Friday, October 9, 2015

गाय को लेकर आंदोलन और दंगे


गो-हत्या पर इन तथ्यों को जानकर हैरान हो जाएंगे आप  पार्ट-3
अब तक आपने पढ़ा कैसे गाय और गो मांस को लेकर समाज में बदलाव आ रहा था। मुगल शासकों की गाय के प्रति क्या सोच थी। एक तरफ मुगल काल के शुरुआती दौर में मुगल शासकों की गाय और गोहत्या के प्रति सोच बेहद नरम थी, पर दूसरी तरफ जैसे-जैसे अंग्रेजों ने भारत में अपनी जड़ें समानी शुरू की वैसे-वैसे गाय को लेकर राजनीति भी शुरू हो गई। अंग्रेजों की रणनीति थी डिवाइड एंड रुल की। अर्थात फूट डालो और शासन करो। मुगल शासकों को भारतीय हिंदुओं ने दिल से स्वीकारना शुरू कर दिया था, जिसके कारण हुमांयू, अकबर, जहांगीर, शाहजहां जैसे मुगल शासकों के दौर में भारत ने समृद्धि की नई ऊचाइयों को छूआ। हिंदु और मुसलमानों में कोई खास बैर सामने नहीं आया। पर अंग्रेजों ने भारत में प्रवेश के साथ ही फूट डालो की रणनीति पर काम किया। अंग्रेजों ने भी सहारा लिया गाय का ही।

पश्चिमी सभ्यता में गो-मांस लोकप्रिय
दरअसल यूरोपियन कंट्रीज में गाय का मांस बड़े चाव से खाया जाता था। भारत में कई क्षेत्रों में यह पूर्णत: प्रतिबंधित था। अंग्रेजों को साथ मिला मुगल शासक औरंगजेब का। औरंगजेब को भारतीय इतिहास का सबसे कट्टर मुस्लिम शासक माना जाता है। अपने पिता शाहजहां से गो-मांस को लेकर शुरू हुए विवाद के बाद उसने कभी शाहजहां की बात नहीं मानी। अंतत: जब उसे शासन मिला तो उसने सबसे पहले गो-हत्या पर से प्रतिबंध हटा दिया। 1658 से 1707 तक उसने शासन किया इस दौरान हिंदु और मुसलमानों के बीच गोमांस को लेकर वैमनस्य पैदा हो चुके थे। औरंगजेब के बाद भी कई मुगल शासकों ने शासन किया, पर गो मांस को लेकर किसी ने संजीदगी से नहीं सोचा। अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने अपने अंतिम दिनों में इस बात को स्वीकार किया कि अंग्रेजों को रोकने का बस एक ही तरीका है कि हिंदुओं और मुसलमानों को एकजूट करें। इसके लिए बहादुर शाह जफर ने भी गाय का ही सहारा लिया। इस अंतिम मुगल शासक ने गो-हत्या को पूरी तरह प्रतिबंधित करते हुए हिंदुओं और मुसलमानों को एकजूट करने का प्रयास किया, पर तब तक काफी देर हो चुकी थी। भारत में मजबूती से पैर जमा चुके अंग्रेजों ने बहादुरशाह को सितंबर 1857 में निर्वासित कर बर्मा भेज दिया। वहीं 1882 में उसका निधन हो गया।
1857 की क्रांति में गो-मांस
  आमिर खान की फिल्म मंगल पांडे में आप 1857 की
क्रांति का बेहतरीन चित्रण देख सकते हैं।
अंग्रेजों के खिलाफ पहले स्वतंत्रता आंदोलन में भी गो-मांस का सबसे बड़ा रोल था। बहादुरशाह जफर ने हिंदुओं और मुसलमानों को एकजूट करने के लिए गो-मांस का सहारा लिया था। यह अभियान 1856 या उससे पहले से ही शुरू हो चुका था। सबसे पहले यह बात अंग्रेजी सेना में शामिल भारतीयों में फैलाई गई कि बंदूक में भरी जाने वाली गोलियों या गन पाउडर के रैपर को गाय की चर्बी से बनाया जाता है। इस गनपाउडर को खोलने के लिए दांतों का सहारा लिया जाता था। हिंदु सैनिकों को यह कतई मंजूर नहीं था कि उन्हें गो-मांस को अपने मुंह में लेना पड़ता है। कई इतिहासकारों का मानना है कि यह महज अफवाह थी कि गनपाउडर का रैपर गाय की चर्बी से बनाया जाता है। वहीं दूसरी तरफ मुस्लिमों को एकजूट करने के लिए यह बात भी फैलाई गई कि गनपाउडर वाले रैपर में गाय की चर्बी के साथ-साथ सूअर की चर्बी का भी उपयोग किया जाता है। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के पीछे चाहे जितने भी कारण गिनाए जाते हों, पर इस ऐतिहासिक सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का तात्कालिक कारण गो-मांस ही बना। सैनिकों के विद्रोह ने भयंकर रूप लिया, पर यह अफसोस जनक रहा कि इस आंदोलन को एक स्थाई नेतृत्व नहीं मिल सका, जिसके कारण अंग्रेजों ने चंद दिनों में ही आंदोलन को कुचल दिया। ठीक इसी वक्त अंतिम मुगल शासक बहादुरशाह जफर को भी बर्मा निर्वासित कर अंग्रेजों ने भारतीयों की रही सही एकजूटता को भी पूरी तरह तोड़ कर रख दिया।

अंग्रेजों का गोमांस के प्रति रवैया
अंग्रेजों के समय हिंदु और मुस्लमानों के बीच एक जबर्दस्त विभाजन रेखा खींच दी गई। सबसे पहला स्लटर हाउस अंग्रेजों ने ही खोला। बंगाल प्रांत के गवर्नर रॉबर्ट क्लाइव ने 1760 में पहला स्लटर हाउस कलकत्ता में खुलवाया। बताया जाता है कि हर दिन यहां करीब तीस हजार गायों की हत्या की जाती थी। इसके बाद अंग्रेजों ने बंबई और मद्रास में भी कई स्लटर हाउस खोलने की इजाजत दी। बताया जाता है कि 1910 ई. तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में करीब तीन सौ आधिकारिक स्लटर हाउस खुल गए थे। गाय के प्रति अंग्रेजों के नजरिए ने भारतीय हिंदुओं में काफी रोष उत्पन्न किया। हालांकि गो-मांस के मामले में हिंदु भी काफी बंट गए थे। बंगाल में हजारों की संख्या में कटने वाली गायों के कारण इसका मांस काफी सस्ते में उपलब्ध था। यही कारण था कि बंगाल में बसने वाले बंगाली हिंदुओं ने भी इसे खाना शुरू कर दिया। हाल यह है कि आज भी पूरे भारत में सबसे अधिक गाय मांस की खपत वाला प्रांत पश्चिम बंगाल ही है। आज भारत के कई राज्यों में गो-मांस पर तमाम तरह के प्रतिबंध लगे हैं, पर जब भी बंगाल में इस पर प्रतिबंध की बात होती है वहां के लोग आंदोलन शुरू कर देते हैं। सच्चाई यही है कि वहां के बंगाली हिंदु इन प्रदर्शनों में सबसे आगे होते हैं।

सिखों ने किया आंदोलन
गो-हत्या को   लेकर सिखों ने सबसे पहला आंदोलन शुरू किया। नामधारी सिखों ने 1870 संगठित रूप से गायों को बचाने की पहल शुरू की। इतिहास में इसे कुका आंदोलन के नाम से भी जाना जाता है। इसके बाद स्वामी दयानंद सरस्वती ने गौ-संवर्द्धनी सभा और गौ-रक्षणी सभा का गठन कर संगठनात्मक रूप से गायों को बचाने की पहल शुरू की। यह एक ऐसा दौर था जब गाय को लेकर राजनीति भी शुरू हो चुकी थी। पर अंग्रेजों के खिलाफ हिंदुओं को एकजूट करने के लिए गाय के अलावा दूसरा कोई जरिया भी उस वक्त के समाज सुधारकों को नजर नहीं आ रहा था। यही कारण है कि विभिन्न संगठनों का गठन शुरू हुआ। धीरे-धीरे गाय को लेकर यह आंदोलन पूरे भारत में फैलता चला गया।

शुरू हुआ दंगों का दौर
एक तरफ जहां गाय और गो-मांस को लेकर हिंदु संगठन एक हो रहे थे, वहीं दूसरी तरफ दंगों की नींव भी डाली जा चुकी थी। आज के उत्तरप्रदेश तब के अवध क्षेत्र में पहला दंगा भड़का। मुस्लिम बहुत क्षेत्र आजमगढ़ जिले के मऊ में भारत का पहला आधिकारिक दंगा सामने आया। यहां से गो-मांस को लेकर दंगों का जो सिलसिला शुरू हुआ उसने जल्द ही बंबई से लेकर पूरे देश दंगों की आग में जलने लगा। ब्रिटिश गजट के अनुसार छह महीने में करीब 40 से 45 कम्यूनियल राइट हुए, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए। ब्रिटिश काल और उसके बाद  गायों और स्लटर हाउस को लेकर 1717 से 1977 तक देश भर में हिंदु और मुसलमानों के बीच 167 दंगों का आधिकारिक रिकॉर्ड मौजूद है। गायों को लेकर शुरू हुई यह राजनीति कई दौरों से होते हुए आज भी उसी मुकाम पर मौजूद है जहां कोई सार्थक हल नहीं निकाला जा सका है। आज गो-मांस को राजनीतिक फायदे के रूप में देखा जाने लगा है। यही कारण है कि देश में साक्षरता की दर बढ़ने के बावजूद धार्मिक भावनाएं भड़काने के लिए गाय का सहारा ही लिया जाता है। हाल में हुई कई घटनाएं इसका जीता जागता उदाहरण है।

गो-हत्या से लेकर गो-मांस तक की यह सीरिज आपको कैसे लगी। हमें जरूर बताएं।

Thursday, October 8, 2015

गो हत्या पर महाराजा रणजीत सिंह ने दिखाई थी दिलेरी

 गो-हत्या पर इन तथ्यों को जानकर हैरान हो जाएंगे आप  पार्ट-2

अब तक आपने पढ़ा कैसे भारत में पहली गो हत्या की कहानी सामने आई। कैसे मुस्लिम देशों से आए शासकों ने बलिदान के रूप में भेड़Þ, बकरा और ऊंट के साथ गाय को भी शामिल किया। आज पढ़िए भारतीय इतिहास के उन शासकों के बारे में जिन्होंने गाय को लेकर अपने-अपने निर्णय दिए और नियम बनाए।

मध्यकाल तक भारत में कई मुस्लिम शासकों का प्रवेश हो चुका है। इसी के साथ वहां की सभ्यता और संस्कृति भी भारत में विद्यमान होती गई। सांस्कृतिक आदान प्रदान ने जहां एक तरफ आर्थिक संपन्नता को बढ़ावा दिया वहीं दूसरी तरह कई तरह की विषमताओं को भी सामने लाना शुरू किया। इन्हीं विषमताओं में से एक थी गो-हत्या। चुंकि भारतीय संस्कृति में गाय को पूजनीय माना गया। वह सुख, संपत्ति और समृद्धि के रूप में भारतीय समाज में मौजूद थी, इसीलिए गाय की हत्या पर धीरे-धीरे हिंदु समाज में विरोध के स्वर उत्पन्न होने लगे। इसी दौर में गो-शालाओं की भी नींव पड़ी। ताकि वहां बुढ़ी हो चुकी गायों को रखा जा सके और उनकी सेवा की जा सके। बावजूद इसके गो-हत्या बद्स्तुर जारी रही। मुस्लिम शासकों के साथ-साथ भारत में अंगे्रज शासन की नींव भी पड़ चुकी थी। पश्चिम समाज में गो-मांस बड़े चाव से खाया जाता था। अंग्रेजों ने भारत में भी गो-मांस को खूब बढ़ावा दिया।
इसी दौरान महाराजा रणजीत सिंह का उदय हुआ। शेर-ए-पंजाब के नाम से प्रसिद्ध महाराजा रणजीत सिंह का जन्म 1780 में गुजरांवाला (अब पाकिस्तान) में हुआ था। 1801 में रणजीत सिंह ने औपचारिक रूप से महाराजा की पद्वी ग्रहण की। उस वक्त पूरे पंजाब प्रांत में सिखों और अफगानों का मिलाजुला राज था। कुछ क्षेत्र में अफगान शासक काफी मजबूत थे। अफगान शासकों द्वारा किए जा रहे उत्पीड़न के खिलाफ महाराजा रणजीत सिंह ने जोरदार हमला बोला। चंद वर्षों में ही उन्होंने पेशावर समेत पूरे पश्तून क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। धीरे-धीरे उन्होंने जम्मू कश्मीर सहित आनंदपुर तक अपना विस्तार किया। इतने बड़े पंजाब प्रांत में हिंदुओं को एकजूट रखने के लिए उन्होंने सबसे बड़ा फैसला गाय को लेकर किया। दरअसल इस वक्त तक मुस्लिमों और हिंदुओं में गाय को लेकर आपसी मनमुटाव काफी बढ़ने लगा था। इसीलिए महाराजा रणजीत सिंह ने हिंदुओं को एकजूट रखने के लिए गाय का ही सहारा लिया। महाराजा रणजीत सिंह पहले ऐसे शासक हुए जिन्होंने पूरे पंजाब प्रांत में गो-हत्या पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया। रणजीत सिंह ने ‘सिख खालसा सेना’ का गठन किया और इसे असीमित अधिकार दिए। गो-हत्या रोकने में भी खालसा सेना ने अहम भूमिका निभाई।
 
महाराजा रणजीत सिंह का दरबार

अफगानों को दूर तक खदेड़ा
पंजाब में गो-हत्या पर प्रतिबंध ऐसे ही नहीं लग गया था, इसके पीछे भी एक दर्दनाक कहानी इतिहास में दर्ज है। दरअसल इस कहानी की नींव पड़ी 1748 में। अफगानिस्तान के शासक नादिरशाह की मौत के बाद शासक बना अहमद शाह दुर्रानी, जिसे भारतीय इतिहास में अहमद शाह अब्दाली के नाम से भी जाना जाता है। 1748 से 1758 तक उसने कई बार भारत पर हमला किया। सबसे बड़ी सफलता मिली 1757 में, जब अहमद शाह अब्दाली ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया। इसके बाद उसने आगरा, मथूरा, वृंदावन को निशाना बनाया।  (जान लें यह वह क्षेत्र था जहां सबसे अधिक गाय पालक थे। यदुवंशियों का यह क्षेत्र गो-पालकों के लिए स्वर्ग था। यदुवंश में अंधक, वृष्णि, माधव, यादव आदि वंश चला, जो आज भी गो-पालकों में सर्वोपरि हैं।) 
हरमिंदर साहिब (गोल्डन टेंपल)
 अब्दाली का मुख्य उद्देश्य इन क्षेत्रों से सबसे अधिक गायों को हांककर अपने देश लेकर जाना था। काफी हद तक उसे सफलता भी मिली। पंजाब के रास्ते अपने देश लौटने के क्रम में उसकी सेना में हैजा फैल गया, जिसके कारण वह कमजोर पड़ गया। यह दौर था जब हिंदुओं और मुसलमानों में बैर और दुश्मनी के बीज अंकुरित हो चुके थे। इसी में खाद डालने का काम किया अहमद शाह अब्दाली ने। अफगानिस्तान लौटने के
 क्रम में उसने सिखों से सबसे पवित्र तीर्थ स्थान अमृतसर के हरमंदिर साहिब (गोल्डन टेंपल) में उसने वह हकरत की, जिससे पूरे पंजाब प्रांत में मुस्लिमों के प्रति जबर्दस्त उबाल आया। अहमद शाह अब्दाली ने हजारों गायों को काटकर गोल्डल टेंबल के सरोवर में डाल दिया। इतना ही नहीं उसने हरमंदिर साहिब को भी काफी नुकसान पहुंचाया। उसका उद्देश्य हिंदुओं को नीचा दिखाना और उनकी भावना को ठेस पहुंचाना था, लेकिन हुआ इसका उल्टा। इससे पूरे पंजाब प्रांत में वह उबाल आया, जो हिंदुओं को एकजूट करने में कामयाब रहा। यह रोष काफी समय तक पंजाब प्रांत में रहा, जिसका लाभ महाराजा रणजीत सिंह ने बखूबी उठाया। उन्होंने अफगान शासन के खिलाफ जमकर युद्ध लड़े और पहले शासक बने, जिन्होंने पूरे पंजाब प्रांत में गो-हत्या पर आधिकारिक रूप से पूर्ण प्रतिबंध लगाया। महाराजा रणजीत सिंह का यह कदम भारत में हिंदू एकता की नजीर बन गई। महाराजा रणजीत सिंह ने न केवल हरमंदिर साहिब का दोबारा कायाकल्प किया, बल्कि पूरे मंदिर को सोने की परत से सजा दिया। इसके बाद से ही हरमंदिर साहिब को स्वर्ण मंदिर या गोल्डन टेंपल के नाम से भी जाना जाने लगा।


मुस्लिम शासकों का गौ प्रेम
ऐसा नहीं था कि मुस्लिम शासकों में गाय के प्रति प्रेम नहीं था। दरअसल मुगल काल में लंबे वक्त तक   गो-हत्या पर तमाम तरह के प्रतिबंध थे। मुगलों के पहले जो भी मुस्लिम शासक भारत आए उनका प्रमुख उद्देश्य भारत में लूट-पाट मचाना था। पर मुगलों ने भारत में राज्य स्थापित करने की ठानी। दूसरी तरफ भारतीय हिंदु मुगलों को भी लुटेरे के तौर पर देखते थे। अपनी इस लुटेरे वाली छवि को धोने के लिए भी मुगलों ने गाय का ही सहारा लिया। बाबर (1526 ई.) ने जब मुगल वंश की नींव भारत में रखी तो उसने हिंदुओं का विश्वास पाने के लिए सबसे पहले गो-हत्या को वर्जित कर दिया।
पुत्र हूमायंू  को लिखी वसिहत जिसे नमाद-ए-मज्जजिफी  भी कहा जता है, में बाबर ने लिखा कि
‘‘ भारत में हिंदुओं पर शासन करने के लिए तुम्हें उनके धर्म, आस्था और भगवान का सम्मान करना होगा। यह भारत में मुगल वंश के स्थायित्व के लिए जरूरी है कि तुम हिंदु धर्म में पूजनीय गाय का भी सम्मान करो। हिंदुओं के दिल में बसने के लिए तुम्हें गाय का सम्मान करना ही होगा। तभी भारतीय हिंदु तुम्हें दिल से अपना शासक स्वीकार कर सकेंगे।’’
 हिंदुओं के साथ लंगर खाते मुगल सम्राट अकबर।
 हूमायंू के बाद अकबर, जहांगीर और अहमद शाह ने भी अपने शासन काल के दौरान गाय को सम्मानित स्थान दिया। बहुत हद तक यही कारण रहा कि मुगलों का लंबा राज भारत पर रहा। कालांतर में हिंदुओं ने भी मुस्लिम शासकों को दिल से स्वीकार किया। पर मुगल शासक औरंगजेब के समय एक बार फिर गाय को लेकर उबाल आना शुरू हुआ। औरंगजेब को जब उसके पिता शाहजहां ने गुजरात प्रांत का प्रभार सौंपा तो औरंगजेब ने वहां गो-हत्या पर प्रतिबंध पूरी तरह हटा दिया। उसकी बर्बरता की कहानी यहीं समाप्त नहीं हुई, उसने गुजरात के सारसपुर स्थित चिंतामणी पार्श्वनाथ मंदिर को मस्जिद में तब्दील करवा दिया। और पहली बार पवित्र स्थान पर भी गाय को मारने की इजाजत दे दी। इसका जबर्दस्त विरोध हुआ। पर औरंगजेब के पिता और उस वक्त के हिंदुस्तान के शासक शाहजहां ने औरंगजेब की हरकत को गंभीरता से लेते हुए हिंदुओं को उनका सम्मान वापस दिलाया। मंदिर को फिर से स्थापित किया गया और एक बार फिर से गो-हत्या वर्जित कर दिया गया। शाहजहां और औरंगजेब के बीच गो-हत्या विवाद के बाद तलवारें खींच गई, जो शाहजहां के मौत तक जारी रही।

कैसी लग रही हैं यह जानकारियां जरूर बताएं और दूसरों से भी शेयर करें।
कल पढ़िए कैसे औरंगजेब कार्यकाल के दौरान गो-मांस के कारण मुगल शासन का पतन होता गया। और जब अंतिम मुगल शासक बहादुर शाह जफर ने एक बार फिर गो हत्या पर प्रतिबंध लगाया तब तक कैसे देर हो चुकी थी। कैसे गो-मांस को लेकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का पहला आंदोलन शुरू हुआ और कैसे बंगाल के हिंदु बंगाली भी गाय का मांस खाने लगे। कैसे ये बंगाली हिंदू आज भी गाय का मांस बड़े चाव से खाते हैं। यह सब बातें अगली किस्त में।

Wednesday, October 7, 2015

गो-हत्या पर इन तथ्यों को जानकर हैरान हो जाएंगे आप



पूरे देश में गाय को लेकर चल रही राजनीति के बीच अगर आपसे पूछा जाए कि इस राजनीति की नींव कहां पड़ी तो आप क्या बताएंगे? क्या आपको पता भी है कि कैसे हिंदु तो हिंदु भारत में गाय को लेकर मुस्लिम शासकों ने भी सम्मान व्यक्त किया था? क्या आप जानते हैं कि कई मुस्लिम देशों में गो-मांस नहीं खाया जाता है? आधिकारिक रूप से भारत में पहला स्लटर हाउस किसने और कहां खोला था? इस तरह की तमाम बातें बहुत कम लोगों को पता है। गो-मांस पर चल रहे विवाद के बीच ‘मुसाफिर’ आपको बता रहा है इससे जुड़ी वो तमाम बातें जिसे जानकर आप भी हैरान हो जाएंगे। तीन किस्तों में यह बातें आपके सामने होंगी। आज पढ़िए पहली किस्त।

किसने कहा गाय हमारी माता है
वेद-पुराणों में गाय को धन, संपदा, समृद्धि का प्रतीक माना गया है। गाय की सेवा को पुण्य कमाने का जरिया बताया गया है। कृष्ण के गोकुल में गाय के सम्मान को पूरी दुनिया तमाम माध्यमों से जानती है। जिस तरह गाय के दूध को सबसे पवित्र माना गया है, उसी तरह गो-मूत्र और गोबर को भी पवित्रता और निरोग होने का प्रतीक माना गया। हाल के दिनों में भी गो-मूत्र से बनी दवाइयों का सेवन किया जा रहा है। गोबर तो गांव के हर आंगन में आपको नजर आ जाएगा।  चाहे शहर हो या गांव, ऊर्जा के लिए गोबर के तरह-तरह के उपयोग होते रहते हैं। वेद पुराणों में गाय की इतनी महत्ता को देखते हुए ही इसे माता का रूप मान लिया गया और कालांतर में यह प्रचलित हो गया, गाय हमारी माता है। हंसी ठिठोली में भी इसका प्रयोग शुरू हो गया, कहा जाने लगा...गाय हमारी माता है, हमको कुछ नहीं आता है।
दरअसल गाय के सीधेपन और भोलेपन के कारण ही गाय हमारी माता.... के साथ ....हमको कुछ नहीं आता की तुकबंदी जोड़ दी गई। आज भी यह दो लाइन बड़े चाव से कही और सुनी जाती है।

गाय के सम्मान में पहली ‘हत्या’ चोल वंश में हुई थी
गाय या गो-मांस को लेकर भारत में अब तक न जाने कितने दंगे और फसाद हो चुके हैं। चंद दिनों पहले दादरी में अखलाख की मौत के पीछे भी गो-मांस की अफवाह ही रही। पर आपको जानकर हैरानी होगी कि सदियों पहले गाय को लेकर पहली हत्या चोल वंश के शासन काल में हुई थी। कैसे हुई थी यह हत्या, जानने से पहले आपके लिए जरूरी है कि पहले नीचे के पैरा में चोल वंश के बारे में समझ लें।
 ‘‘चोल वंश दक्षिण भारत के प्राचीन राजवंशों में एक था। इसे दक्षिण भारत के कृष्णवर्ण आर्य समाज का वंशज भी माना गया है। कात्यायन ने भी अपने धर्म ग्रंथों में चोल वंश का विस्तार से जिक्र किया है। कात्यायन ने वैसे तो कई ग्रंथों की रचना की थी, लेकिन ग्रह्य-संग्रह, छन्द:परिशिष्ट, कर्म प्रदीप और अभिधर्म ज्ञान प्रस्थान नामक ग्रन्थ कात्यायन की प्रमुख रचनाएं हैं। विजयालय को चोल वंश का संस्थापक माना जाता है।  850 से लेकर 870-71 ई. तक इन्होंने शासन किया था। विजयालय के बाद चोल वंश में करीब बीस प्रमुख राजाओं का जिक्र आता है। इन सभी ने करीब चार सौ वर्षों तक राज किया। ’’
चोल वंश में हुई घटना की यह प्रतिकात्मक तस्वीर कई किताबों में मौजूद है।

इन्हीं बीस चोलवंशी राजाओं में से एक राजा हुए मधुनिधि चोल। कहा जाता है कि गाय के सम्मान में इन्होंने अपने पुत्र को मौत की सजा सुनाई। कहानी कुछ इस तरह है कि, राजा मधु ने अपने महल के आगे राजा की अंगुठी के साथ घंटी लटका रखी थी। जो कोई भी फरियादी इस घंटी को बजाता था उसे राजा स्वयं न्याय देते थे। एक दिन उस घंटी को एक गाय ने बजाया। राजा जब बाहर आए तो उन्होंने देखा एक गाय उस घंटी को लगातार बजा रही थी। राजा मधु ने दरबारियों से पूरी जानकारी मांगी तो पता चला कि इस गाय के बछड़े की मौत राजा के बेटे के रथ से कुचल जाने से हुई है। राजा ने गाय को न्याय दिया और जिस तरह बछड़े की मौत हुई उन्होंने अपने बेटे को भी उसी तरह मौत देने की सजा सुनाई। इस सजा के बाद काफी वाद-विवाद होने का जिक्र भी धर्म गं्रथों में मिलता है। माना गया कि आधिकारिक रूप से यह पहली गो-हत्या थी। जिस हत्या की सजा हत्या के रूप में सामने आई। किसी पशु को न्याय दिलाने के लिए इतने कड़े दंड का जिक्र भारतीय इतिहास में इससे पहले कहीं नहीं आता है।

इस तरह प्राचीन काल में भारत में जहां सिर्फ हिंदु राज था वहां गाय को लेकर पहला विवाद चोल वंश में ही सामने आया। क्योंकि भारत में उस वक्त मुसलमानों का उदय नहीं हुआ था, इसीलिए गाय को हमेशा से ही पवित्र और पूजनीय मानते हुए इसका सम्मान किया गया। चोल वंश के बाद गाय को लेकर विवादों का सिलसिला मध्यकालीन भारत में शुरू हुआ।
मध्यकाल में दीवारों पर बनी भित्ती चित्रों में भी गायों के सम्मान को दर्शाया गया
 
मध्यकाल में मुसलमानों का आगमन

चोल वंश के शासन में हुई घटना के बाद मध्यकाल से पहले तक गाय को लेकर किसी तरह कोई विवाद सामने नहीं आया। मध्यकालीन भारत अपने आप में कई प्रगति और विनाश का सूचक बना। तुर्कि, अफगनिस्तान, फारस और अरब की तरफ से मुस्लिम शासकों ने भारत में प्रवेश किया। भारत की समृद्धि को देखते हुए इन शासकों की निगाहें भारत में थी। कई प्रांतों पर कब्जा करते हुए इन मुस्लिम शासकों ने भारत में अपनी नींव रखी। इस्लामिक परंपरा में बलिदान के रूप में अरब देशों में भेड़ों और बकरों को मारने का रिवाज था। यह ठीक उसी तरह था जैसे नवरात्र में पशु बलि की प्रथा हिंदु धर्म में है। सेंट्रल और वेस्ट एशियन अरब कंट्रीज में गो-मांस खाने की रिवाज कहीं नहीं था।   पर कहीं-कहीं ऊंट के मांस का सेवन करने की बात जरूर आती है। कालांतर में भारत आए मुस्लिम शासकों ने कई जगह गो-हत्या की शुरुआत की। और गो-मांस का सेवन शुरू किया। धीरे-धीरे बकरीद के अवसर पर गो-मांस का प्रचलन काफी बढ़ गया। और यहीं से भारत में गो-हत्या को लेकर ऐसा विवाद शुरू हुआ जो आज तक कायम है।


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कल आपको पढ़ाऊंगा कैसे कालांतर में मुगल शासकों ने गाय को सम्मान दिया था, कैसे इन्हीं मुगल शासकों में शामिल औरंगजेब ने गो-हत्या की सारी हदें पार कर दी थी। कैसे अंग्रेजों ने गो-मांस के लिए कोलकाता में पहला स्लटर हाऊस बनवा दिया था, जहां हर दिन रुटीन के साथ तीस हजार गायों की हत्या होती थी।

Tuesday, October 6, 2015

आजम की हरकत पर देश शर्मिंदा है

उत्तर प्रदेश के नगर विकास मंत्री आजम खान हमेशा ऐसी हरकतें करते हैं जिससे भारत में रहने वाले मुसलमानों के प्रति गलत अवधारणा बनती है। धर्म के नाम पर राजनीति की रोटी सेंकने वाले आजम खान ने शायद कभी इस बात पर गौर नहीं किया कि वह एक ऐसे लोकतांत्रिक देश में रहते हैं जहां मुसलमानों को भी वह सभी संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं जो अन्य धर्म, जाति और संप्रदाय को दिए गए हैं। खुद को मुसलमानों के स्वयंभू और सर्वोपरि नेता समझने वाले आजम खान ने हमेशा जाति और संप्रदाय की राजनीति करके मुसलमानों के चेहरे को बदनाम करने का ही प्रयास किया है। शायद यही कारण है कि असद्दुदीन ओवैसी ने भी आजम को हद में रहने की चेतावनी दे डाली है। आजम खान द्वारा दादरी कांड पर यूएन महासचिव को लिखे पत्र पर प्रतिक्रिया देते हुए ओवैशी ने आजम खान की हरकत को खतरनाक बताया है। कहा है कि ऐसी ही हरकतों से ही भारत में मुस्लिमों के प्रति सोच बदलती जा रही है।
दादरी के बिसाहड़ा में हुई वारदात को लेकर आजम खान ने संयुक्त राष्टÑ संघ के महासचिव बान की मून को पत्र लिखकर एक ऐसी हरकत की है जिसने पूरे भारत के लोगों को न केवल चौंका दिया है, बल्कि शर्मिंदा भी कर दिया। आजम खान चाहते हैं कि यूएन महासचिव इस मामले में तत्काल हस्तक्षेप करें। संघ एक गोलमेज कॉन्फे्रंस बुलाए, जिसमें भारत में मुसलमानों और ईसाइयों की खराब दशा पर बात हो। शायद आजम खान इस बात को भूल गए हैं कि जिस लोकतंत्र ने उन्हें लोगों का नुमाइंदा बनाया है, उसी लोकतंत्र में न्यायपालिका भी बैठी है। क्या आजम खान को अपनी न्यायपालिका पर जरा भी विश्वास नहीं है, जो एक भीड़तंत्र द्वारा की गई घिनौनी हरकत को अंतरराष्टÑीय स्तर पर सुलझाना चाहते हैं।
दादरी में अखलाक की मौत ने निश्चित तौर पर भारत की लोकतांत्रिक छवि को नुकसान पहुंचाया है, पर जिस तरह आजम खान ने यूएन महासचिव को पत्र लिखकर अपने घर की बातों को अंतरराष्टÑीय स्तर पर उछाला है, वह सरासर निंदनीय है। आजम खान ने पत्र लिखकर यह स्पष्ट कर दिया है कि वह भारत को कभी दिल से अपना घर स्वीकार नहीं कर सकते हैं। चाहे यहां की जनता उन्हें कितना भी प्यार कर ले। आजम खान इस तरह की हरकत या ऊटपटांग सांप्रदायिक बयानबाजी करते हुए यह बात हमेशा भूल जाते हैं कि इसी लोकतंत्र की बदौलत वो मंत्री पद पर बैठे हैं। इसी लोकतांत्रिक व्यवस्था और न्यायपालिका की बदौलत उन्हें भी न्याय प्राप्त है। नहीं तो जितने बड़े और गंभीर आरोप उन पर लगे हैं, उनमें वह किसी जेल की कोठरी में सड़ रहे होते। अगर इसी भारत में मुस्लिम होते हुए उन्हें न्याय मिला है तो वह कैसे अपने आधार पर अनुमान लगा सकते हैं कि अखलाक के परिवार को न्याय नहीं मिलेगा और इस परिवार के न्याय के लिए वह यूएन महासचिव को पत्र लिख दें। इससे बड़ी शर्मसार कर देनी वाली हरकत कोई दूसरी नहीं हो सकती।
अखिलेश यादव ने जब युवा मुख्यमंत्री के रूप में उत्तरप्रदेश की कमान संभाली तो पूरा विश्व उनकी ओर देख रहा था। उद्योग घरानों से लेकर कॉरपोरेट कंपनियों को भी एक उम्मीद बंधी थी कि उत्तरप्रदेश जैसे फर्टिलाइज स्टेट में निवेश करेंगे। पर आजम खान जैसे स्वयंभू मुस्लिम नेताओं के कारण अखिलेश यादव जैसा पढ़ा-लिखा युवा मुख्यमंत्री भी कुछ नहीं कर सका। हर वक्त उत्तरप्रदेश का कोई न कोई जिला दंगों की आग में जल ही रहा है। समाजवादी सरकार की पुलिस ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस को भी दंगों की आग में झोंकने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। जिस तरह वहां गणेश मूर्ति विसर्जन को लेकर धरने पर बैठे साधु-संतों पर लाठियां बरसाई गर्इं, उसे पूरे विश्व ने देखा है। यह किसके इशारे पर हुआ बताने की नहीं, सिर्फ समझने की जरूरत है। आज बनारस सुलग रहा है। कई थाना क्षेत्रों में कर्फ्यू लगा है। क्या अखिलेश यादव की सरकार इतनी निकम्मी है कि गंगा में मूर्ति विसर्जन की जिद पर अड़े साधु-संतों से बातचीत के जरिए मनाया न जा सके। जिस तरह साधु-संतों पर अपराधियों की तरह लाठियां बरसाई गई थीं, उसी दिन वहां हिंसा की चिंगारी को हवा दे दी गई थी। बनारस में विकास के लिए निवेश करने वाले उद्योग घरानों में अब इस हिंसा के बाद क्या संदेश जाएगा कहा नहीं जा सकता, पर जिस उद्देश्य से उत्तरप्रदेश पुलिस ने वहां काम किया उसका रिजल्ट सामने है।
आजम खान की शर्मनाक हरकत को आॅल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम) के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने भी खतरनाक बताया है। ओवैसी ने कहा कि दादरी में जो भी हुआ, वो हमारे घर का मामला है। उसे अंतरराष्टÑीय स्तर पर उठाना सरासर गलत है। यूपी सरकार आम लोगों को सुरक्षा देने में नाकाम रही है और इसी वजह से उत्तरप्रदेश बदनाम हो रहा है। ओवैसी ने जो कुछ भी कहा उसे भी गंभीरता से सोचने की जरूरत है। क्यों आजम खान जैसे नेताओं के बहकावे में आकर भारत के मुसलमान खुद को दूसरे देश का वासी मानने लगे हैं। इसी देश में जब मुंबई में गणेश पूजा होती है तो नमाजियों को नमाज पढ़ने के लिए गणेश पंडाल में जगह मुहैया कराई जाती है। इसी देश में जब एक मुस्लिम महिला को लेबर पेन होता है तो हिंदू महिलाओं द्वारा मंदिर के अंदर उसकी   डिलिवरी कराई जाती है। इसी देश में उस मुस्लिम महिला द्वारा अपने बच्चे का नाम गणेश रख दिया जाता है। इसी देश के सभी प्रमुख पदों पर मुस्लिम धर्म के लोग अपनी शोभा बढ़Þाते हैं। इसी देश के लोग एलओसी पर अपनी जान की बाजी लगाते हैं। इसी देश के खिलाड़ी को इंडियन टीम का कप्तान बनाया जाता है। पर यह अफसोस जनक है कि इसी देश का एक मंत्री अपने घर की बातों को लेकर विदेशों में अपनी छाती पीटता है।
प्रदेश में लॉ एंड आॅर्डर बनाए रखने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है। फिर इसमें केंद्र सरकार क्या करेगी, यह समझ से परे है। बनारस में लाठियां बरसाकर अपनी दादागिरी दिखाने वाली यूपी पुलिस दादरी की वारदात पर मौन क्यों रही। क्यों नहीं समय पर सूचना मिलने के बावजूद दादरी के भीड़तंत्र को नियंत्रित करने के लिए लाठियां बरसाई गर्इं। क्यों इतनी शर्मनाक वारदात होने दी गई। पूरा देश यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से सवाल कर रहा है। अपनी गलतियों का ठीकरा दूसरों पर फोड़ना आजम खान जैसे नेताओं को बखूबी आता है। अखिलेश यादव के पिता मुलायम सिंह यादव ने कई बार सार्वजनिक मंच से बेटे अखिलेश को इशारा किया है कि अपने अगल-बगल वालों से सावधान रहो। ज्यादा तवज्जो मत दो। विकास का काम करो। कड़े फैसले लो। अपने पिता मुलायम सिंह की बातों को देर से ही सही पर अखिलेश यादव को आज गंभीरता से सोचने की जरूरत है। आजम खान की शर्मनाक हरकत पर उन्हें मंत्रिमंडल से निकालने की बात भी उठने लगी है। अखिलेश यादव से ऐसे किसी कड़े फैसले की उम्मीद पूरा राष्टÑ कर रहा है, क्योंकि जो व्यक्ति भारत को अपना घर, अपना राष्टÑ नहीं समझ सकता, वह उत्तरप्रदेश और समाजवादी सरकार का भला कैसे कर सकता है।

Saturday, October 3, 2015

प्लीज, रेप को धंधा मत बनाइए

अस्सी के दशक से हिंदी सिनेमा में एक ऐसा बदलाव आया जिसने फिल्मी अभिनेत्रियों को बोल्ड रोल करने की इजाजत दे दी। इसी बदलाव के दौर में रेप का सीन भी प्रमुखता से फिल्मों में आने लगा। शबाना आजमी ने तो विनोद खन्ना के साथ एक फिल्म में वह रोल भी किया, जिसने रेप की परिभाषा ही बदल दी। फिल्म में शबाना आजमी ने एक ऐसी लड़की का किरदार निभाया, जो हाईवे पर लिफ्ट लेकर लोगों को अपने जाल में फंसाती थी और उनसे जबर्दस्ती रुपया वूसलती थी। रुपया नहीं देने पर खुद ही कपड़े फाड़ना शुरू कर देती थी और जोर-जोर से चिल्ला कर लोगों को जमा कर लेती थी। आरोप लगाने लगती थी देखिए, यह मेरा बलात्कार करने का प्रयास कर रहा था। बदनामी के डर से लोग अपना सारा रुपया, सोने की अंगूठी आदि हिरोइन को पकड़ा देते थे। यह एक ऐसा दौर था जब लड़कियां उतनी बोल्ड नहीं होती थी। फिर पिछले पांच से सात वर्षों में इस बोल्डनेस में ऐसा बदलाव आया कि आए दिन-प्रतिदिन रेप और रेप के प्रयास के मामले बढ़ते ही चले गए। आज हालात यह हैं कि अगर कोई लड़की अपने साथ दुष्कर्म का आरोप लगाती है तो सबसे पहले उसे ही शक की दृष्टि से देखा जाने लगता है। मंथन का वक्त है कि आखिर यह स्थिति क्यों और कैसे आ रही है।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के हर साल जारी होने वाले आकड़ों में महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों की संख्या में दिनों-दिन बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है। इनमें से भी सबसे अधिक मामले रेप और रेप के प्रयासों के होते हैं। निर्भया कांड के बाद महिलाओं की सुरक्षा के लिए कई नए नियम लाए गए। बदलाव के इस दौर में महिलाओं को और अधिक सबल बनाने का प्रयास किया गया। पर हुआ इसका उल्टा। आए दिन रेप की मिलने वाली शिकायतों में फर्जी केस की संख्या का प्रतिशत बढ़ता गया। यह प्रतिशत आज भी लगातार बढ़ ही रहा है। मेट्रो सिटी में इस तरह के मामले सबसे अधिक हैं। पहले अपनी मर्जी से साथ रह रहे हैं, फिन अनबन हुई तो लड़की सीधे थाने पहुंचती है और अपने साथ दुष्कर्म की शिकायत दर्ज करा देती है। चूंकि, कानून इतने सख्त हैं कि तत्काल आरोपी को अरेस्ट कर लिया जाता है। बाद में कई मामलों में समझौता हो जाता है। ऐसे मामलों में कहने को तो लड़का और लड़की दोनों ही सार्वजनिक रूप से बदनाम होते हैं। पर सबसे बड़ा सवालिया निशान रेप की शिकायतों पर उठता है। शायद इसी कारण हाल के दिनों में रेप की शिकायत करने वाली महिलाओं या लड़कियों को हमेशा ही दूसरी नजर से देखा जाने लगा है। इस तरह के लगातार बढ़ रहे झूठे मामलों के कारण ही सुप्रीम कोर्ट को भी लिव-इन-रिलेशनशिप को लेकर कड़ी टिप्पणी करनी पड़ी है। 
कोर्ट के सामने कई ऐसे मामले आए जिसमें लड़का और लड़की पांच-सात साल से साथ रह रहे थे। अचानक एक दिन दोनों के बीच विवाद इतना बढ़ गया कि दोनों अलग हो गए। फिर लड़की पुलिस के पास पहुंच गई और लगा दिया दुष्कर्म का आरोप। अखबारों की हेडलाइन बनी शादी का झांसा देकर पांच साल तक करता रहा दुष्कर्म। यह बातें समझ से परे है कि कोई शादी का झांसा देकर इतने साल तक रेप कैसे करता रहा। क्या लड़कियों को इतनी भी समझ नहीं है कि कौन उसे धोखा दे रहा है कौन उसका यूज कर रहा है। इसी तरह के बढ़ रहे मामलों पर कोर्ट को कड़ा संज्ञान लेते हुए लिव-इन-रिलेशनशिप के संबंध में अलग से टिप्पणी करनी पड़ी। बावजूद इसके आज भी इस तरह के मामलों में कमी नहीं आई है।
महिलाओं की सुरक्षा और सबल के लिए बने कानूनों का महिलाओं ने ही मजाक बनाना शुरू कर दिया है। किसी से बदला भी लेना है तो छेड़छाड़ का आरोप लगा दो, रेप के प्रयास का आरोप लगा दो। उत्तरप्रदेश के आईपीएस अधिकारी अमिताभ ठाकुर ने तो अपने आॅफिस के बाहर महिलाओं के लिए अलग नोटिस ही चिपका दिया था। उन पर भी एक महिला ने इसी तरह के झूठे आरोप लगाए थे। इन्हीं सब कारणों से आज के दिन में महिलाओं की ओर रेप और रेप के प्रयास के संबंध में दी गई शिकायतों को काफी संजीदगी से नहीं लिया जाता है। हर एक शिकायतकर्ता को शक की दृष्टि से देखा जाने लगा है। हरियाणा देश का पहला ऐसा राज्य बना है जहां सर्वाधिक महिला थाने खोले गए हैं। यहां के हालिया आंकड़े बताते हैं कि सबसे अधिक शिकायत दुष्कर्म और इसके प्रयास के ही आ रहे हैं। यह हैरान करने वाली बात है। हद तो यह है कि कई बार रेप की शिकायत दो-तीन सालों बाद आती है। कोई यह बताने को तैयार नहीं है कि दो साल बाद रेप की याद कैसे आ गई?
इस तरह के झूठे मुकदमों की बढ़ती संख्या का खामियाजा वास्तविक पीड़िता को भी भुगतना पड़ रहा है। ऐसा नहीं है कि महिलाओं के साथ रेप नहीं हो रहे हैं, पर लगातार बढ़ रही झूठी शिकायतों ने सही शिकायतों पर भी ग्रहण लगाना शुरू कर दिया है। अभी भी वक्त है महिलाओं को इस बात को समझना होगा कि उनके लिए बनाए गए कानून कहीं उनके लिए ही अभिशाप न बन जाएं। अभी तो सुप्रीम कोर्ट ने लिव-इन-रिलेशनशिप और कई साल बाद आने वाले मामलों पर टिप्पणी की है, कहीं ऐसा न हो जाए कि कई कानूनों को समाप्त करने की भी पहल शुरू हो जाए। हालांकि इसकी आवाज तो उठ ही रही है कि सिर्फ शिकायत के आधार पर आरोपी को अरेस्ट न किया जाए।  

चलते-चलते
हरियाणा में दो सीनियर अधिकारियों के बीच तलवारें खिंची हैं। मामला सिर्फ इतना है कि एक लड़की ने आरोप लगाया है कि एक पूर्व आईएएस के लड़के ने उसके साथ लंबे समय तक दुष्कर्म किया है। अब एक पुरुष पुलिस अधिकारी लड़की के पक्ष में खड़ा है, जबकि दूसरी महिला पुलिस अधिकारी लड़के को सही बता रही है। कहा जाता है कि महिलाएं महिलाओं का पक्ष लेती है और पुरुष पुरुषों का। पर हरियाणा में रेप के आरोप को लेकर जो हो रहा है वह अलार्मिंग है। अब भी वक्त है महिलाओं को जरूर मंथन करना चाहिए,  कानून उनके संबल के लिए है या दूसरों को परेशान करने के लिए?