Thursday, June 29, 2017

एक शाम नाथुला दर्रा के नाम ... जब मेघा जी की चीनियों से हुई झड़प

चीनी सैनिक के साथ मेघा।
इन दिनों चीन से भारत के संबंध कुछ बेहतर नहीं चल रहे हैं। चीन और भारत दोनों की सामरीक दृष्टि से अतिमहत्वपूर्ण नाथुला दर्रा (पास) भी चर्चा में है। कैलाश मानसरोवर जाने वाले यात्रियों को भी यहीं रोक दिया गया है। अगर आप कभी बाघा बॉर्डर जाएंगे तो आपके चंद कदम की दूरी पर पाकिस्तानी फौज नजर आ जाएगी। ठीक इसी तरह जब आप नाथुला दर्रा से ऊपर भारत की सबसे अंतिम सैन्य पोस्ट पर जाएंगे तो आप चीनी सैनिकों के बेहद करीब होंगे। इतने करीब की आप उनसे हाथ तक मिला सकते हैं। गले मिलकर फोटो भी खींचवा सकते हैं। पर इसी मेल मिलाप के दौरान मेरे साथ गर्इं मेरी वाइफ मेघा की चीनियों के साथ झड़प हो गई। भारतीय सैनिकों ने भी साथ दिया। जीत की मुस्कान के साथ मेघा ने जश्न मनाया। आज उस कहानी को कलमबद्ध कर रहा हूं, इसलिए कि यह बता सकूं कि चीनियों की फितरत क्या है?
बात मार्च 2011 की है। मैं और मेघा (मेरी वाइफ) सिक्किम की राजधानी गंगटोक घूमने गए थे। मैंने मेघा को नहीं बताया था कि हम वहां से काफी ऊंचाई पर स्थित नाथुला पास भी जाएंगे। जानता था पहले बता दिया तो प्रोग्राम में फेरबदल भी करवाया जा सकता है। खैर गंगटोक की सुनहरी वादियों का दो दिनों तक लुत्फ उठाकर मैंने अचानक तीसरे दिन मेघा को सुबह सुबह बताया कि आज हम नाथुला पास जाने वाले हैं। चीन के बॉर्डर पर। मेघा ने नाथुला पास के बारे में बहुत कुछ पढ़ रखा था, इसीलिए ठंड में भी उसका पारा हाई हो गया। जब मैंने बताया कि मैंने गंगटोक आते ही वहां जाने के लिए अप्लाई कर दिया है, आौर कल शाम कंफर्मेशन भी आ गई है। हमें 11 बजे वाली टैक्सी से जाना है। बुझे मन से मेघा तैयार हुई।

नाथुला पास पर चीनी सैन्य पोस्ट के ठीक सामनेपोज देती मेघा।

आप लोगों के लिए बता दूं कि नाथुला पास जाने के लिए आपको भारत सरकार से अनुमति लेनी होती है। गंगटोक में ही टूरिस्ट डिपार्टमेंट के पास आपको अपनी दो-दो रंगीन फोटो, फोटो युक्त आईडी जमा करानी होती है। अपना फोन नंबर और होटल या जहां आप ठहरे हैं वहां का पता देना पड़ता है। 24 घंटे बाद कंफर्मेशन आता है। जरूरी नहीं कि आपको वहां जाने की अनुमति मिल ही जाए। विदेशियों का वहां जाना प्रतिबंधित है। नाथुला पास को सिल्क रूट के नाम से भी जाना जाता है। इसी रास्ते से चीनी यात्री ह्यूनसांग, फाहियान और मार्कोपोलो जैसे प्रतिभाशाली लोगों ने भारत में प्रवेश किया था। इन्होंने भारतीय विविधता की खोज की और भारत और चीन के बीच दोस्ती की नींव डाली। इस नींव में सबसे बड़ी दरार भारत-चीन के 1962 की लड़ाई के बाद पड़ी। लड़ाई के बाद इस अति महत्वपूर्ण रुट को पूरी तरह बंद कर दिया गया था। दोनों देशों की फौजें हमेशा अपनी भृगुटी ताने आमने सामने की पोस्ट पर मौजूद रहती। वर्ष 2006 में तमाम प्रयासों के बाद यह रूट दोबारा शुरू हुआ। इस रूट के खुलने के बाद भारत के साथ-साथ चीन का व्यापारिक वर्ग भी बेहद खुश हुआ। इस खुशी का परिणाम हम आज भारत के गली मोहल्लों की दुकानों में भी देख रहे हैं। हर जगह चीन के दो नंबर के प्रोडक्ट मौजूद हैं।
नाथुला पास के रास्ते में एक पड़ाव।

खैर हम खुशनसीब थे कि हमें नाथुला पास जाने का मौका मिल गया था। नाथुला पास सिक्कम की राजधानी गंगटोक से मात्र 58 किलोमीटर की दूरी पर है। नाथुला दरअसल हिमालय का एक पहाड़ी दर्रा है जो भारत के सिक्किम और तिब्बत की चुम्बी घाटी को जोड़ता है। नाथुला दो तिब्बती शब्द नाथु (Listenings Ears) और ला (Pass)
से मिलकर बना है। हमने पता कर लिया था कि वहां काफी अधिक ठंड होगी, इसलिए हम पूरी तैयारी के साथ तय समय पर टूरिस्ट इंफॉर्मेशन सेंटर पहुंच गए। ठीक 11 बजे टैक्सी भी आ गई। सबकी सीट अलॉटेड थी, क्योंकि टैक्सी का भाड़ा पहले ही ले लिया गया था। अगर आप शेयर्ड टैक्सी से नहीं जाना चाहते तो आपको करीब 8 से दस हजार रुपए खर्च करने होंगे,  इसमें यात्रा परमिट शामिल नहीं होगी। हमने शेयर्ड टैक्सी का आॅप्शन लिया था, क्योंकि हम दो ही लोग थे और उस जगह से अनजान थे। किसी अनजान जगह जाने के लिए शेयर्ड टैक्सी का आॅप्शन बेस्ट होता है क्योंकि आपके साथ अधिक लोग होते हैं, और यह इकोनॉमिकल भी होता है। शेयर्ड टैक्सी का भाड़ा 8 सौ रुपए प्रति व्यक्ति था, जिसमें यात्रा परमिट भी शामिल था।
नाथुला पास की यात्रा शुरू होने के करीब दस मिनट बाद ही हमें इस बात का अहसास हो गया था कि यह कोई आम यात्रा नहीं है। शहर से ऊपर निकलते ही बेहद संकरी सड़कों ने हमारा स्वागत किया। सांस थाम देने वाली इन सड़कों पर हमारी टैक्सी यूं सरपट भाग रही थी जैसे हम फार्मूला वन की ट्रैक पर चल रहे हों। हिंदी गाना सुनते हुए सिक्कम का वह टैक्सी ड्राइवर इतने इत्मीनान से गाड़ी चला रहा था कि हम हैरान थे। करीब 58 किलोमीटर की यात्रा हमें चार घंटे में पूरी करनी थी। दिल की धड़कनों को काबू करते हुए हमारा पहला पड़ाव आया छांगू लेक। खतरनाक रास्तों को देखते हुए यहां पहुंचना किसी एडवेंचर से कम नहीं। एकबारगी मुझे भी यही लगा था कि कहीं यहां का प्रोग्राम बनाकर मैंने कुछ गलत तो नहीं कर लिया। छांगु लेक समुद्र से 12300 फीट ऊपर है। यहां करीब आधे घंटे का ठहराव था। सैलानियों की यहां अच्छी खासी भीड़ थी। यॉक के ऊपर बैठकर तस्वीर खिंचवाने की चाहत ने हमें यहां रोक दिया था। मैगी यहां की खास डिश है। इसे कई तरह से बनाया जाता है। समुद्र तल से हजारों मीटर ऊपर गरमा गरम मैगी खाने का स्वाद ही अलग था। मैगी खाने के बाद हमारी यात्रा दोबारा शुरू हुई। 25 किलोमीटर का सफर फिर शुरू हुआ।

नाथुला पास के रास्ते में एक पड़ाव।
अब हर तरफ फौज की उपस्थिति नजर आने लगी थी। फौजी गाड़ियां और बर्फ से आच्छादित पड़ाड़ियों के अलावा कुछ नजर नहीं आ रहा था। बिना बैरिकेट के मौजूद सड़क से नीचे देखने की हिम्मत नहीं थी, इसीलिए मैंने अपनी जगह बदल ली थी। नाथुला पास पहुंचने के पांच किलोमीटर हमारी गाड़ी रोक दी गई। भारतीय फौज के जवानों ने बताया कि मौसम की चेतावनी जारी की गई है। भारी बर्फबारी की संभावना है। आपको यहीं से लौटना होगा। हम बेहद निराश हो गए। पर मेघा और उसकी एक दोस्त (यह दोस्त टैक्सी में बनी थी)। नाम मुझे ठीक से याद नहीं, हां यह याद है कानपुर की कोई मुस्लिम फैमिली थी। मैं और मेरे सहयोगी जब फौजियों को राजी नहीं कर सके, तब इन दोनों सखियों ने मोरचा लिया। दोनों ने उसे पोस्ट के सबसे सीनियर अधिकारी को करीबन हड़काने के अंदाज में बोलना शुरू कर दिया। हम इतनी दूर से आए हैं। जब खतरनाक रास्ते हमारा हौसला नहीं बिगाड़ सके तो आप हमें ऊपर जाने से कैसे रोक सकते हैं। मेघा ने कहा कि हम झेल लेंगे बर्फबारी, आप हमें जाने दें। हम ज्यादा देर ऊपर नहीं रुकेंगे, जाएंगे और चले आएंगे। महिलाओं से बहस में कोई जीत नहीं सकता। भारतीय सैनिक भी नहीं। हमें ऊपर जाने की अनुमति मिल गई। सिर्फ एक घंटे के लिए।
चीन से बिल्कुल आमनेसामने की पोस्ट पर मैं और मेघा।

नाथुला पहुंचना मेरे सपने के पूरा होने जैसे ही था। चारों तरफ बर्फ ही बर्फ। सर्द हवाओं ने हमें घेर रखा था। ऐसा लग रहा था मानों शरीर में कुछ बचा ही नहीं है। तमाम गर्म कपड़ों के बावजूद हम कांप रहे थे। सीढ़ियों से चढ़कर हमें ऊपरी पोस्ट तक जाना था। करीब चालीस पचास सीढ़ी चढ़कर आखिर हम वहां पहुंच चुके थे जहां तक पहुंचने के लिए इतने पापड़ बेले थे। 14200 फीट की ऊंचाई पर भारतीय सैन्य पोस्ट और चीनी सैन्य पोस्ट के बीच सिर्फ आधी फीट ऊंची दीवार थी। दीवार के ऊपर नाम मात्र के कंटीली तार लगे थे। सामने चीनी सैनिक बिना किसी हथियार के इधर-उधर टहल रहे थे। हल्की बर्फबारी भी शुरू हो चुकी थी। भारतीय सैनिक वहां हम जैसे मौजूद कुछ पर्यटकों को कंटीली तार से दूर रहने की सलाह देते हुए पोस्ट के बारे बता रहे थे। कैप्टन रैंक के अधिकारी को मेघा ने घेर रखा था और पूरे नाथुला का इतिहास और भूगोल की जानकारी ले रही थी। तभी एक चीनी सैनिक कंटीले तार के पास आ गया। मेघा ने तत्काल उसे भी घेर लिया। न उस चीनी सैनिक को अंग्रेजी आ रही थी और न मेघा को चीनी भाषा समझ में आ रही थी। पर उस सैनिक ने इतना जरूर समझ लिया कि यह भारतीय महिला उससे हाथ मिलाना चाह रही थी। चीनी सैनिक जहां था वहां से ठीक हाथ मिलाना संभव नहीं थी, इसीलिए वह दीवार के ऊपर चला आया। फिर क्या था मेघा ने उससे न केवल हाथ मिलाया, बल्कि तस्वीरें भी खिंचवाई। वह बेहद खुश था। इसी बीच उसका दूसरा साथी भी आ गया। उस चीनी को थोड़ी अंग्रेजी आती थी। उसने मेघा से पूछा कि डू यू वांट टू टेक समथिंग फ्रॉम अस। मेघा ने यस किया, तो उसने तत्काल सौ रुपए मांग लिए। मैं कुछ बोलता इससे पहले मेघा ने अपने पॉकेट से सौ रुपए निकालकर उसे दे दिए और इसके बदले उस चीनी सैनिक ने चीन के नोट मेघा को थमा दिए।
मेघा का चीनी सैनिक के साथ जीत का जश्न।

सौ रुपए के बदले एक युआन। मेघा की खुशी का ठिकाना नहीं था। पर तभी कैप्टन साहब ने मेघा को बता दिया कि उसने आपके सौ रुपए के बदले सिर्फ एक युआन दिया है। आपको करीब साठ रुपए का घाटा हो रहा है। फिर क्या था मेघा असली भारतीय महिला के रूप में आ गई। भिड़ गई उस चीनी सैनिक से। मेघा उससे और रुपए मांग रही थी और वह सैनिक आई हैव नो मोर मनी, आई हैव नो मोर मनी कहता हुआ इधर उधर झांक रहा था। मेघा भी कहां हार मानने वाली थी। उसने जब उसे डांटा तो उसने और पैसे निकाले। अबकी बार दो नोट थे। फिर भी सौ रुपए के बदले दस रुपए कम थे। मेघा ने उससे फिर दोस्ती का हाथ बढ़ाकर किप द रेस्ट मनी का टोंट मारा और दोबारा तस्वीर खींचवाई। किसी भारतीय विरांगना तरह मेघा खुश नजर आ रही थी। मानो चीन को को युद्ध में हरा दिया। मेघा के ये तेवर देखकर कैप्टन साहब और उनकी टीम ने तालियों के साथ मेघा का स्वागत किया। साथ ही यह बताया कि ये चीनी सैनिक भारतीय पर्यटकों के साथ ऐसा ही करते हैं। पर पहली बार उनका सामना किसी वीर भारतीय महिला से हुआ जो अपना हक लेना जानती है। कैप्टन साहब ने मेरी और मेघा की भारतीय तिरंगे के साथ तस्वीर खींची। उन्होंने हमें चाय आॅफर की। पर हमारी टैक्सी वाली टीम नीचे जा चुकी थी, क्योंकि बर्फबारी तेज होती जा रही थी। हम बर्फबारी में फंस सकते थे।
जीत के बाद भारतीय सैनिकों ने किया मेघा का स्वागत।

मुझे भारतीय सैनिकों से बातचीत करने का काफी मन था, पर समय ने ऐसा करने नहीं दिया। हमने भारतीय सैनिकों के साथ तस्वीरें खिंचवाई और उनके इस कर्तव्यनिष्ठा, देशप्रेम और कठिन परिस्थितियों के बीच सीमा की चौकसी की ड्यूटी को सैल्यूट किया। इस बात की अफसोस रहा कि हम उस बाबा हरभजन सिंह के बंकर का दर्शन नहीं कर पाए, जिनके बारे में न जाने कितनी किंवदंतियां प्रचलित हैं। बाबा हरभजन सिंह के बारे में कभी विस्तार से लिखूंगा। आज भी भारतीय और चीनी सेना की यह मान्यता है कि बाबा हरभजन हर दिन यहां मौजूद रहते हैं। सेना में हर साल उनका प्रमोशन होता है और वे छुट्टियों में अपने घर भी जाते हैं। तेजी से बदल रहे मौसम के कारण हम उस बंकर तक नहीं पहुंच सके जहां उनका निवास है। इस उम्मीद के साथ हम वहां से रुख्सत हुए कि दोबारा यहां पहुंचेंगे और बाबा के दर्शन करेंगे और भारतीय सैनिकों के साथ कुछ घंटे बिताएंगे। आज छह साल होने जा रहे हैं दोबारा जाने का मौका नहीं मिला। पर नाथुला दर्रा पर हो रही घटनाओं ने वहां की याद ताजा कर दी।  


Monday, June 26, 2017

हे पार्थ! जात न पूछो महामहीम की

महाभारत के युद्ध का एक प्रसंग है। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर वीर अर्जुन मैदान में पहुंचते हैं, हर तरफ अपनों को देखकर उनका मन विचलित हो जाता है। वह अपना धनुष और वाण नीचे रख देते हैं। अर्जुन को इस तरह परेशान देख उनके सारथी कृष्ण पूछते हैं क्या हुआ पार्थ? सामने दुश्मनों को देखकर तुम्हें क्या हो गया? अर्जुन कुछ नहीं बोलते। कातर दृष्टि से अपने सारथी को देखते हैं। आंखों ही आंखों में बहुत कुछ पूछ लेते हैं। फिर भी कृष्ण इंतजार करते हैं अर्जुन के बोलने का। कुछ देर बाद अर्जुन बोलते हैं कैसे मैं अपनों पर ही वाणों की वर्षा करूंगा? कैसे मैं इन्हें मृत होते देख सकता हूं? कृष्ण मुस्कुराते हैं और कहते हैं युद्ध के मैदान में अगर तुम यह देखोगे कि सामने वाला कौन है, उसकी पहचान क्या है, उसकी जाति क्या है, हमारे खून से उसका रिश्ता क्या है, फिर युद्ध कभी नहीं जीत सकते। इसी प्रसंग के साथ कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया। जिसे हम हमेशा पढ़ते और पढ़ाते रहते हैं। अब जरा मंथन करिए भारतीय संविधान के सर्वोच्च पद पर हो रहे चुनाव पर।
राष्ट्रपति चुनाव के लिए सत्ता पक्ष और विपक्ष ने अपने-अपने मोहरे मैदान में उतार दिए हैं। युद्ध के मैदान की तरह दोनों तरफ से शब्दवाणों से हमले हो रहे हैं। कोई पीछे नहीं हट रहा है। सब अपने ही हैं। सब दलित ही हैं। सब भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों का भोग कर रहे हैं। महाभारत के युद्ध की तरह ही यहां पर भी सबकुछ स्क्रिपटेड है। महाभारत के युद्ध में एक ही परिवार के लोग एक दूसरे पर वाणों से हमला कर रहे थे। राष्ट्रपति चुनाव में दलित नाम के तीर से संविधान के सभी नागरिक एक दूसरे पर शब्दवाणों से घायल कर रहे हैं। भारतीय संविधान लहूलुहान हो रहा है। पर किसी को चिंता नहीं। कुरुक्षेत्र की धरती खून से लाल हो रही थी, यहां संविधान की मान्यताओं को छलनी किया जा रहा है।
यह कैसी विडंबना है कि भारतीय गणतंत्र के सबसे सर्वोच्च पद का चुनाव जातिगत आधार पर हो रहा है। राष्ट्रपति प्रत्याशी की सभी काबिलियत गौण है। उसकी शिक्षा-दिक्षा। उसकी परवरिश, मानवीय पहलू, संवेदनात्मक रवैया सबकुछ रद्दी की टोकरी में है। प्रत्याशी की सबसे बड़ी योग्यता है कि वह दलित हैं। दलित समुदाय से आते हैं। चलो यह भी मान लिया जाए कि दलित होना सबसे बड़ी योग्यता है। पर क्या कोई दोनों पक्षों से यह पूछ सकता है कि हुजूर यह भी लगे हाथ बता दें कि दोनों प्रत्याशियों ने दलितों के उत्थान के लिए आज तक क्या-क्या किया है? कितने दलितों का कल्याण किया है? दलितों के लिए बनने वाली पॉलिसी और उसके इंप्लीमेंट में दोनों प्रत्याशियों का क्या-क्या योगदान रहा है? फिर किस तरह भारत के नागरिक इस बात को स्वीकार कर लेंगे कि एक दलित को राष्ट्रपति बना देने से भारतीय संविधान अपने सर्वोत्तम काल में चला जाएगा। भारत के दलितों का उत्पीड़न कम हो जाएगा। मंथन करिए क्या ऐसे ही भारतीय संविधान का सर्वश्रेष्ठ काल बनेगा, जब सभी बड़े दल यह कहते फिर रहे हैं कि मेरा दलित राष्ट्रपति प्रत्याशी तुम्हारे दलित प्रत्याशी से ज्यादा दलित है।

भारत के पहले राष्ट्रपति कौन थे, इसका जवाब तुरंत आपको मिल जाएगा। लोग आसानी से बोल देंगे भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद थे। पर उनकी जात क्या थी यह कम लोग ही बता पाएंगे। गुगल बाबा भी उनकी जात बताने में हिचकिचाएंगे। आज की नौजवान पीढ़ी तो यह भी नहीं जानती होगी कि बिहार के जिस छोटे से गांव में रहकर उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी कि वहां क्या दलित और क्या सवर्ण सभी की स्थिति एक जैसी ही थी। भारत के दूसरे राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जाति भी बहुत खोजबीन करने के बाद आपको पता चलेगी। पर उन्होंने राष्ट्रपति के रूप में जो काम किया वह सभी को पता है।
भारत के राष्ट्रपति का पद अपने आप में एक विराट गरिमा समेटे हुए है। पर विडंबना देखिए दोनों ही प्रत्याशी जो बेहद ही शालीन, उच्च शिक्षा प्राप्त हैं, उन्हें किस कदर जातिगत राजनीति में धकेल दिया गया है। सोशल मीडिया में हर तरफ दोनों प्रत्याशियों को लेकर तमाम आपत्तीजनक पोस्ट पढ़ने को मिल रहे हैं। आज तक के भारतीय इतिहास में ऐसी परिस्थति कभी सामने नहीं आई कि राष्ट्रपति का चुनाव इस तरह जातिगत हो जाएगा। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि सभी छोटे बड़े दलों ने आम चुनावों में भले ही दलित वोट की राजनीति को सर्वोपरि रखा, लेकिन राष्ट्रपति जैसे गरिमामयी चुनाव से इस दलित राजनीति को अलग रखा। अब सबकुछ खुला खेल है। क्या विधायक का चुनाव और क्या राष्टÑपति का। युद्ध के मैदान और सत्ता की राजनीति में सबकुछ जायज है।
पुनश्च, कृष्ण ने अर्जुन से कहा पार्थ तुम यह मत देखो सामने कौन है, सिर्फ यह समझो वो दुश्मन हैं और तुम्हें उनका संहार करना है। इसके लिए तुम्हें जो तीर चलाना है चलाओ। जिस गति से उनपर वार करना है करो। यही धर्म कहता है। युद्धनीति यही है। महाकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी कालजयी रचना जयद्रथ वध के प्रसंग में लिखते हैं... 
अधिकार खो कर बैठे रहना, यह महा दुष्कर्म है,
न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है।
इस तत्व पर ही कौरवों से पाण्डवों का रण हुआ,
जो भव्य भारतवर्ष के कल्पान्त का कारण हुआ।।
सब लोग हिलमिल कर चलो, पारस्परिक ईर्ष्या तजो,
भारत न दुर्दिन देखता, मचता महाभारत न जो।।
हो स्वप्नतुल्य सदैव को सब शौर्य सहसा खो गया,
हा ! हा ! इसी समराग्नि में सर्वस्व स्वाहा हो गया।
दुर्वृत्त दुर्योधन न जो शठता-सहित हठ ठानता,
जो प्रेम-पूर्वक पाण्डवों की मान्यता को मानता,
तो डूबता भारत न यों रण-रक्त-पारावार में,
ले डूबता है एक पापी नाव को मझधार में।
हा ! बन्धुओं के ही करों से बन्धु-गण मारे गये !
हा ! तात से सुत, शिष्य से गुरु स-हठ संहारे गये। 
 
मंथन करने का वक्त है। हम किसके लिए राष्ट्रपति का चुनाव कर रहे हैं। अपने स्वार्थ के लिए। दलितों के उत्थान के लिए। भारतवर्ष के गौरवमयी इतिहास को बचाने के लिए। या फिर महाभारत के युद्ध की तरह अपने ही बंधु बांधव को एक दूसरे से लड़वाने के लिए। कांग्रेस इस तरह की राजनीति के लिए कुख्यात रही है, जिसका परिणाम वह इस वक्त भुगत रही है। लंबे समय बाद जब भारत की जनता ने बीजेपी को सत्ता की कमान सौंपी है तो उससे भी इसी तरह की राजनीति की उम्मीद लोगों को नहीं है। भारत के युवा नई सोच के साथ राजनीति को देख रहे हैं। ऐसे में तमाम दलों को मंथन के साथ-साथ संभलने की भी जरूरत है। नहीं तो तेरा दलित मेरे से ज्यादा दलित है का रट लगाए हम अपने ही अपनों को मारते रह जाएंगे।

Saturday, June 24, 2017

हां, हम सब ‘ट्यूबलाइट’ ही तो हैं


सलमान खान और कबीर खान की जोड़ी को एक बार फिर बधाई, एक बेहतरीन सब्जेक्ट पर बेहद सार्थक फिल्म बनाने के लिए। नाम को सार्थक करते हुए इस फिल्म ने जितना भी कहा है बेहतर कहा है। ‘यकीन’ मानिए एक ट्यूबलाइट के जरिए कबीर खान और सलमान खान ने हमें अपने दिमाग की बत्ती जलाने के लिए विवश कर दिया है। संदर्भ भले ही भारत चीन की सन 62 की लड़ाई का लिया है, लेकिन जो वो कहना चाहते हैं बड़ी ही साफगोई के साथ कह दिया है। ट्यूबलाइट को दो सब्जेक्ट या संदर्भ में देखें।
पहला ::
दिल्ली में नार्थ-ईस्ट के लोगों को जब चिंकी कहकर बुलाया जाता है तो क्या आप सोंच सकते हैं उन्हें कैसा महसूस होता होगा। फिल्म में भी जब एक चीनी महिला अपने बच्चे को बचाने के लिए जब यह कहती है कि भारत से हमें भी उतना ही प्रेम है जितना तुम्हें, लेकिन हमें सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं है। उसी महिला का बेटा जिसे लक्ष्मण सिंह बिष्ट ‘गू’ कहकर बुलाता है लक्ष्मण से ऊंची आवाज में भारत माता की जय कहता तो यकीन मानिए आज के सारे संदर्भों की परतें अपने आप ही खुल जाती है। क्या बेहतरीन अंदाज में कबीर खान ने एक छोटे से बच्चे से भारत माता की जय कहवाकर वो सबकुछ कह दिया जो वह कहना चाह रहे थे।
हम सच में आज ट््यूबलाइट ही हो चुके हैं। कश्मीर में मस्जीद के सामने डीएसपी को मार दे रहे हैं, दिल्ली से सटे बल्लभगढ़ में एक युवा की हत्या कर दे रहे हैं। दिल्ली में चिंकी कहकर नॉर्थ इस्ट के लोगों को दूसरे देश के होने का बोध करवा रहे हैं। फेसबुक, ट्यूटर और व्हॉट्सएप पर बहकते हुए न जाने क्या क्या कर रहे हैं और दावा कर रहे हैं कि न जी हम तो आज एलईडी लाइड हैं। भक्क से जल जाएंगे और खूब रोशनी कर देंगे। भक्क से देशभक्त बन जाएंगे और भक्क से बड़े विचारक। अरे हम ट्यूबलाइट हैं। एलईडी लाइट बनने में वक्त लग गया, लगता है हमें भी एलईडी लाइट बनने में अभी वक्त लगने वाला है।

फिल्म का दूसरा सब्जेक्ट एक कम बुद्धि वाले लक्ष्मण सिंह बिष्ट से जुड़ा है। जो बात तो सभी समझता है, लेकिन थोड़ी देर से समझता है, जिसके कारण उसे सभी ट्यूबलाइट कहते हैं। फिल्म इसी ट्यूबलाइट और उसके छोटे भाई भरत सिंह बिष्ट के इर्द गिर्द घूमती है। फिल्म की कहानी को बहुत दमदार नहीं कहा जा सकता है। दर्शक इसे खुद से कोरिलेट करने में थोड़ा झिझक सकते हैं। फिल्म के लोकेशन बेहद खूबसूरत हैं। यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि हमारे अपने ही देश में इतने खूबसूरत लोकेशन मौजूद हैं फिर भी फिल्मकार विदेशों की तरफ भटकते रहते हैं। हां यह जरूर है कि उत्तराखंड के स्वर्ग कहे जाने वाले कुमांऊ को फिल्म में पूरी तरह से इग्नोर किया गया है। सिर्फ कुमांऊ के नाम का इस्तेमाल कर फिल्म को देश की सबसे पुरानी सैन्य यूनिट कुमांऊ रेजिमेंट से जोड़ा गया है। थोड़ी बहुत बोली जिसमें ‘भूला’ (स्थानीय भाषा में भाई) शब्द को अच्छे अंदाज से प्रस्तुत किया गया है।
ओवरआॅल फिल्म एक अच्छी पारिवारिक फिल्म है। पारिवारिक इसलिए कि हर उम्र के लोग अपने बड़ों-छोटों-हमउम्र आदि..आदि के साथ देख सकते हैं। कहीं आपको शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं पड़ेगी। आप अगर थोड़ा भी इमोशनल हैं तो रुमाल जरूर साथ लेकर जाएं, क्योंकि फिल्म के कई हास्य दृश्यों में भी आपकी आंखें नम हो जाएंगी। अक्सर फिल्मों में बड़े भाई को छोटे के लिए लड़ते हुए आप देखते आए होंगे। पर जब ट्यूबलाइट यानि लक्ष्मण बिष्ट के लिए उसका छोटा भाई भरत सिंह बिष्ट स्कुल वाली थर्मस से क्लसमेट का मूंह सूजा देता है तब भी आप की आंखें नम हो जाएंगी। फिल्म के गाने तो आप सुन ही चुके हैं, कुछ बताने की जरूरत नहीं है। हां एक गाना सबसे बेहतरीन है जो आप थियेटर में ही सुन सकेंगे।
कुल मिलाकर आप यह फिल्म जरूर देखें। हर एंगल से महसूस करें। हां, अपने अंदर के भी ट्यूबलाइट को देखने का प्रयास करें।
और अंत में .. नाच मेरी जान हो के मगन तूं, छोड़ के सारे किंतु परंतु।