Saturday, July 30, 2016

हरक सिंह रावत पर रेप का केस.... वो भूली दास्तां लो फिर याद आ गई

...आइए आपको बताऊं सेक्स स्कैंडल में फंसे उत्तराखंड के कद्दावर नेता हरक सिंह रावत से जुड़ी क्या है वह भूली दास्तां.. जब मैं देहरादून में था। वह सेक्स और राजनीति का कॉकटेल था...
New Published 11 April 2013

कहते हैं राजनीति में मुर्दों को भी जिंदा रखा जाता है। वक्त पड़ने पर उन्हें कब्र से बाहर लाया जाता है और फिर उस पर गेम प्लान होता है। उत्तराखंड की राजनीति में सेक्स का तड़का भी ऐसा ही गड़ा मुर्दा है। हरीश रावत को सत्ता से बेदखल करने की साजिश रचने वाले हरक सिंह रावत अब ऐसे ही एक गड़े मुर्दे की गिरफ्त में आ चुके हैं। उनके ऊपर दिल्ली के सफदरगंज इनक्लेव थाने में एक महिला ने रेप का मामला दर्ज करवाया है।
आप पूछेंगे इसमें नई कौन सी बात है। राजनेताओं पर तो मामले दर्ज होते ही रहते हैं वह भी उत्तराखंड में तो सेक्स के कॉकटेल पर राजनीति बहुत पुरानी है। तो जनाब बता दूं। यह मामला उतना भी सीधा नहीं है। पता नहीं उत्तराखंड की मीडिया इसे कैसे लेगी। पर बता दूं कि इस सेक्स स्कैंडल से जुडेÞ बेहद अहम कड़ियों का खुलासा हमने तीन साल पहले ही कर दिया था।
उस वक्त मैं दैनिक जागरण के आईनेक्स्ट अखबार का संपादकीय प्रभारी था। क्राइम रिपोर्टर थे मयंक राय। मयंक इन दिनों ई-टीवी उत्तराखंड में हैं। मयंक के पास किसी सूत्र के जरिए यह जानकारी आई थी कि कांग्रेस के एक बड़े नेता पर एक महिला ने रेप का आरोप लगाया है। फिर हमलोगों ने इस मामले पर बेहद गहराई से पड़ताल की थी। बेहद संगीन मामला होने के कारण एक-एक पहलू पर जांच करने के बाद हमने यह खबर प्रकाशित की थी। इतनी सावधानी इसलिए भी जरूरी थी क्योंकि मामला उत्तराखंड के सबसे कद्दावर नेता हरक सिंह रावत के बारे में थी। यह वही हरक सिंह रावत थे जो 2004 में जेनी कांड में फंसे थे। जेनी ने भी हरक सिंह रावत पर रेप का आरोप लगाया था। खैर हमने इस मामले के एक-एक पहलू की जांच की और खबर प्रकाशित की।
हमने बताया कि कैसे उत्तराखंड की राजनीति में एक बार फिर सेक्स स्कैंडल ने दस्तक दे दी है। हमने यहां तक खुलासा किया था कि इस मामले को दबाने के लिए उस युवती को दिल्ली के सफदरगंज इनक्लेव में करीब डेढ करोड़ का फ्लैट खरीद कर दिया गया है। तीन से चार किस्तों में हमने इसे पूरे प्रकरण से जुड़े एक-एक पहलू को खोला था। हालांकि स्वीकार करता हूं कि उस वक्त कांग्रेस नेता का नाम और उस युवती के नाम का खुलासा करने में हमारे सामने पत्रकारिता के एथिक्स आड़े आ गए थे। नेता जी का नाम का खुलासा एक शर्त पर किया जा सकता था, अगर उस  लड़की ने नेता जी के नाम से एफआईर दर्ज कराई होती। पर अफसोस ऐसा नहीं हो सका। पर समझने वाले समझ गए थे कि मामला किस कद्दावर नेता से जुड़ा है। उस वक्त उत्तराखंड की राजनीति में जबर्दस्त तूफान आया था। लेकिन जिस तरह तूफान आता है और थम जाता है। ठीक उसी तरह यह तूफान भी थम गया।
News Published 12 April 2013

थम इसलिए गया था कि मामले को बेहद शातिराना तरीके से मैनेज कर लिया गया था। युवती को भी मैनेज कर लिया गया था। थम इसलिए भी गया था क्योंकि युवती ने अपने साथ हुए ‘सो कॉल्ड रेप’ का मामला दर्ज नहीं करवाया था। छानबीन की जाए तो पता चल जाएगा कि उस वक्त उसी युवती ने सफदरगंज इनक्लेव थाने में जाकर फरियाद की थी। अब यह कहने में जरा भी हिचक नहीं है कि वह फरियाद कहीं न कहीं हरक सिंह रावत को ब्लैकमेल करने के लिए की गई थी।
अब करीब तीन साल बाद उसी सफदरगंज इन्क्लेव में एक युवती द्वारा हरक सिंह रावत पर रेप का केस दर्ज करवाया गया है। आज सुबह जैसे ही मेरे मोबाइल पर दिल्ली से इस मामले को लेकर कॉल आई मैं हैरान रह गया। फोन करने वाले ने मुझे इसलिए फोन किया था, क्योंकि वह उस वक्त का गवाह है जब इसी युवती ने मामले को लेकर मुझे और मयंक को कोर्ट में घसीटने की धमकी दे डाली थी। कांग्रेस के उस वक्त के कुछ बड़े लोगों ने भी हमें शांत रहने की नसीहत दे डाली थी। अब सबकुछ साफ है।
News Published 5 May 2013

मुझे पता नहीं हरक सिंह रावत इस मामले से कैसे बचकर निकलेंगे। हालांकि उनका इस तरह के मामलों में पुराना अनुभव रहा है। वे बेदाग होकर निकल जाएंगे। पर हरीश रावत को सत्ता से उतारने के प्रयास के बाद उनका इस तरह बचकर निकलना इतना आसान भी नहीं होगा। अभी आगे क्या होगा कह नहीं सकता, लेकिन अनुभव के आधार पर कहूं तो हरक को घेरने के लिए यह बेहद शातिर चाल चलने वाला हरक का ही करीबी है। जल्द ही सामने आ भी जाएगा।
फिलहाल युवती ने सफदरगंज इन्क्लेव थाने में बताया है कि वह आसाम की रहने वाली है और हरक सिंह रावत ने उससे दो साल पहले सफदरगंज इनक्लेव के ही फ्लैट में रेप किया है। पर आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि यह महिला कोई और नहीं पंजाब की वही सिंगर है जिसकी चर्चा हमेशा उत्तराखंड में होती है। देहरादून के सहस्रधारा में इसका अपना फ्लैट भी है।
इंतजार करिए अभी और भी खुलासे होंगे। पर इस वक्त मुझे बेहद फक्र है कि हमने जो खबर प्रकाशित की थी उसकी बुनियाद सच के दम पर रखी गई थी। मयंक राय को भी बधाई देना चाहूंगा कि जब तक उसने मेरे साथ काम किया खोजी पत्रकारिता का रोज नया इतिहास ही लिखता गया। उम्मीद करता हूं वह जहां भी है इसी तरह अपनी खोजी पत्रकारिता के जरिए अपनी पहचान कायम रखेगा।

Thursday, July 28, 2016

कश्मीर की घाटियां....यहां आतंकी आंदोलनकारी कहे जाते हैं

 कश्मीर की घाटियों के रहस्य और रोमांच- दूसरा भाग
  
कश्मीर की घाटियों में कारगिल से होते हुए द्रास और फिर सोनमर्ग पहुंचे मनमीत की बातें। मनमीत ने बताया कैसे यहां पाकिस्तान प्रयोजित आतंकियों को आंदोलनकारी बताने पर उसे घुटन होने लगी और हां यह भी जान जाइए कश्मीर की घाटियों में भी पुलिस का चरित्र वैसा ही है। 

करगिल से गुजरते वक्त

करगिल में सुबह काफी सर्दी थी। चारों तरफ पहाड़ियों में कोहरा लगा था। पाकिस्तानी चेकपोस्ट वाली पहाड़ी में भी। मैं जल्दी ही करगिल छोड़ कर शाम तक सोनमर्ग पहुंचना चाहता था। जो वहां से 201 किलोमीटर दूरी पर था। केवल गर्म काबा पीने के बाद मैंने करगिल पीछे छोड़ दिया और साथ ही छोड़ दी चौड़ी और अच्छी सड़क। इसके बाद की सड़क कहीं कहीं बेहद संकरी और अत्याधिक खराब है। नीचे बह रही सुरू नदी कई बार डरा भी देती है। 
करगिल से कुछ ही आगे निकलने के बाद मुझे सेब के बगीचे दिखने शुरू हो गए। ज्यादातर बगीचे सड़क से लगते हुए ही हैं। सड़क किनारे एक सेब का बगीचा कुछ असामान्य सा लगा तो मैंने जीप रोक ली। ध्यान से देखा तो बगीचे के बीचों बीच कंकरीट की छत से ढका एक गड्डा था। जिसके दो तरफ से छोटी सी खिड़की थी और खिड़की के बाहर नली नुमा चीज निकली हुई थी। गौर से देखने पर मैं समझ गया और आगे बढ़ने में भलाई समझी। वो एक बंकर था और वो नली एलएमजी की नाल थी। नाल गांव की तरफ थी। 

अब मंजर बदलने लगा था। हर तरफ फौज, एलएमजी, बंकर और पेड़ पर छुपे बैठै स्नाइफर। यहां तैनात फौजी काले कपड़े से पूरा मुंह छुपाते हैं। यहां तक की कमिशन आॅफिसर भी। कोई अपनी पहचान गांव वालों को नहीं बताता। एक अनजाना डर फौजियों में भी दिखता है और गांववासियो में भी। तीन घंटे बाद कक्सार पहुंचा। कक्सार में जीप बाजार में खड़ी कर सोचा थोड़ा गांव घूम आता हूं। बाजार से थोड़ा ऊपर एक पगडंडी नुमा रास्ता जा रहा था। मुझे किसी ने बताया कि वहां इंटर कॉलेज है, जिसमें आज ब्लॉक स्तरीय फुटबॉल मैच चल रहा है। मुझे लगा वहां कुछ लोग मिल जाएंगे बातें करने के लिए। लिहाजा, मैंने पगडंडी पकड़ ली। मुश्किल से सात सौ मीटर चलने पर मैं ग्राउंड की बाउंड्री के बाहर खड़ा था। वहां दो टीमों के बीच मुकाबला पूरे हाई वोल्टेज में था। मैं ग्राउंड के अंदर घुस गया और एक ओर घास में बैठ कर वहां का जायजा लेने लगा। मैंने ग्राउंड के चारों ओर नजर दौड़ाई तो मुझे फिर से कई असामान्य चीजें दिखीं। मसलन, चारों तरफ बख्तर बंद वाहन और उसके अंदर बैठै स्नाइफर। हर तरह काला कपड़ा मुंह से ढके फौजी और बेपरवाह खेलते खिलाड़ी। वहां मैंने एक बुजुर्ग से बातचीत शुरू की। नाम अब याद नहीं उनका। उन्होंने मुझे बताया कि फौज तो रहती है, लेकिन आज कुछ ज्यादा इसलिए भी है क्योंकि मीडिया ने आर्र्मी के हवाले से ही खबर दी है कि इन पहाड़ियों में आतंकवादियों (उसने आंदोलनकारी कहा) का मूवमेंट देखा गया है। 

मुझे वहां अजीब सी घुटन होने लगी और मैं नीचे चला आया। सुंदर और बर्फ से लकदक पहाड़ियों के बीच मुझे पहली बार घुटन हो रही थी। नीचे ड्राइवर जीप में बैठकर चाय पी रहा था। मैं बगल वाली सीट पर बैठ गया और जीप चलने लगी। उसके बाद कुछ ही देर बाद में करगिल वॉर मेमारियल के बाहर था। करगिल वॉर मेमोरियल तोलोलिंग की पहाड़ी के नीचे स्थित है और यहां पर युद्व के दौरान के सभी हथियार रखे हुए हैं। यहां पर कैप्टन थापा भी मिले, जिनका परिवार दून के गढ़ीकैंट में रहता था। यहां से सामने दिखता है टाइगर हिल। भारत की शान। जिसे पाकिस्तानी कब्जे से छुड़ाने में भारत के कई जवानों को शहादत देनी पड़ी। वॉर मेमोरियल में एक घंटा गुजारने के बाद बीस किलोमीटर आगे ही द्रास सेक्टर पहुंचा। रास्ते में हर तरफ बख्तर बंद वाहन और ग्रेनेड और एके 47 से लैस फौजी दिखने अब आम बात हो गई थी। फौजियों की एकके 47 पर चिपकी उंगलियां बता रही थी कि कितना टेंशन में वो यहां इन सुंदर वादियों के बीच रहते हैं। दोपहर ढाई बजे दाचीगाम पहुंचा। ये गांव कुछ अपने गांव की तरह लगा। छोटी छोटी दुकानें और ढालूनुमा घरों की छतें। खूबसूरत लोग। महिलाएं भी निश्चित तौर पर खूबसुरत होंगी, लेकिन वो बुर्के में थी। साफ सुधरे कपड़े। सेब के बगीचे उनकी उन्नति का रास्ता कई दशक पहले खोल चुके थे। सेब की रेड डिलीसियस और गोल्डन डिलीसियस प्रजाति सबसे मीठी यहीं पाई जाती है। गांव में एक घर सजा हुआ था। पास जाकर देखा तो वहां शादी समारोह हो रहा था। फिर जो दिखा, वो फिर से बेचैन कर गया। 

विवाह वाले घर की छत में स्नाइफर काला कपड़ा मुंह से ढका छुपा हुआ था। जिस चबुतरे में विवाह की रश्में हो रही थी, उसके बगल में बख्तर बंद वाहन खड़ा था। जिसके अंदर से एलएमजी की नली बाहर लोगों की जश्न मनाती भीड़ में तनी हुई थी। उफ..... क्या लोग हैं, मेरा ड्राइवर बुदबुदाया। शाम पांच बजे जोजिला दर्रा को पार करते हुए मेरे और ड्राइवर के बीच कोई बात नहीं हुई। सड़क पर जमी बर्फ से कई बार जीप का टायर फिसल जाता और नीचे सैकड़ों फीट खाई दिखती। जब दर्रा पार हो गया तो दोनों ने एक लंबी सांस बाहर छोड़ी और एक दूसरे की तरफ देखते हुए बस मुस्करा दिए। हम सात बजे सोनमर्ग पहुंचे।

 इस दौरान लगभग आठ चेकपोस्ट हमने पार की। हर चेकपोस्ट में फौजी वाहन की चेकिंग करते हैं और पुलिस के जवान वाहन के कागज।   फौजी अपना काम करके किनारे हो जाते है, लेकिन पुलिस का जवान आपको आगे जाने से रोक देगा। वो बतायेगा कि आगे रोड खराब है और जम्मू कश्मीर में तीन बजे के बाद बाहर से आने वाले वाहनों को आगे जाने नहीं दिया जाता। काफी मानमनोव्वल के बाद आप उसे दो सौ रुपये दिजीये और आगे बढ़ जाइये। आर्र्मी का जवान पुलिस की तरफ से मुंह मोड़ लेगा। मानो एक मौन स्वीकृति दे रहा हो। हर चेकपोस्ट में रुपये भेंट चढ़ाने के दौरान यही सोचता की पुलिस का चरित्र पूरे भारत में एक सा है। हम खामंखा यूपी या उत्तराखंड पुलिस को लानते देते हैं।
जारी--


Tuesday, July 26, 2016

कश्मीर की घाटियों के रहस्य और रोमांच


करगिल से गुजरते वक्त--



लद्दाक मंडल के तहत दो जिले आते हैं। लेह और करगिल। हिमाचल की तरफ से जाएंगे तो पहले लेह आएगा है और उसके बाद करगिल। कश्मरी को समझने के लिए मेने लेह से सफर करने का निर्णय लिया। लेह से लगभग 223 किलोमीटर की दूरी पर करगिल है और एनएच- वन हाईवे यहीं से शुरू भी होता है। पंेगोग झील से लौटने के बाद लेह के एक होटल में सुबह उठकर बाहर आया तो लगा नहीं कि भारत में हूं। लगा जैसे कजाकिस्तान या तिब्बती के किसी प्रांत में हूं। पूरा इलाका शीत मरुस्थल है। कहीं कोई वनस्पति नहीं। कोरी ठंड और दूर तक नारंगी मिट्टी के पठार। शहर छोड़कर थोड़ा दूर चलेंंगे तो लगेगा मानो मीडिल इस्ट के देश मंे पहुंच गए। लेह में काफी टूरिस्ट आते हैं। जो हिमाचल के मनाली से रोहतांक पास- जिस्पा और नेलांग होते हुए एक लंबे सफर से गुजरते हुए लेह पहुंचते हैं और यहां से खारदुंगला घाटी, पेंगगोंग झील, नुबरा घाटी की तरफ मुड़ जाते हैंं। कम ही लोग करगिल की तरफ जाते हैं। 

दो दिन लेह और उसके आसपास खाक छानने के बाद हमने करगिल जाना तय किया। यहां से शुरू होने वाला हाईवे-1 करगिल से कुछ आगे सियाचीन के नीचे से गुजरता है। इसी हाईवे को विदेशी ताकते कश्मीर की गर्दन भी कहते हैं। जो लेह से दिल्ली तक 1292 किलोमीटर तक है। बहरहाल, लेह में गुजारी आखिरी रात को इजारयली ग्रुप के लाइव बैंड में कब लोकल छंग पीकर थिरकने लगा और कब नींद आ गई पता नहीं चला। सुबह ड्राइवर ने उठाया तो सीधे फ्रेश होकर अपनी फेवरेट बुलेरो जीप के स्टीयरिंग को हाथ में पकड़ लिया और दबा दिया एक्सीलरेटर। हां, एक बात बता दूं कि लेह में अस्सी फीसदी बोद्ध और बीस फीसदी मिश्रित धर्मों के लोग रहते हैं। लेकिन जैसे ही करगिल की तरफ आगे बढ़ते जाएंगे, फर्क आना महसूस होने लगेगा। लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर आगे पूरी तरह से मुस्लिम बहुल इलाका शुरू होने लगेगा। मठों के बदल अब मस्जिद दिखने लगेगी। वहीं बांशिदे मंगोलियसं लगेंगे। दिखने में लेह के बांशिदों की तरह, लेकिन धर्म अलग। एक लंबे थकाने वाले सफर के बाद करगिल से कुछ पहले शाम चार बजे हम एक चाय की दुकान में रुके और चाय बना रहे मुख्तर से पूछा कि करगिल की लड़ाई कहां हुई। मुख्तर जैसे इस सवाल का इंतजार में बैठा हो। तपाक से बोला ये जो उत्तरी पहाड़ी है न। यहीं पाकिस्तानी चेकपोस्ट है। यहीं से गोले बरसे और हम पर गिरे। हमने पूछा क्या अब डर नहीं लगता। वो छोटी मटकी में चाय डालते हुए बेपरवाह बोला, आदत है। 

करगिल में प्रवेश करते ही पुलिस ने हमें डायवर्जन रूट पकड़ने को कहा। हमने कारण पूछा तो बताया कि किसी रसूखदार शख्स का जनाजा शहर के अंदर से गुजर रहा है। पुरा शहर मातम में है। हमने डायवर्जन से जाना ठीक नहीं समझा। हम वहीं पर रुक गए। लगभग सात बजे करगिल कस्बे में हमने प्रवेश किया। यहां लेह की तरह हालत दूसरे थे। हमे बतौर टूरिस्ट कोई तजव्वो नहीं दी गई। एक छोटे से होटल में कमरा लेने के बाद मैं नीचे रेस्टोरेंट में आ गया और चाय मांगी। तभी एक बुजुर्ग चाय बनाते हुए होटल के सामने दिखे तो उनसे अवाज लगा कर चाय होटल के रेस्टोरेंट में ही मंगा ली। अब मेरा ड्राइवर पहली बार बोला। भाईसाहब, आतंकवादी भी यहीं रहते होंेगे न। मेने बस उससे तफरी लेने के लिए इतना ही बोला, कभी भी हमला हो सकता है। फिर वो मुझे सुबह ही दिखा। बहरहाल, वहां होटल के बाहर कुछ कश्मीरी युवा खड़े थे। मैं उनके साथ खड़ा हो गया। कुछ ही देरी में मेरी उनसे दोस्ती हो गई और किस्सेबाज होने के कारण कुछ ही देर में मेने उन्हें उत्तराखंड आपदा से लेकर अमेरिका और इजारयल तक को लानत के किस्से सुना डाले।
अब वो मुझसे खुश थे। उन्होंने मुझे काबा (वहां की लोकल चाय) ऑफर की। अगली सुबह मैं भी आगे बढ़ चला। सोनमर्ग और कश्मीर की तरफ...........

(जारी रहेगा)

Monday, July 25, 2016

उड़ता पंजाब, रगड़ता पंजाब..तो ठोको ताली

कभी पांच नदियों और धन-धान से भरपूर प्रदेश के रूप में पहचान कायम रखने वाला पंजाब कब ‘उड़ता पंजाब’ बन गया किसी को पता ही नहीं चला। धीरे-धीरे यहां की जवानी में ड्रग्स घुल गई और हुक्मरान हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। प्रदेश के कद्दावर मंत्री पर नशे के सबसे बड़े कारोबारी होने का आरोप लगा, पर उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सका। पाकिस्तान से लगते बॉर्डर से नशे की तस्करी होती रही, लेकिन पंजाब की पुलिस हाथ पर हाथ रखे तमाशा देखती रही। इसी बॉर्डर एरिया के एसपी पर तस्करों के साथ लिप्त होने की बात सामने आई, लेकिन कहानी में कई तरह के पेंच फंस गए। हद तो यह कि ‘उड़ते पंजाब’ से जुड़े एक आरोपी अधिकारी से जुड़ी जांच की बात पंजाब पुलिस के डीआईजी रैंक के अधिकारी को इतनी चुभ गई कि मीडिया को ही रगड़ डालने की चुनौती दे डाली।
पंजाब में नशे से जुड़ी बातें अब कोई नई बात नहीं रह गई है। राजनेताओं से लेकर पुलिस अधिकारियों तक की इसमें मिली भगत भी कई बार सार्वजनिक हो चुकी हैं। चुनावी साल होने के कारण पंजाब में नशे का कारोबार भी बड़ा चुनावी मुद्दा बन चुका है। अकाली दल और बीजेपी के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि पंजाब की धरती पर लगे नशे के दाग को कहां तक धोएं। वहीं कांग्रेस इस मौके को जबर्दस्त तरीके से हाईलाइट करने में जुटी है कि कैसे पिछले चंद सालों में पंजाब ने अपनी पहचान खो दी है और नई पहचान बना ली है।
कांग्रेस के लिए यह एक बड़ा मुद्दा इसलिए भी है कि क्योंकि प्रदेश का एक कद्दावर नेता भी ड्रग्स माफियाओं के संरक्षक के रूप में बदनाम हो चुका है। कांग्रेस के अलावा आम आदमी पार्टी ने भी इस बार पंजाब के चुनावी मैदान में अपनी जबर्दस्त उपस्थिति दर्ज कराकर अहसास करा दिया है कि मुकाबला जोरदार रहेगा। आम आदमी पार्टी लगातार बादल सरकार और कांग्रेस की पुरानी नीतियों पर हमलावर है। ऐसे में पंजाब में बीजेपी के बड़े चेहरे के रूप में पहचाने जाने वाले नवजोद सिंह सिद्धू का यूं रूठ कर पार्टी छोड़ देना भी बड़ी बात बन चुकी है। सिद्धू अब किस करवट बैठकर ताली ठोकेंगे यह तो वह ही जानें, लेकिन इतना तो तय है कि ड्रग्स तस्करी के मुद्दे को सिद्धू से ज्यादा दमदार तरीके से कोई और नहीं उठा सकता है।
पंजाब को ड्रग्स तस्करी के हब के रूप में विकसित करने में प्रदेश की पुलिस ने भी कोई कम योगदान नहीं दिया है। बॉर्डर एरिया पर चाक चौबंद सुरक्षा की राजनीति किसी से छिपी नहीं है। प्रदेश सरकार और बीएसएफ के बीच तानातनी कई मौकों पर सामने भी आ चुकी है। चाहे वह गुरदासपुर में आतंकी हमले का मामला हो या पठानकोट से जुड़ा मामला। हर बार सुरक्षा को लेकर बीएसएफ और प्रदेश सरकार के बीच अंदरूनी जंग चलती रही है। पर इन सबके बीच सबसे अहम कड़ी ड्रग्स तस्करी को लेकर जुड़ती है।
पठानकोट हमले के दौरान चर्चा में आए पंजाब पुलिस के एसपी सलविंदर सिंह के रूप में एक ऐसा अहम सुराग एनआईए को हाथ लगा था, जिसने सभी की नींद उड़ा दी थी। बताया गया कि एसपी सलविंदर सिंह के तार तस्करों से जुड़े थे और इसी चक्कर में वे आतंकियों की चंगुल में फंस गए। एनआईए ने कड़ी पूछताछ के बाद एसपी को छोड़ दिया। हालांकि एनआईए ने कभी यह बयान नहीं दिया कि एसपी सलविंदर को क्लीन चिट दे दी गई है, लेकिन पंजाब पुलिस के आला अधिकारियों ने इस बात को प्रचारित करने में कोई कसर बांकि नहीं रखी कि एसपी को क्लीन चिट दे दी गई है। इतना ही नहीं जिस एसपी के खिलाफ यौन शोषण के दो बड़े मामलों के अलावा तस्करों से जुड़े होने के आरोप लगे उसे तत्काल बहाल भी कर दिया जाता है।

एसपी से जुड़ी इतनी बातों ने इस बात की गंभीरता को बढ़ा दिया था कि क्या एसपी के फंस जाने से कई बड़ी मछलियां भी फंस सकती थी? क्या बड़ी मछलियों में राजनेताओं से लेकर पुलिस के आलाधिकारी भी शामिल हैं, जिन्हें अपने फंसने का डर सता रहा था? सबसे गंभीर सवाल तो यह था कि एनआईए की रडार की रेंज में आने के बावजूद एक आरोपी पुलिस अधिकारी इतनी जल्दी कैसे बच गया?
अब एक बार फिर उसी एसपी को बचाने के लिए सरकार से लेकर पुलिस महकमे पर भी पूरा दबाव है। हद तो यह है कि इस दबाव की बात पंजाब पुलिस के डीआईजी रैंक के अधिकारी खुद अपनी जुबान से स्वीकार कर रहे हैं। पिछले दिनों जब आज समाज के संवाददाता से पंजाब पुलिस के बॉर्डर रेंज के डीआईजी कुंवर विजय प्रताप सिंह ने धमकी भरे में लहजे में बातचीत की थी, तो उसी बातचीत में उन्होंने यह भी स्वीकार कर लिया था कि एसपी मामले की जांच में देरी ऊपर के दबाव के कारण है। अब यह ऊपर का दबाव क्या है यह तो या तो डीआईजी साहब ही बता सकते हैं या फिर सरकार। पर इतना तो तय है कि पंजाब में नशे के कारोबार का रैकेट तोड़ना इतना भी आसान नहीं है।

मंथन का वक्त जरूर है कि आखिर जिस उड़ता पंजाब को लेकर राजनीतिक दल अपनी रोटियां सेंकने की तैयारी कर चुके हैं। जिस उड़ता पंजाब को बचाने की सभी बातें कह रहे हैं, उस उड़ता पंजाब को धरती पर लाने के लिए ठोस रोड मैप क्या होगा? आने वाले दिनों में जब तमाम राजनीतिक दल पंजाब से जुड़ा अपना मेनिफेस्टो जारी करेंगे क्या उसमें उस रोड मैप की चर्चा करेंगे? क्या उस मेनिफेस्टो में इस बात का जिक्र होगा कि अगर मीडिया ड्रग्स से जुड़े तारों को छेड़ेगी तो उसे रगड़ने की धमकी देने वाले अफसरों पर कार्रवाई होगी? या फिर पंजाब की जनता इस उड़ता पंजाब और रगड़ता पंजाब के बीच कॉमेडी शो की तरह ताली ठोकती रहेगी।

Monday, July 18, 2016

अफस्पा : मणिपुर के बहाने कश्मीर को संदेश


कश्मीर की घाटियों में खुलेआम भारत विरोधी गतिविधियों में लोग संलिप्त हो रहे हैं। एक आतंकी के जनाजे में हजारों लोग जमा हो जाते हैं। सरेआम आईएस और पाकिस्तान के झंडे लहराए जाते हैं। पुलिस और सेना पर पत्थर और ग्रेनेड फेंके जाते हैं। खुलेआम गोलियां और गालियां बरसाई जाती हैं। बावजूद इसके सुरक्षाबलों से अपेक्षा की जाती है कि वो शांति बनाए रखें। धैर्य से काम लें। हद है इस राजनीति की। वह तो ऊपरवाले की मेहरबानी है कि जम्मू-कश्मीर में सुरक्षाबलों को आर्म्ड फ ोर्स स्पेशल पावर एक्ट (अफस्पा) के रूप में बड़ा हथियार मिला हुआ है, नहीं तो न जाने अब तक कितने जवान और अधिकारी कानून के दायरे में फंसकर अपनी जिंदगी गंवा बैठते और न जाने कितने कोर्ट मार्शल हो गए होते। यह कहने में कतई गुरेज नहीं होना चाहिए कि इसी स्पेशल एक्ट के दम पर आज तक कश्मीर की घाटियों में थोड़ी बहुत शांति है। नहीं तो वहां के अलगाववादी ताकतों को जरा भी भय न होता और वे अपने मनमानी और मंसूबों में कामयाब होते। पर मणिपुर के मामले में सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय ने कश्मीर को बड़ा संदेश दे दिया है। कश्मीर में हाल की घटनाओं को देखते हुए अफस्पा पर एक बड़ी बहस शुरू हो गई है।
दरअसल, इसी शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने अफस्पा के संबंध में एक नई व्यवस्था दी है। अब तक यह प्रावधान था कि जिन क्षेत्रों में अफस्पा लागू है, वहां तैनात सुरक्षाबलों के खिलाफ अगर शिकायत मिलती है तो बिना केंद्र की अनुमति के उनके खिलाफ मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है। हर हाल में किसी भी सैनिक या अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई से पहले केंद्र की मंजूरी जरूरी थी। पर शुक्रवार को सर्वोच्च न्यायालय की डबल बेंच ने संविधान के अनुच्छेद-32 का उपयोग करते हुए नई व्यवस्था कायम की है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा है कि सुरक्षाकर्मी अत्यधिक अथवा प्रतिशोध की भावना से अपनी ताकत का इस्तेमाल नहीं कर सकते। इस तरह की शिकायतों पर सर्वोच्च न्यायालय सुनवाई करने में सक्षम है। इसके लिए केंद्र से किसी तरह की अनुमति की जरूरत किसी अदालत को नहीं है। यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद-32 में वर्णित मौलिक अधिकारों से संबंधित है। इसके तहत कोई भी भारतीय अपने बुनियादी हकों और सुरक्षा के लिए न्यायपालिका की शरण ले सकता है। यह उसका मौलिक अधिकार है।
कोर्ट का यह निर्णय मणिपुर में हुई कई मुठभेड़ों के संदर्भ में है। मणिपुर के लोगों ने करीब 1,528 मामलों की शिकायत की थी और कहा था कि यह सभी मुठभेड़ फर्जी थे। मामले की सुनवाई के दौरान वर्ष 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने उनकी जांच के लिए पूर्व जज संतोष हेगड़े की अध्यक्षता में एक समिति बनाई। समिति ने 62 मामलों में फर्जी मुठभेड़ की पुष्टि की। समिति की रिपोर्ट के बावजूद कोर्ट आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं कर पा रही थी, क्योंकि वहां अफस्पा लागू है। केंद्र की अनुमति के बिना उन मामलों के आरोपियों पर मुकदमा नहीं चल सकता। पर अब कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद-32 का हवाला देते हुए 13 अगस्त को सुनवाई का फैसला किया है। उम्मीद जताई जा रही है कि सुप्रीम कोर्ट कोई बड़ा निर्णय ले सकती है। अगर 13 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने अफस्पा के मौजूदा प्रावधानों के खिलाफ कोई बड़ा फैसला दिया तो आने वाले समय में कश्मीर के लोगों और वहां के संगठनों को भी एक बड़ा हथियार मिल जाएगा। साथ ही इस बात की प्रबल संभावनाएं बन जाएंगी कि कहीं यह स्पेशल एक्ट भविष्य में खत्म ही न हो जाए।
अफस्पा एक ऐसा मुद्दा है जिस पर कश्मीर में लंबे समय से विवाद होता रहा है। वर्ष 1958 में भारतीय संसद ने इस सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को पारित किया था। उस वक्त अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड और त्रिपुरा जैसे राज्य काफी अशांत थे। ऐसे में सेना को विशेषाधिकार दिए गए थे। इसी विशेषाधिकार के दम पर लंबे समय तक वहां शांति बनी रही। धीरे-धीरे जरूरतों के मुताबिक कई राज्यों से यह कानून उठा लिया गया। इसी बीच अस्सी के दशक में जम्मू-कश्मीर में आतंक ने अपने पांव पसार लिए। बड़ी ही शिद्दत के साथ वहां अफस्पा को लागू करने की जरूरत महसूस हुई। वर्ष 1990 में जम्मू-कश्मीर को भी अशांत क्षेत्र घोषित करते हुए पूरे राज्य में अफस्पा लागू कर दिया गया। सिर्फ राज्य के लेह-लद्दाख इलाके इस कानून के दायरे से बाहर रखे गए। इस कानून के तहत जम्मू-कश्मीर की सेना को किसी भी व्यक्ति को बिना कोई वारंट के तलाशी या गिरफ्तार करने का विशेषाधिकार है। किसी भी व्यक्ति की तलाशी केवल संदेह के आधार पर लेने का पूरा अधिकार प्राप्त है। यहां तक कि कानून तोड़ने वालों पर बिना किसी अनुमति के फायरिंग का भी अधिकार सुरक्षाबलों को प्राप्त है। अगर इस दौरान उस व्यक्ति की मौत भी हो जाती है तो उसकी जवाबदेही फायरिंग करने या आदेश देने वाले अधिकारी पर नहीं होगी। जम्मू-कश्मीर में सेना को यह अधिकार मिलते ही वहां फैल रहे आतंक के कारखानों पर जबर्दस्त तरीके से लगाम लगी। हालांकि, बीच-बीच में सेना के खिलाफ भी आवाज उठी। सेना पर कई गंभीर आरोप लगे। कश्मीर की आवाम पूरी तरह से दो हिस्सों में बंट गई। एक वो थे जिन्होंने सेना को सिर आंखों पर बिठाया, जबकि दूसरा तबका हमेशा सेना और उसकी कार्रवाई के खिलाफ रहा। 

बावजूद इसके सेना ने चुन-चुनकर वहां मौजूद आतंकियों और उनके पनाहगारों को खत्म किया। कई बार मानवाधिकार संगठनों ने सेना की कड़ी कार्रवाई के खिलाफ आवाज उठाई। पहली बार अंतरराष्टÑीय स्तर पर वर्ष 2009 में संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग के कमिश्नर नवीनतम पिल्लई ने इस कानून के खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने इसे औपनिवेशिक कानून की संज्ञा दी थी। पर कश्मीर में सेना पर हर समय मौजूद खतरे को देखते हुए यह कानून आज तक लागू है।
अब एक बार फिर से आतंकी बुरहान के बहाने घाटी का माहौल अशांत है। एक बार फिर से सेना की कार्रवाई के खिलाफ अलगाववादियों ने अपनी सोच को वहां की आवाम के भीतर डालने का प्रयास किया है। यह सोच फिलहाल क्या रंग लाएगी यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा, फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने अगर कड़ा निर्णय दे दिया तो यह बात तय हो जाएगी कि मणिपुर के बहाने कश्मीर के अलगाववादियों को एक नया हथियार जरूर मिल जाएगा। फिलहाल, केंद्र सरकार भी जरूर मंथन करे कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद क्या जरूरी कदम कश्मीर के लिए उठाए जाएंगे।