Tuesday, January 31, 2017

इतिहास से छेड़छाड़ मंजूर, पर भावना का क्या?


मशहूर फिल्म निर्देशक संजय लीला भंसाली के साथ जो कुछ भी हुआ उसकी जितनी भी आलोचना की जाए कम है। यह पहली बार नहीं है कि किसी फिल्मकार का इतना पुरजोर विरोध हुआ है। तमाम बार तमाम कारणों से फिल्मों का, फिल्मी कलाकारों का, फिल्मकारों का विरोध हुआ है। सबसे अधिक विवाद और विरोध ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर बनने वाली फिल्मों पर होता है। ऐसे में भंसाली पर हुए हमले और विरोध के दौरान मंथन का वक्त है कि फिल्मकार ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर बनने वाली फिल्मों की पृष्ठभूमि कैसे तैयार करें। इतिहास एक ऐसा शब्द है जो हर पल बदलता रहता है। अभी मैं जो यह लिख रहा हूं यह भी इतिहास हो जाएगा। भंसाली के साथ जो कुछ भी हुआ वह इतिहास हो गया। या कल जो होने वाला है वह भी परसों इतिहास बन जाएगा।
भंसाली प्रकरण के समय उस वक्त जो लोग भी वहां मौजूद थे, उनमें से हर एक से अगर अलग-अलग समय पर यह पूछा जाए कि उस दिन वहां क्या हुआ था? हर एक का जवाब अलग-अलग होगा। कोई कहेगा भंसाली को जूतों से पीटा गया, कोई बताएगा उन्हें चार थप्पड़ मारे गए। कोई कहेगा उनके बाल भी नोचे गए। कोई यह भी बताएगा कि नहीं ऐसा कुछ नहीं हुआ था उनके साथ कोई दुर्व्यवहार नहीं हुआ था। बस विरोध हुआ था। अब इसी घटना पर कोई किताब लिखने बैठे तो वह अपनी तरह से इसकी व्याख्या करेगा। पर मूल रूप में यही आएगा कि एक फिल्म बन रही थी, जिसका जबर्दस्त विरोध हुआ। फिल्मकार को अपना डेरा डंडा वहां से समेटना पड़ गया। सामान्य शब्दों में कहा जाए तो यही इतिहास है। जो कल बीत गया वह इतिहास बन गया। चार लोग चार तरह से इस इतिहास का वर्णन करेंगे। अपने अनुसार किताबें लिखी जाएंगी। अब सवाल उठता है कि अगर इस ऐतिहासिक तथ्य पर फिल्म का निर्माण किया जाए तो उसे कैसे प्रजेंट किया जाएगा? क्या किसी फिल्मकार में इतनी हिम्मत होगी कि वह इस मारपीट की घटना को जस्टिफाई कर सके। क्या कोई निर्देशक यह बताने की चेष्टा कर सकता है कि भंसाली के साथ जो ऐतिहासिक घटना घटी वह सही हुई। ऐसा ही होना चाहिए था। यकीन मानिए कोई ऐसी हिम्मत नहीं कर सकता है, क्योंकि यहां सेंटिमेंट जुड़ा हुआ है।
ऐतिहासिक घटना हुई जरूर, लेकिन इसका जस्टिफिकेशन किसी के पास नहीं होगा। क्योंकि सच में यह निंदनीय है। फिर मंथन का वक्त है कि जब कोई फिल्मकार किसी ऐतिहासिक पात्र पर फिल्म बनाने की सोचता है तो वह लोगों के सेंटिमेंट को क्यों नजरअंदाज कर देता है। मेरे पिताजी इतिहास के प्रोफेसर रहे हैं। मैं खुद इतिहास का विद्यार्थी रहा हूं। पिताजी और मेरी लाइब्रेरी में हजारों किताबें इतिहास की भरी पड़ी हैं। तमाम विषयों पर मौजूद ऐतिहासिक पुस्तकें उस विषय की अलग-अलग व्याख्या करते हैं। छात्र जीवन में पिताजी से हमेशा यही सवाल करता था कि एक ही बात या घटना को अलग-अलग इतिहासकार क्यों अलग-अलग बताते हैं। क्यों शब्दों में हेर फेर होता है? कैसे 1965 में पैदा हुआ इतिहासकार 1365 का इतिहास लिख देता है? वह भी इतनी सटीकता से लिखता है कि वह वहीं उस वक्त मौजूद रहा होगा। तब के जमाने और आज के जमाने में बहुत अंतर आ गया है। आज अगर भंसाली के साथ हुई घटना पर फिल्म बनाई जाए तो यू-ट्यूब पर मौजूद उस वीडियो फुटेज की मदद ली जा सकती है, जिसमें वहां हुई घटना का जीवंत चित्रण मौजूद है। पर क्या भंसाली इस बात का जवाब देंगे कि जिस दौर के चरित्र पर वह फिल्म बना रहे हैं उसकी ऐतिहासिक प्रमाणिकता का आधार उन्होंने क्या लिया है? उन्होंने किस आधार पर तय कर लिया कि रानी पद्मावती और खिलजी के बीच किसी तरह का प्रेम संबंध था। रानी पद्मावती पर अब तक जितनी भी अध्ययन सामग्री मौजूद है उसमें रानी पद्मावती को एक विरांगना के तौर पर प्रस्तुत किया गया है। हालांकि इस ऐतिहासिक चरित्र की कोई प्रमाणिक पुष्टि आज तक कोई इतिहासकार नहीं कर सका है। पर किवंदंतियों के आधार पर जो इतिहास लिखा गया उसमें रानी पद्मावती को एक ऐसी वीरांगना बताया गया है जिन्होंने अपनी आन बान और शान के लिए जान तक को कुर्बान कर दिया। उन्हें अपनी इज्जत प्यारी थी, एक मुस्लिम शासक का हरम कबूल नहीं था, जिसके कारण उन्होंने खुद को जौहर कर लिया। सदियों से हम इसी तथ्य के साथ जीते आए हैं।
जिस राज्य से रानी पद्मावती आती हैं वहां आज भी उन्हें राजपूतानी वीरांगना के तौर पर सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। ऐसे में आसानी से समझा जा सकता है कि एक इतिहास कैसे लोगों की भावनाओं से जुड़ जाता है। एक ऐतिहासिक चरित्र कैसे अतुलनीय और आराध्य बन जाता है। इतिहासकारों को छूट है कि वह अपने-अपने तरह से किसी घटना की व्याख्या करें या वर्णन करें। इतिहाकार ऐसा करते भी रहे हैं। हर एक इतिहासकार किसी न किसी विचारधारा से प्रेरित रहता है और अपनी तरह से व्याख्या कर देता है। पर वह कभी इस बात का रिस्क नहीं लेता है कि जो पात्र किवंदंतियों के आधार पर आराध्य बन चुका है। जो पात्र लोगों की भावनाओं के साथ जुड़ गया है उसके लिए बिना प्रमाणिकता के कुछ भी उल्टा सीधा लिख दें। ऐसा नहीं है कि रानी पद्मावती पर कोई पहली बार फिल्म बना रहा है। इससे पहले भी भारतीय फिल्मकारों ने उनके ऊपर दो बार फिल्म बनाई है। रानी पद्मावति के जीवन को आज भी राजस्थान में पढ़ाया जाता है। उन्हें राजपूत महिलाओं के गौरव के रूप में देखा जाता है। उन दो फिल्मों में इसी रूप में रानी पद्मावति का चित्रण है। ऐसे में किसी फिल्मकार को फ्रिडम आॅफ एक्सप्रेशन के नाम पर इस बात की छूट कतई नहीं मिलनी चाहिए कि वह ऐतिहासिक और पूजनीय पात्रों के साथ अपनी मनमर्जी चला सके। वह भी सिर्फ बॉक्स आॅफिस पर चर्चा और पैसा बटोरने के लिए। वैसे भी भंसाली इस बात के लिए कुख्यात ही हैं कि ऐतिहासिक पात्रों के साथ उन्होंने अपनी मनमर्जी ही की है। इस बार कुछ लोगों ने विरोध का तरीका बदल दिया, जिसकी निंदा की जानी चाहिए। पर भंसाली जैसे निर्देशकों को भी मंथन जरूर करना चाहिए कि ऐतिहासिक पात्रों पर फिल्म बनाते वक्त लोगों के सेंटिमेंट का ख्याल जरूर रखें, क्योंकि जब भावनाएं आहत होती हैं तो गलत कदम उठ ही जाते हैं।

Monday, January 16, 2017

गांधी ही खादी और चरखा के ब्रांड एंबेसडर क्यों?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चरखे के साथ फोटो सेशन करवाकर क्या इतना बड़ा गुनाह कर दिया कि उस पर इतनी बहस हो रही है? क्यों हमने मान लिया है कि गांधी ही खादी और चरखे के सबसे बड़े ब्रांड एंबेसडर हैं। एक कैलेंडर का छपना और उसका 12 महीने बाद बदल जाना वैसे ही शास्वत है जैसे दिन महीने और साल का बदलना। फिर खुद के ब्रांड वैल्यू को खादी के लिए प्रमोट करना क्या खादी के लिए बेहतर नहीं है। मन की बात में प्रधानमंत्री द्वारा खादी की बात पर जोर देना, सबसे खादी पहनने की अपील करना क्या आलोचकों को नहीं दिखा था।  फिर मंथन का वक्त है कि चर्चा खादी की बदहाल स्थिति पर होनी चाहिए या फिर खादी के प्रमोशन के लिए मोदी की ब्रांड वैल्यू पर। क्योंकि किसी प्रोडक्ट के प्रमोशन के लिए ब्रांड एंबेसडर बदलते ही रहते हैं। और खादी स्वतंत्रता आंदोलन से कई कदम आगे बढ़कर एक प्रोडक्ट के रूप में हमारे मार्केट में है।
हालांकि मंथन पहले इस बात पर भी करनी चाहिए कि आखिर कैसे महात्मा गांधी खादी के सबसे बड़े ब्रांड एंबेसडर हुए। दरअसल भारत के साथ खादी का रिश्ता सदियों पुराना है। इस तथ्य से कोई इनकार नहीं कर सकता कि हिन्दुस्तान की धरती पर ही चरखा और करघा का जन्म हुआ। दुनिया में सबसे पहले सूत और सबसे पहले कपड़ा भी यहीं बुना गया। ऋग्वेद में लिखा गया है ‘वितन्वते धियो अस्मा अपांसि वस्त्रा पुत्राय मातरो वयंति।’ मतलब माता अपने पुत्र के लिए और पत्नी अपने पति के लिए वस्त्र तैयार करती थीं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी सूत और वस्त्रों का विस्तृत वर्णन मौजूद है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि हिन्दुस्तान के बुनकर इतना बारीक काम करते थे माचीस की छोटी सी डिब्बी में भी एक पूरा का पूरा थान समा जाए। सात सौ साल पहले चरखे के बारे में अमीर खुसरो ने चार पंक्तियां लिखी थी। हिन्दुस्तान के इस सर्वकालिक मुस्लिम कवि अमीर खुसरो ने लिखा..
‘एक पुरुष बहुत गुनचरा, लेटा जागे सोये खड़ा
उलटा होकर डाले बेल यह देखो करतार का खेल।’
कहने का आशय इतना भरा है कि न तो खादी और न ही चरखा कोई नई चीज है। फिर बात आती आखिर कैसे खादी और चरखे पर मोहनदास करमचंद गांधी का कॉपीराइट हो गया। कैसे और किन परिस्थितियों में गांधी और खादी एक दूसरे के परिचायक हो गए। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत में अपनी जड़े मजबूत करने के दिनों तक भारत में सूती वस्त्र अपने स्वर्णीम काल में था। यहां तक कि यहां से बने सूत यूरोप में धमाल मचा रहे थे। लॉर्ड मैकाले ने एक समय लिखा था कि लंदन और पेरिस की महिलाएं बंगाल के करघों पर तैयार होने वाले कोमल वस्त्रों से लदी हुई रहती हैं। भारत के सूती वस्त्र ने एक समय में इग्लैंड का ऊनी और रेशन का व्यवसाय चौपट कर दिया। यही कारण था कि 1700 और 1721 में इंग्लैंड के पार्लियामेंट ने कानून पास किया और हिन्दुस्तान के माल पर चुंगी लगवाई। इस तरह भारत के सूती वस्त्र उद्योग को बर्बाद करने की शुरुआत हुई।

इतिहास में दर्ज है कि भारत में अंग्रेजों ने किस कदर कहर बरपाकर यहां के सूती वस्त्र उद्योग को चौपट कर दिया। भारत के पारंपारिक जुलाहे कंपनी के कारखानों के गुलाम बना दिए गए। एक वक्त में दुनिया पर राज करने वाला भारत का सूती वस्त्र उद्योग पूरी तरह चौपट कर दिया। आय के साधन समाप्त कर देने पर यहां के लोग ब्रिटिश कंपनी के नौकर बन गए। भूख और दरिद्रता ने भारतवासियों को वह सब करने पर मजबूर कर दिया, जिसकी उन्होंने कभी परिकल्पना नहीं की थी।
इसी बीच महात्मा गांधी का उत्थान हुआ। अफ्रीका से लौटने के बाद उन्होंने भारत को समझने के लिए काफी यात्राएं की। अपनी आत्मकथा सत्य के प्रयोग में गांधी लिखते है.. मुझे याद नहीं पड़ता कि 1908 तक मैंने चरखा या करघा कहीं देखा हो। फिर मैंने हिन्द स्वराज्य में यह माना था कि चरखे के जरिये हिन्दुस्तान की कंगालियत मिट सकती है और यह तो सबसे समझ सकने जैसी बात है कि जिस रास्ते भुखमरी मिटेगी उसी रास्ते स्वराज्य मिलेगा।  1916 में गाँधीजी ने साबरमती आश्रम की स्थापना की और उसमें आश्रम जीवन जीने की शुरुआत की। आश्रम-जीवन के लिए उन्हें वस्त्र स्वावलंबन की आवश्यकता महसूस हुई। यह वस्त्र स्वावलंबन ही गांधी को खादी उत्पादन की ओर ले जाता है।
यहीं से खादी और चरखे विषयगांधी के प्रयोग शुरू हो जाते हैं। फिर इसके बाद में इतिहास और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में खादी के रूप में स्वावलंबन ने कितनी अहम भूमिका निभाई किसी से छिपी नहीं है। खादी अहिंसा का प्रतीक बना, खादी भारतियों के स्वावलंबन का प्रतीक बना, खादी अंग्रेजों से लोहा लेने का आधार बना। भारत की आजादी के बाद खादी ने अपने स्वरूप का और अधिक विस्तार किया। खादी बोर्ड के गठन के बाद इसमें काफी समृद्धि आई। पर नब्बे के दशक के बाद खादी का हाल बुरा हो गया। कई ऐसे कारण रहे जिसने खादी को बर्बाद करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।

पिछले कुछ समय में अपने घाटे से उबर रहे खादी को प्रमोट करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हर वो पहल की है जो वो कर सकते हैं। रेडियो पर मन की बात में भी प्रधानमंत्री ने खादी को जबर्दस्त तरीके से प्रमोट किया। खादी ग्रामोद्योग विभाग के आंकड़े इस बात की गवाही दे रहे हैं कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने और उनकी ओर से खादी का प्रमोशन किए जाने के बाद कारोबार में जोरदार इजाफा हुआ है। वित्त वर्ष 2015-16 में 1,510 करोड़ रुपए के खादी उत्पादों की सेल हुई, जबकि 2014-15 में यह आंकड़ा महज 1,170 करोड़ रुपए था। इस तरह एक साल के भीतर खादी प्रोडक्ट्स की सेल में 29 पर्सेंट का इजाफा हुआ। 2014-15 में खादी प्रोडक्ट्स की सेल में 8.6 प्रतिशत की ही ग्रोथ हुई थी। मौजूदा वित्तीय वर्ष में खादी ग्रामोद्योग आयोग के प्रोडक्ट्स में 35 प्रतिशत का इजाफा होने का अनुमान लगाया गया है।
ऐसे में जिस खादी को महात्मा गांधी ने अपने सार्थक प्रयासों से भारतीय स्वावलंबन और स्वाधीनता का प्रतीक बनाया था अगर उसी खादी को एक बार फिर से पुनर्जिवित करने का प्रयास नरेंद्र मोदी ने किया है तो उसे राजनीतिक चश्मा उतार कर देखना चाहिए। किसी कैलेंडर पर चरखे के साथ फोटो लगवाकर न कोई गांधी बन सकता है। और न किसी नाम के पीछे गांधी लगाकर कोई महात्मा बन सकता है। ऐसे में गांधी और उनकी विरासत की दुआई देकर राजनीति करने वालों को मंथन करने की जरूरत है क्या वह सच में गांधी के खादी को संरक्षित के लिए हल्ला मचा रहे हैं? या फिर उन्हें इस बात का डर है कि खादी अगर एक बार फिर से ग्रामीण और गरीबों के स्वावलंबन का आधार बन गया तो उनकी चूलें हिल जाएंगी। आप भी मंथन करिए और खादी के कपड़े पहनकर चरखे के साथ फोटो खिंचवाइए, इसे प्रमोट करिए, ताकि भारत एक बार फिर खाादी के जरिए आर्थिक समृद्धि का रास्ता तय कर सके।


Monday, January 9, 2017

जनरल साहब फिर तो आप सिपाही बन जाइए

पंजाब विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। यह चुनाव नरेंद्र मोदी और बादलों की प्रतिष्ठा के साथ-साथ कांग्रेस के लिए भी उम्मीदों से भरा है। सबसे ज्यादा मुकाबला पटियाला सीट को लेकर है। यहां से कांग्रेस के सबसे कद्दावर नेता कैप्टर अमरिंदर सिंह चुनावी मैदान में मौजूद हैं। बीजेपी और अकाली गठबंधन के सामने कैप्टन ही सबसे बड़ी चुनौती के रूप में मौजूद हैं। तमाम ओपीनियन पोल पर भी नजर डालें तो बादलों की चकाचौंध के बीच कैप्टन ही मुख्यमंत्री की पहली पसंद बने हुए हैं। ऐसे में बादलों ने कैप्टन के खिलाफ पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल जेजे सिंह को उतार कर बड़ा दांव खेला है। पर जनरल का इस तरह एक विधायक की सीट के लिए चुनाव में उतरना भारतीय सैन्य परंपरा और भारतीय संविधान की प्रतिष्ठा पर आघात है, क्योंकि जनरल जेजे सिंह सेना के सर्वोच्य पद के साथ-साथ राज्यपाल जैसे पद पर भी रह चुके हैं। एक पूर्व राज्यपाल का विधायक स्तर का चुनाव लड़ना न केवल शर्मनाक है, बल्कि मंथन का भी वक्त है। मंथन इस बात पर कि क्या संविधान संशोधन द्वारा राज्यपाल जैसे प्रतिष्ठित पद की गरिमा बनाए रखने के लिए पूर्व राज्यपालों का चुनाव लड़ना प्रतिबंधित नहीं किया जाना चाहिए?
पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल जेजे सिंह ने एक बड़ा फैसला लेते हुए 71 साल की उम्र में राजनीति में कदम रखा है। अकाली दल की सदस्यता लेते हुए उन्होंने बड़ी-बड़ी बातें कहीं। उनमें दमखम बहुत है और भारत मां की सेवा करने का जज्बा भी कूट-कूट कर भरा है। तो क्या उन्हें रिवर्स गेयर लेते हुए एक जवान के रूप में सेना में भर्ती होने का भी हौसला नहीं दिखाना चाहिए? भारतीय सेना के गौरवमयी इतिहास में पद काफी मायने रखता है। इस पद का सम्मान बचाए रखने के लिए एक आर्मी आॅफिसर ताउम्र सजग रहता है। सजग इतना कि अगर किसी री-यूनियन में ये रिटायर्ड अधिकारी मिल जाएं तब भी इनका अनुशासनात्मक रवैया आपको इन्हें सैल्यूट करने पर मजबूर कर देगा। भारतीय सैन्य परंपरा इतनी समृद्ध और अनुशासनात्मक है कि एक पिता भी अपने बेटे को सैल्यूट करने में अपने आपको गौरवान्वित समझता है।

एक वाकया बताता हूं। साल 2010 के जून महीना का। देहरादून स्थित इंडियन मिलिट्री एकेडमी के पासिंग आउट परेड को कवर कर रहा था। यहां से पासआउट होने के बाद कैडेट को सेना में सीधे कमिशन मिलता है। कहने का मतलब है वह सीधे सैन्य अधिकारी बनता है। परेड के दौरान प्रेस दीर्घा के ठीक बगल में दर्शक दीर्घा की पहली पंक्ति में आर्मी में सुबेदार के पद पर कार्यरत एक सज्जन बैठे थे। जैसे ही परेड उनके सामने से गुजरी वो बगल में बैठी अपनी पत्नी को पकड़ कर रोने लगे। कुछ देर बाद दूसरे मैदान में पिपिंग सेरेमनी के दौरान संयोगवश मैं उनके पास ही था। यकीन मानिए मेरी आंखों में भी आंसू आ गए जब मैंने पिपिंग सेरेमनी के बाद उस सुबेदार पिता को अपने अधिकारी पूत्र को सैल्यूट करते देखा। बाद में उस अधिकारी पूत्र ने अपनी कैप उतारकर पिता के पांव छुए तो पिता ने भी उसे गले लगा लिया। साल में दो बार पासिंग आउट परेड होता है और इस परेड की सलामी के लिए देश के सर्वोच्य पदों पर बैठे लोगों को आमंत्रित किया जाता है। यह महज संयोग ही था कि उस 2010 के पासिंग आउट परेड के रिव्युइंग आॅफिसर जनरल जेजे सिंह ही थे। सेना से रिटायर्ड होने के बाद जनरल जेजे सिंह को भारत सरकार ने सम्मान देते हुए अरुणाचल प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त किया। राज्यपाल एक ऐसा पद होता है जिसकी गरीमा बेहद महत्वपूर्ण होती है। शायद इसी गरिमा की बदौलत उन्हें उस आईएमए में रिव्यूइंग आॅफिसर बनने का सम्मान प्राप्त हुआ था, जो आईएमए उच्च सैन्य परंपरा और अनुशासन का सदियों से जीता जागता उदाहरण है।
जनरल जेजे सिंह का राजनीति में आना उतना अटपटा नहीं है, जितना एक कैप्टन और जनरल का आमने-सामने आना। एक दूसरे का मजाक बनाना। एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाना। पंजाब का विधानसभा चुनाव और खासकर पटियाला की राजनीति भारतीय सैन्य परंपरा के साथ एक क्रूर मजाक बनकर रह जाएगी। कैप्टन अमरिंदर तो सालों पहले राजनीति में आ गए थे। पर एक रिटायर्ड जनरल और पूर्व राज्यपाल का इस तरह विधायक जैसे सामान्य चुनाव के लिए मैदान में आए जाना भारतीय राजनीति के लिए बेहद शर्मशार करने वाली घटना है।
कैप्टन के खिलाफ जनरल को उतार कर बीजेपी और अकाली दल ने भले ही एक राजनीति बिसात बिछाई है। पर इतने प्रतिष्ठित पदों को सुशोभित करने वाले जनरल जेजे सिंह ने अपनी जिंदगी भर की प्रतिष्ठा और सम्मान को दांव पर लगा दिया है। मैं व्यक्तिगत रूप से भी जनरल जेजे सिंह को जानता हूं। उनकी कुछ अनकही और अनसुनी दास्ताओं का गवाह भी रहा हूं। अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल रहते जब मैंने उनका इंटरव्यू किया था तब मुझे उनके कई नेक और गुमनाम मानवीय हकीकतों का पता चला था। ‘अनटोल्ड स्टोरी आॅफ एक जनरल’ नाम से जब मैंने इंटरव्यू प्रकाशित किया तब देश ने जाना था कि एक कठोर सैन्य अधिकारी के दिल में कितनी मानवता भरी है। जनरल जेजे सिंह ने अपने सैन्य जीवन में कई ऐसे बेहतरीन काम किए जिसकी जितनी मिसाल दी जाए कम है। एक व्यक्ति के तौर पर उन्हें यह पहचान सदियों तक उनकी प्रतिष्ठा में चार चांद लगाता रहेगा। पर पंजाब की राजनीति में मोहरे की तरह इस्तेमाल होकर उन्होंने भारतीय सैन्य परंपरा के साथ-साथ राज्यपाल जैसे अति सम्मानित पद को निराश कर दिया है।

जेजे सिंह ने दम भरा है कि वह पटियाला के चुनाव में इसलिए उतरे हैं क्योंकि उन्हें यहां के लोगों के लिए जमीनी स्तर पर काम करना है। यह एक ऐसी राजनीतिक बयानबाजी है जिसे एक टुच्चा सा गली का नेता भी दोहराता है और प्रधानमंत्री की दौर में शामिल कोई बड़ा नेता भी। ऐसे में मंथन का वक्त है कि एक पूर्व सेनाध्यक्ष और एक पूर्व राज्यपाल पंजाब की राजनीति में अचानक से क्यों प्रकट हुआ है। कैप्टन के लिए भी यह किसी शर्मिंदगी से कम नहीं होगा कि जिस सैन्य परंपरा का उन्होंने जिंदगी भर सम्मान किया है उस सैन्य परंपरा और विरासत का क्या होगा। सैन्य परंपराओं का निर्वहन करते हुए उन्हें जिस व्यक्ति को सैल्युट करना चाहिए उसके खिलाफ वह बयानबाजी करने को मजबूर होंगे। चुनाव के परिणाम चाहे जो हों, पर अगर कैप्टन अमरिंदर ने भारतीय सैन्य परंपरा का सम्मान करते हुए जनरल जेजे सिंह के खिलाफ कोई आपत्तीजनक बयानबाजी नहीं की तो व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए वह सबसे बड़े विजेता होंगे। यह सेना की विजय होगी। यह सैन्य परंपरा का सम्मान होगा।

Saturday, January 7, 2017

पढ़िए ओमपूरी की कुछ अनसुनी दास्तां

रामभजन जिंदाबाद के ‘ओमप्रकाश कंपाउंर’ आप बहुत याद आएंगे
मुंबई से शशि वर्मा 
यार जिंदगी जितने दिनों की है जी लेनी चाहिए। गम तो बहुत हैं, लेकिन इन्हीं गमों के बीच हमें रहना आना चाहिए। यह कुछ ऐसे शब्द थे जिसे मैं ताउम्र याद रखूंगा, क्योंकि इस शब्द को ओमपूरी साहब ने अपनी जिंदगी का हिस्सा बना लिया था। पत्नी के विवाद और बेटे से न मिलने की कसक लिए वो इस दुनिया से रुख्सत हो गए हैं, पर अपनी जिंदगी की अंतिम फिल्म में उन्होंने अपने चाहने वालों के साथ-साथ इस करप्ट सिस्टम के लिए बड़ा मैसेज छोड़ दिया है।
हाल के दिनों में ओमपूरी साहब के साथ कई बार मिलना हुआ। वो हमारी फिल्म रामभजन जिंदाबाद के मेन कैरेक्टर हैं। फिल्म इसी 13 जनवरी को रिलीज होने वाली थी, लेकिन अब इसकी डेट 3 फरवरी कर दी गई है। रामभजन जिंदाबाद में ओमपूरी साहब ओमप्रकाश कंपाउंडर के रोल में है। यह कंपाउंडर उस करप्ट सिस्टम का हिस्सा होता है जो हमें अपनी जिंदगी में भी कहीं न कहीं दिख ही जाता है। यह फिल्म उनकी आखिरी फिल्म होगी। फिल्म में अपने कैरेक्टर को देखकर उन्होंने कहा था बहुत दिनों बाद कुछ ऐसा करने को मिल रहा है जिसमें मैं लोगों को हंसाऊंगा भी और मैसेज भी दूंगा। यह बहुत बड़ी चीज होती है कि आप हंसाते-हंसाते क्या मैसेज दे जाते हैं। ओप्रकाश कंपाउंडर उस सिस्टम का सूत्रधार है जहां उसकी इच्छा उस मुकाम तक पहुंचना होता है जहां से उसे कोई कुछ न कह सके। यह कंपाउंडर उस ऊंचाई तक पहुंच गया, पर अफसोस अब अपने चाहने वाले दर्शकों का वे कमेंट कभी सुन नहीं पाएंगे।
Aaj Samaj
रामभजन जिंदाबाद के प्रोड्यूसर खालिद किदवई उस रात ओमपूरी साहब के साथ ही थे। जब वे उन्हें घर छोड़कर आए और गाड़ी में उनका पर्स गिरा देखा तो उस वक्त कॉल करना मुनासिब नहीं समझा। उन्होंने सोचा सुबह कॉल कर दूंगा। पर आज किदवई साहब भी बेहद गमगीन हैं। पर्स तो बहुत छोटी चीज है, पर ओमपूरी साहब जैसे जिंदादील इंसान के साथ बिताए लम्हें सच में बेहद अनमोल हैं। अपने अंतिम दिनों में उन्हें मीडिया से भी नाराजगी थी। नाराजगी इस बात से थी कि उनकी बातों को गलत तरीके से पेश कर दिया जाता रहा। पत्नी नंदिता पूरी के साथ चाहे उनका जो भी व्यक्तिगत या निजी विवाद रहा हो, पर उन्हें इस बात का हमेशा मलाल रहा कि अपने बेटे से भी उन्हें नहीं मिलने दिया जाता।
एक बार मैंने उनका बीबीसी को दिया इंटव्यू पढ़ा था, जिसमें उन्होंने जीवन और मृत्यु के संदर्भ में कुछ बातें कही थी। उन्होंने कहा था मृत्यु का तो आपको पता भी नहीं चलेगा। सोए-सोए चल देंगे। पता नहीं यह बातें उन्होंने क्या सोच कर कही होगी। पर यकीन मानिए दिल जार-जार रो रहा है। कभी नहीं सोचे था सच में वो सोए-सोए ही रुख्सत हो जाएंगे। खमोशी के साथ। बिना शोर किए। रामभजन जिंदाबाद का ओमप्रकाश कंपाउंडर हमसे बहुत दूर अनंत यात्रा पर निकल चुका है। अलविदा ओमपूरी साहब। आपने हम प्यार करने वालों को भले ही अलविदा कह दिया हो, लेकिन हमलोगों के दिलों से कभी रुख्सत नहीं होंगे।
शशि वर्मा रामभजन जिंदाबाद के क्रिएटिव डायरेक्टर हैं।