Tuesday, February 23, 2016

हम शर्मिंदा हैं भारतीय सेना के जांबाजों


राजनीति कुछ भी करा सकती है। जान की बाजी लगाकर सरहदों की सुरक्षा कर रहे भारतीय सेना के जवान अपने देश के अंदर ही अपनों को ही नहीं बचा सकी। उनके सामने ही हरियाणा में आरक्षण की आड़ में हिंसा होती रही। महिलाओं और लड़कियों कीइज्जत तार-तार होती रही। घरों और दुकानों को चुन-चुन कर फूंका गया। कैबिनेट मंत्री का घर स्वाहा हो गया। पर भारतीय जवान चुपचाप इंतजार करते रहे। हरियाणा के ही जिंद का ही जांबाज कैप्टन पवन कश्मीर के पंपोर में बाहरी आतंकियों से लोहा लेते शहीद हो गया। पर भारतीय फौज घर के अंदर के ‘आतंकियों’ का आतंक चुपचाप सहती रही।
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले ही भारतीय फौज की गौरवगाथा को बड़े ही आन बान और शान को अपने सीने से लगाए रखते हैं। पर हरियाणा में पिछले कुछ दिनों में जो कुछ भी उसने भारतीय फौज की गौरवशाली परंपरा को शर्मशार कर दिया। एक तरफ जहां घर के आतंकी कर्फ्यू के दौरान सामने से गोलियां और पत्थर चला रहे थे हमारे जांबाज जवानों को हाथों में सफेद बैनर पर इंडियन आर्मी लिखकर शांति मार्च निकालने का आदेश था। हद है इस थोथली राजनीति पर। थू है इस वोट बैंक पर।
अपने होशो हवाश में आज तक मैंने कई बार जातीय हिंसा, दंगा, कर्फ्यू देखा। पर ऐसे दृश्य की कभी कल्पना नहीं की थी। जब भी घर के भीतर संकट आया तो आर्मी को भेजा गया। आर्मी पहुंचने का सीधा मतलब था सबकुछ अब सामान्य हो जाएगा। यह पहली बार था जब वोट की राजनीति ने आर्मी के जवानों को ही संकट में डाल दिया। सामने से गालियां और गोलियों की बरसात के बीच हमारे जवान कुछ नहीं कर सके। क्योंकि हरियाणा में वोट की रोटी सेंकी जा रही थी।

घर के भीतर यानि किसी राज्य के अंदरुनी संकट में अगर आर्मी या पारा मिलिट्री फोर्स को तैनात किया जाता है तो आर्मी की पूरी यूनिट उस क्षेत्र के ड्यूटी मजिस्ट्रेट के अंडर हो जाती है। ड्यूटी मजिस्ट्रेट के आदेश पर ही आर्मी कोई कदम उठाती है। ड्यूटी मजिस्ट्रेट का सीधा संबंध सरकार से होता है। सरकार जो आदेश ड्यूटी मजिस्ट्रेट को देगी उसी के अनुसार वह काम करेगा। हरियाणा में कर्फ्यू तो लगा दिया गया, आर्मी को शांति बहाली के लिए लगा तो दिया गया, लेकिन कुछ करने का आदेश ही नहीं दिया गया। मतलब हाथ में बंदूक थमा दी गई और ट्रीगर सरकार ने अपने पास रख लिया।
परिणाम सामने है। घर के आतंकी अराजक हो गए। उन्हें पुलिस का भय तो पहले से ही नहीं था। आर्मी के जवानों की खामोशी ने भी इन अराजक तत्वों को खुली छूट दे दी। दुकानों को पहले लूटा गया फिर उसे जलाया गया। सरकारी आंकड़े तो अभी सामने नहीं आए हैं, लेकिन मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार अकेले रोहतक में ही करीब पांच सौ दुकानों को पूरी तरह जला दिया गया। घर के आतंकियों ने ट्रैक्टर और ट्रॉली में दुकानों से सामानों की लूट की। सब कुछ खुले आम, पुलिस और सेना के सामने।
हम शर्मिंदा हैं देश के जवानों तुम्हें ऐसे दिन देखने को मिले। आर्मी के मुखिया जनरल दलबीर सिंह सुहाग भी हरियाणा से ही हैं। वह भी उस क्षेत्र से जहां सबसे ज्यादा हिंसा हुई। पर वह भी विवश थे। भारत के रक्षा राज्यमंत्री राव इंद्रजीत सिंह भी हरियाणा से हैं, लेकिन वह भी हरियाणा को जलता हुआ देख रहे थे। भारतीय प्रधानमंत्री भी यह सबकुछ जरूर देख रहे होंगे, पर खामोश थे। यह हरियाणा में वोट की राजनीति की विवशता की पराकाष्ठा नहीं तो क्या है। क्या यही दिन देखने के लिए हरियाणावासियों ने पूर्ण बहुमत से मोदी के हाथों में हरियाणा की बागडोर सौंपी थी। विधानसभा चुनाव के दौरान हरियाणा को अपना दूसरा घर बताने वाले मोदी अपने दूसरे घर को खामोशी से जलता हुआ देख रहे थे।
हरियाणा की जातीय हिंसा ने हरियाणा वासियों को सबसे अधिक तो शार्मिंदा तो किया ही है, पर सबसे गहरे घाव भारतीय जवानों के दिलों पर दिया है। जिंदगी भर यह टीस उनका पीछा नहीं छोड़ेगी कि सरहदों पर बेखौफ पहरेदारी करने वाले ये वीर घर के आतंकियों के सामने कैसे विवश कर दिए गए।

कुत्तों को घर के अंदर बेहद आत्मीयता से पाला जाता है। लेकिन जब वह हिंसक हो जाए और अपनों को ही काटने के लिए दौड़े तो उस वक्त उन्हें मारने के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं बच जाता है। उस कुत्ते को यह दुहाई नहीं दी जा सकती है कि अरे तुम तो अपने रोटी खिलाने वाले का ही नुकसान कर रहे हो। तुम तो अपनों को ही काट रहे हो। शर्म करो हरियाणा की सरकार। क्योंकि तुमने कुछ ऐसा ही किया है। घर के लोगों को काटने दौड़े कुत्तों को खुली छूट दे दी कि और काटो।
पता नहीं कितने लोग अपने देश के जवानों से क्षमा मांगेंगे कि हम शर्मिंदा हैं तुम्हें ऐसा विवश देखकर। पर मैं इन जवानों को कोटी कोटी नमन करते हुए क्षमा याचना करता हूं कि तुम्हें ऐसे दिन भी देखने पड़ें। हमें माफ कर देना भारत मां के वीर सपूतों।

Sunday, February 21, 2016

हरियाणा जल रहा, ' नीरो' बंसी बजा रहा

हम बेबस हैं हरियाणा जल रहा है 

जब रोम जल रहा था तो नीरो बंसी बजा रहा था। हरियाणा में शायद ऐसा ही हुआ और हो रहा है। पूरा हरियाणा जल रहा है और सरकार सिर्फ आश्वासन दे रही है। अपील कर रही है। ऐसा तब है तब सबकुछ पहले से तय था। आए दिन नेताओं की बयानबाजी से इस आग को हवा मिल रही थी। आग सुलग रही थी। फिर ऐसा क्या हुआ कि अचानक इस आग ने इतना भयावह रूप ले लिया कि पूरा प्रदेश जल उठा। हिंसक घटनाएं शुरू हो गर्इं। सरकारी इमारतों और वाहनों को जलाया जाने लगा। पूरे हरियाणा की रफ्तार पर ब्रेक लग गई।

क्या हरियाणा में जो कुछ भी हुआ वह पूर्व नियोजित नहीं था? सरकार तो ऐसा ही मानकर चल रही है। जबकि सच्चाई यह है कि पिछले कई महीनों से जाट आंदोलन के लिए युवाओं की भर्ती की जा रही थी। ‘जाट सेना’ को लाठी, डंडे, तलवार व अन्य हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया जा रहा था, जिसके प्रति मीडिया ने स्पष्ट चेतावनी भी जारी की थी। दूसरी ओर, आरक्षण के समर्थक जाट नेताओं और आरक्षण का विरोध कर रहे नेताओं के बीच जुबानी जंग भी अपने चरम पर थी। एक-दूसरे की लाश गिराने की धमकी दी जा रही थी। एक-दूसरे को घर में घुसकर मार देने की धमकी का सिलसिला चल रहा था। लेकिन, सरकार की तरफ से जाट आंदोलन की तैयारी और संबंधित जुबानी जंग को रोकने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए। अगर समय रहते ऐसा कर लिया जाता तो शायद यह विषम स्थिति पैदा नहीं होती।

24 घंटे के भीतर-भीतर हरियाणा में स्थिति इतनी बिगड़ गई कि सेना को मैदान में उतरना पड़ गया। हरियाणा में इस तरह के आंदोलन की परिपाटी काफी पुरानी है। जब-जब इस तरह के आंदोलन की सुगबुगाहट हुई सरकार पहले से तैयार रहती है। पर इस बार ऐसा नहीं हुआ। कहने को भारी भरकम खुफिया विभाग के अधिकारियों की फौज है। तो क्या मान लिया जाए कि इस बार भी सरकार का खुफिया तंत्र नाकारा साबित हुआ। या अगर खुफिया तंत्र ने अपनी रिपोर्ट पहले दे दी थी कि यह आंदोलन हिंसक हो सकता है तो क्या सच में सरकार आग फैलने का इंतजार कर रही थी?

हरियाणा ने कुछ ऐसे ही हालात रामपाल प्रकरण में देखे थे। उस वक्त भी चंद लोगों ने कैसे हरियाणा की पुलिस और प्रशासन को विवश कर दिया था, पूरे देश ने टीवी पर लाइव देखा था। चुपचाप एक आश्रम के अंदर गोला-बारूद का भंडार इकट्ठा हो गया और सरकार का खुफिया विभाग कुछ पता नहीं कर सका। हालात उस वक्त हास्यास्पद हो गए थे जब पूरे हरियाणा की पुलिस फोर्स इन गुंडों के आगे बेबस और लाचार हो गई थी। सरकार सिर्फ आश्वासन देती रही। उस वक्त महिलाओं और बच्चों को ढाल बनाने की बात कहकर सरकार ने अपना बचाव किया। पर इस बार के जाट आंदोलन के लिए सरकार के पास न तो कोई तर्क बचा है और न हरियाणा की आम जनता को इन तर्कों से कोई सरोकार है। हरियाणा की जनता सिर्फ हिसाब मांगेगी। हिसाब उस नुकसान का जो दंगाइयों ने आरक्षण की आग में स्वाहा कर दिया। हिसाब उस मानसिक स्थिति और दहशत का जो लंबे समय तक इनके दिलो-दिमाग में छाई रहेगी। हिसाब उस विश्वास का, जिसके कारण हरियाणा में बीजेपी की सरकार बनी।

हरियाणा सरकार ने गुजरात के पाटीदार आंदोलन से प्रेरणा लेते हुए अफवाहों से बचने के लिए हरियाणा के करीब आठ से नौ जिलों की इंटरनेट और मोबाइल सेवा बंद कर दी। पर इस सेवा के बंद होने से कुछ ऐसी सच्चाइयों पर भी परदा पड़ गया है जो शायद तत्काल सरकार या आम जनता तक पहुंच सकती थी। आरक्षण की आग कब जातिगत दंगे में तब्दील हो जाएगी, इसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। इंटरनेट सेवा बंद कर देने के बावजूद जातिगत दंगों ने भयानक रूप ले लिया। इसलिए यह अफवाहों का तर्क भी बेमानी हो जाता है। रोहतक, झज्जर, भिवानी, सोनीपत सहित कई जगहों से छन-छन कर सूचनाएं मिलीं कि यहां आरक्षण की मांग तो पीछे हट गई, लोगों ने एक-दूसरे पर जाति के नाम पर हमले शुरू कर दिए। चुन-चुन कर घरों और दुकानों में आग लगाई गई। लोगों से उनकी जाति पूछकर मारपीट की गई।

हरियाणा में यह कैसा खेल चल रहा है। खट्टर सरकार को गंभीर चिंतन करने की जरूरत है। मुख्यमंत्री के तौर पर मनोहर लाल खट्टर भले ही एक ईमानदार छवि के राजनेता के रूप में सामने आ रहे हैं। पर अपने मंत्रिमंडल और पार्टी नेताओं की जुबान पर लगाम लगाने की कोशिश हर बार उन्हें एक नए संकट में डाल देती है। न तो वह पार्टी नेताओं की जुबान पर लगाम लगाने के लिए ठोस और कड़े फैसले ले पा रहे हैं और न इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए।

राज्य की सड़कों पर सेना को उतारने को मामूली तौर पर नहीं लिया जा सकता है। हरियाणा में जाटों के प्रतिशत पर बहस करने की बजाय सरकार को ठोस कदम उठाने होंगे। जब हरियाणा की जनता ने पूर्ण बहुमत से मंत्रिमंडल की बागडोर सौंपी है तो ठोस फैसले लेने में सरकार क्यों पीछे हो रही है? मंत्रिमंडल में जातिगत गणना से ऊपर उठकर खट्टर सरकार को ऐसे हालातों पर काबू करने की जरूरत है।

प्रदेश में सौ फीसदी लोगों को संतुष्ट करके सरकार नहीं चलाई जा सकती है। मैनेजमेंट का सबसे बड़ा फंडा है आपका पतन उसी दिन से शुरू हो जाता है जिस दिन आपके मन में   सौ फीसदी लोगों को संतुष्ट करने का विचार आ जाता है। आंदोलन तो चलते ही रहेंगे। पर इन आंदोलनों का खामियाजा अगर आम जनता को उठाना पड़ेगा तो यकीन मानिए आगे की राह आसान नहीं होगी। हरियाणा की मनोहर सरकार के लिए मंथन का वक्त है। उसे तुष्टिकरण की राजनीति का त्याग करना होगा और सख्त फैसले लेने होंगे। अब निर्णय सरकार को करना है कि या तो वह ठोस और कड़े फैसले लेकर जनता के मन में अपनी छवि सुधारे या फिर नीरो की तरह चुपचाप बैठकर बंसी बजाती रहे।

Saturday, February 20, 2016

टीवी पत्रकारिता : देखना, दिखाना और यूं तेरा मुस्कुराना


टीवी पत्रकारिता में 19 फरवरी 2016 का दिन सच में एक ऐतिहासिक दिन रहा। एनडीटीवी ने अपने प्राइम टाइम शो में टीवी स्क्रीन को ब्लैक करके जो कुछ किया वह प्रयोगात्मक तौर पर बेहतर कहा जा सकता है। एक आईना दिखाने का काम किया है रविश कुमार ने अपने हमपेशा एंकर्स और टीवी पत्रकारों को। क्योंकि जो दिखता है उसे आम लोग सच मान लेते हैं।
पर पूरी पत्रकारिता जगत को कटघरे में रखने की रविश की हमेशा की तरह पुरानी दलील ने फिर से निराश कर दिया है। अगर उन्हें टीवी पत्रकारिता से इतनी ही घिन्न है तो छोड़ क्यों नहीं देते यह पेशा। उनके करीबन हर चौथे पांचवें प्रोग्राम में उनका कहना होता है मैं तो टीवी ही नहीं देखता। यह उनका बड़प्पन हो सकता है कि वह टीवी नहीं देखते, फिर यह राय कैसे बना लेते हैं कि सभी टीवी पत्रकार चोर, उच्चके, फ्रॉड आदि आदि हो गए हैं।

उनका टीवी का ब्लैक डे एक ऐसे इश्यू पर केंद्रित था जिसने पूरे भारत को आंदोलित कर रखा है। इसमें दो राय नहीं कि टीवी चैनलों ने अपनी महिमा गाथा के चक्कर में एक इश्यू को इतना हाइप दे दिया कि यह मामला एक विश्व विद्यालय की कैंपस के निकलकर हर एक चौक चौराहे पर पहुंच गया। पर इसमें दूसरे तमाम एंकर्स, टीवी पत्रकारों, संपादकों को एक साथ बुद्धु बॉक्स की तरह  बुद्धु सिद्ध कर देना कहां तक न्यायोचित है। कहने को रविश ने खुद को भी इस भेड़चाल का हिस्सा कहा, पर यह कहना खुद को बचाने और हीरो सिद्ध करने का सबसे बेहतर नजरिया है।

बात आकर टिकी है कि कौन चैनल कन्हैया मामले में झूठ दिखा रहा है और कौन सच। ध्यान रहे मैं जेएनयू नहीं सिर्फ कन्हैया की बात कह रहा हूं। रविश ने अपने कार्यक्रम में ‘बिना टीवी देखे’  ही फैसला दे दिया कि दो चैनल ही सच दिखा रहे हैं। एवीपी और इंडिया टूडे। जबकि बिना नाम लिए जी न्यूज, इंडिया न्यूज और टाइम्स नाऊ को कटघरे में खड़ा कर दिया कि इन चैनलों ने पूरे मामले का गलत वीडियो दिखाया। हालांकि अभी किसी पुलिस या जांच अधिकारी ने न तो यह पुष्टि की है कि किस चैनल के पास सही वीडियो है किसके पास मॉर्फिंग वाला वीडियो है। ऐसे में अपनी बात को (कन्हैया को दोषमुक्त) करार देने के पीछे कौन सी मंशा काम कर रही है यह समझ से परे है। टीवी की अंधेरी दुनिया से उमर खालिद नाम के युवक का पक्षधर बनना भी कौन सी पत्रकारिता है यह भी समझ से परे है। सिर्फ इतना भर कह देना कि 'हालांकि उमर को भागना नहीं चाहिए' काफी नहीं होता है।

न तो आप न्यायाधीश हैं और न ही हम। न जनता कोई फैसला लेती है न टीवी के एंकर्स। ऐसे में सवाल उठता है कि हम और आप क्या कर सकते हैं। हम और आप टीवी पर फुटेज देखकर चाहे वह सही है गलत सिर्फ धारणा बना सकते हैं। और उसी धारणा के अनुसार प्रतिक्रया कर सकते हैं। पूरे देश में यही हो रहा है। टीवी फुटेज देखकर लोगों ने धारणा बनाई कि सच में जेएनयू में जो कुछ हुआ है वह देशद्रोह की श्रेणी में आता है। और इसके खिलाफ खड़ा होना चाहिए। पूरे देश में हो रहा प्रदर्शन इसका जीता जागता उदाहरण है। अगर उसी दिन से दूसरे वीडियो भी दूसरे अन्य चैनल्स पर चल गए होते तो शायद इस तरह की धारणा नहीं बनी होती।
सवाल यह उठता है कि जब आप सत्यता के पूजारी हैं तो उसी दिन उन वीडियो को क्यों नहीं टीवी पर प्रसारित करवाया गया जिसमें कन्हैया कुमार भूखमरी से आजादी और पूंजीवाद से आजादी के नारे लगता दिख रहा था। क्यों नहीं एबीपी चैनल ने उस वीडियो फूटेज को उसी दिन जारी किया, जबकि चैनल के एंकर्स पूरे तीन दिन बाद चीख-चीख कर बोल रहे हैं कि सभी चैनल का फूटेज गलत है, सिर्फ उनका फूटेज सच्चा है, क्योंकि हमारी रिपोर्टर और कैमरापर्सन वहीं मौजूद थे। टीवी की दुनिया में हर एक पल कीमती होता है। ऐसे में ऐसी क्या मजबूरी थी कि इस ‘सच्चे फूटेज’ को इतने घंटे तक रोक कर रखा गया।
रविश ने भले ही सच्चे मन से एक खुली बहस को जन्म दिया है कि टीवी पत्रकारिता क्या सच में काठ की उल्लु हो गई है? पर यह इतना आसान भी नहीं है कि इस बहस को इसके अंजाम तक पहुंचाया जाए। टीवी पत्रकारिता आज अपने शैशव काल से उठकर जवानी की तरफ कदम बढ़ा रही है। ब्लैक स्क्रीन के जरिए रविश ने ही स्वीकार किया है कि हमारे बीच के ही कई बड़े पत्रकारों ने नाग नागीन और मुर्दे और कफन की रिपोर्टिंग से टीआरपी बटोरी। आज के कई बड़े पत्रकार श्मशान घाट से ही रिपोर्टिंग करने लगे थे।
वह बाल्यावस्था थी। बाल्यावस्था में हम सभी ऊटपटांग हरकतें ही करते हैं। कभी कुत्ते की पीठ पर बैठकर शेर पर सवार होने का गुमान पाल लेते हैं। कभी पापा के कंधे पर बैठकर लकड़ी की काठी और काठी का घोड़ा गाकर खुश हो लेते हैं। फिर दौर आता है युवावस्था का। जिसमें खून में उबाल होता है। हर एक को देख लेने की मर्दाना फिलिंग आती है। यही हाल इन दिनों टीवी पत्रकारिता का है। बाल्यावस्था से निकलकर युवावस्था की ओर कदम बढ़ा चुकी टीवी पत्रकारिता में एंकर्स ने कुछ ऐसा ही रूप अख्तियार कर लिया है। अपनी बातों को मनवाने के लिए वे जोर-जोर से चिल्ला रहे हैं। तरह-तरह की फुटेज दिखाकर वंदे मातरम के नारे लगवा रहे हैं। या फिर टीवी को ब्लैक स्क्रीन कर अपनी बातों को रख रहे   हैं।

मैं तो रविश कुमार की बात से सौ प्रतिशत सहमत हूं कि हमें सही में टीवी न्यूज चैनल देखना बंद कर देना चाहिए। आधी समस्या वहीं खत्म हो जाएगी। न तो देश भक्ति जागेगी, न तो हम एंकर्स के चिल्लमपो में अपनी राय बनाया करेंगे। न तो हमारा खून खौलेगा, न ही आपका खून खौलेगा। न तो हम समाचार की जगह भाषण सुनेंगे और न ही किसी टीवी एंकर को पत्रकारिता का भगवान घोषित करेंगे। न ही हम मुस्कुराते हुए किसी एंकर को टीवी के ब्लैक डे के बाद उजाले की तरफ जाते हुए देखेंगे और न ही उस उजाले में उस एंकर का मुस्कुराता हुआ चेहरा देखेंगे। और गुनगगुनाएंगे,,, यूं तेरा मुस्कुराना......

Tuesday, February 16, 2016

आप मोदी विरोधी बन सकते हैं, राष्ट्रविरोधी नहीं


एक राष्टÑभक्त बनना और राष्टÑभक्ति को जीना किसे कहते हैं, यह भारतीय सैन्य परंपरा से सीखी जा सकती है। शायद यही कारण है कि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय जैसे संस्थान में देश को बांटने वाली नारेबाजी ने सैनिकों और सैन्य अधिकारियों को विचलित कर दिया है। कुछ अधिकारियों ने अपनी डिग्री तक लौटाने की पेशकश कर दी है, क्योंकि यह डिग्री उन्हें जेएनयू से ही प्राप्त हुई है। देहरादून स्थित इंडियन मिलिट्री एकेडमी के आर्मी कैडेट कॉलेज और खड़गवासला स्थित नेशनल डिफेंस एकेडमी (एनडीए) से ग्रेजुएट होने वालों को इसी जेनएयू की डिग्री प्राप्त होती है। डिग्री पाने वाले सैन्य अफसरों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि जिस यूनिवर्सिटी की वे डिग्री ले रहे हैं, वहां आतंकियों को पैदा करने की कसमें खाई जा सकती हैं। यह कैसी शिक्षा का गढ़ बन रहे हैं हमारे शैक्षणिक संस्थान, मंथन का वक्त है।
जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था ने आपको फ्रीडम आॅफ स्पीच और एक्सप्रेशन की आजादी दे रखी है, उसी लोकतंत्र ने देशद्रोहियों को फांसी देने की व्यवस्था भी दे रखी है। आप बोलने की आजादी के नाम पर भारत मां को गाली नहीं दे सकते हैं। इसके टुकड़े-टुकडेÞ करने की आजादी आपको नहीं मिली है। बोलिए, खूब बोलिए, पर इतनी तो समझ होनी ही चाहिए कि आप क्या बोल रहे हैं? किसके लिए बोल रहे हैं? जिस भारत मां के कोख ने आपको पाला है। जिस भारत मां की छांव में आप खुद को स्वतंत्र महसूस करते हैं, उसी के प्रति आपके दिलों में इतनी नफरत को कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है। क्या आप यह चाहते हैं भारत को सरेआम गाली दी जाए और पूरा देश चुपचाप होकर इसे देखता रहे?
आप एक विचारधारा के समर्थक हो सकते हैं। किसी व्यक्ति खास के लिए आप कुछ भी करने को तैयार हो सकते हैं। आप किसी राजनीतिक पार्टी के पक्षधर हो सकते हैं। पर जिस भारत मां की कोख से आपने जन्म लिया है, उसकी छाती चीरने की इजाजत आपको किसने दे दी। भारतीय जनता पार्टी या नरेंद्र मोदी से आपके विचार मेल नहीं खाते हैं। नरेंद्र मोदी की बातें आपको पसंद नहीं आती हैं। उनका एटीट्यूट आपको पसंद नहीं आता है। बीजेपी की नीतियों को भी आप कूड़े के ढेर में फेंक सकते हैं। इन नीतियों के खिलाफ खुलकर बोल सकते हैं, धरना-प्रदर्शन कर सकते हैं। पर इसका सर्टिफिकेट आपको किसने दे दिया है कि आप फ्रीडम आॅफ स्पीच के नाम पर खुलेआम भारत विरोधी नारेबाजी कर सकें। मोदी विरोधी बनते-बनते आप कब राष्टÑविरोधी बनते जा रहे हैं इसका अंदाजा भी शायद नहीं होगा।
कॉलेज और यूनिवर्सिटी में विचारों की लड़ाई कोई नई नहीं है। पर हाल के दिनों में जिस तरह बीजेपी के नाम पर राष्टÑविरोध की परिपाटी चल पड़ी है, उसे किसी भी हाल में भारत के लोग बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं। पिछले दिनों हैदराबाद यूनिवर्सिटी का छात्र इसी तरह की राष्टÑविरोधी गतिविधियों के कारण यूनिवर्सिटी कैंपस से डी-बार किया गया था। एक अच्छी और उच्च शिक्षा प्राप्त करने गए रोहित को जब अपना भविष्य अंधकारमय नजर आने लगा तो उसने खालीपन का जिक्र करते हुए मौत को गले लगा लिया। भविष्य में देशद्रोह के आरोपी जेनएयू का कोई छात्र ऐसा कर ले तो हमें आश्चर्यचकित होने की जरूरत नहीं, क्योंकि यह घटना यूं ही शांत होने वाली नहीं है। अभी बहुत कुछ देखना बाकी है।
जेएनयू में हुई शर्मनाक घटना को कोई भी सच्चा भारतीय दिल से सहन नहीं कर सकता है, पर हद यह है कि विचारों की लड़ाई लड़ने वाले अपने कुतर्कों से इसे भी जायज ठहराने पर तुले हैं। इस मामले का भी राजनीतिकरण करते हुए कश्मीर में बीजेपी और पीडीपी के गठबंधन को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश जारी है। विचारों के पंडित इस बात को स्वीकारने में शर्म महसूस कर रहे हैं कि जेएनयू में जो कुछ हुआ वह गलत हुआ, पर अफजल गुरु के नाम पर राजनीतिक रोटी सेंकने से गुरेज नहीं कर रहे हैं। हद यह है कि देश के सबसे प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों में से एक जेएनयू को विचारों की लड़ाई से ऊपर उठकर राजनीति के अखाड़े में तब्दील करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी जा रही है।
हर एक मामले को सरकार से या सीधे शब्दों में कहूं तो नरेंद्र मोदी या पीएमओ से जोड़कर देखना आज सबसे बड़ा चार्म बन चुका है। हैदराबाद यूनिवर्सिटी में कुछ हुआ तो पीएमओ के इशारे पर हुआ, जेएनयू में अगर पुलिस कार्रवाई हुई तो मोदी के इशारे पर हुई। कल अगर किसी प्राथमिक स्कूल में कोई शिक्षक देश विरोधी गतिविधियों में पकड़ा जाता है तो यह कार्रवाई भी शायद मोदी के इशारे पर ही होगी। विचारों की कुंठा लोगों पर इस कदर हावी हो चुकी है कि आपने भारत का गुणगान किया नहीं कि आप पर मोदीमय होने का ठप्पा तुरंत लग जाएगा। आपने देशप्रेम की बात की नहीं कि आपको ‘भक्त’ घोषित कर दिया जाएगा।

राष्टÑप्रेम को व्यक्तिप्रेम के चश्मे से देखना हमें बंद करना होगा। मोदी के आप विरोधी बन सकते हैं पर मोदी के नाम पर राष्ट्रविरोधी बनने का संकल्प लेने वालों के लिए जेल के अलावा दूसरा विकल्प नहीं बचता है। विचारों की संकीर्णता में जीने वाले चंद युवाओं के दम पर देश नहीं चल रहा है। इसी देश की आन, बान और शान के लिए लाखों युवा अपना सब कुछ न्योछावर कर रहे हैं। विदेशों   में भी भारतीयता का डंका देशप्रेम की अलख की बदौलत ही जल रहा है। इसमें मोदी या बीजेपी ने क्या कर लिया है। क्या भारत चीन की लड़ाई और भारत पाकिस्तान की लड़ाई या फिर करगिल की लड़ाई में शहीद होने वाले मोदी भक्त थे। अब भी वक्त है, मंथन जरूर करें। मोदी या बीजेपी आपको पसंद नहीं तो इंतजार करिए चंद वर्षों का। मौका आएगा। अगर यह सरकार पसंद नहीं तो उतार फेंकिएगा गद्दी से। पर विनती है मोदी के नाम पर घर-घर में आतंकी बनने की कसम तो न खाओ। नहीं तो आने वाली पीढ़ी तुम्हें कभी माफ नहीं करेगी।

एक सैल्यूट सियाचिन के शहीद हिमवीरों के नाम


पिछले साल जब भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी दीपावली की खुशियां सियाचिन के हिमवीरों के साथ मनाई थी तो पूरी दुनिया की नजर अचानक इस ओर मुड़ गई थी। विश्व के सबसे दुर्गम और सबसे ऊंचे युद्ध क्षेत्र में किसी प्रधानमंत्री ने पहली बार कदम रखा था। सियाचिन में मौजूद भारतीय सैनिकों के लिए यह दीपावली की खुशियों से ज्यादा ऊर्जा देने वाला क्षण था। प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में जिस तरह हिमवीरों के हौसले को सलाम किया था वह वैसे ही नहीं था। ये हिमवीर सही अर्थों में इससे कहीं अधिक सैल्यूट के अधिकारी हैं। तीन दिन पहले वहां की दुर्गम परिस्थितियों में शहीद हुए दस हिमवीरों के लिए भले ही कोई मोमबत्ती न जलाए, लेकिन एक सैल्यूट तो उनके नाम की बनती ही है।
यह सैल्यूट इसलिए क्योंकि माइनस पचास डिग्री में बर्फ के बीच ये जवान सिर्फ और सिर्फ हमारे लिए वहां राइफल थामे खड़े हैं, ताकि भारत मां की धरती पर कोई नापाक कदम न रख सके। हर एक भारतीय खुद को महफूज महसूस कर सके, इसीलिए वहां तैनात सैनिक खुद को बर्फ के आगोश में झोंक देते हैं। वैसे तो विश्व का यह सबसे दुर्गम युद्ध क्षेत्र छोटे-मोटे हादसों का गवाह हमेशा बनता ही रहता है, पर लंबे समय बाद एक साथ हमने भारत मां के दस सपूतों को खो दिया है। इस शहादत के बाद एक बार फिर से सियाचिन में सैनिकों की तैनाती, पाकिस्तान के साथ सियाचिन विवाद, पर चर्चा शुरू हो गई है। जब-जब इस दुर्गम युद्ध क्षेत्र में कोई हादसा होता है, तब-तब यह चर्चा शुरू हो जाती है। वर्ष 2012 में जब एक साथ पाकिस्तान के करीब 127 सैनिकों की वहां मौत हुई थी, तब भी अंतरराष्टÑीय स्तर पर दोनों देशों को समझौते की नसीहतें दी जाने लगी थीं।
करीब 18000 फुट की ऊंचाई पर स्थित रणक्षेत्र पर सैन्य गतिविधियां बंद करने का मुद्दा भारत और पाकिस्तान के बीच लंबे समय से चलता आ रहा है। वर्ष 2004 में इस मुद्दे पर लंबी बातचीत भी हुई थी, पर बात नहीं बनी थी, क्योंकि भारत ने 1999 में करगिल का दर्द काफी नजदीक से देखा था। बेहद उजाड़, वीरान और बर्फ से आच्छादित सियाचिन ग्लेशियर सामरिक रूप से दोनों ही देशों के लिए काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। दोनों देशों के बीच विवाद का अंकुरण 1972 भारत-पाक युद्ध के समय ही हो गया था। शिमला समझौते के बाद सियाचिन के एनजे-9842 नामक स्थान पर युद्ध-विराम की सीमा तय कर दी गई थी। पर पाकिस्तान ने हमेशा अपनी मंशा से इसे सशंकित रखा। यहां तक कि अपने मानचित्र में भी इस क्षेत्र को अपना बताया। पाकिस्तान ने लगातार इस क्षेत्र में अपनी गतिविधियां कायम रखीं। इसी का नतीजा था कि भारत ने 1985 में आॅपरेशन मेघदूत के माध्यम से एनजे-9842 के उत्तरी हिस्से को पूर्णरूप से अपने नियंत्रण में ले लिया। यह पूरा हिस्सा सालटोरो के नाम से जाना जाता है। इसका मतलब यह है कि इसके आगे लड़ाई नहीं होगी। सियाचिन का उत्तरी हिस्सा-कराकोरम भारत के पास है। पश्चिम का कुछ भाग पाकिस्तान के पास है। सियाचिन का ही कुछ भाग चीन के पास भी है। एनजे-9842 ही दोनों देशों के बीच लाइन आॅफ एक्चुअल कंट्रोल माना जाता है।
अब सवाल यह उठता है कि यह उजाड़ क्षेत्र दोनों देशों के लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों है? जबकि दोनों देशों को हर दिन अपने सैनिकों पर करोड़ों रुपए खर्च करने पड़ रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक सियाचिन में भारत को अपने सैनिकों पर हर दिन करीब साढ़े पांच करोड़ रुपए खर्च करने पड़ते हैं। कुछ ऐसा ही हाल पाकिस्तान का भी है। यह सैन्य क्षेत्र सिर्फ और सिर्फ भरोसे और नाक की लड़ाई का मामला है। दोनों देशों में एक दूसरे के प्रति भरोसा नहीं है। दोनों को भय है कि अगर उन्होंने अपने सैनिक हटाए तो एक दूसरे के क्षेत्र पर कब्जा हो जाएगा।
भारत और पाकिस्तान के बीच कई संवेदनशील मसलों की फेहरिस्त में सियाचिन ग्लेशियर विवाद भी काफी ऊपर है। जब कभी-भी सियाचिन में सैनिकों के साथ हादसे होते हैं, तर्क और कुतर्क का दौर शुरू हो जाता है। पाकिस्तान के साथ शांति संबंधों की वकालत करने वाले कहते हैं कि दोनों देशों के बीच परस्पर विश्वास पैदा करने के लिए इस इलाके में सैन्य गतिविधियां पूरी तरह बंद कर देनी चाहिए। पर क्या भारतीय सेना करगिल के विश्वासघात को भूल सकती है, जब बर्फ के मौसम में भारतीय सेना के खाली पोस्ट पर पाकिस्तानी सेना ने कब्जा जमा लिया था। सियाचिन कश्मीर विवाद का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और यही वजह है कि इसका इस्तेमाल महज विश्वास पैदा करने वाले हथियार की तरह नहीं किया जा सकता है।
सियाचिन के दुर्गम क्षेत्र के बारे में कहा जाता है कि अगर वहां नंगी हथेली से बर्फ को छू लिया गया तो हथेली को काटने के अलावा दूसरा रास्ता ही नहीं बचता है। हर साल दोनों देशों के काफी सैनिक इस दुर्गम क्षेत्र में अपंगता का शिकार बनते हैं। इसके बावजूद यह युद्ध क्षेत्र सैनिकों से भरा रहता है। साल 2012 में जब भूस्खलन में 127 पाकिस्तानी सैनिक मारे गए थे तब विदेशी अखबारों में इस बात का जिक्र किया गया था कि क्यों पाकिस्तान सियाचिन ग्लेशियर विवाद को जल्द से जल्द सुलझाना चाहता है। दरअसल, इस क्षेत्र में भारतीय सेना ने जबर्दस्त दबदबा बना रखा है, जबकि पाकिस्तान आर्थिक तंगी सहित संसाधनों की कमी के कारण काफी नुकसान में है। इसीलिए भारत में भी मौजूद पाकिस्तानी समर्थक हमेशा सियाचिन को शांति दूत के रूप   में प्रस्तुत करते हैं। ऐसे शांतिदूतों का हमें हमेशा खुलकर विरोध करना चाहिए, क्योंकि भारत ने पाकिस्तान के साथ कई विश्वासघात देखे हैं। ऐसे में किसी भी कीमत पर पाकिस्तान को खुली सीमा नहीं दी जा सकती है।

भरतीय सेना ने जिस अदम्य सैन्य शक्ति और हौसले के दम पर सियाचिन को महफूज कर रखा है, उसकी जितनी तारीफ की जाए कम है। एवलांच में दस सैनिकों की शहादत के बाद एक बार फिर सियाचिन का यह सबसे दुर्गम युद्धक्षेत्र हमें अपने सैनिकों पर गर्व करने पर मौका दे रहा है। ऐसे में आइए एक सैल्यूट हम उन हिमवरों को जरूर करें, जिनकी बदौलत हमारी सीमाएं सुरक्षित हैं।