Tuesday, April 25, 2017

लोकतंत्र के स्वाभिमान पर ‘मूत्रतंत्र’ से करारा प्रहार


उत्तर प्रदेश के चुनावी एजेंडे में किसानों की बात सबसे ऊपर थी। पंजाब में भी कमोबेश यही स्थिति थी। दोनों प्रदेश कृषि पर सर्वाधिक आश्रित हैं। दोनों ही प्रदेशों में किसानों की स्थिति दयनीय है। सर्वाधिक अन्न पैदा करने वाले इन दोनों राज्यों के किसानों की बातें हमेशा सुनी और समझी गई हैं। शायद यही कारण है कि चुनाव की तैयारी भी इन्हीं के इर्द गिर्द रची और बुनी जाती है। पर आज से ठीक 41 दिन पहले दिल्ली के लुटियन जोन से हजारों मील दूर से करीब 134 किसान जब यहां पहुंचते हैं तो लोग हैरान हो जाते हैं। पिछले 41 दिनों में इन किसानों ने अपनी बात सरकार तक पहुंचाने के लिए जिन-जिन तरीकों का सहारा लिया है, उसने मंथन करने पर मजबूर कर दिया है कि कब तक किसान चुनावी तवे की रोटी बने रहेंगे? क्या कभी इनका दर्द दिल्ली की लुटियन दरबार में सार्थक तरीके से सुनी जाएगी।
उत्तर प्रदेश के किसान थोड़े भाग्यशाली हैं, क्योंकि उन्हें मनचाही मुराद मिल गई। चुनाव के दौरान और उसके बाद वो जिस उम्मीद में जी रहे थे वह कमोबेश उन्हें हासिल हो गई। पंजाब के किसान अभी इंतजार में हैं कि कब उन्हें चुनाव के दौरान थमाई गई लॉलीपॉप खिलाई जाएगी। पर इसी बीच तमिलनाडु से दिल्ली पहुंचे 134 किसानों के दल ने 41 दिनों में कुछ ऐसा कर दिया है कि पूरे विश्व की नजर भारत की तरफ लग गई है। इन किसानों की तरह ही जब कुछ साल पहले मध्यप्रदेश के खंडवा इलाके के किसानों ने भी अपनी मांग मनवाने के लिए अनोखा तरीका अपनाया था तब भी उनका यह विरोध प्रदर्शन विदेशी अखबारों में खूब उछला था। किसानों ने पानी के अंदर खड़े होकर लंबा संघर्ष किया। कुछ हद तक उनकी मांगों पर सरकार ने भी विचार किया। हालांकि यह बात अलग है कि आज फिर वहां के किसान उसी शर्मनाक स्थिति में पहुंच गए हैं। पर दिल्ली के जंतर मंतर पर ये किसान जिस तरह से अपनी मांगों को रख रहे हैं, उसने सभ्य समाज की चूलें हिला कर रख दी है। ज्यों-ज्यों इन किसानों के प्रदर्शन का दिन बढ़ता जा रहा है त्यों-त्यों इनके विरोध का तरीका भी सभ्य समाज के मुंह पर तमाचा मार रहा है।
कभी सांप का मांस खाकर, कभी दिल्ली रेलवे स्टेशन से चूहे पकड़कर लाकर और उसे मूंह में थामकर, कभी पूरी तरह निवस्त्र होकर दिल्ली की सड़कों पर प्रदर्शन करते दिख रहे इन किसानों को देखकर किसी को विश्वास भी नहीं हो रहा है कि क्या हमारे अन्नदाता इस बुरी स्थिति में पहुंच चुके हैं। इसी शनिवार को अपने प्रदर्शन के 39वें दिन जब इन किसानों ने अपना मूत्र एकत्र कर उसे पीकर अपना प्रदर्शन किया तो दिल्ली से लेकर तमिलनाडु की सरकार तक हिल गई। विदेशी मीडिया तक में भारतीय किसानों की इस दुखद और शर्मशार कर देने वाली हकीकत की चर्चा होने लगी। ये किसान अपने प्रदर्शन के दिन से ही तमिलनाडु से नरमंूड लेकर आए हैं और उसके साथ प्रदर्शन कर रहे हैं। किसानों का कहना है कि ये नरमूंड उनके साथी किसानों के हैं। ये वे किसान थे जिन्होंने पिछले कुछ महीनों में कर्ज और तमाम अन्य समस्याओं के कारण अपनी जान दे दी।

अब सवाल उठता है कि ये 134 किसान अपने राज्य की ऐसी किन समस्याओं को लेकर दिल्ली आए हैं जहां उनकी बात किसी राजनेता, किसी मंत्री किसी सरकार के कान तक नहीं पहुंच रही है। क्या इनकी मांग इतनी गैर जरूरी है कि उस पर ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए? अगर इन किसानों की मांग इतनी ही गैर जरूरी है तो रविवार को ऐसी क्या स्थिति हो गई कि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री माननीय ई पलानीसामी को जंतर मंतर पहुंचना पड़ गया। क्या सच में यह इसलिए संभव हुआ क्योंकि किसानों ने अपना मूत्र पीकर एक ऐसा शर्मशार करने वाला संदेश दे दिया। या सच में किसानों की मांग में कुछ तो दम है। दरअसल दिल्ली के राजनीतिक गलियारे और मीडिया के चकाचौंध वाले कैमरे से काफी दूर होने के कारण आम लोगों को यह पता नहीं है कि तमिलनाडु पिछले 140 सालों में सबसे बड़े सूखे से जूझ रहा है। जयललिता के निधन के बाद खुद को बचाने में लगी सरकार के पास किसानों की बात सुनने का समय नहीं है। कभी पन्नीरसेल्वम, कभी शशीकला और कभी ई पलानीसामी के बीच फंसी राज्य सरकार खुद से इतनी परेशान है कि किसानों की आवाज उन तक पहुंच नहीं रही थी। वहां के किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं। दिल्ली पहुंचे किसानों ने तो यहां तक बताया है कि पिछले चंद महीनों में करीब 40 किसानों ने अपनी जान दे दी है। ऐसे में उनके पास दिल्ली पहुंचने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बच गया था। किसानों की सबसे प्रमुख मांग उनकी सुरक्षा को लेकर है। उनकी मांग है कि 60 से अधिक उम्र के किसानों को पेंशन की सुविधा दी जाए। किसानों की मदद के लिए सरकार सूखा राहत कोष का गठन करे। किसानों ने सरकारी बैंकों से जो लोन लिया है उसे माफ कर दिया जाए। साथ ही पानी की सुविधा के लिए विभिन्न नदियों को एक साथ जोड़ने की कोई बड़ी योजना बनाई जाए। 

किसानों की इन मांगों में एक भी मांग ऐसी नहीं है जिसे गैर जरूरी करार दिया जाए। बात सिर्फ इतनी सी है कि तमिलनाडु में फिलहाल कोई चुनाव नहीं है। नहीं तो तत्काल सभी राजनीतिक दल अपने मेनिफेस्टो में इन सभी मांगों को शामिल कर लेती। इसमें भी दो राय नहीं कि सभी मांगों को पूरा करने को लेकर जोर शोर से प्रचार करवाया जाता। पर विडंबना यह है कि भारत जैसे कृषि प्रधान देश में किसानों की समस्याएं और उनकी मांगों को चुनावी लॉलीपॉप के रूप में देखा गया है। उत्तर प्रदेश और पंजाब इसके ताजा उदाहरण हैं। लंबे समय बाद यूपी में सत्ता में आई सरकार ने लोकसभा चुनाव को देखते हुए विधानसभा में किए चुनावी वादे पूरे कर लिए। किसानों के कर्ज माफ कर दिए गए। पंजाब अभी विचार विमर्श में ही लगा है। तमिलनाडु के किसानों ने मूत्र पीकर एक ऐसी समस्या पर मंथन करने की जरूरत पर बहस तेज कर दी है जिसे हम हमेशा इग्नोर करते हैं। यह अलार्मिंग कॉल है। मूत्रतंत्र ने लोकतंत्र के स्वाभिमान पर करारा प्रहार किया है।

Tuesday, April 18, 2017

दहेज प्रथा पर भी कुछ बोल दें मोदी जी


पूरा देश इस वक्त प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी को सुन रहा है। हालिया विधानसभा रिजल्ट के बाद एक बार फिर से नरेंद्र मोदी का कद बढ़ा है। अपने इसी कॉलम में एक बार मैंने चर्चा की थी कि कई बार मोदी जी की चुनावी रैलियों में उनके निगेटिव और निजी हमलों के कारण उनके सम्मान में कमी आने लगी है। पर जिस तरह उन्हें सुनने और एक झलक पाने की ललक लोगों में है उसने मेरी बातों को सिरे से खारिज कर दिया है कि उनके सम्मान में जरा भी कमी आई है। एक प्रधानमंत्री के तौर पर वो आज भी सबसे लोकप्रिय व्यक्ति हैं। अब जबकि पूरा देश उन्हें सुनने को तैयार है तो उनसे एक अनुरोध यह भी करना जरूरी है कि भारत की सबसे बड़ी कुप्रथा दहेज पर भी वो मंथन जरूर करें। एक बार इस कुप्रथा के खिलाफ भी आह्वान कर दें। उनकी हर बात भारत के लोग सुन रहे हैं, यह आह्वान भी जन आंदोलन में तब्दील हो सकता है।

बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने शराबबंदी के क्रांतिकारी कदम के बाद दहेज प्रथा पर करारा प्रहार किया है। वो शराबबंदी के जैसा कुछ नया नियम या कानून तो नहीं बना सके हैं, पर उन्होंने बिहार में दहेज प्रथा के खिलाफ नया अलख जगाने का प्रयास किया है। नितीश कुमार ने बिहार के लोगों से आह्वान किया है कि जिस घर में दहेज लिया या दिया जा रहा है वहां का मेहमान बनने से परहेज करें। मुझे व्यक्तिगत तौर पर लगता है कि हाल के वर्षों में जिस तरह दहेज ने बड़ी कुप्रथा के रूप में हमारे समाज को अपनी जकड़ में ले लिया है उसके खिलाफ नितीश का यह आह्वान महाअभियान बन सकता है। लंबे समय से दहेज के खिलाफ इसी तरह के महाअभियान की जरूरत महसूस की जा रही है। इस अभियान में न जात-पात का बंधन हो, न पार्टी पॉलिटिक्स की जगह हो।

यह कितनी बड़ी विडंबना है कि 21वीं सदी में रहते हुए हम आए दिन दहेज हत्या की खबरों से रूबरू होते हैं। तमाम कानूनों के बावजूद दहेज लोभियों के मन में इस तरह के कानूनों का रत्ती भर भी भय नहीं रह गया है। खुलेआम दहेज मांगा और दिया जा रहा है। अभी दो दिन पहले भी एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें सैकड़ों लोगों की भीड़ के सामने मंच से दहेज की रकम की गिनती हो रही थी। आंकड़ों पर गौर करें तो दिल दहल जाएगा। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर दो घंटे में दहेज प्रताड़ना के केस सामने आ रहे हैं। कई बार तो परिस्थितियां इस तरह बिगड़ जा रही हैं कि बेटियोंं को बहू के रूप में आना श्राप जैसा प्रतीत होने लगा है। कुछ तो हिम्मत हार जाती हैं और बहू के रूप में अपना जीवन ही बलिदान कर दे रही हैं।

भारत में समय-समय पर ऐसे लोगों ने जन्म लिया है जिन्होंने अपने बलबूते भारत में व्याप्त तमाम बुराईयों, कुप्रथाओं पर लगाम लगाई है। उन महापुरुषों का आह्वान ऐसा होता था लोग खूद ब खूद आगे आकर ऐसी बुराईयों के प्रति जागरूकता पैदा करते थे। आज प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी ऐसे ही व्यक्तिव के रूप में भारत के लोगों के सामने हैं। सामाजिक बुराईयों के प्रति उनकी हर एक बात को जनता सुन रही है। स्वच्छ भारत मिशन का आज यह असर है कि घर के बच्चे अपने पैरेंट्स को गाड़ी से बाहर कूड़ा फेंकने पर टोक देते हैं। रोड किनारे धड़ल्ले से मूत्र त्यागने वाले लोग चार बार इधर उधर देखकर ऐसा रिस्क उठा रहे हैं। हर घर में करो योग रहो निरोग की बातें हो रही हैं। स्वदेशी अपनाने को लेकर लोग एक दूसरे को जागरूक कर रहे हैं। प्रधानमंत्री के रूप में देश हित में किए जा रहे हर एक आह्वान पर लोग तालियां बजा रहे हैं। आपकी एक आह्वान पर करोड़ों लोग मोबाइल ऐप (भीम ऐप) तक डाउनलोड कर ले रहे हैं। ऐसे में यह जरूरी है कि भारत की सबसे बड़ी कुप्रथा के खिलाफ भी बिगुल फूंका जाए।

यह सही है कि कुछ मुद्दे ऐसे हैं जिस पर राजनीतिक बहसबाजी शुरू हो जाती है। कुछ मुद्दे ऐसे होते हैं जिससे पार्टी का नफा या नुकसान तौलने की जरूरत पड़ती है। पर इसमें कोई दो राय नहीं कि कुछ सामाजिक कुरीतियां ऐसी होती है जिस पर कोई भी आपको गलत नहीं ठहरा सकता है। दहेज विरोधी अभियान भी एक ऐसा मुद्दा है। अगर आज नितीश कुमार ने दहेज के खिलाफ बिहार के लोगों का आह्वान किया है तो क्या यह राष्टÑीय आह्वान नहीं बन सकता है? मोदी जी हो सकता है नितीश कुमार से आपकी राजनीतिक प्रतिद्वंदिता हो। हो सकता है कि आपके पार्टी के लोग आपको नितीश कुमार के इस आह्वान से दूर होने की सलाह दें। पर आप मंथन जरूर करें। दहेज हत्या में जब बेटियां जला दी जाती हैं तो क्या आप खुद को माफ करने के काबिल समझ पाते हैं। नवरात्र पर नौ दिन का व्रत रखकर क्या आप यह संकल्प नहीं ले सकते कि जबतक लोग आपकी बातों को सुन रहे हैं आप दहेज के खिलाफ जोरदार आह्वान करते रहेंगे।

दहेज के मुद्दे पर पूरे देश के राजनेताओं, सरकारों और जन प्रतिनिधियों को राजनीति प्रतिद्वंदिता से ऊपर उठकर सोचने की जरूरत है। आज नितीश कुमार ने यह आह्वाान किया है। अगर इसी आह्वान को पूरे देश में आंदोलन का रूप दे दिया जाए तो हर साल हजारों की संख्या में दहेज की बली चढ़ने वाली बेटियों को सुरक्षित किया जा सकता है। दहेज के ही डर से हर साल लाखों बेटियों को कोख में ही मार दिया जाता है। आज भी हम उस सोच से मुक्ति नहीं पा सके हैं कि बेटी पैदा हुई तो उसकी शादी के समय खेत खलियान सब बेचना पड़ेगा। इस सोच को जड़ से खत्म करने के लिए व्यापक जन आंदोलन और जनजागरुकता की जरूरत है। आज नरेंद्र मोदी इस जन आंदोलन के सबसे बड़े प्रणेता के रूप में खुद को सामने ला सकते हैं।

Monday, April 10, 2017

लंगट सिंह कॉलेज और बापू की यादें

गांधी कूप 



यह बात उन दिनों की है जब मुजफ्फरपुर में मेरा और मृणाल भईया का एडमिशन लंगट सिंह कॉलेज कैंपस में मौजूद बिहार यूनिवर्सिटी कैंपस स्कूल में हुआ था। पहले यह स्कूल लंगट सिंह कॉलेज की मुख्य बिल्ंिडग के ठीक सामने मौजूद एनसीसी वाली वर्षों पुरानी बिल्ंिडग में था। इसी के सामने गांधी पार्क था, जहां बापू की बड़ी प्रतिमा मौजूद थी। एक साल बाद ही स्कूल लंगट सिंह कॉलेज के आर्ट्स ब्लॉक के सामने मौजूद लंबे से कॉरिडोर नुमा ब्लॉक में शिफ्ट हो गया। पता चला कि यह ब्लॉक सीआरपीएफ के अस्थाई ठिकाने के लिए बनाया गया था। खैर इसी बिल्डिंग में हमारा स्कूल शिफ्ट हो गया। एक समय लंगट सिंह कॉलेज का कैंपस इतना बड़ा था कि बाद में इसमें बिहार यूनिवर्सिटी की स्थापना हो गई। इसी यूनिवर्सिटी के रिटायर्ड प्रोफेसर की देख रेख में बिहार यूनिवर्सिटी कैंपस स्कूल की स्थापना हुई थी। यूनिवर्सिटी के कई रिटायर्ड प्रोफेसर हमारे स्कूल के शिक्षक थे।
हमारे इसी स्कूल के ठीक सामने एक कुआं था। जब हम लोग छोटे थे तो स्कूल आते और जाते वक्त नियम से एकाथ पत्थर इस कुएं में फेंक दिया करते थे। एक दूसरे कीदेखा देखी कई बच्चे इस कुएं को अपनी प्राइवेट प्रॉपर्टी समझ चुके थे। कुएं में पत्थर फेंकना तो जैसे हमारा सबसे फेवरेट टास्क था। क्योंकि पत्थर भी एंगल बनाकर काफी दूर से फेंकना होता था। कुआं सूखा हुआ था। इसकी हालत इतनी खराब थी कि कोई यहां बैठना भी पसंद न करे। एक दिन हमारे स्कूल में एक छोटा सा प्रोग्राम था। स्कूल का प्रबंधन चुंकि बिहार यूनिवर्सिटी के रिटायर्ड प्रोफेसर्स के जिम्मे था, इसलिए सेमिनार में यूनिवर्सिटी के कई सीनियर प्रोफेसर्स भी मौजूद थे। लंगट सिंह कॉलेज के तत्कालीन प्रींसिपल (नाम याद नहीं)भी आए थे। प्रोग्राम के दौरान ही उन्होंने इस कुएं की चर्चा की। उन्होंने बताया कि जब गांधी जी 10 अप्रैल 1917 को पहली बार बिहार आए थे, तो उनका पहला पड़ाव मुजफ्फरपुर का यह ऐतिहासिक लंगट सिंह कॉलेज ही बना था। उन्होंने इसी कुएं का पानी पीया था और यहीं स्रान भी किया था।
LS College, Arial View

मुझे आश्चर्य हो रहा था कि जो कुआं हमारी निशानेबाजी का प्रतिनिधित्व कर रहा है वह कभी बापू के आगमन का गवाह रहा है। प्रोग्राम के दौरान हम बच्चों को अपने आसपास की जगह को साफ रखने का पाठ पढ़ाया जा रहा था और कुआं की चर्चा इसी संदर्भ में हो रही थी। यकीन मानिए इस प्रोग्राम के बाद कुंआ के प्रति हमारा सम्मान बढ़ गया। हमने इसके बाद कभी इस कुएं में पत्थर नहीं फेंका। स्कूल आते जाते वक्त इस सूखे कुएं के पास जाते जरूर थे। कुआं सूखकर एक गड्ढे के रूप में मौजूद था। एक साढ़े चार से पांच फीट का छात्र आराम से इस कुंए में उतर कर बिना किसी सहारे के ऊपर आ सकता था। आठवीं क्लास के बाद कई सालों तक इस कुएं में उतरने का हमें भी सौभाग्य प्राप्त हुआ क्योंकि क्रिकेट का मैदान इस कुआं की बगल में ही था। और अमूमन हमारी गेंद इसमें गिर जाया करती थी।
स्कूल खत्म हुआ। रिजल्ट ठीक ठाक ही था तो लंगट सिंह कॉलेज में एडमिशन भी मिल गया। कुआं इसी तरह मौजूद रहा। आर्ट्स लेने के कारण कुआं का साथ मिलता रहा, कुआं ठीक आर्ट्स ब्लॉक के सामने ही था। ग्रेजूएशन में इतिहास विषय लिया। कॉलेज के दिनों में ही जब गांधी के चंपारण सत्याग्रह को पढ़ने का मौका मिला तो गांधी के मुजफ्फरपुर, लंगट सिंह कॉलेज और इस कुएं की ऐतिहासिकता को और भी नजदीक से पढ़ने का मौका मिला।
एक बार पढ़ाई के दौरान भोजनंदन सर ने कुएं की चर्चा करते हुए इसकी ऐतिहासिकता के बारे में बताया था। उन्होंने बताया कि जब 10 अप्रैल को 1917 में बापू मुजफ्फरपुर पहुंचे तो उन्होंने लंगट सिंह कॉलेज में ही रहने की बात कही। उस वक्त लंगट सिंह कॉलेज के प्रोफेसर आचार्य कृपलानी भी उनके साथ थे। आनन फानन में कॉलेज हॉस्टल में उनके रात गुजारने की व्यवस्था की गई। पर सरकारी संस्थान होने के कारण किसी तरह के विवाद से बचने के लिए गांधी जी से अगले ही दिन वहां से निकल जाने का निवेदन किया गया। दूसरे दिन सुबह की दिनचर्या के दौरान गांधी जी आर्ट्स ब्लॉक के सामने स्थित इसी कुएं पर पहुंचे। यहां के शीतल जल ने उनका मन मोह लिया। खुद बाल्टी से पानी खींचकर उन्होंने पानी पीया और स्रान किया।  इसके बाद गांधी जी चंपारण की ओर प्रस्थान कर गए।

कॉलेज के युवा दिनों में मन में कसक उठती थी कुआं की दुर्दशा को देखकर। ऐतिहासिक कुआं हमारे सामने धीरे-धीरे और भी खराब होता गया। कॉलेज की पढ़ाई भी खत्म हुई पर कुआं जस का तस पड़ा रहा। एक बार कॉलेज में मैंने अपने इतिहास ब्लॉक के दोस्तों से भी कुआं को लेकर चर्चा भी की, प्लान भी बना कि कॉलेज प्रिंसिपल के पास कूंआ के रखरखाव को लेकर चर्चा की जाएगी। हिस्ट्री डिपार्टमेंट के शिक्षकों से भी सहयोग लेने की बात भी हुई। पर उसी दौरान डिपार्टमेंट में पढ़ाई को लेकर हम छात्रों ने क्रांति कर दी फिर यह प्लानिंग धरी की धरी रह गई। कॉलेज खत्म हुआ। दोस्त दूर हो गए। कॉलेज दूर हो गया। कुआं दूर हो गया।
बहुत दिनों बाद जब साल 2005-06 में कॉलेज कैंपस में जाने का मौका मिला कुआं देखकर दिल को जबर्दस्त सुकून मिला। कुआं पूरी तरह से नए रंग रूप में था। मुझे नहीं पता इसके जिर्णोद्धार के लिए किसने सोचा।   किसने इसकी ऐतिहासिकता को समझा। किसने इसे सहेजने की प्लानिंग की। पर उस शख्स को कोटि कोटि नमन जरूर करना चाहूंगा। जिला प्रशासन ने भी इस कुएं को स्मारक के रूप में घोषित कर दिया है। इसके बाद इसे संगमरमरी पत्थरों से कवर करते हुए इसकी घेराबंदी कर दी गई है। अब इस कुएं का नाम गांधी कूप हो गया है।
आज जब पूरा मुजफ्फपुर गांधी के रंग में रंगा है। चंपारण सत्याग्रह के सौ साल पूरे होने पर हर तरफ गांधी की चर्चा हो रही है। लंगट सिंह कॉलेज किसी दुल्हन की तरह सजा हुआ है। ऐसे में गांधी कूप भी अपनी ऐतिहासिकता पर गौरवांवित है। मैं शहर से 12 सौ किलोमीटर दूर बैठा हूं। इस ऐतिहासिक आयोजन को मिस कर रहा हूं। पर अपने शहर की आनबान और शान लंगट सिंह कॉलेज की सुंदरता अखबारों के ई-पेपर पर देखकर आह्लादित हूं। भोजनंदन बाबू को बापू की भूमिका में देखकर आनंदित हूं। एक बार उन्होंने कहा था कभी मौका मिला तो गांधी को जीने की तमन्ना है। सर को आज वह मौका मिल गया। बिहार सरकार और नितीश कुमार बधाई के पात्र हैं जिन्होंने इतने बड़े आयोजन को सार्थक किया है। जब लंगट सिंह कॉलेज में इतना बड़ा अयोजन हो रहा है तो उम्मीद करता हूं इससे भी भव्य आयोजन चंपारण की धरती पर हो रहा होगा।

कुछ ऐतिहासिक बातें लंगट सिंह कॉलेज के बारे में


  • स्वतंत्रता सेनानी और प्रसिद्ध समाजसेवी लंगट सिंह की पहल पर और उनके द्वारा दान की गई सैकड़ों एकड़ जमीन पर तीन जुलाई 1899 में लंगट सिंह कॉलेज की स्थापना हुई।
  • भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद लंगट सिंह कॉलेज के शिक्षक और प्रिंसिपल रहे।
  • आचार्य जेबी कृपलानी और राष्टÑकवि रामधारी सिंह दिनकर जैसे दिग्गजों ने भी कॉलेज में प्राध्यापक के रूप में अपनी सेवाएं दी।
  • गांधी जी ने इसी कॉलेज प्रांगण में अपनी चंपारण यात्रा की पूरी रूपरेखा तैयार की।    
  • लंगट सिंह कॉलेज की मुख्य बिल्ंिडग जिसका उद्घाटन 26 जुलाई 1922 को हुआ था वह आॅक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की तर्ज पर बना है। 


किसानों की कर्जदारी से सरोकार क्यों नहीं?


हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से सवाल किया है कि किसानों की आत्महत्याओं को रोकने के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं। केंद्र सरकार को निर्देश दिया गया है कि एक महीने के अंदर वह कोर्ट को बताए कि विभिन्न राज्य सरकारों ने इस दिशा में क्या प्लानिंग की है। देश के किसानों को सुप्रीम कोर्ट का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उसने एक ऐसे मुद्दे पर केंद्र को तलब किया है जिसकी जरूरत लंबे समय से महसूस की जा रही थी। वैसे तो स्वयंसेवी संगठन सिटीजन्स रिसोर्स एंड इनीसिएटिव ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका गुजरात के किसानों को लेकर दायर की थी। पर कोर्ट ने मामले को बेहद संवेदशील माना और इसका दायरा बढ़ा दिया। साथ ही सभी राज्य सरकारों को मंथन करने पर विवश कर दिया है कि क्या वे सच में किसानों के हित के लिए कुछ कर रहे हैं। खासकर आत्महत्या की प्रवृति को रोकने के लिए।

मंथन इसलिए भी जरूरी है क्योंकि जिस किसान के इर्द गिर्द पूरे भारत की राजनीति का पहिया घुमता रहता है वही किसान जमीनी स्तर पर अपनी किसानी से ही पीड़ित है। थक हार कर वह आत्महत्या जैसा कदम उठाने को मजबूर हो जाता है। किसानी एक ऐसा पेशा बन चुका है जहां हर कदम पर दर्द ही दर्द है। शायद यही कारण है कि पिछले 25 सालों में दो लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या कर ली है। आत्महत्या के मामले में महाराष्टÑ, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, पंजाब, तेलंगाना, हरियाणा, छत्तीसगढ़ ने तो पिछले पांच सालों में रिकॉर्ड तोड़ दिया है। बावजूद इसके किसी राज्य से अब तक अच्छी खबर नहीं आई है कि किसानों को एकमुश्त राहत देने के लिए राज्य सरकारों ने क्या किया है।

हाल ही में सम्पन्न हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी किसानों की दरिद्रता का मुद्दा सबसे ऊपर था। खासकर पंजाब और उत्तरप्रदेश में किसानों की बदहाली को दूर करने के लिए सभी राजनीतिक पार्टियों ने बड़े-बड़े बयान दिए। कुछ ऐसा ही बयान हरियाणा विधानसभा चुनाव के वक्त भी दिए गए थे। सबसे बड़ा बयान किसानों की कर्जमाफी को लेकर था। हरियाणा की बीजेपी सरकार तीन साल बाद भी किसानों की कर्जमाफी के लिए प्लानिंग ही कर रही है। पंजाब की कैप्टन सरकार केंद्र की ओर टकटकी लगाए बैठी है कि वहां से राहत राशि आए तो वह कर्ज माफी की योजना बना सके। हां इन सबसे इतर उत्तरप्रदेश की योगी सरकार ने बेहद सार्थक और मजबूत फैसला लेते हुए चुनावी घोषणा पत्र में किए गए वादे को पूरा किया है। उत्तरप्रदेश के लाखों किसानों की कर्जमाफी की घोषणा ने किसानों को जरूर राहत पहुंचाने का काम किया है। इस कर्जमाफी को साहसिक कदम इसलिए भी बताया जा रहा है क्योंकि रिजर्व बैंक कभी कर्जमाफी के पक्ष में नहीं था। रिजर्व बैंक का मानना था कि इससे लोन क्रेडिट पर असर पड़ेगा। आने वाले समय में किसान लोन लेंगे फिर माफी की उम्मीद लगाए बैठे रहेंगे।
योगी सरकार के इस साहसिक कदम के बाद देश में किसानों की ऋण माफी को लेकर बड़ी बहस छिड़ गई है। सितंबर 2016 में राज्यसभा में एक प्रश्न के लिखित उत्तर में कृषि राज्यमंत्री ने बताया था कि भारत के किसानों पर इस वक्त 12 लाख 60 हजार करोड़ रुपए का कर्जा है। इनमें से 9 लाख 57 हजार करोड़ का कर्जा कॉमर्शियल बैंकों ने किसानों को दिया है। उस वक्त भी कृषि राज्यमंत्री ने स्पष्ट किया था कि सरकार कर्ज माफ करने पर कोई विचार नहीं कर रही है, क्योंकि रिजर्व बैंक की राय है कि इससे कर्ज वसूली पर निगेटिव असर पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट का सरकार से सवाल ऐसे ही नहीं है। कोर्ट के सामने कई ऐसे उदाहरण हैं जब कॉरपोरेट घरानों के ऋण माफी के लिए सरकारें आगे रही है। बैंकों ने भी खूब दरियादिली दिखाई है।
यह बातें वाकई समझ से परे है कि विभिन्न राज्यों के आत्महत्या कर रहे किसानों का कर्ज माफ कर देने से अच्छी अर्थ व्यवस्था गड़बड़ा जाएगी, जबकि बड़े कॉरपोरेट घरानों की कर्जमाफी से आर्थिक विकास को गति मिलेगी। यह अर्थव्यवस्था की कैसी टर्मनोलॉजी है? भारत का एक सामान्य नागरीक भले ही अर्थव्यवस्था के गूढ मंत्रों को नहीं समझ सकता है, पर इतनी समझ तो जरूर है कि कर्ज तो कर्ज ही होता है। चाहे वह कॉरपोरेट घराने का कर्ज हो या एक निरीह किसान का। आरबीआई के पूर्व गवर्नर से लेकर एसबीआई की अध्यक्ष अरुंधति भट्टाचार्य भी किसानों की कर्जमाफी के पक्ष में नहीं हैं। सभी की एक राय है कि फसल ऋण माफी के्रडिट अनुशासन को बिगाड़ देती है। किसान हर समय ऋण माफी की आस लगाए रखेंगे। इसी संदर्भ में मुख्य आर्थिक सलाहकार के एक बयान पर भी गौर करना चाहिए। एक सेमिनार के दौरान अरविंद सुब्रमण्यम ने कहा कि ‘‘सरकार को बड़े कॉरपोरेट कर्जदारों को राहत देने की जरूरत है। आपको उन कर्जों को माफ करने में सझम होना चाहिए, क्योंकि पूंजीवाद इसी तरह से काम करता है। लोग गलतियां करते हैं, उन्हें कुछ हद तक माफ किया जाना चाहिए।’’
अब मंथन का वक्त है कि अगर पूंजीवाद का फॉर्मूला यही है तो क्या किसानों के लिए यह फॉर्मूला लागू नहीं हो सकता? कॉरपोरेट घराने तो गलती करते हैं, जबकि हमारे देश का किसान कभी खराब फसल, कभी मौसम के सितम, कभी जानवरों के आतंक और कभी फसलों के रोग के कारण बर्बाद होता है। यह कैसी व्यवस्था है कि किसानों की कर्जमाफी पर चर्चा होने लगती है और कॉरपोरेट घरानों का ऋण ‘चुपके’ से माफ कर दिया जाता है। केवी थॉमस की अध्यक्षता वाली लोक लेखा समिति की ताजा रिपोर्ट कहती है कि बैंकों की कुल 6.8 लाख करोड़ रुपए की गैर निष्पादित संपत्तियां (एनपीए) में से 70 फीसदी बड़े और रसूखदार कॉरपोरेट घरानों के पास है। जबकि मुश्किल से एक प्रतिशत भारत के किसानों के पास है। 2008 में भी जब किसानों का साठ हजार करोड़ रुपए का ऋण माफ किया गया था तब भी बहस शुरू हो गई थी। जबकि किसी ने इस बात पर चर्चा नहीं कि पिछले एक दशक में करीब दस लाख करोड़ रुपए का कॉरपोरेट घरानों का ऋण किस तरह बट्टे खाते में डालकर निपटा दिया गया। हाल ही में क्रेडिट रेटिंग एजेंसी इंडिया रेटिंग ने अपनी रिपोर्ट दी है। इसमें उसने कहा है कि 2011 से 2016 के बीच बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों द्वारा लिए गए करीब 7.4 लाख करोड़ रुपए के कर्ज में से चार लाख करोड़ रुपए के कर्ज को माफ किया जा सकता है।

पूंजीवादी व्यवस्था में बड़े घरानों की ऋण माफी के लिए कई तरह के उपाय किए जाते हैं। ऐसा ही एक उपाय है बैड बैंक। बड़ी कंपनियों के बुरे कर्जों की समस्या का समाधान करने के लिए बैड बैंक में समस्त बकाया ऋण ट्रांसफर कर दिए जाते हैं। साथ ही पब्लिक सेक्टर रिहैबिलिटेशन एजेंसी (पारा) के जरिए भी ऐसे ऋणों का निपटारा कर दिया जाता है। पर अफसोस इस बात का है कि आजादी के इतने सालों बाद भी किसानों की ऋण माफी के लिए ऐसी किसी व्यवस्था पर आज तक ध्यान नहीं दिया गया। मंथन जरूर करना चाहिए कि किसानों की आत्महत्या को रोकने के लिए ऐसी कोई व्यवस्था क्यों नहीं बननी चाहिए? कर्नाटक, महाराष्टÑ, तेलंगाना, गुजरात, पंजाब और हरियाणा के किसान हर साल आत्हत्या जैसा आत्मघाती कदम उठा रहे हैं। सरकारें खामोश हैं। कर्ज तले दबे किसान आस लगाए सरकार की ओर देख रहे हैं। यह मंथन का सबसे उचित समय है। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने किसानों की आत्महत्या पर गंभीर सवाल उठाया है। जवाब देने के लिए ही सही राज्य सरकारें कुछ तो करे।