Friday, June 24, 2016

क्या आप पचा पाएंगे आईपीएल के डबल डोज को?


चैंपियंस ट्रॉफी रद होने बाद से ही कयास लगाए जाने लगे थे कि किसी नए टूर्नामेंट की घोषणा हो सकती है। पर यह सब इतनी जल्दी होगा किसी ने सोचा नहीं था। अब बीसीसीआई ने स्पष्ट कर दिया है कि जल्द ही मिनी आईपीएल करवाया जाएगा। फॉर्मेट वही होगा टी-20। मतलब यह कि हर साल क्रिकेट के चाहने वालों का आईपीएल के ग्लैमरस तड़के का डबल डोज मिलेगा।
धर्मशाला में बीसीसीआई के पिछले चार दिनों से चल रही बैठक के पहले ही स्पष्ट हो गया था कि इस बार क्रिकेट से जुड़े तमाम पहलुओं पर नई-नई बातें सामने आएंगी। नए और युवा अध्यक्ष अनुराग ठाकुर ने भी इशारों-इशारों में बता दिया था कि कुछ दिन इंतजार कर लिजिए। सब कुछ बता दूंगा। अब जाकर उन्होंने सबकुछ बता दिया है। सबसे बड़ी बात आईपीएल के मिनी वर्जन की है। बताया जा रहा है कि इस मिनी फॉर्मेट का आयोजन उन देशों में किया जाएगा जहां क्रिकेट का दूर-दूर से रिश्ता नहीं है। क्रिकेट को वैश्विक स्तर पर और अधिक प्रमोट करने के लिए इसका आयोजन यूरोपियन देशों के अलावा खाड़ी देशों में किया जा सकता है।
मिनी आईपीएल का आयोजन एक ऐसा फैसला है जो ऊपरी तौर पर बेहद उत्साहवर्द्धक है। पर संस्कृत का श्लोक है अति सर्वत्र वर्जयेत। आईपीएल का आयोजन जिस ग्लैमरस अंदाज में होता है उसे देखने के लिए हर साल क्रिकेट के चाहने वाले इंतजार करते हैं। आयोजन भी ऐसे वक्त में होता है लोग आसानी से इसका मजा उठा पाते हैं। आयोजनकर्ताओं को भी कमाई अच्छी खासी होती है और युवा क्रिकेटर भी मालामाल होते हैं। पर अकूत कमाई के लालच में आईपीएल के डबल डोज को क्रिकेट लवर्स कितना स्वीकार कर सकेंगे?

बताने की जरूरत नहीं कि क्रिकेट वर्ल्ड कप से जितनी कमाई होती है उतनी शायद किसी फॉर्मेट से नहीं होती। पर इसका आयोजन भी चार साल बाद ही होता है। फुटबॉल वर्ल्ड कप हो या ओलंपिक का आयोजन। सभी एक तयशुदा समय में ही किए जाते हैं। कारण खुद समझा जा सकता है। एक तय समय पर होने वाले आयोजन के लिए दर्शकों का भी क्रेज बना रहता है। इसीलिए क्वालिटी स्पोर्ट्स सामने आता है और दर्शक भी बोर नहीं होते हैं। अगर स्पोर्ट्स को सिर्फ कमाई की दृष्टि से देखना शुरू कर दिया जाए तो साल में कई बड़े-बड़े आयोजन होते ही रहेंगे। फिर एक दिन ऐसा आएगा कि कोई इसे नहीं देखेगा। क्यों बात वहीं आकर टिकेगी..अति सर्वत्र...
कमाई के लिए अगर इन सभी बड़े टूर्नामेंट को हर साल या साल में दो या तीन बार करवा दिया जाए तो इसका हश्र क्या होगा? न तो दर्शक क्वालिटी स्पोर्ट्स देख पाएंगे और न खिलाड़ी ही अपना सौ प्रतिशत मैदान में दे सकेंगे। ऐसे में बीसीसीआई को इस पर जरूर विचार करना चाहिए ।

 तमाम विडंबनाओं के बावजूद आईपीएल अब एक ब्रांड बन चुका है। जिस तरह इंगलैंड की काउंटी क्रिकेट से जुड़ना हर एक खिलाड़ी अपनी शान समझता है। ठीक उसी तरह अब आईपीएल भी अपना स्थान बना चुका है। हर विदेशी खिलाड़ी की तमन्ना आईपीएल के किसी टीम का हिस्सा बनने की होती है। ऐसे में आईपीएल के बढ़ते ब्रांड वैल्यू को मिनी आईपीएल के जरिए झटका लग सकता है। क्रिकेट का डबल डोज कहीं ज्यादा ही न हो जाए। अगर वैश्विक स्तर पर क्रिकेट को प्रमोट करना इतना ही जरूरी है तो आईपीएल के कई मैच उन देशों में भी कराए जा सकते हैं। वह भी पूरी तैयारी के साथ। ऐसे में प्रमोट करने के लिए क्या सिर्फ मिनी आईपीएल ही एक मात्र रास्ता बचा हुआ था क्या? डबल डोज या आपको तत्काल स्फूर्ति (कमाई) तो दे देगा, लेकिन धीरे-धीरे इतना सुस्त बना देगा कि आप उठ ही नहीं पाओगे।

Thursday, June 23, 2016

‘शोरगुल’ को महसूस भी करिएगा, क्योंकि


ये देख कर पतंगें भी हैरान हो गयीं
अब तो छतें भी हिंदू-मुसलमान हो गयीं
क्या शहर-ए-दिल में जश्न सा रहता था रात दिन
क्या बस्तियां थीं, कैसी बियाबान हो गयीं।।

लंबे समय बाद एक ऐसी फिल्म सिल्वर स्क्रीन पर नुमाया हो रही है, जिसमें आप और हम भी कहीं न कहीं खुद को शामिल पाएंगे। हम उस भीड़ का हिस्सा बना महसूस करेंगे जिसमें शोरगुल होते ही हमारे कान खड़े हो जाते हैं और हम पुलिस, जज, जल्लाद, वहशी सभी की भुमिका निभाने लग जाते हैं। हमें उस शोरगुल में बिल्कुल नजर नहीं आता है कि हम क्या हैं, हमें क्या करना है और क्या नहीं करना है। बस शोरगुल हुआ और हम उधर की ओर बह निकले।
मल्टी स्टारर फिल्म शोरगुल आज रिलीज हो रही थी। उत्तरप्रदेश सरकार ने इसे हरी झंडी भी दे रखी है। पर स्थानीय नेताओं के विरोध के कारण एक बार फिर से फिल्म के रिलीज होने पर संकट पैदा हो गया है। रिलीज डेट को आगे बढ़ा दिया गया है। कहा जा रहा है फिल्म के प्रदर्शन के बाद उन्माद बढ़ सकता है। हद है यार। कोई फिल्म कैसे उन्माद फैला सकती है। फिल्म को फिल्म की तरह देखने की जरूरत है। हां यह सही है कि यह हमारे समाज को ही रिफ्लेक्ट करती है,पर यह कहना कि किसी फिल्म से किसी राजनीतिक दल को नुकसान हो सकता है या किसी राजनीतिक दल को फायदा हो सकता है, यह गलत है।

वैसे तो भारत में दंगों का इतिहास बहुत पुराना और विभत्स रहा है। इन दंगों की पृष्ठभुमि पर कई फिल्में भी बनी हैं। पर शोरगुल पूरी तरह दंगों की साइकोलॉजी, दंगों के राजनीतिकरण, दंगों के साइड इफेक्ट्स पर बनी फिल्म है। फिल्म के क्रिएटिव डायरेक्टर शशि वर्मा हाल ही में चंडीगढ़ आए थे। उनसे जब बातचीत हुई तो पता चला कि फिल्म का नाम पहले जैनब रखा गया था, फिर जब टीम ने महसूस किया कि कहीं नाम से इस फिल्म का मूल कांसेप्ट ही खत्म न हो जाए, इसीलिए फिल्म का नाम शोरगुल रखा गया। शोरगुल भी इसलिए कि फिल्म सिर्फ देखने के लिए नहीं है, बल्कि महसूस करने के लिए है।
फिल्म को लेकर कई कंट्रोवर्सी भी सामने आई है। कहा जा रहा है इसमें जो पात्र हैं वह कहीं न कहीं उत्तरप्रदेश की वतर्मान राजनीति के कद्दावर चेहरे हैं। खबर यह भी आई थी कि सुरक्षा के मद्देनजर मुजफ्फरनगर में इस फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगा दी गई है। पर बावजूद इसके अगर सेंसर बोर्ड ने इसे जारी करने का सर्टिफिकेट दिया है तो हमें कंट्रोवर्सी को इग्नोर करके इस शोरगुल का हिस्सा बनना चाहिए।
वैसे भी कहा जाता है किताबें, कहानियां और फिल्म हमारे समाज की सच्चाई ही बयां करती हैं। फिर इस सच्चाई को महसूस करने में हमें दिक्कत क्या है। दंगे भारत की सच्चाई हैं। और इन दंगों के जरिए जिस तरह राजनीतिक फायदे उठाए जाते हैं उस सच्चाई से भी मुंह मोड़ा नहीं जा सकता है। फिलहाल फिल्म कैसी बनी है और क्या-क्या संदेश देती नजर आती है, क्या सच में यह उत्तरप्रदेश के वतर्मान राजनीतिक चेहरे की हकीकत को बयां कर रही है, यह तो फिल्म देखने के बाद ही पता चलेगा। फिलहाल शायर मुनव्वर राणा की चंद लाइनें जो उन्होंने दंगों की राजनीति को बेहद उम्दा तरीके से कागज पर उकेरा है, सिर्फ आपके लिए। मुनव्वर लिखते हैं.....
खुशहाली में सब होते हैं ऊंची जात
भूखे नंगे लोग हरिजन हो जाते हैं!
राम की बस्ती में जब दंगा होता है
हिंदु मुस्लिम सब रावण हो जाते हैं!!

Wednesday, June 22, 2016

छी सलमान! हद है भाई जान


डियर सलमान तुम्हारे प्रशंसक तुम्हें भाईजान ही बुलाते हैं। तुम अपना धर्म भी उसी भाई की तरह निभाते हो। तो ऐसी क्या मजबूरी हो गई कि तुम ने भरी महफिल में अपने देश की बहनों के लिए इतना सबकुछ कह दिया। क्या जरूरत पड़ गई की रेप जैसे सेंसेटिव बात को पहलवानों को उठाने में पड़ने वाली मेहनत से जोड़ दिया। रेप के बाद के हालातों को कितने भद्दे तरीके से तुमने खुद के लंगड़ा कर चलने जैसी बातों से को-रिलेट कर दिया। तुमने हद कर दी सलमान तुमसे यह उम्मीद नहीं थी।

यह उम्मीद इसीलिए नहीं थी कि तुमने चंद पीआर ऐजेंसी की स्क्रीपेटेड बातों को जानबूझ कर इस अंदाज में कहा कि ताकि तुम्हारी बातें भी उसी कंट्रोवर्सियल पब्लिीसिटी का अंग बन जाए, जिनसे इन दिनों पूरी फिल्म इंडस्ट्री ग्रसित है। सलमान जैसे स्टार भाईजान को भी इस तरह की गंदी पब्लिीसिटी का हिस्सा बनना पड़ सकता है, यह सोच कर भी हैरानी होती है। भाई का नाम ही काफी रहता है किसी फिल्म से जुड़ने में। ऐसे में फिल्म सुलतान में तो तुम पूरी तरह मौजूद हो। तुम्हारी फिल्मों को तो रिलीज के दो दिन पहले भी अनाउंस कर दिया जाए तब भी तुम्हारी फिल्म  सो-दो सौ करोड़ का तो बिजनेस कर ही लेगी। फिर भी तुमने बैड पब्लिीसिटी को क्यों चुन लिया? यह फिल्म समीक्षकों के लिए रिसर्च का सब्जेक्ट भी बन सकता है।

भाईजान कहीं तुम्हें यह तो नहीं लग रहा है कि उम्र के 50वें पड़ाव पर तुम्हें रोमांस करते कौन देखेगा या फिर कहीं तुम भी बॉक्स आॅफिस रिपोर्टफोबिया से पीड़ित तो नहीं हो गए हो। भाई तुम्हें इस बात की चिंता करने की बिल्कुल जरूरत नहीं है। तुम आज भी उम्र के 50वें पड़ाव में भी उतने ही हैंडसम और गुडलुकिंग हो, जितने मैंने प्यार किया और सनम बेवफा के वक्त थे। तुम पर अब भी लड़कियां उसी तरह फिदा हैं जितनी कबूतर उड़ाते वक्त थीं। बताने की जरूरत नहीं कि तुम अगर सार्वजनिक स्थल पर नजर आते हो तो कैसे लड़कियां पागल हो जाती हैं। तुम्हारी सिर्फ एक झलक पाने और तुम्हें छू भर लेने से उन्हें जो सुकून मिलता है वह शायद कहीं और नहीं मिलेगा।
इतना स्टारडम होने के बावजूद तुमने एक टुच्चे प्रमोशन के लिए अपनी चाहने वाली लड़कियों के लिए इतनी भद्दी बातें कर दीं। मैं पर्सनली मानता हूं कि तुम्हें भी अपनी बातों से जरूर दुख पहुंचा होगा कि तुमने क्या सब बोल दिया। पर इतने समझदार तो तुम हो ही कि स्क्रीप्टेड डायलॉक में भी सावधानी बरत सकते हो।
जब तुम अपने जरा से अपमान के लिए अरजीत सिंह जैसे सिंगर को सबक सिखा सकते हो, तो तुम यह क्यों नहीं सोच रहे हो कि महिलाएं अपने इतने बुरे अपमान के लिए तुम्हें क्या-क्या नहीं सिखा सकती हैं।

न-न तुम डरो मत। तुम्हें डरने की जरूरत नहीं है। तुमने जो कहा उसे तुम्हारी फैंस जल्द भी भूल जाएंगी और सुल्तान को उसी रूप में पसंद करेंगी। मैं तुम्हारा जबरा फैन हूं इसीलिए मुझे बहुत बुरा लगा। भाईजान तुम्हें इससे पहले कभी फिल्म प्रमोशन के लिए इतनी ओछी हरकत करते नहीं देखा। बीइंग ह्यूमन का टी-शर्ट पहनकर तुम दिल से अच्छा काम भी करते हो, इसमें कोई शक नहीं। पर तुमसे इतनी गुजारिश जरूर है कि कभी अपने स्टारडम को कम नहीं आंकना। वह हमेशा बरकरार है और रहेगा।

और हां भाईजान फिल्म प्रमोशन के लिए इस तरह की टुच्ची बातों से दूर जरूर रहना। तुम्हारे चाहने वालों का दिल बहुत बड़ा है, हो सके तो एक बार अपने चाहने वालों से जरूर माफी मांग लेना। क्योंकि रेप का दर्द उनसे जरूर पूछो जिन्होंने इसे झेला है। दस पहलवानों को उठाने का दर्द तो चंद रुपयों की मालिश से दूर हो जाता है, पर रेप का दर्द ताउम्र नहीं जाता है।
विथ लव
तुम्हारा जबरावाला फैन

Monday, June 20, 2016

जी हां, इसी दिन का कब से था इंतजार


भारतीय वायुसेना में तीन महिला फाइटर पायलट के शामिल होने के जश्न में पूरा देश डूबा है। अखबारों और टीवी चैनल्स पर इन मातृ शक्ति की खबरों ने पूरे देश को गौरवांवित होने का जो मौका दिया है वह हमेशा स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। पर बहुत कम लोग जानते होंगे भारतीय सेना के इतिहास में महिला अधिकारियों को अपने सशक्तिकरण और अपने हक के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा है। हमारी खुशियों में थोड़ा खलल इस बात से भी पड़ सकता है जब हम इस सच्चाई से रूबरू होंगे कि घोर इस्लामिक देश होने के बावजूद पाकिस्तान की सेना में महिलाएं वर्ष 2006 से ही फाइटर प्लेन उड़ा रही हैं। आज का यह दिन निश्चित तौर पर नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल का भी सबसे बड़ी उपलब्धि का दिन माना जा सकता है।
इतिहास इस बात का गवाह है कि जब नब्बे के दशक में पश्चिमी देशों की सेना में महिलाओं का वर्चस्व था और वहां की महिलाएं फाइटर प्लेन पर सवार थीं, तब भारत में महिला अधिकारियों को सेना में शामिल करने की कवायद शुरू हुई थी। यह शुरुआत भी शॉर्ट सर्विस कमिशन के तौर पर थी। यानि सिर्फ पांच साल के लिए उन्हें कमिशन मिलता था, बाद में इसे बढ़ाकर वह 14 साल करवा सकती थीं। 14 साल बाद महिलाओं को भारतीय सेना से अलविदा होना पड़ता था। इतना ही नहीं इन महिला अधिकारियों को सिर्फ नॉन कॉम्बेट रोल के लिए नियुक्त किया जाता था। बताते चलूं कि सेना में कॉम्बेट और नॉन कॉम्बेट दो तरह के काम होते हैं। कॉम्बेट रोल से मतलब युद्ध क्षेत्र में तैनाती से है, जबकि नॉन कॉम्बेट रोल युद्ध क्षेत्र से इतर तमाम काम होता है। यानि ये महिला अधिकारी युद्ध क्षेत्र में सीधे तौर पर शामिल नहीं हो सकती  थीं। भारतीय महिला सैन्य अधिकारियों की नियुक्ति प्रशासन, शिक्षा, सिग्नल्स, इंटेलीजेंस, इंजीनियरिंग, एटीसी आदि में ही होती थी। यहां तक की वायुसेना में शामिल महिला पायलट सिर्फ सामान्य एयरक्राफ्ट और हेलीकॉप्टर ही उड़ा सकती थीं, लड़ाकू विमान उड़ाने का उन्हें अधिकार नहीं था। जबकि पाकिस्तान जैसे इस्लामिक मुल्क में महिलाएं 2006 से ही फाइटर प्लेन उड़ा रही हैं।
भारतीय सेना में महिला अधिकारियों को परमानेंट कमिशन देने के अलावा कॉम्बेट रोल के लिए भी काफी लंबा विवाद चला है। पहले तो परमानेंट कमिशन देने के लिए महिला अधिकारियों ने लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी। वर्ष 2010 में मेरठ की महिला अधिकारी की अगुआई में वायुसेना में महिला अधिकारियों की परमानेंट कमिशन की लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची। लंबी बहस के बाद सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं को परमानेंट कमिशन देने का आदेश जारी किया। यह भारतीय सेना में महिला सशक्तिकरण की सबसे बड़ी जीत थी। इसी साल सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय नौ-सेना में भी महिला अधिकारियों को परमानेंट कमिशन देने की राह खोली। अब भी भारतीय थलेसना की महिला अधिकारियों को परमानेंट कमिशन के लिए इंतजार करना पड़ रहा है। जबकि थलसेना में भी परमानेंट कमिशन पर सहमति बन चुकी है। अभी अमल किया जाना बांकि है।
पहले महिला अधिकारियों को परमानेंट कमिशन की लड़ाई लड़नी पड़ी इसके बाद कॉम्बेट रोल के लिए भी संघर्ष का रास्ता अख्तियार करना पड़ा। युद्ध क्षेत्र को सिर्फ पुरुष ही लीड करते रहे हैं, इस सोच के कारण कभी भी भारतीय सेना में महिला अधिकारियों को कॉम्बेट रोल देने पर सहमति नहीं बन सकी। तर्क यहां तक दिया गया कि युद्ध बंदियों में अगर महिलाएं घिर गई तो उनके साथ बहुत बुरा हो सकता है। पर सलाम भारतीय महिलाओं के उस जज्बे को। इन वीरांगनाओं ने युद्ध क्षेत्र की तमाम कठिन परिस्थितियों को जानते और समझते हुए भी कॉम्बेट रोल के लिए अपनी लड़ाई जारी रखी।
साल 2011 में वह दिन भी इन महिला अधिकारियों ने देखा जब रक्षा मंत्रालय और तीनों सेनाओं ने महिलाओं को कॉम्बेट रोल के लिए साफ मना कर दिया। इससे पहले भी वर्ष 2006 में रक्षा मंत्रालय और तीनों सेनाओं की हाई लेवल कमेटी ने सेना में महिलाओं के कॉम्बेट रोल देने पर पूरी तरह असहमति जता दी दी थी। तीन साल के बाद जब 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार आई तो इन महिला अधिकारियों की हक की लड़ाई मुकाम की तरफ अग्रसर हुई। भारतीय प्रधानमंत्री ने पद संभालने के चंद महीनों बाद ही घोषणा कर दी कि 2015 के गणतंत्र दिवस में भारतीय वीरांगनाएं ही भारत की आन बान और शान की अगुवाई करेंगी। पूरे विश्व ने उस वक्त भारत की महिला शक्ति को सलाम किया जब राजपथ पर भारतीय महिलाओं ने भारत की सशस्त्र सेना का नेतृत्व किया। यह परेड इसलिए भी बेहद खास था, क्योंकि विश्व के सबसे ताकतवर देश अमेरिकी के राष्टÑपति बराक ओबामा मुख्य अतिथि के तौर पर मौजूद थे।

राजपथ से हुई इस शुरुआत ने भारतीय सेना में मौजूद महिला अधिकारियों को एक ऐसा संबल दिया जिसने नई इबारत लिख दी। पिछले साल ही वायुसेना दिवस पर वायुसेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल अरुप राहा ने भी दो कदम आगे बढ़ते हुए घोषणा कर दी थी कि भारतीय वायुसेना में शामिल महिला पायलट्स को फाइटर स्ट्रीम में शामिल किया जाएगा। भावना कंठ, मोहना सिंह और अवनि चतुर्वेदी ने भारतीय महिलाओं के लिए कुछ ऐसा कर दिखाया है जो अब इतिहास बन चुका है। वह इतिहास जिसे हमेशा गर्व के साथ याद किया जाएगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भले ही भारतीय रक्षा मंत्रालय ने सराहणीय कदम उठाया है, पर भारत सरकार को अब भी इस सच्चाई को स्वीकार करना होगा कि दूसरे देशों की अपेक्षा भारतीय सेना में महिला अधिकारियों की संख्या काफी कम है। 13 लाख की भारतीय थल सेना में महिलाओं की संख्या मात्र 1450 है। एयरफोर्स में 1300, जबकि नौ सेना में मात्र 400 महिला अधिकारी मौजूद हैं। ऐसे में सरकार के पास चुनौती इस बात की भी है कि कैसे सेना में महिलाओं को और अधिक सशक्त किया जाए। परमानेंट कमिशन नहीं मिलने के कारण भी भारतीय युवतियों का इस क्षेत्र से बहुत लगाव नहीं था, पर अब यह बंदिश खत्म होने के बाद उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारी सेना में महिलाओं की भुमिका और बढ़गी। फिलहाल भावना, मोहना और अवनि के दम पर यह कहने में कोई हिचक नहीं कि इन्हीं ‘अच्छे दिनों’ का भारतीय महिला सैन्य अधिकारी कब से इंतजार कर रही थीं।


Sunday, June 5, 2016

‘राम’ नाम की लूट है, लूट सके तो लूट


भगवान राम ने भले ही कभी सत्ता या जमीन के भोग का लालच नहीं किया। पर कलयुग में उनके नाम को अपने नाम के आगे जोड़कर धर्म की ठेकेदारी करने पर आमदा लोगों ने विध्वंसक स्थिति ला दी है। धर्म के नाम पर, आंदोलन के नाम पर, सत्याग्रह के नाम पर इन राम नामधारी लोगों ने बलवा, हत्या, लूट के अलावा कॉरपोरेट कल्चर तक में अपनी पैठ बना ली है। हद यह है कि सबकुछ देखते हुए, जानते हुए, समझते हुए भी अंधभक्तों की फौज इनके साथ जुटती है। सबसे अहम यह है कि सत्ता की सांठगांठ इन राम नामधारियों को इतनी ऊंची हैसियत तक पहुंचा देती है कि चाहकर भी कोई कुछ नहीं कर पाता है। समय आने पर ऐसे ही लोग अपनी अंधभक्तों की फौज की बदौलत भारतीय कानून व्यवस्था को चुनौती देते हुए गृहयुद्ध का शंखनाद कर देते हैं।
कुछ दिन पहले मथुरा में जो कुछ भी हुआ उसका ट्रेलर कई मौकों पर पहले भी देखा जा चुका है। ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं। पिछले साल ही हरियाणा में बाबा रामपाल का कहर पूरे देश ने देखा था। एक स्वयंभू संत ने किस तरह पूरी हरियाणा सरकार को पंगू बना दिया था। पुलिस और प्रशासन को अपने आगे नतमस्तक कर दिया था। अपने भक्तों के दम पर कोई बाबा इतना शक्तिशाली हो सकता है इसकी कोई कल्पना नहीं कर सकता था। जिस आश्रम में धार्मिक प्रवचनों के तीर चलते थे, उसी आश्रम से गोलियां बरस सकती हैं यह आश्चर्यजनक था। पूरी तरह ट्रेंड आर्मी की तरह अंधभक्तों की फौज तेजाब और गोला बारूद से लैस होकर हरियाणा पुलिस के खिलाफ मोरचा खोल देती है और हमारी व्यवस्था मुकदर्शक बनी देखती रहती है। जब इनके खिलाफ मोरचा खोला जाता है तो महिलाओं और बच्चों को ढाल की तरह प्रयोग में लाया जाता है। कुछ ऐसा ही नजारा मथुरा में देखने को मिला।
रामवृक्ष यादव नाम का एक शख्स कैसे अपने दम पर स्वयंभू सरकार बन जाता है और संवैधानिक सरकार चुपचाप तमाशा देखती रहती है, यह एक गंभीर मंथन का विषय है। किसी संत के आश्रम से निकाला हुआ व्यक्ति कैसे एक-दो साल के भीतर हजारों अंधभक्तों की फौज जमा कर लेता है। गोला, बारूद, असलहा एकत्र कर सरकार के खिलाफ लड़ाई की योजना बना लेता है। समय समय पर सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों को न केवल धमकाता है बल्कि उन्हें बंधक तक बना लेता है। और पूरी संवैधानिक व्यवस्था उसे ऐसा चुपचाप करने देती है। यह पराकाष्ठा है हद दर्जे की दब्बूपने की। क्या हम इतने कमजोर हैं, क्या हमारी प्रजातांत्रिक व्यवस्था इतनी कमजोर बन चुकी है कि हम रामपाल और रामवृक्ष जैसे कुत्सीत मानसिकता वाले लोगों के सामने घुटने टेक दें। इन्हें जब मर्जी आए हमारी व्यवस्था को चुनौती दें और हम सिर्फ इसलिए चुप रहें क्योंकि इनके साथ अंधभक्तों की फौज है। रामपाल और रामवृक्ष के अंधभक्त बिना किसी की इजाजत के हमारे जवानों पर लाठी डंडे बरसाएं, आॅटोमेटिक गन से गोलियां चलाएं और हमारे जवान सरकारी तंत्र की इजाजत का इंतजार करें। यह कैसी व्यवस्था है। जब गोलियों का जवाब गोली से तत्काल नहीं देने की बाध्यता है तो क्यों हमारे जवानों को झोंक दिया जाता है इन भट्टीयों में। क्या उन दो जांबाज पुलिस अधिकारियों की आत्मा हमारी व्यवस्था को कभी माफ कर सकती हैं जिन्हें चंद गुंडों ने बेहरमी से मौत के घाट उतार दिया।
जिस तरह रामवृक्ष यादव ने सरकार को चुनौती दे रखी थी यह अपने आप में एक ऐसा यक्ष प्रश्न है जिसका जवाब खोजने में लंबा वक्त गुजर जाएगा। जांच बैठ चुकी है, दर्जनों लोगों की जान जा चुकी है, कर्तव्यनिर्वहण में दो जांबाज शहीद हो चुके हैं, पर इस बात की पूरी गारंटी है कि असली दोषी कभी सामने नहीं आएंगे। बिना किसी राजनीतिक सपोर्ट के एक साधारण सा व्यक्ति इतना दबंग कैसे बन सकता है इसका जवाब शायद कभी ही सामने आए। पर इतना जरूर है कि उस एक व्यक्ति ने पूरे भारतवर्ष के सम्मान पर एक ऐसा करारा तमाचा मारा है जिसकी गूंज लंबे समय तक सुनाई देगी। इस गूंज में हमें सुनाई देगा आसाराम जैसे लोगों की भ्रष्ट लीला। इस गूंज में हमें सुनाई देगा बाबा रामपाल जैसे स्वयंभू संतों की हिंसक लीला। इस गूंज हमें सुनाई देगा बाबा राम-रहीम का स्टारडम। इस गूंज में हमें सुनाई देगा बाबा रामदेव का योग के साथ कॉरपोरेट ज्ञान। और इसी गूंज के बीच हमें देखने की कोशिश करनी होगी आने वाले राम नामधारी स्वयंभू अवतारों की नई पीढ़ी की परछाइयों को।

मंथन का वक्त है क्या हम ऐसे ही अंधभक्ति में पागलपन की हद तक पहुंच जाएं, या फिर देश के विकास के लिए अपनी ऊर्जा लगाएं। जिस ऊर्जा के साथ हमें स्वयंभू अवतारों के पीछे भागते हैं क्या उसी ऊर्जा के साथ हम देश के विकास के लिए भाग सकते हैं। या फिर हम  हम राम नाम की लूट में शामिल होकर आश्रम, मंदिर के नाम पर जमीनों पर अवैध कब्जा करवाने में जूट जाएं। अब भी वक्त है हमें पढ़ लिखकर भी अपनढ़ और गंवार बनने से बचना ही होगा, नहीं तो ऐसे ही लोगों के सामने हम खुद को बेबस पाएंगे और आसाराम और रामपाल जैसा संत हमें लूटता जाएगा और रामवृक्ष जैसा सम्मोही हमें सम्मोहन के मोहपाश में बांधकर नक्सली बना देगा।