Tuesday, August 30, 2016

‘सरकार’ प्रवचन से शासन नहीं चलता है

अभूतपूर्व जीत के साथ हरियाणा में शासन की बागडोर संभालने वाली भारतीय
जनता पार्टी की सरकार अपने अभिनव प्रयोगों के लिए चर्चित हो रही है। ताजा चर्चा बटोरी है विधानसभा में प्रवचन के साथ। यह प्रवचन कितना जरूरी और कितना गैर जरूरी था इसकी चर्चा तो लंबे वक्त तक चलती रहेगी। पर ज्वलंत मुद्दा यह है कि लोकतंत्र में प्रदेश का शासन प्रवचनों से नहीं चलता है।
जिस विधानसभा में बैठे जनता के नुमाइंदों को जनता ने इसीलिए चुन कर भेजा
है कि वे उनकी बातों को प्रमुखता से उठाएंगे, उसी विधानसभा का बेहद कीमती
वक्त प्रवचन सुन कर जाया किया गया, इसे जनता कैसे स्वीकार कर सकती है। इस
पर मंथन जरूरी है।
सवाल उठना लाजिमी है कि हरियाणा की मनोहर सरकार के पास आखिर ऐसी क्या
मजबूरी या ऐसी क्या प्लानिंग है कि उन्होंने प्रवचन सुनने के लिए विधानसभा जैसा स्थल चुना। वह सदन जिसे जनता का सबसे बड़ा दरबार कहा जाता है वहां साधु-संतों के प्रवचनों का क्या उद्देश्य है? वोट देने वाली जनता अपने नुमाइंदों को इसलिए सदन तक भेजती है ताकि उनके नुमाइंदे जनता के हितों की बात कर सकें। पर अचानक ऐसा क्या हो गया कि सदन का कीमती समय प्रवचनों में जाने दिया गया। आस्था, धर्म, विश्वास यह हर किसी का निजी मामला होता है। इसे सार्वजनिक तौर पर किसी पर थोपा नहीं जा सकता है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी राज्य का सदन पूरे राज्य के लोगों का केंद्र होता है। ऐसे में लोकतंत्र के इस केंद्र में किसी संत के प्रवचन का प्रचलन क्या जायज है? यह सवाल मनोहर सरकार से लगातार पूछा जाएगा। यह भी पूछा जा रहा है कि क्या अब यहां गुरुबाणी और जुम्मे की नमाज भी अता की जाएगी? या फिर गुड फ्राइडे और क्रिसमस के अवसर पर यहां विशेष प्रार्थना सभा के आयोजन के लिए भी हम तैयार रहें। क्या यह लोकतांत्रिक स्वच्छंता का नतीजा है कि हम इस ऐतिहासिक घटना के साक्षी बन सकें? क्या ऐसे किसी आयोजन के साक्षी हम भविष्य में भी बनते रहेंगे? 
जैन मुनि तरुण सागर के हरियाणा विधानसभा में कड़वे प्रवचन के बाद सोशल मीडिया पर कड़वे बोल ने ट्रेंड करना शुरू कर दिया। सोशल मीडिया के जरिए जब हरियाणा सरकार की खिंचाई शुरू हुई तो सरकार के नुमाइंदों ने सफाई देना शुरू कर दिया। सरकार के नुमाइंदों ने कहना शुरू किया कि तन और मन की पवित्रता के लिए यह जरूरी है। कभी-कभी ऐसे आयोजन होने चाहिए। पर इस बात का जवाब किसी के पास नहीं है कि हरियाणा के मंत्री और विधायक जितना काम कर रहे हैं क्या उससे उनके शरीर पर दबाव बढ़ गया है। ऐसे में क्या आने वाले सत्र में योग गुरु रामदेव भी सदन में योग का पाठ पढ़ाते नजर आएंगे, ताकि जनता के सेवक फील्ड में उत्साह और नई ऊर्जा के साथ काम कर सकें। 

भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में ऐसा उदाहरण शायद ही कहीं देखने को मिला होगा कि सदन में ऐसे किसी धार्मिक आयोजन के लिए वक्त निकाला गया हो। जैन मुनि के कड़वे प्रवचन प्रतिदिन टेलीविजन पर प्रसारित होते हैं। हर महीने कहीं न कहीं इनका कार्यक्रम आयोजित होता है। लाखों लोग इनके प्रवचन सुनने जाते हैं। मंत्रियों से लेकर विधायक और बड़े-बड़े नेता जैन मुनि के प्रवचन सुनने उनके कार्यक्रमों में जाते हैं। ऐसे में यह क्या इतना जरूरी था कि इसका आयोजन सदन के भीतर कराया जाए? प्रदेश इस वक्त घोर असुरक्षा के भय में जी रहा है। सरकारी आंकड़े गवाही दे रहे हैं कि हरियाणा में अपराध की स्थिति किस कदर लगातार बढ़ रही है। बेरोजगारी की स्थिति, आरक्षण की आग, भर्ती प्रक्रियाओं में अनियमितताओं का आरोप ये कुछ ऐसे ज्वलंत मुद्दे हैं जिससे हरियाणा का आमजन रू-ब-रू हो रहा है। ऐसे में जब विधानसभा का सत्र आयोजित होता है तो जनता इस इंतजार में रहती है कि उनके राहत से जुड़ी कुछ बातों पर बहस होगी। पिछला सत्र
उठापटक, आरोप-प्रत्यारोप, निष्काषण और बेवजह की बहसबाजी में बीत गया। ऐसे
में मानसून सत्र से बहुत उम्मीदें हैं। पर सत्र की शुरुआत जिस तरह से हुई
है उसने पूरे भारत की नजर हरियाणा की तरफ खींच लिया है। सोशल मीडिया के
अलावा मुख्य धारा की विदेशी मीडिया में इस बात की चर्चा है कि सदन में
प्रवचन हो रहे हैं।हरियाणा विधानसभा में अपने करीब चालीस मिनट के प्रवचन के दौरान जैन मुनि ने बेटी बचाओ से लेकर तमाम ऐसे मुद्दों पर अपनी बात कही जिसकी जितनी
तारीफ की जाए कम है। पर सरकार के नुमाइंदों को कौन समझाए कि सिर्फ
प्रवचनों से बेटी नहीं बचाई जा सकती। इसी सरकार के सरकारी आंकड़े गवाही दे
रहे हैं कि एक तरफ जहां इस प्रदेश में कन्या भू्रण हत्या के मामले लगातार
बढ़ रहे हैं, वहीं उसी अनुपात में बलात्कार के मामले भी बढ़ रहे हैं। इस
वर्ष 31 जुलाई तक प्रदेश में 637 बलात्कार के मुकदमे दर्ज हुए हैं। जो
पिछले वर्ष से 3.24 प्रतिशत अधिक है। जिस दिन सदन में धार्मिक प्रवचन हो
रहे थे उसी रात प्रदेश के सबसे महत्वपूर्ण जिले गुड़गांव के एक कस्बे में
अपराधियों ने परिवार के लोगों के सामने दो बहनों के साथ गैंग रेप किया।
इतना ही नहीं बहनों के मामा-मामी को मौत के घाट उतार दिया। जाट आंदोलन के
समय पूरा प्रदेश करीब दस दिनों तक किस कदर बंधक बन गया था इसे पूरे
विश्व ने देखा था।

संवैधानिक व्यवस्था में किसी लोकतांत्रिक सरकार का काम जनता के हितों की रक्षा करना होता है। उनके कल्याण के लिए योजनाओं की प्लानिंग और उसके
क्रियान्वयन के लिए तत्पर रहना होता है। इन सबके लिए सदन ही एक मात्र ऐसा
स्थान है जहां से पूरे प्रदेश के विकास की रूपरेखा खींची जा सकती है। पर
हरियाणा सरकार ने अपना कीमती चालीस मिनट प्रवचन में बिता दिया। सरकार के
पास तमाम ऐसे बड़े तर्क हो सकते हैं जिससे वह इस आयोजन को जायज ठहरा सकती
है। हो सकता है उसे कई प्लेटफॉर्म पर स्वीकार भी कर लिया जाए। पर मंथन
जरूर करना चाहिए कि जिस प्रदेश में तमाम ज्वलंत मुद्दों पर जनता सरकार के
जवाब और सकारात्मक कदम का इंतजार कर रही है उस प्रदेश की विधानसभा में
प्रवचन क्या इतना जरूरी है?

Monday, August 22, 2016

एक नेशनल प्लेयर का मर जाना और जश्न



क्या इसे महज एक संयोग मान लिया जाए कि एक तरफ पूरा देश साक्षी, सिंधु और
दीपा जैसी प्लेयर्स के स्वागत में पलकें बिछाए बैठा है। वहीं, दूसरी तरफ
पंजाब में एक नेशनल प्लेयर को अपनी जान देनी पड़ गई। वह भी चंद रुपयों की
खातिर। सरकार द्वारा मिलने वाली सुविधाओं के खातिर। अपने हक के खातिर।
नहीं यह संयोग नहीं हो सकता। यह भारत की पूरी सरकारी व्यवस्था पर एक
जोरदार तमाचा मारा है उस प्लेयर ने, जो भारत का भविष्य थी। तमाचा एक सही
मौके पर, ताकि लोग भारतीय खिलाड़ियों के हालातों से ठीक से परिचित हो
सकें। सिर्फ इस बात पर प्रलाप करने वालों के लिए भी यह तमाचा है जो हर
समय यह बोलते हैं कि करोड़ों हिंदुस्तानियों में से सिर्फ एक-दो पदक? जी,
यही हकीकत है कि क्यों हम अंतरराष्टÑीय स्तर पर चंद पदकों पर सीमित रहते
हैं।
पूरा देश जहां सिंधु और साक्षी की जीत के जश्न में शरीक था, वहीं पंजाब
के सबसे बड़े शहर पटियाला में एक नेशनल प्लेयर अपनी जिंदगी को खत्म करने
की तैयारी कर चुकी थी। हैंडबॉल की इस नेशनल प्लेयर का नाम था पूजा।
सेकेंड ईयर की यह होनहार प्लेयर इसलिए परेशान थी कि उसे अपने भविष्य की
चिंता थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को संबोधित सुसाइड नोट में उसने कई
गंभीर सवालों को जन्म दिया है। बताया है कि कैसे उसे अपनी गरीबी के बीच
पढ़ाई करनी पड़ रही है और कैसे हमारे सिस्टम ने उसे मदद देने से इनकार कर
दिया है। ऐसे में उसके पास सिर्फ एक विकल्प है कि वह इस दुनिया को अलविदा
कह दे। उसने प्रधानमंत्री को लिखे खत में कहा है कि आप यह व्यवस्था जरूर
कर दें कि मेरी जैसी गरीब लड़की धन के अभाव में ऐसा कदम न उठा ले।
पूजा अब इस दुनिया में नहीं है, लेकिन उसने जिस वक्त आत्महत्या जैसा कदम
उठाया है वह मंथन का समय है। भारतीय परिवेश में जब एक प्लेयर अपने करियर के प्रति आशंकित हो, महज हॉस्टल का एक रूम लेने के लिए परेशान हो, ऐसे देश में हम खिलाड़ियों से कितने मेडल की उम्मीद कर सकते हैं। जहां हर एक खिलाड़ी को अपने भविष्य की चिंता सता रही हो, जहां खिलाड़ी इस बात से
परेशान हो कि उसकी डाइट की व्यवस्था बिना पैसे के कहां से होगी, वहां हम
अंतरराष्टÑीय स्तर पर मेडल्स की झड़ी लगा देने की बात कैसे कर सकते हैं।
वह तो भारत मां की मिट्टी में इतना हौसला और दम है कि यहां के प्लेयर
अपने बलबूते बहुत कुछ हासिल कर ले रहे हैं।
जो प्लेयर हमें गौरवांवित होने का मौका दे रहे हैं, जरा उनका बैकग्राउंड खंगालने की भी जरूरत है। बैकग्राउंड इसलिए ताकि हम देख सकें कि
जिमनास्टिक जैसे खेल में जब एक भारतीय खिलाड़ी पूरे विश्व का ध्यान खींचती है तो किन परिस्थितियों में उसने यह मुकाम हासिल किया है। ट्रैक एंड फील्ड के फाइनल में जब कोई प्लेयर अपना स्थान बनाती है तो हमें देखना जरूरी है कि उसने दौड़ने के लिए कितनी भागमभाग की है। सलाम है इन हौसलों
को।
जिस देश में सरकारी व्यवस्था के अंतर्गत एक खिलाड़ी पर साल भर में सिर्फ
18 से 20 हजार रुपए खर्च करने की व्यवस्था हो वहां हम खिलाड़ियों से कितनी
उम्मीद कर सकते हैं। यह भी सच है कि तमाम सरकारी विभागों में स्पोर्ट्स
कोटे से नौकरी का प्रावधान होना भी स्पोर्ट्स के प्रति लगाव का बड़ा कारण
है। ऐसे में मंथन करना जरूरी हो जाता है कि क्यों एक खिलाड़ी पर अपने
भविष्य की इतनी चिंता का दायित्व होता है। क्यों एक समय बाद हमारे खिलाड़ी
खेल छोड़कर हाथों में अपना स्पोर्ट्स सर्टिफिकेट लिए सरकारी दफ्तरों के
चक्कर लगाते रहते हैं ताकि उन्हें कोई छोटी-मोटी नौकरी मिल सके। रेलवे की
सरकारी नौकरी में सैकड़ों ऐसे खिलाड़ी मिल जाएंगे जिन्होंने अपने समय में
नेशनल या इंटरनेशनल लेवल पर अपना जलवा दिखाया होगा। पर महज चंद रुपयों की
खातिर फोर्थ ग्रेड की नौकरी करने को मजबूर हैं। कई जगह वो कूड़ा उठाने और रेलवे कोच की सफाई करते हुए भी मिल जाएंगे। हम चीन, जापान और अमेरिका से अपने देश के खिलाड़ियों की तुलना करते हैं।
पर यह भूल जाते हैं कि उन देशों में नेशनल लेवल के खिलाड़ियों का क्या
रुतबा होता है। उन्हें इस बात की चिंता नहीं होती है कि उनका परिवार कैसे
चलेगा। उन्हें इस बात की चिंता नहीं होती है कि खेल के साथ-साथ उन्हें
नौकरी के लिए एकेडमिक डिग्री भी लेनी है। उन्हें सिर्फ यह सिखाया जाता है
कि बस खेलो। खेलते रहो। यह मंथन का वक्त है कि एक तरफ पटियाला की पूजा
है, वहीं दूसरी तरफ सिंधु और साक्षी हैं। पूजा महज 3720 रुपए महीने का
जुगाड़ कर पाने में सक्षम नहीं हो सकी। वहीं, मेडल जीतने वाली सिंधु और
साक्षी पल भर में करोड़पतियों में शुमार हो गर्इं।

यह कैसी व्यवस्था है। मेडल लाने के लिए अपने दम पर जाओ, जब मेडल जीत लोगी तब हम तुम्हें मालामाल कर देंगे। तुम्हें हीरे और सोने में तौल देंगे।
अपने दम पर सुविधाएं जुटाओ, डाइट की व्यवस्था करो, जब जीत कर आओगे तब
तुम्हें सबकुछ देंगे। क्या इस व्यवस्था पर कोई मंथन करेगा, ताकि पूजा जैसी होनहार प्लेयर को सुसाइड न करना पड़ा। क्या कोई ऐसा सिस्टम डेवलप हो सकेगा जिसमें हमारे खिलाड़ी भी सिर्फ अपनी पेट के खातिर न खेलें। वह मेडल
हासिल करने के लिए खेलें। सिर्फ खेलें और   खेलते रहें। आइए साक्षी और
सिंधु का हम स्वागत करें क्योंकि उन्होंने हमें गौरवांवित होने को मौका
दिया है। पर जश्न के इस माहौल में पूजा को नहीं भूलें, क्योंकि हैंडबॉल
की नेशनल प्लेयर पूजा ही हमारी सच्चाई है। हमारे सिस्टम की सच्चाई है।

Sunday, August 14, 2016

मोदी जी! इसे कहते हैं आ ‘गाय’ मुझे मार


आ बैल मुझे मार कहावत तो आपने कई बार सुनी होगी। पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गो-रक्षा के नाम पर ठेकेदारी करने वालों को स्पष्ट संदेश क्या दिया, कहावत थोड़ी बदल गई। यूपी, पंजाब सहित कई बड़े राज्यों के चुनाव के प्री-क्वार्टर फाइनल की तैयारियों के बीच प्रधानमंत्री के बयान ने कहावत को पलट दिया है। जिस तरह से गो-रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे संगठनों की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, उसमें यह कहने में जरा भी गुरेज नहीं कि अब बैल की जगह गाय ने ले ली है और लोग कहने लगे हैं आ ‘गाय’ मुझे मार।
आज स्वतंत्रता दिवस की हम 70 वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने भी इस स्वतंत्रता दिवस को भारत पर्व के रूप में सेलिब्रेट करने का आह्वान किया था। पर जबसे भारत पर्व मानने के लिए मोदी जुटे, एक से बढ़कर एक बड़ा बयान दिए जा रहे हैं। लंबे समय से तमाम बड़े मुद्दों पर मौन साधे मोदी ने अचानक फ्रंट फुट पर आकर ताबततोड़ बैटिंग क्या शुरू की हर तरफ हो हल्ला मच गया। दलितों पर बड़ा बयान, कश्मीर पर खुलकर बयान फिर गो-रक्षकों को स्पष्ट चेतावनी ने जहां एक तरफ मोदी विरोधियों को शांत कर दिया है, वहीं मोदी के अपने उनसे खासे नाराज हो गए हैं। विपक्ष के पास पिछले कुछ महीनों से एक ही मुद्दा था कि मोदी न तो कश्मीर पर कुछ बोल रहे हैं, न तो दलितों पर और न गो-रक्षा के नाम पर मची मारकाट पर। पर अचानक से मोदी ने पलटवार तो किया, लेकिन खुद मुसीबत को न्योता दे दिया है।
नरेंद्र मोदी के नाम का दिनरात गुनगान करने वाले विश्व हिंदु परिषद, बजरंग दल सहित तमाम हिंदु संगठनों के नेता अचानक से मोदी से नफरत करने लगे हैं। सोशल मीडिया पर ऐसे संगठनों के बयानों ने स्पष्ट संकेत दे दिया है कि मोदी ने अपने चौके छक्कों से विरोधियों को तो शांत कर दिया है, पर बॉल बाउंड्री पर बैठे अपनों को जो लगा है उसका दर्द लंबे समय तक सुनाई देने वाला है। विश्व हिंदु परिषद के फायर ब्रांड नेता और अंतरराष्टÑीय कार्याध्यक्ष डा. प्रवीण तोगड़िया ने तो बकायदा प्रेस कांफ्रेंस कर मीडिया के सामने अपनी भड़ास निकाली। तोगड़िया ने कहा कि ‘पीएम के भाषण बाद देश के करोड़ों हिंदू रो रहे हैं।’ तोगड़िया ने खुलेआम मोदी के भाषण की धज्जियां उड़ाते हुए स्पष्ट संदेश दे दिया है कि गो-रक्षा के नाम पर भले ही प्रधानमंत्री का बयान राजनीति से प्रेरित है, लेकिन आम जनमानस उन्हें कभी माफ नहीं करेगा।
हालांकि जानकार मानते हैं कि प्रधानमंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पद पर बैठे किसी भी शख्स की बातों के हमेशा से ही दो मतलब होते हैं। एक बात का तात्पर्य तात्कालिक परिस्थितियों से होता है और दूसरी दूरागामी सोच से परिलक्षित होती है। एक तरफ देश को देखना होता है दूसरी तरफ अपने दल और उसके हितों की रक्षा करना भी उनका कर्तव्य होता है। शायद यही कारण है कि विहिप और उसके सहभागी संगठनों को प्रधानमंत्री की बात नागवार गुजरी है। प्रधानमंत्री की मुख से बात निकली है तो दूर तलक भी जाएगी। यही कारण है कि सभी बातों को यूपी, पंजाब सहित कई अन्य राज्यों के चुनाव से जोड़कर देखा जा रहा है।
भले ही प्रधानमंत्री की बातों के कई मतलब निकाले जाएं, पर आजादी के इतने सालों बाद भी इस सत्य से बिल्कुल इनकार नहीं किया जा सकता है कि गो-रक्षा के नाम पर हमेशा से राजनीति ही होती है। प्रधानमंत्री ने सीधे-सीधे गो-रक्षकों को असमाजिक करार दे दिया, लेकिन उस पर कुछ नहीं बोले की जिन राज्यों में गो-हत्या पूरी तरह प्रतिबंधित है उन राज्यों में आज भी गो-हत्या कैसे हो रही है। प्रधानमंत्री ने इस पर भी कुछ नहीं बोला कि जब हरियाणा, जम्मू कश्मीर, झारखंड, राजस्थान जैसे राज्यों में गो-हत्या पर दस साल तक जुर्माना है तो क्यों वहां फिर भी गो-हत्या धड़ल्ले से हो रही है। मोदी ने सीधे आंकड़े प्रस्तुत करते हुए कहा कि अस्सी प्रतिशत गो-रक्षक फर्जी हैं, पर ये आंकड़े कोई बताएगा कि गो-हत्या के मामले में आजादी से लेकर अबतक कितने लोगों को सजा हुई है। प्रधानमंत्री को इस बात पर भी अपनी स्पष्ट राय रखनी चाहिए कि जब भारत में गाय एक है तो गो-रक्षा के लिए सभी राज्यों में अलग-अलग कानून क्यों है? क्यों किसी राज्य में गो-हत्या कानून वैध है तो कहीं अवैध? क्यों नहीं गो-रक्षा के नाम पर राजनीति को रोकने के लिए एक सामन व्यवस्था का गठन किया जाए।

इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि पिछले दो सालों में गो-मांस और गो-हत्या के नाम पर भारत ने बहुत कुछ झेला है। इस बात से भी कतई इनकार नहीं किया जा सकता है कि धर्म के कुछ ठेकेदारों ने गो-रक्षा के नाम पर अपनी दुकान खोल रखी है। बेवजह लोगों को परेशान भी किया जा रहा है। पर क्या इससे भी इनकार किया जा सकता है कि हर क्षेत्र में कुछ गलत लोग बसते हैं। कई ऐसे राज्य हैं जहां गो-रक्षा दलों की पहचान कर उन्हें पहचानपत्र तक जारी किया जाता है। ऐसा क्यों नहीं हो सकता है कि सभी राज्यों में ऐसी व्यवस्था की जाए, ताकि भविष्य में होने वाली घटनाओं को रोका जा सके। प्रधानमंत्री की अपील के तत्काल बाद गृह मंत्रालय ने सभी राज्यों को एडवाइजरी जारी कर दिया है।  बेहतर तो यह भी होता कि गो-रक्षकों को पकड़ने की जगह गो-हत्या पर होने वाली राजनीति को खत्म करने का प्रयास किया जाता। मंथन का वक्त है कि हम गो-हत्या को राजनीति के चाकू से कबतक टूकड़े-टूकड़े करेंगे।

Monday, August 1, 2016

मीडिया परेशान है, मीडिया क्या करे?


अजीब प्रश्न है न कि मीडिया भी परेशान है। वह खुद नहीं समझ पा रहा है कि क्या करे? क्या लिखे? क्या दिखाए? क्या बोले? किस पर बहस करे? किस मुद्दे को उठाए? दलित के आगे दलित लिखे या ऐसे ही जाने दे? तमाम ऐसे प्रश्न हैं जिनसे मीडिया आजकल जूझ रहा है। मीडिया के सामने यह प्रश्न पहले मौजूं नहीं था। पर हाल के दिनों में खासकर 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद आम लोगों में मीडिया को देखने, सुनने, समझने, पढ़ने की क्षमता में जबर्दस्त परिवर्तन आया है। यह परिवर्तन कोई साधारण परिवर्तन नहीं है। इस पर गहराई से मंथन की जरूरत है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में मीडिया को चौथा महत्वपूर्ण स्तंभ कोई ऐसे नहीं मान लिया गया है। इसके पीछे लंबा और संघर्षपूर्ण समय गुजारा गया है। जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का युग नहीं आया था तब जो समाचारपत्रों में पढ़ लिया उसे ही अंतिम सत्य मान लिया जाता था। लोगों के विश्वास और पत्रकारिता की विश्वसनियता ने ही इसे चौथे स्तंभ के रूप में ख्याति दिलाई थी। पर अब यह बातें कथा कहानियों में अच्छी लग रही है। आज मीडिया को सीधी चुनौती मिल रही है। चुनौती दे रहा है आधुनिक तंत्र, जो सोशल मीडिया के नाम से हमारे बीच मौजूद है। सोशल मीडिया ने मीडिया को एक ऐसे दोराहे पर ला खड़ा किया है जहां विश्वास, विश्वसनियता के बाद अब विवशता ने अपना स्थान बना लिया है।
पूरा भारत मुख्यत: दो विचारधाराओं में बंट गया है। एक विचारधारा वह है जो मोदी के सपोर्ट में है। दूसरी विचारधारा वाले मोदी के विरोधी हैं। एक ब्रिटीश अखबार ने हाल में लिखा कि यह मोदी युग है, जिसमें दो विचारधाराओं के बीच लड़ाई है। यह काफी हद तक सच भी है। पर इन सबसे ऊपर मीडिया पर खतरे बढ़ गए हैं। अगर आप मोदी सरकार के काम काज या प्रधानमंत्री मोदी के बेहतर विजन पर कुछ लिखते हैं, प्रोग्राम बनाते हैं या बहस करते हैं तो आपके ऊपर बीजेपी के प्रवक्ता होने का ठप्पा लग जाता है। आपको भक्त की संज्ञा दे दी जाती है। अगर आपने मोदी सरकार के कामकाज पर सवालिया निशान लगा दिया तो आपके अखबार या चैनल को कांग्रेस पोषित बता दिया जाएगा। अगर आप पत्रकारिता के जाने पहचाने चेहरे हैं तो सोशल मीडिया पर आपकी वो आरती उतारी जाएगी कि आप खुद को पहचान नहीं पाएंगे। भूल से भी अगर आपने केजरीवाल के ट्वीट को री-ट्वीट कर दिया तो फिर तो पूछिए मत।

यह मीडिया और मीडियाकर्मियों दोनों के लिए संक्रमण का काल है। यह संक्रमण कैसे और कब प्रवेश कर गया है पता नहीं। पर धीरे-धीरे यह संक्रमण मीडिया की विश्वसनियता को निश्चित तौर पर कम कर रहा है। सोशल मीडिया की ताकत ने बड़े ही शातिराना अंदाज में इस विश्वसनियता के ऊपर प्रश्नचिह्न लगा दिया है। आपकी हर एक खबर, हर एक प्रोग्राम, हर एक बहस, हर एक आर्टिकल पर सोशल मीडिया नजरें गड़ा कर बैठा है। आपने कुछ गलत किया नहीं कि सोशल मीडिया आपकी क्लास लेनी शुरू कर देगा। यह सब बड़े ही प्लान तरीके से अंजाम दिया जा रहा है। सभी पार्टियों, संगठनों ने अपने यहां साइबर सेना बना रखी है। इस साइबर सेना के सिपाही बेहद पढ़े लिखे, टेक्नो फ्रेंडी युवा हैं। इस साइबर सेना का बस एक ही काम है मीडिया की निगरानी। कब किस मुद्दे को और किस बात को ट्रेंड करवाना है यह इन्हें बखूबी आता है। इन्हें सिर्फ इंतजार रहता है अपने सेनापतियों के दिशा-निर्देशों का। यह साइबर सेना ट्रेंड सेट करती है। इसके बाद आम लोग इसे सत्य मानकर सोशल मीडिया की उलझनों भरी दुनिया में कूद पड़ते हैं।
भारतीय संविधान के बाद साइबर एक्ट ने भी सोशल मीडिया पर मौजूद लोगों को फ्रीडम आॅफ एक्सप्रेशन के नाम से ऐसी स्वतंत्रता दे दी है जिसने सबकुछ उल्टा पुल्टा कर दिया है। यह अच्छी बात है कि सोशल मीडिया ने आम लोगों को काफी ताकतवर बना दिया है। पर सबसे अधिक खतरा मीडिया पर है। अपनी जर्नलिस्टिक एथिक्स के कारण जिन बातों को मीडिया प्रकाशित नहीं कर सकती या दिखा नहीं सकती है वह सोशल मीडिया पर इस कदर गदर मचाती है कि मीडिया की विश्वनियता धरी की धरी रह जाती है। आज सोशल मीडिया पर हर एक व्यक्ति पत्रकार बन चुका है। फोटोजर्नलिस्ट बन चुका है। ऐसे में मंथन जरूरी हो जाता है कि मीडिया की साख को कैसे सुरक्षित रखा जाए।

मीडिया के लिए सबसे अहम बात यह है कि इसमें आलोचना की स्वतंत्रता है। किसी दूसरे प्रोफेशन में आप इसकी कल्पना नहीं कर सकते हैं। सिर्फ मीडिया एक ऐसा प्रोफेशन बचा है जहां मीडियाकर्मी खुद एक दूसरे की कमियों पर बात करते हैं। खुलकर चर्चा और लड़ाई करते हैं। चाहे चैनलों के राष्टÑभक्त होने की बात हो या फिर मीडियाकर्मियों के मोदी भक्त होने की बात हो, हर तरफ बहस की स्वतंत्रता है। हालांकि आम पाठक और दर्शकों को इससे कोई मतलब नहीं होता है, फिर भी यह आलोचना खुले आम होती है। टीवी के परदे पर होती है सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म पर होती है। सोशल मीडिया की दिन ब दिन मजबूत होती ताकत के बीच यह यक्ष प्रश्न मीडिया के सामने आ चुका है कि वह अपनी ताकत, अपनी विश्वसनियता, अपने तेवर को कैसे संरक्षित करे। संक्रमण के इस दौर में वह कौन सी युक्ति अपनाई जाए कि दर्शकों और पाठकों का विश्वास भी कायम रहे और सरकार की ‘बुरी नजरों’ से बचा जा सके। मंथन करने के बाद अगर आपके पास भी कोई युक्ति हो तो मीडिया से जरूर साझा करे। नहीं तो सोशल मीडिया तो है ही।