Monday, December 28, 2015

दम तोड़ते किसान, यज्ञ करती सरकार



खबर तेलांगना से आई कि मुख्यमंत्री द्वारा खास तौर पर आयोजित यज्ञ के पंडाल में आग लग गई है। बताया जा रहा है कि यज्ञ का पंडाल ही करीब सात करोड़ रुपए का है। पूरे यज्ञ आयोजन में करीब सौ से डेढ़ सौ करोड़ रुपए खर्च का अनुमान है। अब इसी राज्य की एक और हकीकत से रू-ब-रू हो लें तो बेहतर होगा। इसी तेलंगाना में 15 महीने में 782 किसानों ने आत्महत्या कर ली है। क्या इसे साधारण तरीके से लेने की जरूरत है या हमें गंभीरता से ह्यमंथनह्ण करने की जरूरत है कि जिस राज्य में प्रति माह औसतन 52 किसान आत्महत्या कर रहे हैं उसी राज्य में हवन यज्ञ पर करोड़ों रुपए पानी की तरह बहाए जा रहे हैं। तर्क दिया जा रहा है कि प्रदेश में अच्छी बारिश हो, सूखा न हो, सुख-शांति का वातावरण हो, इसके लिए यज्ञ-हवन का आयोजन किया जा रहा है।
पिछले दिनों हैदराबाद कोर्ट में हलफनामा दायर करते हुए तेलंगाना राज्य सरकार ने बताया था कि दो जून 2014 से 8 अक्टूबर 2015 तक राज्य में 782 किसानों ने आत्महत्या की है। ऐसे में तेलंगाना राज्य सरकार से यह भी पूछना जायज है कि जिस राज्य में किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं, उस राज्य में इतने भव्य सरकारी धार्मिक आयोजनों पर इतना व्यापक पैसा खर्च करना किस मानसिकता की परिचायक है। हालांकि, ऐसा नहीं है कि सिर्फ तेलंगाना ही इस तरह की मानसिकता से पीड़ित है। कई दूसरे राज्यों में भी यही परिपाटी चलती आई है। उत्तरप्रदेश भी इसका जीता जागता उदाहरण है। जहां के कई जिले सूखे की चपेट में हैं और वहां सैफई महोत्सव में करोड़ों रुपए पानी की तरह बहा दिए जाते हैं। हर बड़े राज्य में कुछ ऐसी ही प्रवृत्ति देखने को मिल रही है।
हर राज्य की सरकार के बयानों में, राजनीतिक भाषणबाजी में, रैलियों में सबसे ऊपर हमारे अन्नदाताओं का नाम आता है। किसानों को लेकर बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं। पर अफसोस इस बात का रहता है कि सिर्फ राजनीति चमकाने भर के लिए किसानों की बात करके सभी चुप्पी लगा जाते हैं। अभी हाल ऐसे हैं कि देश भर के करीब 271 जिले किसी न किसी तरह से सूखे की चपेट में हैं। यहां औसत से काफी कम बारिश रिकॉर्ड की गई है। कृषि मंत्रालय ने हाल ही में आंकड़े जारी किए थे, जिसमें बताया गया था कि इन जिलों में औसत से करीब 14 प्रतिशत कम बारिश हुई है। हरियाणा और पंजाब में तो स्थिति और ज्यादा गंभीर है। पंजाब में जहां 38 प्रतिशत तो हरियाणा में 32 प्रतिशत कम बारिश हुई है। वहीं, उत्तरप्रदेश में 46 प्रतिशत बारिश कम हुई है। कुछ यही हाल बिहार, महाराष्टÑ और कर्नाटक जैसे राज्यों का है। बताने की जरूरत नहीं कि ये कृषि प्रधान राज्य हैं। कुछ ऐसा ही हाल 2014 में भी देखने को मिला था, जब औसत से 12 प्रतिशत बारिश कम हुई थी और भारत में 4.7 प्रतिशत पैदावार कम हुई थी।  
जब-जब ऐसी स्थिति आती है केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारें किसानों की सबसे बड़ी हितैषी के रूप में खुद को प्रस्तुत करती हैं। पर सच्चाई यही है कि इनका अपनापन कभी भी किसानों को रास नहीं आता है। और तो और किसानों की आत्महत्या का ग्राफ लगातार ऊपर ही होता जाता है। तेलंगाना की तरह आत्महत्या के मामले में महाराष्टÑ खासकर मराठवाड़ा भी पीछे नहीं है। इसी साल महाराष्टÑ में करीब 600 किसानों ने आत्महत्या कर ली। वहीं हरियाणा, उत्तरप्रदेश और पंजाब के किसानों में आत्महत्या की प्रवृत्ति ने तेजी दिखाई है। 
क्यों हमारे अन्नदाता लगातार आत्महत्या कर रहे हैं? इस पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है। किसानों के लिए देश भर में हजारों कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। बताया और प्रचारित किया जाता है कि ये कार्यक्रम किसानों की जिंदगी बदल देंगे। पर मंथन का वक्त है कि क्या ये कार्यक्रम सही अर्थों में किसानों के लिए संजीवनी का काम कर रहे हैं, या फिर इनके नाम पर सिर्फ और सिर्फ वाहवाही ही लूटी जा रही है। किसानों को किसी सरकारी कार्यक्रम या सरकारी मदद की ललक नहीं होती है। उनका तो एक मात्र उद्देश्य होता है कि उनकी फसल ठीक रहे, उसकी मार्केट में सही कीमत मिल जाए, पर होता है इसका उल्टा। किसानों को अच्छे बीज से लेकर खाद तक के लिए भ्रष्टाचार का आइना देखना पड़ता है। फिर सरकार द्वारा मिनिमम सेलिंग प्राइस से लेकर मार्केट तक में मौजूद भ्रष्टाचार से उनका सामना होता है। अगर गलती से किसी किसान ने बैंक से लोन लेकर खेती का रिस्क ले लिया तो फिर उसके लिए मौत के अलावा कोई दूसरा रास्ता ही नहीं बचता है। ऐसे में अगर प्रकृति ने भी अपना रौद्र रूप दिखा दिया तो किसी के पास कुछ शब्द ही नहीं बचते। सरकार सिर्फ आश्वासनों के दम पर किसानों का हितैषी बनने का प्रयास करती है, पर आत्महत्या के बढ़ते आंकड़े इस सच्चाई से परदा उठाने के लिए काफी हैं। 

अब हमें यह तय करना होगा कि हम अपने अन्नदाताओं को किन हालातों में छोड़ रहे हैं। गंभीरता से सोचने और मॉनिटरिंग करने की जरूरत है कि जिन किसानों के लिए हजारों योजनाएं चल रही हैं, क्या सच में उन तक इसका लाभ पहुंच रहा है। किसानों के बढ़ते आत्महत्या के लिए हम किसी सरकारी आयोजन में यज्ञ पर करोड़ों रुपए तो बहा सकते हैं पर इन्हीं रुपयों से क्या किसी किसान का भला भी किया जा सकता था? इन प्रश्नों का जवाब हर कोई   खोज रहा है। अगर अभी इन प्रश्नों का जवाब नहीं खोजा गया तो आने वाले वक्त में काफी भयावह स्थिति का सामना करना पड़ सकता है। वैसे ही अभी कई प्रदेशों के किसान खेती छोड़कर मजदूरी करने या शहरों में हजार दो हजार की नौकरी करने पर विवश हैं। कहीं ऐसा न हो कि गांवों और खेत खलिहानों में हर तरफ हरियाली की जगह सन्नाटा देखने को मिले।

Saturday, December 26, 2015

...‘तुमने पुकारा और हम चले आए’

क्या इसे महज संयोग कहा जाए कि जिस सदाबहार अभिनेत्री साधना के निधन पर पूरे भारत के लोग उनकी फिल्म राजकुमार के गाने तुमने पुकारा और हम चले आए...को याद कर रहे थे, ठीक उसी समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक दूसरे से मित्रवत बात कर थे। कहा जा रहा है, नरेंद्र मादी ने जिस तरह नवाज शरीफ को उनके जन्मदिन पर शुभकामनाएं दीं, ठीक उसी वक्त नवाज शरीफ ने उन्हें पाकिस्तान में डिनर करने का न्योता दे डाला। और संयोग देखिए भारतीय प्रधानमंत्री उसी गाने की तरह.... तुमने पुकारा और हम चले आए, जान हथेली पर ले आए रे.... गुनगुनाते हुए बेखौफ, बिंदास पाकिस्तान के लाहौर में लैंड कर गए। भारतीय इतिहास में यह दिन एक नई इबारत लिख गया। किसी ने कभी कल्पना नहीं की होगी कि कोई भारतीय प्रधानमंत्री वह भी नरेंद्र मोदी इस तरह अचानक न केवल पाकिस्तान पहुंचेंगे, बल्कि पाकिस्तानी सेना के हेलीकॉप्टर से नवाज शरीफ के घर पहुंचेंगे। चाहे मौका नवाज शरीफ के जन्म दिन का हो या उनकी नतिनी के विवाह समारोह का, नरेंद्र मोदी की इस पहल ने भारत-पाक के रिश्तों को एक नई ऊंचाई और ऊर्जा देने का प्रयास किया है।
हाल ही में भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज पाकिस्तान पहुंचीं थीं और सितंबर में नरेंद्र मोदी के पाकिस्तान दौरे पर मुहर लगाकर आर्इं थीं। पर इससे पहले ही नरेंद्र मोदी का इस तरह पाकिस्तान की सरजमीं पर उतरना खास महत्व रखता है। विपक्षियों ने अपने जल्दबाजी वाले कुतर्कों द्वारा एक बार फिर इस पहल को नौटंकी करार दे दिया है। पर भारतीय जनमानस ने सोशल मीडिया के जरिए अपने विचार साफ कर दिए हैं। दो कदम तुम भी चलो, दो कदम हम भी चलें... का फॉर्मुला ही भारत-पाक के रिश्तों के बीच जमी बर्फ को पिघला सकता है यह साफ हो चुका है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में नवाज शरीफ ने पहुंचकर पूरे विश्व को चौंका दिया था। नरेंद्र मोदी के इस अविश्वसमरणीय और साहसिक कदम को भले ही आलोचना और तमाम कुतर्कों की कसौटी पर कसकर देखा जाएगा पर सच्चाई यह है कि लंबे समय से इस तरह के अमन के संदेश का पूरा विश्व इंतजार कर रहा था। हां हमें यह भी जरूर नहीं भूलना चाहिए कि इससे पहले भी नरेंद्र मोदी के राजनीतिक गुरु अटल बिहारी वाजपेयी बस लेकर लाहौर पहुंचे थे, उसके बाद पाकिस्तान का दोहरा चरित्र किस तरह सामने आया था। फर्क इतना है कि उस वक्त भारतीय बस लाहौर पहुंची थी, इस बार इंडियन एयर फोर्स का स्पेशल विमान लाहौर की धरती पर पहुंचा। नरेंद्र मोदी ने अपने इस साहसिक कदम से एक ऐसा संदेश दिया है जो लंबे वक्त तक भारत और पाकिस्तान के साथ-साथ पूरे विश्व में चर्चा के केंद्र में रहेगा। पाकिस्तान की तरफ से सीमा पर पर अंधाधुंध गोलीबारी, घुसपैठ, आतंकियों को प्रश्रय देने, दाउद और हाफिज सईद जैसे मोस्ट वांटेड को अपने यहां शरण देने जैसे कई मुद्दों पर भी बहसबाजी का दौर शुरू हो चुका है।

इसे सीधे तौर पर नरेंद्र मोदी की साहसिक यात्रा से जोड़कर देखा जा रहा है। पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान के लोकतंत्र में सेना की दूसरी भूमिका है। जब-जब इस तरह के शांति प्रयास हुए हैं पाकिस्तानी सेना ने इस शांति में मिर्च डालने का काम किया है। ऐसे में उन आशंकाओं को भी दरकिनार नहीं किया जा सकता कि पाकिस्तानी सेना चंद दिनों में ही कुछ ऐसी हरकत कर डाले जिससे फिर खटास उत्पन्न हो। फिलहाल हमें नवाज शरीफ और नरेंद्र मोदी के दोस्ती का दिल खोलकर स्वागत करना चाहिए।

Monday, December 21, 2015

कोर्ट के फैसले जज्बातों पर नहीं होते


निर्भया  गैंगरेप के नाबालिग आरोपी को रिहा करने के अदालती फैसले के बाद पूरे देश में कानून पर नई बहस छिड़ गई है। कोर्ट ने साफ तौर पर कह दिया था कि कानूनों के दायरे के ऊपर कोई नहीं है और कानून उसकी रिहाई पर मुहर लगाता है। कोर्ट ने जो निर्णय दिया उस पर हायतौबा मचाने वालों को सोचना चाहिए कि कोर्ट के फैसले जज्बातों पर नहीं होते हैं। यह सच है कि निर्भया के साथ पूरे देश का सेंटिमेंट जुड़ा है। पर, इस मामले को लेकर जितनी राजनीति हो सकती है वह भी हो रही है। हमें मंथन जरूर करना चाहिए कि हम राजनीति में उलझें या वह रास्ता खोजें जिससे भविष्य में इस तरह की स्थिति का सामना न करना पड़ा।
सबसे बड़ी राजनीति लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर यानी संसद में हो रही है। जिस वक्त केंद्र सरकार ने स्पष्ट कर दिया था वह इस नाबालिग की रिहाई के पक्ष में बिल्कुल नहीं है। यहां तक कि केंद्र की तरफ से सॉलिसिटर जनरल ने भी सरकार की मंशा साफ कर दी थी। वाबजूद इसके कांग्रेस ने इसे मुद्दा बनाने की कोशिश की। जबकि, दूसरी तरफ हकीकत यह थी कि लोकसभा में सही समय पर जुवेनाइल जस्टिस अमेंडमेंट एक्ट पास हो चुका था। राज्यसभा में इसे पास कराया जाना था। पर कांग्रेस ने अपने हुक्मरानों के बेवजह के मुद्दों पर राज्यसभा ही नहीं चलने दी। नतीजा यह हुआ कि राज्यसभा में यह एक्ट पास नहीं हो सका और कोर्ट ने मौजूदा कानून के तहत उस रेपिस्ट को आजाद करने का आदेश जारी किया, जिसने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था। 
कांग्रेस की राजनीति के बीच बीजेपी ने भी एक राजनीतिक चाल चलने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। भले ही बीजेपी का कोई बड़ा नेता या मंत्री इस मुद्दे पर खुलकर सामने नहीं आया, पर एक ऐसी हवा चला दी गई कि दिल्ली सरकार आजाद होने वाले रेपिस्ट का स्वागत सत्कार करने वाली है। सोशल मीडिया के जरिए दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार पर एक ऐसा जोरदार हमला बोला जिसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी। जबकि, सच्चाई यह है कि मौजूदा जुवेनाइल एक्ट कहता है कि संबंधित सरकार को किसी नाबालिग की रिहाई के बाद उसके रिहेबेटाइजेशन की व्यवस्था करनी पड़ती है। निर्भया गैंग रेप मामले में भी ऐसा ही हुआ। कोर्ट ने जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड और दिल्ली सरकार को इस नाबालिग के पुनर्वास का आदेश दिया था, जिसके तहत दिल्ली सरकार ने उसे सिलाई मशीन और कुछ हजार रुपए देने की बात कही थी। 
हमें मंथन करना होगा कि इतने सेंसेटिव इश्यू पर हम राजनीतिक रोटी कब तक सेंकते रहेंगे। यहां बात सिर्फ निर्भया की ही नहीं है। हर दिन हमारे आसपास ऐसी घटनाएं होती रहती हैं, जिसमें हम चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते हैं। हर दिन हमारे देश में करीब 93 महिलाएं बलात्कार का शिकार होती हैं। ये आंकड़े कागजों में दर्ज हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि निर्भया केस के बाद भले ही देश में रेप के खिलाफ एक अलग तरह की मानसिकता ने जन्म लिया पर हकीकत यह है कि उसी रफ्तार से रेप के मामले भी आश्चर्यजनक तौर से सामने आए। 2012 में भारत में 24,923 मामले रजिस्टर किए गए वहीं, 2013 में इसकी संख्या बढ़कर 33,707 हो गई। इनमें से अधिकतर मामले टीन एज गर्ल्स के साथ घटित हुर्इं। जिस दिल्ली के लोगों ने निर्भया केस के दौरान आंदोलन का झंडा बुलंद किया था उसी दिल्ली को एनसीआरबी ने रेप केस के मामलों में सबसे अनसेफ घोषित कर रखा है। आपको जानकर हैरानी होगी कि दिल्ली में 2013 में 1441 मामले दर्ज हुए। अभी 2014-15 के आंकड़े आने बाकी हैं। अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्थिति और भी चिंताजनक ही होगी। 

निर्भया का मामला इसलिए पूरे देश में चर्चा का केंद्र बन गया, क्योंकि इसने एक आंदोलन का रूप ले लिया था। नहीं तो हर दिन पूरे देश में इसी तरह के बू्रटल केस सामने आते ही रहते हैं। राष्टÑीय राजधानी में हुई इस वारदात ने एक जनआंदोलन का रूप ले लिया था। वही कहानी दोबारा दोहराई जा रही है। एक बार फिर से एक ऐसा माहौल बनाने की कोशिश की जा रही है कि निर्भया गैंग रेप से बड़ा गुनहगार कोई नहीं है। उस गुनहगार से किसी को हमदर्दी होनी भी नहीं चाहिए, पर यह सवाल भी लाजिमी है कि इस तरह के न जाने कितने गुनहगार हमारे और आपके बीच ही मौजूद हैं। क्यों नहीं हम निर्भया के बहाने इस बीमारी को जड़ से समाप्त करने का प्रयास करें। हमें एक ऐसी मानसिकता के खिलाफ जंग लड़ने को तैयार होना होगा, जिसमें ऐसी परिस्थितियों को सिरे से नकारा जा सके। सिर्फ हाथों में मोमबत्ती और मुंह पर काले कपड़े बांधकर, फेसबुक और व्हॉट्सएप पर अपनी डीपी चेंज कर हम निर्भया या उसकी जैसी हजारों लड़कियों को न्याय नहीं दिला सकते हैं। कोर्ट को अपना काम करने दीजिए। कोर्ट कोई भी फैसला सोच समझकर लेता है, न कि जज्बाती होकर। ऐसे में हमें बेवजह कानून पर ऊंगली उठाने से पहले अपने अंदर के मनुष्य को जगाना होगा। हर किसी को समाज में सम्मानजनक तरीके से जीने का अधिकार है, हमारा लोकतंत्र भी ऐसा मानता है। ऐसे में अगर एक नाबालिग कोर्ट द्वारा छोड़ दिया जाता है तो बजाए इस पर राजनीति करने के हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए।