर न केवल पूरी तरह से रोक लगा दी थी, बल्कि इस कार्य के दौरान मारे गए लोगों के परिजनों को दस लाख रुपए का मुआवजा भी घोषित किया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सीवरेज में उतरने वाला प्रत्येक व्यक्ति यह जानता है कि वहां आक्सीजन न के बराबर होगा। वहां अत्यंत घातक हाईड्रोजन सल्फाइड, मेथेन, कार्बनडाइआॅक्साइड और कार्बन मोनोआॅक्साइड की मौजूदगी किसी की जान लेने के लिए काफी है। फिर ऐसे में कोई भी एजेंसी किसी सफाईकर्मी को बिना सुरक्षा उपकरणों के कैसे वहां भेज सकती है। इससे होने वाली मौत को मर्डर की श्रेणी में माना जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद अगर विभिन्न राज्य सरकारों की नाकामी के कारण लोग मारे जा रहे हैं तो इसे मर्डर नहीं प्लांड मर्डर कहा जाना ही बेहतर है।
अभी 48 घंटे पहले ही राष्ट्रीय  राजधानी से चंद किलोमीटर दूर गुुरुग्राम में सीवर की सफाई के दौरान तीन मजदूरों की दर्दनाक मौत ने मंथन करने पर मजबूर कर दिया है कि आखिर हम कब तक इस प्लांड मर्डर को देखने के लिए मजबूर रहेंगे। भारतीय संसद ने भी मैन्युअल स्कैवन्जर्स रीहैबिलिटेशन एक्ट के जरिए इस प्रथा को रोकने का भरपूर प्रयास किया है। 2013 में यह एक्ट पास हुआ, लेकिन आज तक किर्सी भी राज्य सरकार ने इस एक्ट को सीरियसली नहीं लिया है। हाल यहां तक खराब हैं कि हर साल सबसे अधिक मौत राष्ट्रीय  राजधानी दिल्ली और उसके आसपास ही होते हैं। इससे भी बूरा यह है कि विभिन्न राज्य सरकारों ने इस एक्ट को लेकर कभी गंभीरता नहीं दिखाई। परिणामस्वरूप सीवर सफाई के दौरान होने वाली मौतों का आंकड़ा दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा है।
भारत में 1993 से ही सीवरेज की मैन्यूअल सफाई पर रोक है। बाद में 2013 में इस संबंध में एक्ट भी पारित कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में स्पष्ट तौर पर सभी राज्य सरकारों और केंद्र सरकार को कहा कि वर्ष 1993 के बाद जितनी भी मौतें सीवरेज में मैन्यूअल सफाई के दौरान हुई उन सभी के परिजनों को दस-दस लाख मुआवजा दिया जाए। सफाई के दौरान होने वाली मौतों को साफ तौर पर मर्डर माना गया। मंथन का वक्त है कि इतने सारे कदम उठाए जाने के बावजूद आखिर ये प्लांड मर्डर क्यों नहीं रोके जा रहे हैं। इसके लिए हम किसे जिम्मेदार ठहराएं। राज्य सरकार या उसकी एजेंसियां इसके लिए जिम्मेदार हैं या फिर सीधे तौर पर केंद्र सरकार। कटघरे में सभी हैं क्योंकि यह एक राष्ट्रीय  समस्या के तौर पर मौजूद है और इसका हल भी राष्ट्रीय स्तर पर ही निकालने की जरूरत है।

याद करिए। आज से 30-40 साल पहले का वक्त। जब सिर पर मैला ढोते हम किसी व्यक्ति को देखते तो कैसा महसूस होता था। यह एक सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा होती थी। आज अगर कोई दिख जाए तो हमारा रिएक्शन कैसा होगा जरा इसकी कल्पना करें। महात्मा गांधी ने ताउम्र ऐसी प्रथाओं को दूर करने का आह्वान किया। वे बेहतर मानवीय जीवन के हिमायती थे। अपने तमाम संदेशों में उन्होंने ऐसी प्रथाओं को जड़ से खत्म करने का आह्वान किया। आज स्थिति में सौ फीसदी तो नहीं, लेकिन 98 फीसदी जरूर सुधार है। आज सिर पर मैला ढोने की प्रथा लगभग समाप्त हो चुकी है। पर दूसरी तरफ सीवरेज में जाकर सफाई करने की मजबूरी ने हमें मंथन करने पर मजबूर कर दिया है।
भारत विकास के एक बेहतर मुकाम पर है। सीवरेज सफाई के लिए देशी और विदेशी तकनीक का बेहतर इस्तेमाल भी हो रहा है। फिर क्यों हम प्लांड मर्डर होने दे रहे हैं। क्या राज्य सरकारें और उनकी नोडल एजेंसियां इसके लिए जिम्मेदारी तय नहीं कर सकती हैं। क्यों नहीं मैन्युअल सफाई को पूरी तरह खत्म करने की दिशा में हम सार्थक प्रयास करें। आज दो अक्टूबर है। आज के दिन विभिन्न राज्य सरकार और केंद्र सरकार दो कदम आगे बढ़े। हर जगह विभिन्न नोडल एजेंसियों और उनके ठेकेदारों द्वारा सीवरेज सफाई का काम करवाया जाता है। उनकी जिम्मेदारी तय करते हुए आदेश पारित किए जाएं कि बहुत मजबूरी होने पर ही किसी कर्मचारी को सीवरेज में उतारा जाए। बिना सुरक्षा उपकरण, गैस मास्क के कोई भी कर्मचारी सीवरेज में नहीं उतारा जाए। किसी भी तरह की दुर्घटना के लिए संबंधित सफाई एजेंसी ही जिम्मेदार होगी। अगर सीवरेज में सफाई के दौरान किसी की मौत होती है तो संबंधित एजेंसी को ही एक हफ्ते के अंदर परिजनों को सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्देशित दस लाख रुपए का मुआवजा देना होगा।
इसमें दो राय नहीं है कि सीवरेज एक ऐसा जाल है जिसे ठीक करने में हम सौ फीसदी मशीनों पर निर्भर नहीं रह सकते हैं। मजबूरी है कि हम मैन्यूअली काम करवाएं। पर क्या इससे भी इनकार किया जा सकता है कि प्रत्येक राज्य सरकार मैन्यूअली वर्क करवाने के लिए एक अलग विंग स्थापित करे। इसके अंदर मजदूरों को बेहतर ट्रेनिंग दे। सुरक्षा उपकरणों का एक बेहतर संसाधन उपलब्ध करवाएं। क्यों नहीं स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट और अर्बन डेवलपमेंट में ही हम सीवरेज ट्रीटमेंट के आधुनिकीकरण को भी जोड़ दें। इसके लिए किसी अतिरिक्त बजट की भी जरूरत नहीं पड़ेगी। तमाम ऐसे उपाय हैं जिसे स्थापित कर हम इस प्लांड मर्डर को रोक सकते हैं।
पूरी दुनिया में सीवरेज सफाई को लेकर बड़ा अभियान चल रहा है। ग्लोबल रूप में इसे कितनी गंभीरता से लिया जा रहा है इसे समझने के लिए यह काफी है कि भारत में सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े बेजवाड़ा विल्सन को मैगसेसे जैसा प्रतिष्ठित अवॉर्ड तक मिल चुका है। 

आज गांधी जयंती से बड़ा मौका कोई दूसरा नहीं हो सकता कि हम संकल्प लें। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आह्वान पर पूरे देश में गांधी जयंती पर सफाई अभियान के लिए बड़ी पहल की गई है। पूरे देश की जनता भारत सरकार के साथ है। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी को सीवरेज सफाई के दौरान होने वाली अमानवीय कृत को रोकने की दिशा में भी सार्थक आह्वान करने की जरूरत है। पूरा देश उनकी बात सुन रहा है। ऐसे में वे कुछ ऐसा करें कि राज्य सरकारें अपनी जिम्मेदारी समझें और इस प्लांड मर्डर को रोकें।
चलते चलते
कुछ दिन पहले एक खबर आई थी कि केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने सफाई कर्मचारियों की मौत को गंभीरता से लिया है। अब मैन्युअल स्कैवन्जर्स रीहैबिलिटेशन ऐक्ट, 2013 में बदलाव पर मंथन किया जा रहा है। इस ऐक्ट में संसोधन करते हुए एजेंसियों और ठेकेदारों को जिम्मेदार बनाया जाएगा। बहुत सी कमियों को दूर करते हुए ऐक्ट को और भी सशक्त बनाया जाएगा। अगर सच में ऐसा है तो बदलाव का यही समय है।