Tuesday, January 19, 2016

रोहित वेनुला के नाम पर लिखा एक खत,,, प्लीज तुम लोग रोहित मत बनना

 
डीयर रोहित तुमने सुसाइड जैसे कायरतापूर्ण कदम उठाने से पहले एक खत लिखा। तुमने लिखा और बहुत खूब लिखा। तुमने कहा कि जब हम लोग (जो जिंदा हैं) जब तुम्हारा खत पढ़ रहे होंगे तब तक तुम दूसरी दुनिया में जा चुके होगे। रोहित मैंने तुम्हारा खत पढ़ा। शायद इसीलिए तुम्हें यह खत लिख पा रहा हूं। मुझे पता है तुम दूसरी दुनिया में यह खत नहीं पढ़ सकोगे, क्योंकि पता नहीं वहां की भाषा क्या होगी। हिंदी होगी, उर्दू होगी, बंगाली होगी, असमिया होगी या पंजाबी या कोई अन्य भाषा। मुझे नहीं पता कि तुम वहां किस बोली में अपने जैसों से संवाद स्थापित कर रहे होगे। पर फिर भी तुम्हें खत लिख रहा हूं। शायद इस उम्मीद से कि तुम्हारे नाम से 'जिंदा' होने वाले बहुत लोग तुम्हारे जैसे युवाओं को फिर से भटकाएंगे। उन्हें बहलाएंगे। फिर एक ऐसे मोड़ पर ले जाकर छोड़ जाएंगे, जहां से एक ही रास्ता बचता है। हां, वही रास्ता जिस पर तुम चले गए।
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  रोहित
आज सुबह मैं तुम्हारा फेसबुक प्रोफाइल देख रहा था। पता नहीं क्यों उसे देख कर अच्छा कम लगा और बुरा अधिक। अच्छा इसलिए लगा कि तुम्हारे अंदर अपनी बातों को बेबाकी से रखने की हिम्मत थी। तुम बेखौफ होकर अपने दलित होने का ढोल पीट सकते थे। बेहद पूरजोर तरीके से दलितों की राजनीति कर रहे थे। पर अफसोस इस बात का रहा कि तुम्हारे जैसे रिसर्च स्कॉलर की प्रोफाइल में सिर्फ और सिर्फ राजनीति वह भी दलितों को लेकर रची जाने वाली राजनीति की बू आ रही थी।
मैं हैरान इस बात से था कि एक दलित वर्ग (जैसा कि तुमने बताया है अपनी फेसबुक में) से आया युवा इतनी उच्च तालीम ले रहा था वह कैसे इन तुच्छ राजनीति के चक्कर में पड़ गया। लाखों युवा हैं जो इस वर्ग से आते हैं, पढ़ते हैं, नौकरी पाते हैं, अपने परिवार का मान और सम्मान बढ़ाते हैं। देश और विदेश में नाम कमाते हैं। ऐसे हाइली क्वालिफाइड युवा को क्या जरूरत पड़ गई कि वह कास्ट पॉलिटिक्स में पड़कर अपना भविष्य चौपट करने में जुट गया। मैं यह देखकर हैरान था कि कैसे एक युवा खुद के दलित होने का ढ़ोल पीटकर सिर्फ और सिर्फ हिंदु, मुस्लिम, अंबेदकर, स्वामी विवेकानंद आदि..आदि के नाम पर अपने सोशल मीडिया के दोस्तों को अपनी सोच से अवगत करा रहा है।
रोहित मैंने भी कॉलेज और यूनिवर्सिटी में शिक्षा-दीक्षा ली है। मैं उस कॉलेज का विद्यार्थी रहा जहां एक तरह से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नींव पड़ी। महात्मा गांधी ने जब चंपारण मूवमेंट शुरू किया तो सबसे पहले हमारे कॉलेज में उन्होंने डेरा डाला। बिहार के मुजफ्फरपुर के उस कॉलेज का नाम वैसे तो लंगट सिंह कॉलेज था। पर इस कॉलेज का शुरुआती नाम ब्राह्मण-भूमिहार कॉलेज था। तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि जिस कॉलेज के नाम से ही जातिवाद की बू आती हो उसी कॉलेज से एक से बढ़कर एक दलित छात्रों ने शिक्षा पाई और कई बड़े मुकाम हासिल किए। हद तो यह था कि इसी कॉलेज के कैंपस में दलितों के लिए अलग छात्रावास की व्यवस्था थी। इतनी ऊंची-नीची खाई के बावजूद कभी मैंने यहां दलितों के नाम पर किसी का उत्पीड़न नहीं देखा। हमेशा मैं इस छात्रावास में जाता था और कभी मैंने यहां उच्च या नीच जाति का भेदभाव नहीं देखा। आज भी कई ऐसी दलित हस्तियां हैं तो उसी कॉलेज में पढ़ा रही हैं। राहित मैं तुम्हें नजदीक से नहीं जानता, पर फेसबुक के जरिए जितना मैं तुम्हें समझ पा रहा हूं तुम एक ऐसे कास्ट सिंड्रोम से पीड़ित थे, जिसका न कोई ईलाज था, न है और न भविष्य में इसकी कोई दवा बनेगी।
रोहित यह भारतीय संविधान ही है जिसने तुम्हें इतना अधिकार दे रखा है कि तुम खुलेआम एक आतंकी के लिए शोकसभा का आयोजन करवा सको। तुमने बीफ फेस्टिवल का आयोजन करवाकर भी अपनी दलित राजनीति और तथाकथित पॉवर का मुजायरा पेश किया। खुलेआम मनुस्मृति दहन आंदोलन का अगुवा बन बैठे। जिस विवेकानंद को पूरी दुनिया मानती है उसका खुलेआम मजाक बना सको। खुलेआम गालियां दे सको। तुम्हारे अनुसार जो भी अगड़ी जाती से है वह तुम्हारा दुश्मन है। बेहद अफसोस आया रोहित तुम्हारी इस मानसिकता को देखकर। फिर तुम कहते थे कि तुम्हारे खिलाफ यूनिवर्सिटी ने दलित विरोधी नीति अपनाई। तुम्हें दलितों के नाम पर प्रताड़ित किया गया।

तुम बाबा साहब अंबेडकर को भगवान की तरह पूजते थे (जैसा कि तुम्हारा सोशल मीडिया प्रोफाइल बता रहा है), तो क्या तुम्हें उनके द्वारा बनाए गए संविधान पर तनिक भी विश्वास नहीं था। तुम्हें तो संविधान सम्मत इतने अधिकार दिए गए थे कि तुम अपना हक आसानी से ले सकते थे। फिर भी तुम युनिवर्सिटी और एचआरडी मिनिस्ट्री के खिलाफ मोरचा खोले बैठे थे। तुम तो यह मान बैठे थे कि अदालत से तुम्हें न्याय नहीं मिलेगा, इसीलिए दलितों वाली राजनीति में घुस जाओ।
जब तुम्हें और तुम्हारे तीन-चार और साथियों को हॉस्टल से निकाला गया। जब तुम्हारे ऊपर प्रतिबंध लगा दिया गया कि तुम ग्रुप में युनिवर्सिटी कैंपस में नहीं टहल सकते हो, तब तुमने नहीं सोचा कि आखिर तुमने कितना बड़ा गुनाह किया है कि पूरी युनिवर्सिटी एडिमिनिस्ट्रेशन को इतना कड़ा फैसला लेना पड़ा। यह सब जानते हुए कि तुम दलित वर्ग से आते हो, दलितों की राजनीति में   सक्रिय हो। बावजूद इसके युनिवर्सिटी ने इतना बड़ा कदम कैसे उठा लिया। रोहित, यह बताने की जरूरत नहीं कि एक सेंट्रल युनिवर्सिटी के अंदर कितने कड़े नियम होते हैं। तुम्हारे खिलाफ बिना पर्याप्त सबूतों के युनिवर्सिटी इतना बड़ा ‘गुनाह’ कैसे कर सकती थी।
रोहित तुम अपने खिलाफ हुए अन्याय के खिलाफ कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकते थे। तुम्हारे ही खत से मुझे पता चला कि तुम्हें वजिफा मिलता था। जरूर तुम स्कॉलर रहे होगे तभी तुम्हें इतना वजिफा मिलता था जितना एक स्कूल के हेडमास्टर को तनख्वाह नहीं मिलती है। पर तुम पढ़ाई से अधिक राजनीति में सक्रिय रहे। तुम्हें तो याद ही होगा कि तुम्हारे खिलाफ माहौल तब बनना शुरू हुआ था जब तुम पर कैंपस में मारपीट का आरोप लगा था। मुजफ्फरनगर हिंसा पर बनी एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म की स्क्रीनिंग का विरोध करते वक्त तुम और तुम्हारे साथियों की लड़ाई कैंपस के दूसरे राजनीति गुट के साथ हुई थी। और इसी के बाद तमाम कमेटी और सबकमेटी की रिपोर्ट के बाद तुम्हें कैंपस और हॉस्टर से डी-बार किया गया था।

रोहित क्या जरूरत थी इस तरह की गंदी राजनीति में पड़ने की। तुम्हारे जैसे हजारों युवा इसी तरह की कास्ट पॉलिटिक्स में पड़कर अपना भविष्य अंधेरे में झोंक रहे हैं। तुम भले ही मेरा यह खत नहीं पढ़ पा रहे होगे, लेकिन देख जरूर रहे होगे कि तुम्हारे नाम से कितने लोग ‘जिंदा’ हो गए हैं। तुम्हारी मौत भी एक तमाशा बनकर रह गई है। रोहित तुम तो चले गए, पर विश्वास करो तुम्हारी लाश को लंबे समय तक जिंदा रखा जाएगा। ऐसा ही एक बार मंडल कमीशन के दौर में हुआ था। उस लाश को भी तब तक दफन नहीं किया गया जब तक मंडल-कमंडल का दौर खत्म नहीं हुआ। अब एक बार फिर तुम्हारी लाश को राजनीति के अखाड़े में खड़ा कर दिया गया है। रोहित मैंने टीवी पर रोते-बिलखते तुम्हारे परिजनों को देखा है। तुम्हारे मां के चित्कार मेरे कानों को रौंद रहे थे। उनकी भाषा तो समझ नहीं आ रही थी, पर महसूस कर सकता था कि एक होनहार बेटे का इस कदर दूर चले जाना मां को सीने को कैसे चीर रहा था। सच कह रहा हूं, उन्हें देखकर मुझे भी रोना आ रहा था।

तुम्हारे जैसा निडर और बेखौफ रहने वाला व्यक्ति आत्महत्या जैसा कायरतापूर्ण कदम नहीं उठा सकता है। मुझे तो लगता है सच में तुम्हारी हत्या ही हुई है। देखो न, जिस तरह तुम्हारे मरते ही तुम्हारे युनिवर्सिटी में राजनीति के हाशिए में खड़े लोग पहुंचने लगे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे तुम्हारी लाश से उन्हें संजीवनी मिल गई है। मुझे तो ऐसा लग रहा है जैसे इसी राजनीति के लिए तुम्हें बली का बकरा बनाया गया है। मुझे तुम्हारी आत्महत्या में साजिश की गहरी बू आ रही है। तुमने खुद आत्महत्या की या तुमसे यह आत्महत्या करवाई गई, यह राज तो तुम्हारे साथ ही दफन हो गए। पर मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि तुम खुद नहीं मरे हो।

रोहित मुझे बेहद अफसोस है कि तुमने अपने सुसाइड नोट में बहुत कुछ कहा, अपने खालीपन का जिक्र किया। पर देश के युवा तुम्हारी तरह इस खालीपन को न जिएं इसके लिए तुम युवाओं के लिए एक छोटा सा संदेश तक नहीं दे सके। मुझे माफ करना तुम्हारे नाम से मैं उनके लिए दो शब्द लिखने की हिमाकत कर रहा हूं।।।।
‘‘ मेरे प्यारे दोस्तों मैं अपने शानदार भविष्य को छोड़कर, अपने बेहद प्यार करने वाली मां और परिजनों को छोड़कर, अपने जान से भी प्यारे दोस्तों को छोड़कर इस दुनिया से जा रहा हूं। इसका कारण सिर्फ इतना है कि मैंने युनिवर्सिटी कैंपस में पढ़ाई छोड़कर राजनीति में कदम बढ़ा लिया। इस राजनीति ने मुझे इस मुकाम तक पहुंचा दिया जहां सिर्फ मौत ही अगला पड़ाव था। तुम युवाओं से गुजारिश है प्लीज रोहित मत बनना। ’’
तुम्हारा अपना रोहित वेनुला
रिसर्च स्कॉलर, सेंट्रल युनिवर्सिटी, हैदराबाद

Monday, January 18, 2016

बिहार में जंगलराज: जो कल था वह आज भी है


बिहार में विधानसभा चुनाव समाप्त होने के बाद भी सबसे बड़ी बहस वहां मौजूद जंगलराज को लेकर है। हर तरफ यही चर्चा है कि बिहार में जंगलराज-2 है। इसे प्रचारित करने के पीछे पर्याप्त कारण भी हैं। नीतीश और लालू के गठजोड़ के बाद सत्ता में आई सरकार अभी सत्ता संतुलन से जूझ ही रही है कि बैक-टू-बैक कई बड़ी वारदातों ने बिहार की छवि को भरपूर नुकसान पहुंचाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। पहले इंजीनियर्स की हत्या फिर दो दिन पहले पटना में ज्वैलर की सरेआम गोली मारकर हत्या ने बिहार को चर्चा के केंद्र में ला दिया है। 
नीतीश कुमार को अपने से अलग होने की बात अब तक बीजेपी पचा नहीं पा रही है, इसीलिए जंगलराज को प्रचारित करने में सबसे आगे बीजेपी ही है। पर आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि जो जंगलराज 2001 के दौर में लालू यादव की पार्टी के राज में था उसमें 2005 से 2015 के बीच भी कोई परिवर्तन नहीं आया था। यह अलग बात है कि नीतीश के पिछले दस साल के राज के दौरान मीडिया की मेहरबानी कहें या नीतीश का अपना जलवा, इस तरह राष्टÑीय स्तर पर बिहार में अपराध की चर्चा बेहद सामान्य रही। जबकि, हकीकत यही है कि बिहार में अपराध का ग्राफ ज्यों का त्यों बना रहा। लालू यादव के सत्ता के केंद्र में आते ही राष्टÑीय मीडिया का ध्यान बिहार के तथाकथित जंगलराज की तरफ कुछ ज्यादा ही है। शायद यही कारण है कि इन दिनों बिहार में जंगलराज सुर्खियों में है।
चलिए आपको बिहार में तथाकथित जंगलराज के कुछ स्याह पहलू से रू-ब-रू करा दूं, ताकि आपको समझने में दिक्कत न हो कि बिहार में जंगलराज कैसे, कब और कहां था। तथ्यात्मक आंकड़ों की बात करें तो बिहार में वर्ष 2001 से 2005 तक रजिस्टर्ड अपराधों की संख्या 5 लाख 15 हजार 289 रही। यह वह दौर था जब लालू यादव का शासन अपने चरम पर था। बावजूद इसके कि लालू यादव जेल यात्रा कर चुके थे, सत्ता उनकी पत्नी के हाथों में थी। चुनाव आते ही बीजेपी और जदयू की पूरी कैपेनिंग जंगलराज को खत्म करने पर फोकस हो गई। नतीजा भी बेहतर आया और नीतीश को सत्ता की कमान मिली। पर 2006 से 2010 तक बिहार में रजिस्टर्ड अपराधों की संख्या 6 लाख 30 हजार 682 हो गई। तर्क दिया गया कि नीतीश सरकार ने अपराधियों पर लगाम लगाया जिसके कारण रजिस्टर्ड अपराधों की संख्या बढ़ गई। पर इस तथ्य का जवाब कोई नहीं देना चाहता है कि क्यों यही संख्या 2011 से 2015 तक 8 लाख 67 हजार 944 का आंकड़ा छू गई?
जंगलराज में किडनैपिंग को सबसे बड़ा धंधा बनाकर पेश किया गया। कई फिल्मों में भी बिहार की यही छवि दिखाई गई। किडनैपिंग संगठित अपराध का ट्रेड मार्क बन गया। पर तथ्य यह है कि जिस किडनैपिंग की संख्या 2001 से 2005 के बीच 10 हजार 385 रही, वही संख्या 2006 से 2010 के बीच बढ़कर 13 हजार 872 पर पहुंच गई। हद तो यह है कि 2011 से 2015 के बीच किडनैपिंग की संख्या 27 हजार 534 पहुंच गई। महिलाओं की सुरक्षा का दम भरने वाली नीतीश सरकार के कार्यकाल में सबसे अधिक बलात्कार के मामले सामने आए। तथाकथित जंगलराज 2001 से 2005 के बीच बिहार में रेप के 4461 मामले दर्ज हुए, वहीं 2006 से 2010 के बीच यह संख्या बढ़कर 4970 हो गई। 2011 से 2015 के बीच रेप की संख्या बढ़कर 5093 तक पहुंच गई। बिहार में चंद दिनों की सरकार के भीतर बैक-टू-बैक मर्डर ने जिस तरह पूरे देश के चिंतनशील लोगों को झकझोर रखा है उस मर्डर की हकीकत भी कुछ जुदा नहीं है। जहां लालू यादव की पार्टी के राजकाज में पांच साल के भीतर 18 हजार 189 हत्याएं हुर्इं वहीं नीतीश कुमार के दस साल के शासन काल में 32 हजार 288 हत्याएं हुर्इं। 
बीजेपी को इस बात की चिंता है कि अगर बिहार में उनकी सत्ता नहीं आई है तो वहां जंगलराज पसर गया है। पर इस सवाल का जवाब कौन देगा कि जब नीतीश के साथ गठजोड़ में थे तब जो अपराध का आंकड़ा लगातार बढ़ता गया उसके लिए कौन जिम्मेदार होगा? क्या उन दिनों तथाकथित जंगलराज उन्हें नजर नहीं आ रहा था, जो इन दिनों वे महसूस कर रहे हैं। यह सही है कि लालू यादव एक ऐसे सिंबल के रूप में राजनीति में हैं जिसे अपराधियों के संरक्षण के लिए मशहूर कर दिया गया। पर, नीतीश कुमार के शासन काल में बढ़ते अपराधों पर गंभीरता से मंथन करने की जरूरत है। सिर्फ लालू यादव के बिहार में गठबंधन के कारण जंगलराज आ जाने को मुर्खतापूर्ण करार देना चाहिए। नीतीश कुमार के पास मौका है कि वह जिस तरह अपने तथ्यात्मक वक्तव्यों से विरोधियों को कड़ा जवाब देते हैं, उसी तथ्यात्मक आंकड़ों पर गौर कर अपने इस शासनकाल में कम से कम अपराधों पर लगाम लगाने के लिए गंभीर प्रयास करेंगे। अगर वे बिहार में लगातार बढ़ते क्राइम ग्राफ पर लगाम लगाने में कामयाब नहीं हो सकेंगे तो पूरा बिहार उनसे इस वक्त भी सवाल कर रहा है और पांच साल बाद भी सवाल करेगा। फर्क बस इतना होगा कि इस वक्त नीतीश कुमार जवाब देने की स्थिति में हैं, उस वक्त उनको जवाब देने का कोई मौका ही नहीं देगा और यही जंगलराज का शोर उन्हें ले डूबेगा। फिलहाल जंगलराज का शोर करने वालों को थोड़ा शांत होने की जरूरत है, क्योंकि आंकड़ों की तस्वीरें कभी झूठ नहीं बोला करती हैं। और यह तस्वीरें यही बयां   कर रही हैं कि जो तथाकथित जंगलराज कल था, वही पिछले दस साल में भी रही और अगर स्थितियां नहीं सुधरीं तो कल भी रहेगी। भले ही मुख्यधारा की मीडिया नीतीश के मोहपाश में बंधी रहे, पर अब सोशल मीडिया का जमाना है इसलिए बिहार की हर छोटी-बड़ी घटनाओं से पूरा देश रू-ब-रू हो रहा है। देख रहा है, समझ रहा है। 

(यहां दिए गए आंकड़े बिहार सरकार के आधिकारिक आंकड़े हैं।)

Tuesday, January 12, 2016

दीदी तोमार मुख बंदो केनो आछे?

मालदा हिंसा:
Photo courtesy : Satish Acharya FB post.
पश्चिम बंगाल के मालदा में उन्मादी भीड़ ने जो कुछ किया उसे सामान्य नहीं माना जा सकता है। इसे न तो एक समुदाय विशेष का स्वत: स्फूर्त उन्माद कहा जा सकता है और न ही इसे कट्टर धार्मिक अंधता माना जा सकता है। यह कतई संभव नहीं है कि एक टुच्चे से नेता के टुच्चे बयान पर इतना बड़ा सांप्रदायिक तनाव पैदा हो जाए। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जहां धर्म और संप्रदाय को लेकर जितने अनर्गल बयान दिए जाते हैं वैसे में अगर हर एक बयान पर प्रतिक्रिया व्यक्त की जाने लगी तो भारत का हर एक जिला और राज्य सांप्रदायिकता की आग में जलता रहेगा। हालांकि, इस घटना पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का सिर्फ इतना भर कह देना कि ये हिंसा सांप्रदायिक हिंसा नहीं, बल्कि बीएसएफ व स्थानीय लोगों के आपसी झगड़े का नतीजा है, कतई न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता।

मालदा हिंसा पर ममता बनर्जी के दो टूक बयान को सीधे तौर पर विधानसभा चुनाव से जोड़कर देखा जा रहा है। अगले चंद दिनों में ही वहां चुनाव की औपचारिक घोषणा हो जाएगी। चुनाव के रंग में बंगाल रंगता जा रहा है। ऐसे में इस तरह का सांप्रदायिक तनाव अपने आप में कई सवाल पैदा करता है। वह भी तब जब बंगाल से सुदूर उत्तर प्रदेश में एक हिंदू नेता ने पैगंबर मोहम्मद पर विवादित टिप्पणी कर दी थी। न तो वह नेता कोई बड़ा नाम है और न ही मीडिया ने इस बयान को उतना तूल दिया था। उत्तर प्रदेश सरकार वैसे भी उस नेता पर संविधान सम्मत कार्रवाई कर रही है। ऐसे में यह छोटा बयान बंगाल में इतना बड़ा और भयानक रूप ले लेगा इसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी।  पैगंबर मोहम्मद पर की गई विवादित टिप्पणी बंगाल के मालदा जिले में स्वत: फैल गई या फैलाई गई इसकी गंभीरता से जांच की जानी चाहिए।

पिछले रविवार इस टिप्पणी के फैलने के बाद वहां एक मुस्लिम संगठन की अपील पर विरोध जताने के लिए लाखों लोगों का अचानक जुट जाना भी अपने आप में कई सवाल पैदा करता है। करीब डेढ़ से दो लाख मुस्लिम लोगों ने जिस तरह जुलूस निकाला और हिंसा की, उस पर ममता बनर्जी सरकार सवालों के कठघरे में है। हिंसक भीड़ ने जिस तरह नेशनल हाइवे पर कब्जा करके तांडव मचाया है वह शायद बंगाल के इतिहास की पहली घटना है। जाति पूछकर जिस तरह वाहनों में बैठे लोगों और महिलाओं के साथ बदसलूकी की गई है, उसका जवाब ममता बनर्जी से पूरा देश मांग रहा है।मालदा हिंसा पर ममता दीदी की खामोशी को राजनीतिक मजबूरी का नाम देना गलत नहीं होगा। वहां मौजूद मुस्लिम वोट कहीं ममता दीदी से दूर न हो जाए इसीलिए उन्होंने खामोशी का सफेद लबादा ओढ़ लिया है। क्या बंगाल सरकार का खुफिया तंत्र इस कदर नाकारा है कि वह इतनी बड़ी हिंसा का आकलन ही नहीं कर सका, या फिर वहां की पुलिस और प्रशासनिक व्यवस्था नपुंसक है कि वह इतना सब होने के बावजूद त्वरित कार्रवाई नहीं कर सकी। क्या यह सब इसलिए इतने सामान्य तरीके से हो गया या करने दिया गया क्योंकि तीन माह बाद वहां चुनाव हैं।

भारतीय राजनीति इन दिनों सांप्रदायिक संक्रमण के काल से गुजर रही है। बिहार चुनाव इसका सबसे ताजा उदाहरण है। बिहार चुनाव के ठीक पहले जिस तरह दादरी की घटना को उछाला गया, जिस तरह इस एक घटना को राजनीति के केंद्र में ला दिया गया, उसने स्पष्ट तौर पर संकेत दे दिया था कि भविष्य की राजनीति इसी तरह की घटनाओं पर केंद्रित रहेगी। अवॉर्ड वापसी का स्वांग रचने वाले और छाती पीट-पीट कर देश छोड़ने की दुहाई देने वाले तथाकथित सेलिब्रिटीज को पश्चिम बंगाल के मालदा में हुई हिंसा पर कुछ भी नजर नहीं आ रहा है। सेक्युलरिज्म का राग अलापने वाले भी खामोश हैं। बंगाल में सांप्रदायिक संक्रमण की राजनीति का पहला ट्रेलर लॉन्च हो चुका है। आने वाले दिनों में कहीं दूसरी जगह से ऐसी ही घटना की सूचना आए तो हमें आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए। मालदा की हिंसा के बाद ही यह खबर भी आई कि कोलकाता के एक मदरसे के हेडमास्टर को सिर्फ इसलिए बुरी तरह पीटा गया क्योंकि वह अपने छात्रों को राष्टÑगान सिखा रहे थे। इसे भी सामान्य तरीके से नहीं लिया जा सकता है, क्योंकि बंगाल को वैसे भी चरमपंथियों का गढ़ माना जाता है। बंगाल की राजनीति में चरमपंथी संगठनों का अच्छा खासा प्रभाव है। मुस्लिम वोटों की गिनती को हमेशा ही वहां के राजनीतिक दल महत्व देते रहे हैं। शायद यही कारण है कि ममता बनर्जी सरकार पर गंभीर आरोप लग रहे हैं। बंगाल की पुलिस को भी सरकारी मशीनरी की तरह देखा जा रहा है। वैसे में विधानसभा चुनाव से पहले इस तरह की घटनाओं का सामने आना एक गंभीर चुनौती की तरफ इशारा कर रहा है। चुनाव के पहले वोटों की गोलबंदी एक सामान्य राजनीति है। पर धर्म और संप्रदाय के नाम पर वोटों की गोलबंदी किसी भी हाल में स्वीकार्य नहीं होनी चाहिए। राजनीतिक दलों की बयानबाजी ने भी स्पष्ट संकेत दे दिए हैं कि बिहार चुनाव में जिस तरह दादरी के अखलाक की मौत को भुनाया गया है उसी तरह मालदा की आग भी जल्द ठंड होने वाली नहीं है। राजनीतिक दलों को अभी से वोटों के धुव्रीकरण की पर्याप्त संभावनाएं नजर आने लगी हैं।

ममता बनर्जी को बेबाक और सधी हुई राजनीति का अच्छा अनुभव है। देश के   विभिन्न क्षेत्रों में वक्त बे वक्त होती रही धार्मिक और सांप्रदायिक तनावों पर भी उनकी टिप्पणी आती रही है। ऐसे में अपने घर में हुए धार्मिक उन्मादी वातारवण पर ममता दीदी की खामोशी पर पूरा बंगाल अपनी भाषा में पूछ रहा है...‘दीदी तोमार मुख बंदो केनो आछे?’