Friday, September 30, 2016

धोनी तुम दिल में बसे थे..अब दिमाग में हो


स्टेडियम में सचिन के बाद अगर किसी का इतना नाम अब तक गूंजा है तो वह धोनी ही है। बस यही एक गूंज है जो आपको धोनी के इतने करीब लेकर जाती है। धोनी द अनटोल्ड स्टोरी में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे धोनी के चाहने वाले न जानते हों। पर जब आप उसे परदे पर जीवंत रूप में देखते हैं तो यकीन मानिए हमारे और आपके दिल में बसने वाला धोनी दिमाग में बस जाएगा।
महेंद्र सिंह धोनी भारतीय इतिहास का सबसे अनप्रेडिक्टबल कप्तान क्यों बना, यह उसके जन्म के समय ही पता चल जाता है। वानखेड़े स्टेडियम स फिल्म की कहानी शुरू होती है। इसके चंद मिनट बाद फ्लैश बैक में जैसे ही धोनी का जन्म दिखाया जाता है उसी वक्त यह अहसास हो जाता है कि जिस धोनी के जन्म के समय जब डॉक्टर ही कंफ्यूज हो जाता है उस धोनी को विरोधी कैसे पढ़ सकते थे। तभी तो धोनी टी-20 वर्ल्ड कप में जोगिंदर सिंह जैसे युवा बॉलर से फाइनल ओवर करवता है और 2011 वर्ल्ड कप फाइनल में अपनी बल्लेबाजी का क्रम अचानक से ऊपर करके हम विश्व विजेता बनाता है। इसी अनप्रेडिक्टबल कप्तानी की बदौलत धोनी ने भारतीय क्रिकेट की इतनी ऊर्जा दी है जिसे सदियों तक भुलाया नहीं जा सकता है।

क्यों देखने जाएं यह फिल्म?
वैसे तो धोनी का नाम ही इतना बड़ा है कि फिल्म देखने का वह पर्याप्त कारण है। फिर भी आपको दो कारण से यह फिल्म जरूर देखना चाहिए। पहला कारण.. सुशांत सिंह राजपूत ने धोनी के कैरेक्टर को जो जीवंतता प्रदान की है वह सदियों में कभी दोबारा देखने को नहीं मिलेगी और दूसरा माही को एमएस धोनी बनते देखने की इच्छा। एक छोटे से शहर का माही, पंप आॅपरेटर को बेटा माही, फुटबॉल में अपना कॅरियर बनाने की चाहत रखने वाला माही कैसे एमएस बनता है इसे बेहद खूबसूरत अंदाज में फिल्मी परदे पर दिखाया गया है।
धोनी को चाहने वालों को उम्र की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता है, लेकिन खासकर युवाओं को यह फिल्म जरूर देखनी चाहिए। धोनी जैसे शख्स की कहानी को तीन घंटे पांच मिनट के फ्रेम में बांधना किसी चुनौती से कम नहीं। इसीलिए धोनी की चुनौती और उसके संघर्ष को थोड़ा लंबा किया गया है। खासकर उस भाग को जिसमें धोनी सबकुछ हासिल करने के बावजूद कैसे टीम इंडिया की जर्सी और ट्रेन के टिकट कलेक्टर की वर्दी के बीच झूलता रहता है। यह एक युवा की मनोदशा को दर्शाता है जिसमें कई बार हम अपना सबकुछ गंवा देते हैं। पर धोनी को देखने के बाद आपको अहसास होगा कि जिंदगी हमें किसी खास मकसद के लिए मिली है, सिर्फ जरूरत हमें अपनी क्षमता को पहचानने की है।
क्यों न जाएं फिल्म देखने
जो लोग इसे एक क्रिकेट की पृष्ठभुमि वाली फिल्म मानकर देखने जाएंगे उन्हें निराशा हाथ लगेगी, क्योंकि इसमें वैसा कुछ भी नहीं है। न ही यह स्पोर्ट्स ओरिएंटेड फिल्म है। सिर्फ धोनी के खेल को देखना चाहते हैं तो यू-ट्यूब पर हजारों क्लीपिंग मौजूद है। जो लोग धोनी के जीवन के और भी अंदरुनी राज, टीम ड्रेसिंग रूम की अनटोल्ड स्टोरी, कई सीनियर क्रिकेटर्स से उनके विवाद की गॉसिप जानना चाहते हैं उन्हें भी इस फिल्म में कुछ नहीं मिलेगा। फिल्म सिर्फ धोनी के 2011 वर्ल्ड कप विनर बनने तक की कहानी बयां करती है। धोनी से जुड़ी कई कंट्रोवर्सी से भी फिल्म का कुछ खास लेना देना नहीं।

निर्देशन और एक्टिंग
धोनी के कैरेक्टर को इस तरह जीवंत करने के लिए सुशांत सिंह राजपूत के नौ महीने की मेहनत सार्थक है। फिल्म की पहली झलक देखते ही आपको अहसास हो जाएगा कि सुशांत के अलावा यह रोल कोई और नहीं कर सकता है। धोनी के पिता पान सिंह धोनी को अगर आपने कभी देखा है तो आपको अनुपम खेर को पान सिंह के रूप में देखना काफी अच्छा लगेगा। इसके अलावा भूमिका चावला, किआरा अडवाणी, दिशा पटानी, हैरी टंगड़ी, श्रेयस तलपड़े, राजेश शर्मा, ब्रिजेन्द्र काला, कुमुद मिश्रा ने भी फिल्म के साथ न्याय किया है। निर्देशक नीरज पांडे वाकई बधाई के पात्र हैं जिन्होंने हमारे रीयल हीरो को 72एमएम के परदे पर सदा के लिए अमर बना दिया है। युवा संगीतकार अमान मलिक, रोचक कोहली और गीतकार मनोज मुंतशिर ने फिल्म को वह सबकुछ दिया है जो एक दर्शक के रूप में हमें चाहिए।

धोनी का वेलेंटाइन डे 
कैप्टन कूल महेंद्र सिंह धोनी का वेलेंटाइन डे से कुछ खास रिश्ता रहा है। शायद यह वह अनटोल्ड स्टोरी है जिसे दर्शक देखकर जरूर रोमांचित होंगे। फिल्म आपको कई जगह रुलाती है और हंसाती भी है। धोनी के अपने दोस्तों के साथ मस्ती का अंदाज भी पहली बार दर्शकों के सामने आएगा। फिल्म में धोनी के रियल मैच और फिल्मी परदे के मैच को बेहतरीन और टेक्निनिकल अंदाज से मिक्स और एडिट किया गया है। और फिल्म का अंत भी हेलिकॉप्टर शॉट और धोनी की सदाबहार मुस्कान से करना भी जरूर आपको धोनी..धोनी..धोनी कहने पर मजबूर कर देगा।

Thursday, September 29, 2016

छू ले तुझको है किसमें दम, भारत माता तेरी कसम


प्रधानमंत्री ने उड़ी हमले के चंद दिनों बाद केरल में रैली की थी। इस दौरान जो उन्होंने जो हुंकार भरी थी उस पर भी मोदी भक्तों को कोसने वालों ने सवालिया निशान लगा दिया था। 56 र्इंच की दुहाई देकर ताना मारने वालों के लिए भारतीय जांबाजों का सैन्य पराक्रम इस बात का प्रमाण है कि अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो दुश्मनों को उनके घर में घुस कर मारने में हमारी भारतीय सेना कभी पीछे नहीं हटेगी। सियाचिन की घाटियों में दीपावली मनाने वाले भारतीय प्रधानमंत्री ने केरल को अपनी बात रखने के लिए क्यों चुना, इस पर मोदी भक्तों के दुश्मनों ने टिप्पणी की। टिप्पणी कोई भी कर सकता है, वह स्वतंत्र है।
पर ऐसे वक्त पर जब पूरा देश एक होने की बात दोहरा रहा हो, जब जनभावनाएं एकजूट होने का आह्वान कर रही हो, हर एक भारतीय उड़ी के उन 18 शहीदों के बलिदान को याद करके अपनी भुजाएं फड़फड़ा रहा हो, ऐसे में देश के प्रधानमंत्री को संबल और हौसला देने की बजाए कुछ तथाकथित बड़े पत्रकार और तथाकथित आलोचक अपनी राग भैरवी गाने में जुट जाते हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने उड़ी हमले के बाद अपने पहले सार्वजनिक मंच से पाकिस्तान को जो संदेश दिया था वह अपने आप में बहुत कुछ बयां कर रहा था। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने भी यूएन में दहाड़ते हुए पाकिस्तान को उसकी करनी का फल भुगतने को तैयार रहने को कहा था। भरतीय सेना ने जो हुंकार भरी थी उसके भी अपने मायने थे। भारतीय सेना की तरफ से स्पष्ट कर दिया गया था कि 18 शहीदों के बलिदान का बदला तो जरूर लिया जाएगा, लेकिन समय और दिन वह खुद तय करेंगे। इतने के बावजूद भी ताना मारने वालों की जमात खुद को सो कॉल्ड बुद्धिजिवि कहलाने में बिजी थे।
आज जब भारतीय सेना सीना ठोकर कह रही है कि पाकिस्तान में घुसकर हमने आतंकी कैंपों को तबाह कर दिया है। ऐसे में हर एक भारतीय को इंडियन आर्मी के जांबाजों पर गर्व महसूस हो रहा है। वह इतना गौरव महसूस कर रहा है कि हर तरफ भारतीय सेना की जय जयकार हो रही है। सबकुछ अच्छा-अच्छा हो रहा है, लेकिन इसके बाद क्या?
इसके बाद क्या..यह एक ऐसा प्रश्न है जिस पर हम सभी को सोचना है। रक्षा विशेषज्ञ कह रहे हैं अभी टेंशन और बढ़ेगी। ऐसे में सबसे अहम है हमारी एकजूटता। मोदी सरकार ने देर शाम ही आॅल पार्टी मीटिंग बुलाकर यह संदेश देने का प्रयास किया है कि हमें एकजुट होना होगा। ऐसे में मीडिया के अलावा आम लोगों को भी एकजुट रहने की जरूरत है।
किसी सरकार की आलोचना जायज है। इससे उसे और बेहतर करने की प्रेरणा मिलती है। पर एक समय ऐसा होता है जब हमें सभी दुर्भावनाओं से ऊपर उठना होता है। सभी आलोचनाओं को पीछे छोड़ना होता है। यह वही समय है। हमें यह स्वीकारने में जरा भी संकोच नहीं करना चाहिए कि मोदी हमारे प्रधानमंत्री हैं। वह अगर वह करारा जवाब देने की बात कह रहे हैं तो स्वीकार करना चाहिए। यह नहीं कि उन्हें अपना 56 र्इंच का सीना दिखाने की चुनौती देनी चाहिए। मोदी भक्त..मोदी भक्त कहकर राष्टÑप्रेम को भी कटघरे में खड़ा करने वालों से भी हमें सावधान रहने की जरूरत है।

तो हे मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर न स्वीकार करने वालों, तो हे भक्तों को गाली देने वालों अब भी समय है एकजूटता दिखाओ। पड़ोसी आंखे तरेरे बैठा है। अब भी एकजूट नहीं रहोगे तो आने वाली पीढ़ी तुमसे यही सवाल करेगी कि मोदी की खामी निकालने में समय जायज करने वालों कम से कम आज के वक्त तो एकजूट होकर अपनी सरकार के साथ खड़े रहो।
अंत में उन जांबाजों के नाम यह चंद पंक्तियां जिन्होंने भारत मां पर बुरी नजर रखने वालों को उनके घर में घुसकर मारा..
भारत माता तेरी रक्षक रहेंगे हम
दीवारें बनेंगे हम मां
तलवारें हम बनेंगे मां
छू ले तुझको है किसमें दम
भारत माता तेरी कसम
वंदे मातरम, वंदे मातरम

Sunday, September 18, 2016

17 जवानों की शहादत, युद्ध नहीं तो क्या?


श्रीनगर से करीब सौ किलोमीटर दूर उरी सेक्टर में आर्मी कैंप में अब तक का सबसे बड़ा आतंकी हमला हुआ है। इस आतंकी हमले में 17 जवानों की शहादत से पूरा देश गमगीन है। रात के घने अंधेरे में हुए इस हमले ने दिन के उजाले की तरह साफ कर दिया है कि पड़ोसी मुल्क की मंशा क्या है। मंथन का वक्त है कि क्या हम अब भी इसे युद्ध मानने से इनकार कर दें?
युद्ध की सर्वमान्य परिभाषा न तो कभी पहले तय की जा सकी है और न अब। इस साइबर युग में युद्ध अब किताबी ज्ञान से काफी आगे बढ़ चुका है। कश्मीर में आतंकी बुरहान वानी के इनकाउंटर के बाद जिस तरह घाटी सुलग रही है, उसने स्पष्ट संकेत दे दिए थे कि पाकिस्तान अपनी छद्म युद्ध को किसी भी स्तर पर लेकर जा सकता है। खुफिया इनपुट भी लगातार इस ओर इशारा कर रहे थे कि आने वाले दिनों में घाटी को और भी अशांत करने के लिए आर्मी को ही निशाना बनाया जाएगा। अब उरी सेक्टर की आतंकी घटना ने स्पष्ट कर दिया है कि पाकिस्तान की क्या चाहता है। रविवार की सुबह जब पूरा देश नींद के आगोश में था तो उसी वक्त उरी सेना मुख्यालय में भारतीय जांबाज आतंकियों से लोहा ले रहे थे। आतंकियों ने जवानों पर बम से हमला किया, जिससे वहां टेंट में आग लग गई। ज्यादातर जवान इस अप्रत्याशित हमले में आग लगने से हताहत हुए। करीब 17 जवान शहीद हुए और 19 जवान गंभीर रूप से घायल हैं। यह आतंकी हमला ऐसे समय में हुआ है जब दोनों देशों के बीच तल्खी का माहौल है। आतंकी बुरहान की मौत के बाद जिस तरह पाकिस्तान ने अपना रिएक्शन दिया था उसने भी साफ कर दिया था कि पाक किस तरह भारत को अस्थिर करने की साजिश रच रहा है। काला दिवस मनाकर उसने दोनों देशों की तल्खी को और बढ़ाने का ही काम किया था।
अब सवाल यह उठता है कि इतना सबकुछ हो जाने के बाद भारत का रूख क्या होगा? क्या भारत अब खुले तौर पर यह स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए कि पाकिस्तान ने सही अर्थों में भारत के साथ युद्ध घोषित कर रखा है। राजनीतिक पंडित क्या कहेंगे और किस रणनीति को अपनाने की बात कहेंगे इससे भारतीय जनमानस को कोई परवाह नहीं है। एक आम भारतीय तो बस यही चाह रहा है कि भारत इस युद्ध का जबाव देगा या नहीं? हालांकि इस आतंकी हमले के तत्काल बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साफ शब्दों में यह जरूर कहा है कि हमले के दोषियों को किसी की कीमत पर बख्सा नहीं जाएगा। रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर और गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी ऐसे ही तेवर दिखाए हैं। पर क्या यह तेवर सिर्फ बयानों तक ही सीमित रहेंगे या फिर जमीनी स्तर पर भी भारत अपने तेवर दिखाएगा।

यहां सबसे अहम यह है कि उरी में हमले के चंद घंटे पहले ही पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ने एक पाकिस्तान टीवी चैनल पर इंटरव्यू के दौरान साफ शब्दों में कहा है कि भारत के खिलाफ अगर जरूरी हुआ तो परमाणू हमले से भी परहेज नहीं होगा। ऐसे में भारतीय रणनीतिकारों को अब भी कुछ सोचने समझना बांकी रह गया है कि पाकिस्तान किस तरह भारत पर प्रेशर गेम बिल्डप कर रहा है।  पाकिस्तान लगातार धमकी देता है और भारतीय रणनीतिकार इसे सिर्फ हवाई बात कहकर शांति बहाल की उम्मीद करते हैं। पीओके को लेकर भारत के पास इतने इनपुट हैं जिससे इसे युद्ध मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है।
पीओके में कितने ऐसे टेरर कैंप हैं जो कि एलओसी से लगे हैं और कितने लॉन्चिंग पैड हैं जहां से आतंकी घुसपैठ करके जम्मू-कश्मीर में दाखिल होते हैं। यह सारे इनपुट गृहमंत्रालय से लेकर रक्षामंत्रालय तक को हैं। आतंकियों के पास हथियारों के जखीरे से लेकर पाक सेना द्वारा पहुंचाई जा रही मदद की जानकारी भी है। बावजूद इसके भारत किस इंतजार में बैठा है यह समझ से परे है। कारगील युद्ध के पहले शहीद मेजर सौरभ कालिया के परिजन आज भी भारत सरकार से पूछ रहे हैं कि उनके शहीद बेटे के बलिदान का बदला भारत कब लेगा। इसका जबाव आज तक नहीं मिल सका है। ऐसे में आज उरी में शहीद हुए 17 जवानों के परिजनों को भारत सरकार कब जबाव देगी। उन जवानों के परिजनों के अलावा आज पूरा देश भारत सरकार से पूछ रहा है कि कब तक हम पीओके में मौजूद लॉन्चिंग पैड पर सिर्फ निगाह टिकाए बैठे रहेंगे। अब यह मंथन का समय नहीं है। कार्रवाई का समय है।

वर्ष 2014 में भी उरी सेक्टर में ठीक इसी तरह का आतंकी हमला हुआ था। उस हमले में सात जवान शहीद हुए थे। उस वक्त भी रक्षा विशेषज्ञों ने स्पष्ट कहा था कि अब सीधी कार्रवाई करनी चाहिए। यह कार्रवाई दो स्तर पर होनी चाहिए। पहले स्तर पर आतंकियों के सेफ हाउस को टारगेट करना चाहिए। ये सेफ हाउसे जम्मू-कश्मीर के अंदर ही मौजूद हैं। इन सेफ हाउस पर कार्रवाई में अब नहीं देखना चाहिए कि सेफ हाउस के ऊपर किसका हाथ है। सीधी कार्रवाई करनी चाहिए, बिना किसी राजनीतिक भय के। दूसरे स्तर पर कार्रवाई  सर्जिकल स्ट्राइक के साथ होना चाहिए।  पीओके में मौजूद लॉन्चिंग पैड के अलावा वहां मौजूद आतंकी कैंप को सीधा निशाना बनाए जाने की जरूरत है। जब पाकिस्तान ने भारत के साथ खुले तौर पर युद्ध की घोषणा कर ही रखी है तो डरना किस बात का। 17 जवानों की शहादत लगातार यह सवाल पूछेगी कि क्या अब भी युद्ध को स्वीकार करने में कोई और बड़ी शहादत का इंतजार रहेगा?


Friday, September 16, 2016

तो क्या खत्म होगा नीतीश-लालू गठबंधन?

 
बिहार के अब तक के सबसे सफल मुख्यमंत्रियों की श्रेणी में शुमार नीतीश कुमार की स्थिति उस सांप ओर छछुंदर की तरह हो गई है, जिसे न तो निगलते बन रहा है और न उगलते। मोहम्मद शहाबुद्दीन के जेल से बाहर आते वक्त भले ही नीतीश कुमार बिहार से बाहर थे, लेकिन उनकी बॉडी लैंग्वेज ने साफ कर दिया है कि वह परेशान हैं। यह वही शहाबुद्दीन है जिसे जेल के अंदर डालने की हिम्मत नीतीश कुमार ने अपने पहले शासन काल में 2005 में दिखाई थी और आज यह वही शहाबुद्दीन है जो पूरी शान-ओ-शौकत के साथ नीतीश राज में जेल से बाहर आया है। जेल से बाहर आते ही पहला बयान नीतीश के खिलाफ देते हुए शहाबुद्दीन ने स्पष्ट कर दिया है कि नीतीश बाबू का खेल खत्म है। अब नीतीश कुमार को मंथन करना है कि वह लालू के साथ बने रहेंगे या बिहार की जनता के साथ।
बिहार की यह विडंबना ही रही है कि जब-जब अपराधों पर लगाम लगाने के लिए नीतीश ने कमर कसी है, उनके साथियों ने ही उनके कदम रोक दिए हैं। एक सरकारी आंकड़े में बताया गया था कि अपने पहले शासन काल में नीतीश ने करीब 55 हजार अपराधियों से बिहार को मुक्त कराया था। यह 2005 का वह दौर था जब बिहार की जनता ने लालू के जंगल राज से मुक्ति पाने के लिए नीतीश को भारी जनसमर्थन दिया था। नीतीश ने भी सत्ता की बागडोर संभालते ही बिहार को अपराधमुक्त बनाने का जो संकल्प लिया था, उसे काफी हद तक पूरा भी किया। पुलिस को इतनी शक्ति दे दी गई थी कि या तो अपराधी बिहार छोड़कर भाग गए, या एनकाउंटर में मार दिए गए। बाहुबलियों को एक-एक कर जेल में डाला गया। इन्हीं बाहुबलियों में मोहम्मद शहाबुद्दीन भी एक था। यह वही शहाबुद्दीन था जिसने लालू राज में एसपी को सरेआम थप्पड़ मार दिया था, पर नीतीश ने इसे जेल की सलाखों के पीछे डालकर बिहार की जनता में साफ संदेश दिया कि बिहार अपराधमुक्त होकर रहेगा।

अब करीब 11 साल बाद नीतीश कुमार बिहार की जनता से किस तरह आंख मिला रहे हैं, यह कैमरे पर साफ दिख रहा है। नीतीश की उल्टी गिनती तो उसी दिन शुरू हो गई थी जब उन्होंने लालू यादव के साथ गठबंधन किया था। जेल से बाहर आते ही शहाबुद्दीन ने साफ कहा कि नीतीश परिस्थितिवश मुख्यमंत्री हैं। शहाबुद्दीन के इस कथन के मायने भी साफ हैं, क्योंकि जिस गठबंधन की सरकार में लालू यादव की पार्टी को सबसे अधिक सीट है उस गठबंधन में नीतीश कैसे सीएम बने रह सकते हैं। लालू के साथ गठबंधन के बाद यह भी स्पष्ट हो चुका था कि अब जल्द ही शहाबुद्दीन जेल से बाहर होंगे। सीवान की जेल में जिस तरह शहाबुद्दीन का खुला दरबार लग रहा था और लालू की पार्टी आरजेडी के विधायकों का वहां आना-जाना था, उसने जता दिया था कि आने वाला समय अब किसका होगा। इसी बीच पत्रकार राजदेव हत्याकांड में सीधे तौर पर शहाबुद्दीन का नाम आना सब कुछ बयां कर गया। शहाबुद्दीन का सबसे करीबी लड्डन मियां पत्रकार हत्याकांड में जेल के अंदर है। हद तो यह है कि नीतीश सरकार की पुलिस इस मामले में शहाबुद्दीन से पूछताछ तक नहीं कर सकी।
अब, जबकि शहाबुद्दीन के तौर पर लालू का सबसे बड़ा हथियार जेल की सलाखों से बाहर आ चुका है नीतीश कुमार जरूर मंथन कर रहे होंगे कि वे अपना भविष्य किस तरह तय करें। नीतीश के पास सिर्फ दो विकल्प बच रहे हैं, या तो नीतीश कुमार डमी मुख्यमंत्री की तरह ही काम करते रहें, क्योंकि कुर्सी से उन्हें मोह हो गया है। या दूसरा विकल्प यह है कि बिहार सरकार पर से लालू यादव की परछार्इं से खुद को मुक्त कर लें, क्योंकि जब तक लालू यादव की परछार्इं बिहार सरकार पर रहेगी नीतीश कुमार मुंह छिपाते ही रहेंगे और शहाबुद्दीन जैसे अपराधियों से आंख तक नहीं मिला सकेंगे। नीतीश को जरूर मंथन करना होगा कि कहीं वह दिन न आ जाए कि एक ही मंच पर नीतीश कुमार को शहाबुद्दीन का स्वागत करना पड़ जाए, क्योंकि तमाम विवादों के बावजूद आज भी शहाबुद्दीन लालू यादव की पार्टी राजद के राष्टÑीय कार्यकारिणी का सदस्य है। उस दिन नीतीश क्या करेंगे?

शहाबुद्दीन के जेल से बाहर आने के कारणों पर चर्चा के दौरान अदालत के निर्णय पर तनिक भी टिप्पणी बेकार है। पर बीजेपी नेता सुशील मोदी का कहना सौ प्रतिशत सच माना जा सकता है। मोदी ने नीतीश सरकार पर आरोप लगाया है कि जिस मर्डर केस में शहाबुद्दीन जेल के अंदर था अगर उस केस की ठीक से पैरवी की जाती तो कोई भी अदालत शहाबुद्दीन को जमानत नहीं दे सकती थी। बिहार की जनता भी नीतीश कुमार से जरूर सवाल पूछेगी कि बिहार में पूर्ण शराबबंदी को लागू करने के लिए जिस नीतीश सरकार ने दिल्ली से लाखों रुपए खर्च कर वकीलों की फौज खड़ी की थी, उसी नीतीश सरकार ने किन मजबूरियों के चलते शहाबुद्दीन को वॉकओवर दे दिया। 11 साल पहले जिस नीतीश सरकार में शहाबुद्दीन को जेल हुआ था, उसी सरकार में वह बाहर आया है। ऐसे में बिहार की जनता को भी यह मंथन जरूर करना होगा कि चुनाव के समय क्यों उनकी बुद्धि कुंद हो गई थी। क्या सच में बिहार की जनता भी यही चाहती थी कि जंगलराज ही उन्हें मंजूर था और आज भी है? 

Sunday, September 11, 2016

दीपक तुमने जो किया उसने पत्रकारिता को रोशन कर दिया

‘आज समाज’ के पत्रकार हैं दीपक। युवा और मेहनती। कई बार काम में लापरवाही के कारण मुझसे डांट भी सुनते हैं। हालांकि डांट खाने के बाद उनका उत्साह और बढ़ जाता है। दीपक ने कभी अपने काम का बखान नहीं किया और न ही वह कभी करेगा। पर कल शनिवार की रात उसने जो काम किया उसने हम पत्रकारों का सिर गर्व से ऊंचा कर दिया। उसने उन लोगों के चेहरे पर करारा तमाचा मारा है जो लोग हम पत्रकारों को संवेदनहीन कहने से नहीं चूकते हैं।
अभी हाल ही में जब मांझी को अपनी पत्नी का शव कंधे पर ले जाते हुए मीडिया में दिखाया गया, तब भी पत्रकारों को कटघरे में खड़ा कर दिया गया। सवाल पूछे गए। मीडिया ने उनकी मदद क्यों नहीं की। सिर्फ तस्वीरें क्यूं बनाते रहे। अब इन्हें कौन समझाए कि अगर मीडिया ने इन तस्वीरों को नहीं खींचा होता तो पूरी दुनिया कभी नहीं समझ सकती कि वहां क्या हुआ। जिसने भी उन तस्वीरों को खींचा उसने पहले अपना पत्रकारिता धर्म निभाया और फिर मानवता धर्म भी।

खैर ऐसे सैकड़ों उदाहरण आपको मिल जाएंगे। पर मैं बात कर रहा था दीपक की। शनिवार की रात दीपक आॅफिस से काम समाप्त कर करीब 11.30 बजे घर जा रहा था। अंबाला आॅफिस से एक किलोमीटर आगे बढ़ते ही चंडीगढ़ एक्सप्रेस हाईवे पर पीर बाबा की मजार के पास पुल के नीचे उसे कुछ लोगों की भीड़ दिखी। उत्सुक्तावश उसने भी अपनी बाइक रोकी और लोगों से पूछा। वहां बलदेवनगर चौकी के कुछ पुलिसकर्मी भी खड़े थे और पुल से नीचे टॉर्च मार रहे थे। जोहड़ (स्थानीय भाषा में तलाब) पूरी तरह जलकुंभी से भरा हुआ था और किसी गाड़ी की पिछली लाइट नजर आ रही थी। पता चला कि अभी दस मिनट पहले एक गाड़ी इस जोहड़ में समा गई है। किसी को नहीं पता कि उस गाड़ी में कितने लोग हैं? जिंदा भी हैं या नहीं। दीपक ने पुलिसवालों से कहा कि पानी में उतरकर देखते हैं, पर पुलिसवालों का जवाब था क्रेन आ रही है, फिर देखेंगे। दीपक ने कहा कि तब तक तो अगर कोई जिंदा भी होगा वह मर जाएगा। दीपक से रहा नहीं गया। उसने आव देखा न ताव जोहड़ में छलांग लगा दी। पल भर में ही वह जोहर में समाई गाड़ी की छत पर था। घने अंधेरे में कुछ भी नजर नहीं आ रहा था कि गाड़ी के अंदर कितने लोग हैं। इसी बीच एक स्थानीय युवक ने भी हिम्मत दिखाई। दीपक के हौसले को देखते हुए वह भी एक र्इंट लेकर गाड़ी तक पहुंच गया। दीपक और उस युवक ने कड़ी मेहनत के बाद गाड़ी का शीशा तोड़ा और ड्राइविंग सीट पर बेहोश पड़े युवक को किसी तरह बाहर खींच कर ले आए। युवक पूरी तरह बेहोश था। उसे तत्काल पास ही के प्राइवेट हॉस्पिटल में ले जाया गया। डॉक्टर्स के तमाम प्रयासों के बावजूद उसे बचाया नहीं जा सका।
इस बीच मुझे भी हादसे की सूचना मिल गई थी। दीपक ने सभी जानकारी तो दी, लेकिन यह नहीं बताया कि कैसे उसने पत्रकारिता के कर्तव्य के साथ मानवता की एक बेहतरीन मिशाल पेश की। पुलिसकर्मी तमाशबीन बनकर देखते रहे। बाद में दीपक ने बताया कि जब उसे बाहर निकाला तो युवक के शरीर पर चोट के कोई गंभीर निशान नहीं थे। हो सकता है वह युवक पानी के अंदर बेहोश हो गया हो, या फिर उसे गाड़ी से निकलने का कोई रास्ता ही नहीं मिला हो जिसके कारण पानी में उसका दम घुंट गया। अगर समय रहते कोई पुलिसवाला हिम्मत करके तत्काल पानी में उतर गया होता तो हो सकता है युवक की जान बच जाती।
खैर दीपक ने जो हिम्मत दिखाई उसने पत्रकारिता के धर्म को और भी पूजनीय बना दिया। यह एक बेहतरनी उदाहरण है कि एक पत्रकार कितना सजग और मददगार हो सकता है।

एक निवेदन
अब किसी हादसे की तस्वीर खींचते वक्त या हादसे में घायल लोगों से बातचीत करते वक्त कोई मीडियाकर्मी नजर आए तो उसका मजाक मत बनाइएगा। वह पत्रकार अपनी पेशागत मजबूरियों के कारण ऐसा करता है न की आपकी कॉमेडी के लिए। जब जरूरत पड़ती है वह हादसे के शिकार लोगों की खबर करता है और जरूरत पड़ने पर दीपक की तरह घने अंधेरे में अपनी जान की परवाह किए बगैर एक अनजान व्यक्ति के लिए जोहड़ में कूदने का जज्बा भी रखता है।
दीपक इस जिंदादिली और हौसले को सलाम। तुमने हमारा सिर गर्व से ऊंचा कर दिया।

Tuesday, September 6, 2016

‘कभी अपने चाहने वालों की मौत मांगी है’

Stuart binny's wife Mayanti a famous sports anchor
भारत में क्रिकेट धर्म की तरह है, अब इसे प्रमाणित करने की जरूरत नहीं है। पर हाल के दिनों में इस धर्म में काफी परिवर्तन आया है। सबसे बड़ा परिवर्तन क्रिकेटर्स के प्रति सोच है। इस सोच में सबसे बड़ी विडंबना क्रिकेटर्स की पर्सनल लाइफ और उनकी फैमली के प्रति है। एक क्रिकेटर्र की पत्नी ने तीन दिन पहले ही भारतीय दर्शकों से यह सवाल किया है कि क्या कभी आपने अपने चाहने वालों की मौत मांगी है? मंथन जरूरी है कि आखिर ऐसा क्या हुआ जो एक युवा क्रिकेटर की पत्नी को ऐसी बातें पब्लिक डोमिन में करनी पड़ी। 
दरअसल इस कहानी की शुरुआत हुई हाल ही में भारतीय क्रिकेट टीम के वेस्टइंडिज दौरे के दौरान। टीम में कई युवा चेहरे थे। इनमें से तो कई ऐसे थे जिन्होंने इस दौरे में ही इंडियन कैप पहना। जबकि कई ऐसे चेहरे थे जो कुछ सालों से टीम इंडिया के लिए खेल रहे हैं। ऐसा ही एक नाम है स्टूअर्ट बिन्नी का। बिन्नी ने भले ही इंडिया के लिए तमाम घरेलू सीरीज के अलावा रणजी ट्रॉफी और दलीप ट्रॉफी में बेहतर प्रदर्शन किया हो, लेकिन स्टूअर्ट की पहचान उनके खेल से ज्यादा उनके पिता की बदौलत ही है। अपने समय के जबर्दस्त क्रिकेटर रहे रोजर बिन्नी के बेटे होने का कभी उनको फायदा मिला तो कभी आलोचना का दौर भी चला। आलोचनाओं के बावजूद स्टूअर्ट ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है। पर हाल का वेस्टइंडिज दौरा उनके कॅरियर का सबसे खराब दौरा साबित हुआ।
स्टूअर्ट का सबसे खराब दिन ट्-ट्वेंटी मैच के दौरान रहा है। इस मैच के एक ओवर में बिन्नी को पांच छक्के खाने पड़ें। इस ओवर में उन्होंने 32 रन क्या दिए सोशल मीडिया में मानो उनके खिलाफ अभियान ही शुरू हो गया। सबसे बुरा बर्ताव उनकी वाइफ के साथ हुआ। बिन्नी के छह गेंद उनकी वाइफ मयंती लेंगर के लिए भारी साबित हुए। ट्वीटर पर उनके लिए अशोभनीय बातों की बाढ़ आ गई। पर्सनल कमेंट किए जाने लगे। जब बात हद से आगे बढ़ गई तो मयंती को मोर्चा लेना पड़ा। उन्होंने खुद ट्वीटर पर अपनी भावनाओं को पोस्ट किया। 
Stuart binny's wife Mayanti a famous sports anchor
ट्रॉलर्स के नाम लिखे खत में मयंती ने लिखा,
‘मुझे पूरा भरोसा है कि आप में से किसी ने भी अपने चाहने वालों के लिए कभी भी मौत नहीं मांगी होगी या आपसे जुड़े ऐसे किसी व्यक्ति ने आपको डरावनी तस्वीरों वाला कोई धमकी भरा संदेश नहीं भेजा होगा। सुसाइड की ओर इशारा करते हुए मेरा मजाक उड़ाना शर्मनाक है। एक बार उन परिवारों के बारे में सोचिए, जो इस तरह की ट्रेजडी का सामना करते हैं और आपने उनकी इस असहनीय पीड़ा का मजाक बनाकर रख दिया है। मुझे उम्मीद हैं कि आपको प्यार मिलेगा और उत्तरदायित्व का अहसास होगा, क्योंकि तलाक की सलाह से ऐसा लग रहा है कि जैसे ये चीजें आपके पास हैं ही नहीं। मैं 18 साल की उम्र से नौकरी कर रही हूं। मुझे लालची महिला की संज्ञा देने में समय खराब करने की बजाय कोई नौकरी हासिल कीजिए और अपना व अपने परिवार का भला करने के दायित्व का निर्वहन कीजिए। मुझे लगता है कि हमारा मजाक उड़ाने से आपको अपने आप में अच्छा महसूस होता होगा, अन्यथा क्या यह सच में कोई मायने रखता है? 
आप सबको
शुभकामनाएं...
मयंती का यह खत अपने आप में बहुत कुछ बयां कर देता है। यह वो दर्द
है जब कोई सेलिब्रेटी क्रिकेटर अपने कॅरियर के खराब दौर से गुजर रहा होता
है। कैप्टन कूल महेंद्र सिंह धोनी ने जब भारतीय क्रिकेट के स्वर्णिम युग
का श्रीगणेश किया तब पूरा भारत उन्हें सिर आंखों पर बिठाए रखता था। पर जब
उनका खराब दौर आया तो उनके अपने शहर रांची में ही उनके घर की सुरक्षा
बढ़ानी पड़ गई थी। स्टार क्रिकेटर विराट कोहली को भी अपनी पर्सनल लाइफ के
लिए अपने फैंस के भद्दे कमेंट सहने पड़े। क्रिकेटर्स के घरों पर अंडा
फेंकना, उनके खिलाफ प्रदर्शन करना, उनकी निजी लाइफ पर कमेंट्री करना यह
आज के क्रिकेट दर्शकों का शगल बन चुका है। यह न केवल शर्मनाक है बल्कि एक
ऐसे दौर की तरफ इशारा कर रही है जब हमारे क्रिकेटर मैदान में जाते वक्त
सोचेंगे कि अगर आज उनसे कोई गलती हुई तो उनकी फैमिली सुरक्षित रहेगी या
नहीं।
खेल में हार या जीत होनी तय है। या तो आप जीतते हैं या हारते हैं।
यह सही है कि हार की पीड़ा को सहना मुश्किल होता है। पर क्या इसे किसी रूप
में जायज ठहराया जा सकता है कि हम किसी हार पर खिलाड़ियों के परिवार और
उनकी निजी जिंदगी को खतरे में डाल दें। क्या हम एक बेहतर दर्शक नहीं बन
सकते? क्या यह जरूरी है कि हम दर्शक के अलावा आलोचक, विरोधी,
प्रदर्शनकारी भी बन जाएं?
पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में जब उनकी टीम हारती है, खासकर भारत से
हारती है तो उनके खिलाड़ी इतने डरे सहमे रहते हैं कि कभी एक साथ अपने देश
नहीं लौटते हैं। मैच शुरू होने से पहले ही उनके हर एक खिलाड़ी के घर को
पुलिस घेरे में ले लिया जाता है। क्या भारतीय दर्शकों की भी ऐसी ही
मानसिकता बनती जा रही है। क्या हम भारतीय दर्शक भी चाहते हैं कि जिन
खिलाड़ियों ने हमारा मान सम्मान बढ़ाया है, जिन्होंने हमें कई बार
गौरवांवित होने का मौका दिया है उन्हें भय के वातावरण में जीना पड़े।
क्यों हम भारतीय क्रिकेट दर्शक खेल को खेल की भावना से देखने की परंपरा
को भूलते जा रहे हैं। भारतीय क्रिकेट के दर्शकों और फैंस को हाल के
ओलंपिक से भी सीख लेने की जरूरत है। कैसे हमने हार कर भी घर लौटे दीपा
कर्मकार और उत्तराखंड के धावक मनीष का स्वागत किया। यही खेल भावना हम
क्रिकेट में क्यों नहीं ला सकते। मंथन करने की जरूरत है।

किसी भी खिलाड़ी का हर दिन एक समान नहीं होता है। ऐसे में उन्हें भी
मेंटल सपोर्ट की जरूरत पड़ती है। यकीन मानिए यह मेंटन सपोर्ट जो दर्शकों
और उनके फैंस द्वारा दिया जा सकता है वह कोई और नहीं दे सकता है। आने
वाले समय में भारतीय क्रिकेट टीम में युवा क्रिकेटर्स की भरमार रहेगी,
ऐसे में हमें उनके साथ खड़ा रहना होगा। या नहीं कि हम उनके परिवार पर
भद्दे कमेंट करें। बिन्नी की वाइफ मयंती ने हमें मंथन करने का समय दिया
है। हमें सही अर्थों में दर्शक बनना ही होगा।