Tuesday, January 31, 2017

इतिहास से छेड़छाड़ मंजूर, पर भावना का क्या?


मशहूर फिल्म निर्देशक संजय लीला भंसाली के साथ जो कुछ भी हुआ उसकी जितनी भी आलोचना की जाए कम है। यह पहली बार नहीं है कि किसी फिल्मकार का इतना पुरजोर विरोध हुआ है। तमाम बार तमाम कारणों से फिल्मों का, फिल्मी कलाकारों का, फिल्मकारों का विरोध हुआ है। सबसे अधिक विवाद और विरोध ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर बनने वाली फिल्मों पर होता है। ऐसे में भंसाली पर हुए हमले और विरोध के दौरान मंथन का वक्त है कि फिल्मकार ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर बनने वाली फिल्मों की पृष्ठभूमि कैसे तैयार करें। इतिहास एक ऐसा शब्द है जो हर पल बदलता रहता है। अभी मैं जो यह लिख रहा हूं यह भी इतिहास हो जाएगा। भंसाली के साथ जो कुछ भी हुआ वह इतिहास हो गया। या कल जो होने वाला है वह भी परसों इतिहास बन जाएगा।
भंसाली प्रकरण के समय उस वक्त जो लोग भी वहां मौजूद थे, उनमें से हर एक से अगर अलग-अलग समय पर यह पूछा जाए कि उस दिन वहां क्या हुआ था? हर एक का जवाब अलग-अलग होगा। कोई कहेगा भंसाली को जूतों से पीटा गया, कोई बताएगा उन्हें चार थप्पड़ मारे गए। कोई कहेगा उनके बाल भी नोचे गए। कोई यह भी बताएगा कि नहीं ऐसा कुछ नहीं हुआ था उनके साथ कोई दुर्व्यवहार नहीं हुआ था। बस विरोध हुआ था। अब इसी घटना पर कोई किताब लिखने बैठे तो वह अपनी तरह से इसकी व्याख्या करेगा। पर मूल रूप में यही आएगा कि एक फिल्म बन रही थी, जिसका जबर्दस्त विरोध हुआ। फिल्मकार को अपना डेरा डंडा वहां से समेटना पड़ गया। सामान्य शब्दों में कहा जाए तो यही इतिहास है। जो कल बीत गया वह इतिहास बन गया। चार लोग चार तरह से इस इतिहास का वर्णन करेंगे। अपने अनुसार किताबें लिखी जाएंगी। अब सवाल उठता है कि अगर इस ऐतिहासिक तथ्य पर फिल्म का निर्माण किया जाए तो उसे कैसे प्रजेंट किया जाएगा? क्या किसी फिल्मकार में इतनी हिम्मत होगी कि वह इस मारपीट की घटना को जस्टिफाई कर सके। क्या कोई निर्देशक यह बताने की चेष्टा कर सकता है कि भंसाली के साथ जो ऐतिहासिक घटना घटी वह सही हुई। ऐसा ही होना चाहिए था। यकीन मानिए कोई ऐसी हिम्मत नहीं कर सकता है, क्योंकि यहां सेंटिमेंट जुड़ा हुआ है।
ऐतिहासिक घटना हुई जरूर, लेकिन इसका जस्टिफिकेशन किसी के पास नहीं होगा। क्योंकि सच में यह निंदनीय है। फिर मंथन का वक्त है कि जब कोई फिल्मकार किसी ऐतिहासिक पात्र पर फिल्म बनाने की सोचता है तो वह लोगों के सेंटिमेंट को क्यों नजरअंदाज कर देता है। मेरे पिताजी इतिहास के प्रोफेसर रहे हैं। मैं खुद इतिहास का विद्यार्थी रहा हूं। पिताजी और मेरी लाइब्रेरी में हजारों किताबें इतिहास की भरी पड़ी हैं। तमाम विषयों पर मौजूद ऐतिहासिक पुस्तकें उस विषय की अलग-अलग व्याख्या करते हैं। छात्र जीवन में पिताजी से हमेशा यही सवाल करता था कि एक ही बात या घटना को अलग-अलग इतिहासकार क्यों अलग-अलग बताते हैं। क्यों शब्दों में हेर फेर होता है? कैसे 1965 में पैदा हुआ इतिहासकार 1365 का इतिहास लिख देता है? वह भी इतनी सटीकता से लिखता है कि वह वहीं उस वक्त मौजूद रहा होगा। तब के जमाने और आज के जमाने में बहुत अंतर आ गया है। आज अगर भंसाली के साथ हुई घटना पर फिल्म बनाई जाए तो यू-ट्यूब पर मौजूद उस वीडियो फुटेज की मदद ली जा सकती है, जिसमें वहां हुई घटना का जीवंत चित्रण मौजूद है। पर क्या भंसाली इस बात का जवाब देंगे कि जिस दौर के चरित्र पर वह फिल्म बना रहे हैं उसकी ऐतिहासिक प्रमाणिकता का आधार उन्होंने क्या लिया है? उन्होंने किस आधार पर तय कर लिया कि रानी पद्मावती और खिलजी के बीच किसी तरह का प्रेम संबंध था। रानी पद्मावती पर अब तक जितनी भी अध्ययन सामग्री मौजूद है उसमें रानी पद्मावती को एक विरांगना के तौर पर प्रस्तुत किया गया है। हालांकि इस ऐतिहासिक चरित्र की कोई प्रमाणिक पुष्टि आज तक कोई इतिहासकार नहीं कर सका है। पर किवंदंतियों के आधार पर जो इतिहास लिखा गया उसमें रानी पद्मावती को एक ऐसी वीरांगना बताया गया है जिन्होंने अपनी आन बान और शान के लिए जान तक को कुर्बान कर दिया। उन्हें अपनी इज्जत प्यारी थी, एक मुस्लिम शासक का हरम कबूल नहीं था, जिसके कारण उन्होंने खुद को जौहर कर लिया। सदियों से हम इसी तथ्य के साथ जीते आए हैं।
जिस राज्य से रानी पद्मावती आती हैं वहां आज भी उन्हें राजपूतानी वीरांगना के तौर पर सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। ऐसे में आसानी से समझा जा सकता है कि एक इतिहास कैसे लोगों की भावनाओं से जुड़ जाता है। एक ऐतिहासिक चरित्र कैसे अतुलनीय और आराध्य बन जाता है। इतिहासकारों को छूट है कि वह अपने-अपने तरह से किसी घटना की व्याख्या करें या वर्णन करें। इतिहाकार ऐसा करते भी रहे हैं। हर एक इतिहासकार किसी न किसी विचारधारा से प्रेरित रहता है और अपनी तरह से व्याख्या कर देता है। पर वह कभी इस बात का रिस्क नहीं लेता है कि जो पात्र किवंदंतियों के आधार पर आराध्य बन चुका है। जो पात्र लोगों की भावनाओं के साथ जुड़ गया है उसके लिए बिना प्रमाणिकता के कुछ भी उल्टा सीधा लिख दें। ऐसा नहीं है कि रानी पद्मावती पर कोई पहली बार फिल्म बना रहा है। इससे पहले भी भारतीय फिल्मकारों ने उनके ऊपर दो बार फिल्म बनाई है। रानी पद्मावति के जीवन को आज भी राजस्थान में पढ़ाया जाता है। उन्हें राजपूत महिलाओं के गौरव के रूप में देखा जाता है। उन दो फिल्मों में इसी रूप में रानी पद्मावति का चित्रण है। ऐसे में किसी फिल्मकार को फ्रिडम आॅफ एक्सप्रेशन के नाम पर इस बात की छूट कतई नहीं मिलनी चाहिए कि वह ऐतिहासिक और पूजनीय पात्रों के साथ अपनी मनमर्जी चला सके। वह भी सिर्फ बॉक्स आॅफिस पर चर्चा और पैसा बटोरने के लिए। वैसे भी भंसाली इस बात के लिए कुख्यात ही हैं कि ऐतिहासिक पात्रों के साथ उन्होंने अपनी मनमर्जी ही की है। इस बार कुछ लोगों ने विरोध का तरीका बदल दिया, जिसकी निंदा की जानी चाहिए। पर भंसाली जैसे निर्देशकों को भी मंथन जरूर करना चाहिए कि ऐतिहासिक पात्रों पर फिल्म बनाते वक्त लोगों के सेंटिमेंट का ख्याल जरूर रखें, क्योंकि जब भावनाएं आहत होती हैं तो गलत कदम उठ ही जाते हैं।

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