Friday, September 25, 2015

नशे में कौन नहीं है ये बताओ जरा


शराब पीना अच्छा है या खराब इस पर तर्क-वितर्क करते लंबा वक्त गुजर चुका है, पर आज तक किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सका है। नतीजे से मतलब यह है कि या तो इसे पूरी तरह खत्म कर दिया जाए, या पूरी तरह लागू कर दिया जाए। हालांकि, विदेशों में इसके ठोस रिजल्ट खोज लिए गए हैं, पर भारत में अभी लंबा वक्त लगेगा। वक्त लगने का कारण यह है कि हम अभी तक एकरूपता में यह तय नहीं कर सके हैं कि भारत में किस उम्र से शराब पीने की अनुमति दी जाए। भारत के ही कई प्रदेशों में पूरी तरह शराब बैन है, जबकि कुछ राज्यों में वोटिंग का अधिकार मिलते ही आपको शराब पीने की छूट मिल जाती है। बहस इस बात पर नहीं है कि शराब जरूरी है या गैरजरूरी, पर मंथन का वक्त है कि शराब कब और कितनी मात्रा में पीनी चाहिए।
मेरे आॅफिस में कई सहयोगी हैं, जिनकी उम्र 22 से 30 साल के बीच है। कई बैचलर भी हैं। सैलरी भी अच्छी मिल रही है। युवा हैं तो मौज-मस्ती का अधिकार भी है। पर इन्हीं सहयोगियों में से एक की वीरवार को देर रात तबीयत इतनी खराब हो गई कि उसे हॉस्पिटल ले जाना पड़ा। डॉक्टर ने धड़ाधड़ चार इंजेक्शन लगाए फिर जाकर पेट दर्द से आराम मिला। खोज खबर ली गई तो पता चला कि लगातार शराब पीने से पेंक्रियाज पर बुरा असर पड़ा है। उम्र कम है। वैवाहिक बंधन में भी नहीं बंधे हैं। सोने पर सुहागा ये है कि हरियाणा में शराब की कीमत भी काफी कम है। पर हमें यह जरूर सोचना चाहिए कि अति हमेशा दुखदायी होती है। शराब पीने से कोई मना नहीं करता है पर अगर संभल कर पिया जाए तो यह उतनी बुरी भी चीज नहीं है।
अगर यह बुरी चीज ही होती तो विश्व भर में इससे मिलने वाला रेवेन्यू क्यों इतना अधिक होता। भारत में ही कई राज्यों का रेवेन्यू शराब बिक्री के कारण काफी अधिक है। यह अलग बात है कि सरकार कभी शराब पीने को प्रोत्साहित नहीं करती, पर इससे होने वाले आर्थिक फायदे के कारण इसे बंद करने के लिए भी नहीं कहती। हां यह भी सही है कि गुजरात, मिजोरम, मणिपुर, नागालैंड जैसे स्टेट में शराबबंदी पूरी तरह लागू है, पर नब्बे प्रतिशत स्टेट ऐसे हैं जहां शराब पीने के मामले में पूरी छूट है। भारत में ही शराब पीने की उम्र को लेकर जबर्दस्त उतार-चढ़ाव मौजूद है। एक तरफ जहां हिमाचल प्रदेश में शराब पीने की न्यूनतम आयु 18 वर्ष तय है वहीं इससे सटे यूनियन टेरिटरी चंडीगढ़ और हरियाणा में न्यूनतम आयुसीमा 25 साल है। आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, जम्मू-कश्मीर, झारखंड, महाराष्टÑ आदि राज्यों में शराब पीने की न्यूनतम आयु 21 साल निर्धारित है। वहीं पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, मेघालय जैसे राज्य जहां शराब की सबसे अधिक खपत है, वहां न्यूनतम आयु 25 साल तय की गई है। हिमाचल प्रदेश के अलावा गोवा, मध्यप्रदेश, सिक्किम और उत्तरप्रदेश में आप 18 साल के होते ही शराब पीने का अधिकार पा जाते हैं।

ऐसी स्थिति में जब भारत में शराब पीने की उम्र तक तय है, तो क्या हम शराब पीने की लिमिट को तय नहीं कर सकते। भारत में सिर्फ मोटर व्हीकल (एमवी) एक्ट में ही इस बात का जिक्र है कि हमें कितनी मात्रा में शराब पीनी चाहिए। एमवी एक्ट कहता है कि आपके खून में ब्लड एल्कोहॉल कंटेंट यानि बीएसी की लिमिट 0.03 परसेंट तक ही होनी चाहिए। यानि, सीधे शब्दों में कहा जाए तो 100 एमएल ब्लड में 30 एमएल एल्कोहॉल ही स्वीकार्य है। इससे अधिक मात्रा पाई जाती है तो आपको एमवी एक्ट के तहत सजा दी जा सकती है। पर समझने वाली बात यह है कि सिर्फ सड़क दुर्घटना से बचने के लिए यह लिमिट तय है। जिंदगी की दुर्घटना के लिए कोई लिमिट तय नहीं है। मेरे आॅफिस के सहयोगी के असहनीय दर्द को चार इंजेक्शन से दूर तो कर दिया गया पर, उसे समझाने वाला कोई नहीं मिला कि कितनी मात्रा में शराब पिओगे तो जिंदगी बची रहेगी।
भारत में यह एक बड़ी विडंबना ही है कि जहां एक तरफ सरकार को शराब से करोड़ों रुपए का राजस्व प्राप्त होता है, वहीं दूसरी तरफ शराब पीकर नशे में किए जाने वाले अपराधों की संख्या भी हर साल बढ़ती ही जा रही है। चाहे शराब पीकर रेप की वारदात हो, छेड़छाड़ हो या फिर मर्डर। हर साल इन आंकड़ों की संख्या राजस्व की तरह बढ़ती ही जा रही है। माना कि सरकार ‘शराब हानिकारक है’ जैसे स्लोगन के साथ विज्ञापन नहीं कर सकती है। पर इतना तो जरूर कर सकती है कि शराब पीने की मात्रा के बारे में युवा पीढ़ी को जागरूक करे।

हम युवाओं को जब वोटिंग का अधिकार 18 साल में देते हैं तो खूब प्रचारित-प्रसारित करते हैं कि अपने वोट का अधिकार कैसे प्रयोग करेंगे। पर वहीं जब शराब पीने का अधिकार देते हैं तो कुछ नहीं बताते। मंथन का वक्त है कि हम कैसे युवाओं को शराब के प्रति जागरूक कर सकते हैं। हम कैसे उन्हें बताएंगे कि कितनी मात्रा में पी जाने वाली शराब आपके शरीर के लिए हानिकारक नहीं है। दरअसल, नशा शराब में नहीं है, नशा शराब की ओवर डोज में है। हमें इसी ओवर डोज पर मंथन करना है। शराबी फिल्म में अमिताभ बच्चन ने भी एक गाने के दौरान शराब का गुणगान किया है, प्रश्न पूछा था कि ‘नशे में कौन नहीं है बताओ जरा’। कहा था ‘नशा शराब में होती तो नाचती बोतल’। इस गाने को तो आज की   युवा पीढ़ी भी खूब चाव से सुनती है और गुनगुनाती है, पर इसी के साथ शराब की ओवर डोज से होने वाले नशे और उसके नुकसान पर मंथन भी युवा पीढ़ी की ही हिम्मेदारी है।


चलते-चलते

दिल्ली में युवाओं की बल्ले-बल्ले
राष्टÑीय राजधानी दिल्ली में शराब पीने की उम्र को लेकर युवाओं की बल्ले-बल्ले हो सकती है। यदि सब कुछ सही रहा तो जल्द ही दिल्ली में 21 साल के युवाओं को शराब पीने का कानूनी अधिकार मिल जाएगा। केजरीवाल सरकार में पर्यटन मंत्री कपिल मिश्रा ने बयान दिया है कि वे इस पर विचार कर रहे हैं। वहीं दिल्ली के डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया ने इस प्रस्ताव के संबंध में कहा कि दिल्ली सरकार के पास अभी तक ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं आया है। यदि ऐसा कोई विचार कैबिनेट के सामने आएगा तो विचार किया जा सकता है। अभी दिल्ली में उम्र 25 साल है।

Monday, September 21, 2015

‘इस्लामोफोबिया’ से बचना होगा मुस्लिमों को

पूरा विश्व इस वक्त ‘इस्लामोफोबिया’ से ग्रस्त है। पश्चिमी देशों में तो ‘इस्लामोफोबिया’ ने इस कदर डर पैदा कर रखा है कि कोई भी मुस्लिम खुद को मुस्लिम कहने से डरने लगा है। हाल यहां तक खराब हैं कि लंबी दाढ़ी रखने वाले सिखों को भी मुस्लिम समझ लिया जाता है। आए दिन वहां सिखों और मुस्लिमों पर नस्लीय हमला होने की खबरें आती रहती हैं। आखिर ऐसा क्यों होता जा रहा है कि ‘इस्लामोफोबिया’ धीरे-धीरे और अधिक गहराई से मन के अंदर अपनी जड़ें जमाता जा रहा है। कमोबेस पश्चिमी देशों जैसा ही माहौल भारत में भी बनने लगा है। यह मंथन का वक्त है। खासकर मुस्लिमों को भी इस संबंध में बेहतर तरीके से सोचने की जरूरत है कि वे ऐसा क्या कर रहे हैं जिसने ‘इस्लामोफोबिया’ को इस तरह हौव्वा बना दिया है। अमेरिका के टेक्सास में 14 साल के स्कूली बच्चे अहमद मोहम्मद की गिरफ्तारी ने ‘इस्लामोफोबिया’ पर नई बहस को जन्म दे दिया है।
अमेरिका के स्कूली बच्चे अहमद मोहम्मद को सिर्फ इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि उसने अपने हाथों से एक घड़ी बनाई। अति उत्साह में उसे स्कूल के बच्चों और टीचर को दिखाने के लिए स्कूल बैग में लेकर स्कूल आ गया। क्लास के दौरान बैग से आ रही टिक-टिक की आवाज ने टीचर्स का ध्यान खींचा और टीचर्स ने बम की आशंका में पुलिस को कॉल कर दिया। पुलिस ने आनन-फानन में बैग को जब्त कर अहमद मोहम्मद को अरेस्ट कर लिया। संदेह इसलिए भी पुख्ता था क्योंकि जिस दिन अहमद मोहम्मद घड़ी लेकर स्कूल पहुंचा था उस दिन 11 सितंबर था। यह वही दिन था जब वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला कर अलकायदा ने पूरे विश्व को शोकाकुल कर दिया था और पूरे विश्व में मुसलमानों के प्रति एक अलग सोच को जन्म दे दिया था।
अहमद मोहम्मद सूडान मूल का है। मोहम्मद के पिता ने कहा कि अहमद को तत्काल सिर्फ इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि दुर्भाग्य से उसके नाम के साथ मोहम्मद जुड़ा है। अहमद मोहम्मद को दरअसल ‘इस्लामोफोबिया’ का दंश झेलना पड़ा। हालांकि, चंद घंटों में यह स्पष्ट हो गया कि अहमद मोहम्मद ने सिर्फ एक घड़ी बनाई थी, पर चंद मिनटों में ही ‘इस्लामोफोबिया’ की इस घटना ने पूरे विश्व का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर दिया। माइक्रो ब्लॉगिंग साइट ट्विटर के टॉप ट्रेंड में अहमद मोहम्मद आ गया। सोशल मीडिया पर इस घटना का इतना जिक्र हुआ कि व्हाइट हाउस को भी सामने आना पड़ गया। अमेरिकी राष्टÑपति बराक ओबामा ने ट्वीट करके कहा ‘कूल क्लॉक अहमद। क्या आप अपनी घड़ी व्हाइट हाउस लाना चाहोगे? हमें आपकी तरह और बच्चों को साइंस के प्रति प्रेरित करना चाहिए। यही चीजें हैं जो अमेरिका को महान बनाती हैं।’ यहां तक कि फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्क ने भी अहमद मोहम्मद का हौसला बढ़ाया। विश्व की कई और नामचीन हस्तियों ने भी इस घटना की पुरजोर निंदा की।
पर सवाल उठता है कि आखिर ऐसी स्थिति पैदा ही क्यों हुई? इसके लिए जिम्मेदार कौन है? क्यों ऐसा माहौल बनता जा रहा है कि हर एक मुस्लिमों को आशंका और भय की दृष्टि से देखा जाने लगा है। यहां तक कि भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्टÑ में भी मुस्लिमों के प्रति दृष्टिकोण बदलने लगा है। यह कहने में तनिक भी गुरेज नहीं करना चाहिए कि इसके लिए स्वयं मुस्लिम ही दोषी हैं। किसी भी पश्चिमी राष्टÑ में अगर आपका नाम मुस्लिम कम्युनिटी को प्रदर्शित करता है तो फिर आप हमेशा आशंका की दृष्टि से देखे जाने लगते हैं। धर्म और मजहब के नाम से राजनीति करने वालों ने कभी इस बात पर जोर नहीं दिया कि मुस्लिमों को बेहतर शिक्षा-दीक्षा प्राप्त कर समाज की मुख्यधारा से बेहतर तरीके से जुड़ने के प्रति प्रेरित किया जाए। कुछ प्रोगेसिव मुस्लिमों ने ऐसा करने की ठानी भी तो उन्हें दूसरे धर्मों का हिमायती बताकर अपने ही समाज में अलग-थलग करने का प्रयास किया गया। यह प्रयास आज भी जारी है।
कश्मीर हो या बिहार, यूपी हो या पश्चिम बंगाल। हर जगह इस वक्त का माहौल ‘इस्लामोफोबिया’ में तब्दील होता जा रहा है। हर शुक्रवार को जुम्मे की नमाज के बाद कश्मीर में आईएस और पाकिस्तान के झंडे लहराकर ‘इस्लामोफोबिया’ को बढ़ावा दिया जा रहा है। पर अब मुसलमानों को भी समझना होगा कि कौन उनके नाम को बर्बाद करने पर तुला है। उन्हें समझना होगा कि पूरे विश्व में कितने मुसलमानों ने अपने कर्माें के आधार पर सम्मान पाया है। नाम कमाया है। प्रतिष्ठा कमाई है। इसी मंथन के साथ अमेरिका में अहमद मोहम्मद के साथ हुई घटना का एक दूसरे पहलू पर सोचने की जरूरत है। दूसरा पहलू यही है कि उसी मुसलमान बच्चे के लिए कैसे पूरा विश्व एक हो गया। क्या भारत और क्या दूसरे पश्चिमी देश, सभी ने एकजुटता दिखाते हुए सोशल मीडिया पर एक ऐसा अभियान चलाया जिसने रातों रात अहमद मोहम्मद को सेलिब्रिटी बना दिया।
भले ही ‘इस्लामोफोबिया’ ने लोगों में आशंका पैदा कर रखी है। भले ही ‘इस्लामोफोबिया’ ने मुस्लिमों के प्रति एक अलग माहौल बना दिया है, पर इस सच्चाई से भी इनकार नहीं किया जा सकता है इसी ‘इस्लामोफोबिया’ के दौर में पूरा विश्व कलाम को सलाम कर रहा है और पूरा विश्व अहमद मोहम्मद जैसे टैलेंटेड बच्चे के लिए पूरी शिद्दत के साथ खड़ा हुआ है। मंथन का वक्त है। आप भी मंथन करिए कि हमें ‘इस्लामोफोबिया’ के झूठे दंश को झेलना है   या प्रोगेसिव बनकर विश्व में एक अलग पहचान कायम करनी है। 
चलते-चलते
एक बार फिर जम्मू-कश्मीर में जुम्मे की नमाज के बाद पाकिस्तानी झंडे लहराए गए। यहां तक की पुलिसबल पर पत्थर भी बरसाए गए। कई मौकों पर आईएस के झंडे भी लहराते जाते रहे हैं। भारत विरोधी नारों की गूंज भी सुनाई देती है। यह भी सच्चाई है कि कश्मीर के अधिकतर मुस्लिम इस तरह की सोच नहीं रखते हैं। पर चंद लोगों के कारण कश्मीर में जो माहौल बन रहा है उसे समझने की जरूरत है। ऐसे लोगों को सामने लाने की जरूरत है जो इस्लाम को बदनाम करने पर तुले हुए हैं।



Saturday, September 19, 2015

एक प्रयोग का मर जाना : मिस यू आई-नेक्स्ट टैब्लॉइड


भारतीय पत्रकारिता के एक टैब्लॉइड यूग का अंत हो गया। अपने प्रकाशन के नौ साल बाद ही भारत का एक मात्र मॉर्निंग डेली टैब्लॉइड न्यूज पेपर ने अपना टैब्लॉइड अस्तित्व खो दिया। आई-नेक्स्ट अब अन्य दूसरे मॉर्निंग डेली न्यूज पेपर्स के साथ ब्रॉड शीट में परिवर्तित हो गया। इस परिवर्तन को भले ही कई अन्य दृष्टिकोणों से देखा जाएगा, पर भविष्य में जब कभी भी भारत में टैब्लॉइड जर्नलिज्म का जिक्र आएगा उसमें आई-नेक्स्ट को भी जरूर याद किया जाएगा।
मुझे आज भी अच्छी तरह याद है जब आई-नेक्स्ट में मेरी इंट्री हुई थी। संपादक आलोक सांवल जी ने मुझसे सीधा सवाल किया था। आप तो ब्रॉड शीट से आ रहे हैं फिर इसमें कैसे एडजस्ट करेंगे। मैंने भी सपाट तौर से कहा था सर भारत में तो यह आपका पहला प्रयोग ही है, फिर आपको टैब्लॉइड कल्चर वाले लोग कहां से मिलेंगे। जो भी आएंगे वो ब्रॉड शीट से ही आएंगे। यह तो परिवर्तन का दौर है, हम भी देखने-समझने आए हैं इस टैब्लॉइड जर्नलिज्म को। इसके बाद उन्होंने ज्यादा कुछ नहीं पूछा।
दरअसल भारत में टैब्लॉइड जर्नलिज्म की शुरुआत कुछ वैसी ही थी जैसे मिड नाइटीज में टीवी पत्रकारिता की। नए-नए समाचार चैनल आ रहे थे। सीनियर पदों पर प्रिंट मीडिया से आए पत्रकारों की भरमार थी। किसी के पास न तो टीवी जर्नलिज्म का अनुभव था और न कोई इतने अत्याधुनिक संचार तंत्रों से वाकिफ था। हां, बस न्यूज सेंस एक ही था, इसीलिए प्रिंट मीडिया से आए पत्रकारों ने टीवी जर्नलिज्म में सफलता के ऐसे झंडे गाड़े, जिसकी मिसाल आज भी दी जाती है।
ऐसा ही कुछ आई-नेक्स्ट के साथ भी हुआ। ब्रॉड शीट के अच्छे-अच्छे पत्रकारों का जुटान शुरू हुआ। 2006 में इसका प्रकाशन शुरू हुआ। शुरुआती दौर में पवन चावला संपादक बने और प्रोजेक्ट हेड बने आलोक सांवल। दिनेश्वर दीनू, यशवंत सिंह (संप्रति : भड़ास फॉर मीडिया के संपादक), राजीव ओझा (संप्रति : अमर उजला में सीनियर न्यूज एडिटर), मनोरंजन सिंह (संप्रति : हिंदुस्तान हिंदी जमशेदपुर के संपादक), प्रभात सिंह (संप्रति : अमर उजाला गोरखपुर के संपादक),  विजय नारायण सिंह (संप्रति : दैनिक भास्कर), मिथिलेश सिंह (संप्रति : राष्टÑीय सहारा), शर्मिष्ठा शर्मा (संप्रति : डिप्टी एडिटर आई-नेक्स्ट) जैसे ब्रॉड शीट के बड़े नाम अखबार के साथ जुड़े। अपने तरह के अनोखे कांसेप्ट और विजन के साथ शुरू हुआ आई-नेक्स्ट उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ और कानपुर में चंद दिनों में ही पाठकों के बीच अपनी पैठ बनाने में कामयाब रहा। फिर तो इसकी सफलता की कहानी आगे बढ़ते ही गई।
  हां इस बात का जिक्र भी जरूरी हो जाता है कि इसी सफलता की कहानी के बीच ब्रॉड शीट से आए बड़े और नामचीन नामों का आई-नेक्स्ट से पलायन भी जारी रहा। पलायन के तमाम कारण गिनाए जा सकते हैं, पर सभी के मूल में इसका टैब्लॉइड  कांसेप्ट ही था। भारत में अब तक न तो टैब्लॉइड जर्नलिज्म को डेली न्यूज पेपर के रूप में स्वीकार्यता मिली थी और ऊपर से आई-नेक्स्ट का कांसेप्ट भी बाईलैंगूअल था। मतलब साफ था, या तो इस नए प्रयोग को बेहतर तरीके से समझा जाए, या फिर मूल जर्नलिज्म यानि ब्रॉड शीट में चला जाए। अधिकतर लोगों ने पलायन का रास्ता अपनाया। यहां तक की संपादक पवन चावला जी भी रुख्शत हुए। पर प्रोजेक्ट हेड आलोक सांवल जी ने इसे चुनौती के रूप में लिया। प्रोजेक्ट हेड के साथ ही आलोक सांवल जी को संपादक का पद भी दिया गया। उन्हें साथ मिला टाइम्स आॅफ इंडिया से आर्इं शर्मिष्ठा शर्मा का। दोनों ने मिलकर अपने तरह के अनूठे प्रयोग वाले डेली न्यूज पेपर आई-नेक्स्ट को धीरे-धीरे आगे बढ़ाना शुरू किया। उत्तरप्रदेश के टायर टू सिटी से शुरू हुआ यह सफर कई दूसरे राज्यों तक जा पहुंचा। इसमें बिहार, उत्तराखंड, झारखंड, मध्यप्रदेश जैसे राज्यों के नाम भी जुड़े।
आई-नेक्स्ट की सफलता ने कई दूसरे राज्यों में न केवल रोजगार के साधन पैदा किए, बल्कि पत्रकारों को एक नए नजरिए से पत्रकारिता करना भी सिखाया। एक से बढ़कर एक प्रयोग हुए। एक ऐसा दिन भी आया जब इंटरनेशनल प्लेटफॉर्म पर भी इसे स्वीकारा गया। वैन इफ्रा जैसे अवॉर्ड ने आई-नेक्स्ट के टैब्लॉइड जर्नलिज्म में चार चांद लगा दिया।
पर इन सबके बीच आई-नेक्स्ट अपने आप से ही जूझता रहा। कभी अपने कांसेप्ट को लेकर, कभी अपने प्रयोगों को लेकर। मैंने अपने कॅरियर का सबसे बेहतरीन छह साल आई-नेक्स्ट के साथ गुजारा। पर इन छह सालों में इसके कांसेप्ट को कई बार बदलते हुए देखा। कभी यह न्यूज पैग के रूप में था, कभी शॉफ्ट स्टोरी के रूप में और कभी न्यूज को ही कई दूसरे एंगल से प्रजेंट करने के रूप में। हर छह महीने बाद होने वाले बदलाव ने कभी भी आई-नेक्स्ट को स्थिरता प्रदान नहीं की। कभी यह सिटी का अखबार बना रहा, कभी सर्कुलेशन के प्रेशर ने इसे गांव और कस्बे में भी पहुंचा दिया। कभी इसमें ब्रांडिंग और इन हाउस इवेंट का इनपुट इतना हो जाता था कि न्यूज गायब हो जाता था कभी कोई अपने प्रयोगों से इसे आगे पीछे करता रहा।
प्रकृति का नियम है बदलाव। यह बदलाव जरूरी भी है। पर एक अखबार के रूप में इतना बदलाव न तो पाठकों ने स्वीकार किया और न ही विज्ञापनदाताओं ने। यही कारण रहा कि आई-नेक्स्ट ने अपनी खबरों, अपनी प्रजेंटेशन, अपने इवेंट्स के जरिए लोकप्रियता तो हासिल की,  पर कभी भी न्यूज पेपर   के रूप में पाठकों का यह फर्स्ट च्वाइस नहीं बन सका। सभी शहरों में यह न्यूज के दूसरे विकल्प के रूप में ही मौजूद रहा। पर इसी सब के बीच आई-नेक्स्ट का विस्तार भी होता रहा।
जैसे-जैसे आई-नेक्स्ट के एडिशन बढ़ते गए वैसे-वैसे ब्रॉड शीट के कई दूसरे अच्छे पत्रकार भी इसके हिस्से में आए। विश्वनाथ गोकर्न (संप्रति : बनारस आई-नेक्स्ट के एडिटोरियल हेड), शंभूनाथ चौधरी (संप्रति : रांची और जमशेदपुर आई-नेक्स्ट के एडिटोरियल हेड), रवि प्रकाश (संप्रति : बीबीसी हिंदी), विवेक कुमार (संप्रति : हिंदुस्तान पटना के सीनियर न्यूज एडिटर), मृदुल त्यागी (संप्रति : दैनिक जागरण), मुकेश सिंह (संप्रति : दैनिक जागरण अलिगढ़ के संपादक),  महेश शुक्ला (संप्रति : आई-नेक्स्ट के सेंट्रल इंचार्ज), सुनिल द्विवेदी (संप्रति : हिंदुस्तान गोरखपुर के संपादक) आदि अपने मूल कैडर यानि ब्रॉड शीट छोड़कर आई-नेक्स्ट से जुड़े। कई लोग कई बार इसे छोड़कर भी गए, लेकिन वापस आई-नेक्स्ट में ही लौटकर आए। छोड़कर क्यों गए और फिर लौटकर आई-नेक्स्ट क्यों आए, यह एक अलग मुद्दा है, पर सच्चाई यही है कि कहीं न कहीं इसके टैब्लॉइड जर्नलिज्म के स्थायित्व को स्वीकायर्ता मिलने के कारण ही वे लौटे।
आलोक सांवल और उनकी बेहतरीन टीम ने आई-नेक्स्ट को जागरण समूह का एक प्रॉफिटेबल बिजनेस मॉड्यूल तैयार करके दिया। यही कारण है कि इंदौर से भी आई-नेक्स्ट का प्रकाशन शुरू हुआ।
वर्ष 2012 में रांची यूनिवर्सिटी में हुए एक राष्टÑीय मीडिया सेमिनार में मुझे भी आमंत्रित किया गया था। उस वक्त मैं आई-नेक्स्ट देहरादून का एडिटोरियल हेड था। मुझे सब्जेक्ट दिया गया था भारत में टैब्लॉइड जर्नलिज्म की शुरुआत, विस्तार और भविष्य। बड़े ही उत्साह के साथ मैंने प्रजेंटेशन तैयार किया था। करीब 12 सौ लोगों की उपस्थिति, जिनमें अधिकर मीडिया संस्थान के बच्चे और पत्रकारों के बीच मैंने टैब्लॉइड जर्नलिज्म के कांसेप्ट और उसके भारत में विस्तार को बताया था। मैंने बताया था कि कैसे यूरोपियन कंट्री में द गार्जियन, द सन, द वर्ल्ड जैसे टैब्लॉइड अखबार लीडर की भूमिका में हैं। कैसे उन्होंने अपनी पत्रकारिता के बल पर बड़े से बड़े अखबारों को धूल चटा दी। छोटे साइज में रहते हुए कैसे इन अखबारों ने बड़े मार्केट पर अपना कब्जा जमा लिया। कैसे इन टैब्लॉइड अखबारों ने अपनी सेंसेशनल खबरों और येलो जर्नलिज्म के ठप्पे को धोते हुए मुख्य धारा की पत्रकारिता में अपनी जगह बनाई। और कैसे ये टैब्लॉइड अखबार आज पश्चिमी देशों के दिल की धड़कन बन चुके हैं। न्यूज पेपर के रूप में पाठकों के फर्स्ट च्वाइस बने हैं। भारत में आई-नेक्स्ट के कांसेप्ट, उसके टैब्लॉइड और बाइलैंगूअल कैरेक्टर को मैंने विस्तार से बताया था। बड़े ही उत्साह से लबरेज मैंने बताया था कि आने वाला समय भारत में भी टैब्लॉइड जर्नलिज्म का ही होगा। धीरे-धीरे ही सही इसे भारतीय पाठक स्वीकार कर रहे हैं। कई शहरों और राज्यों में आई-नेक्स्ट का विस्तार इसका जीता जागता उदाहरण है। मैं इस टैब्लॉइड जर्नलिज्म को लेकर इतना उत्साहित था कि यहां तक कह गया कि देखिएगा कई दूसरे अखबार भी इस तरह का प्रयोग करेंगे। प्रयोग की यह बात मैंने अमर उजाला के कांपेक्ट और हिंदुस्तान के युवा के संदर्भ में कही थी। पर यह बातें आखिरकार बातें ही रह गर्इं।
बदलाव के इस दौर में कल से आई-नेक्स्ट भी बदल गया। बदलाव भी ऐसा कि भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में इसे एक टैब्लॉइड युग का अंत ही कहा जाएगा। भारत में सांध्य दैनिक तो काफी हैं जो टैब्लॉइड जर्नलिज्म को जिंदा रखे हैं, पर आई-नेक्स्ट हिंदी का पहला मॉर्निंग डेली था जो अपने आप में अनोखा था। इसके बदलाव के अनेकानेक कारण हो सकते हैं, पर जब भी भारत में पत्रकारिता के इतिहास पर चर्चा होगी आई-नेक्स्ट के नौ साल के सफर को जरूर याद किया जाएगा। आज मैं भी टैब्लॉइड जर्नलिज्म को छोड़कर ब्रॉड शीट में आ चुका हूं। पर टैब्लॉइड जर्नलिज्म के साथ छह साल के सफर में कई अच्छी और बूरी यादें जुड़ी हैं। सुखद यह रहा कि मैंने भी कुछ वर्ष ही सही टैब्लॉइड जर्नलिज्म को शिद्दत के साथ जिया। मिस यू आई-नेक्स्ट टैब्लॉइड। मिस यू।

Tuesday, September 15, 2015

मीट बैन : धार्मिक हिंसा नहीं तो क्या है?


इन् ादिनों महाराष्टÑ से लेकर गुजरात, पंजाब हरियाणा तक में मीट पर प्रतिबंध को लेकर नया बवाल चल रहा है। शायद यह पहली बार है कि इस तरह के प्रतिबंध को एक अलग दृष्टि से देखने की जरूरत महसूस की जा रही है। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या हम किसी धर्म विशेष को खुश करने के लिए दूसरे धर्म के अनुयायियों के खाने की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित कर सकते हैं? क्या इस तरह का प्रतिबंध सिर्फ शाकाहार की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने के लिए है या फिर यह सब किसी दूसरे उद्देश्य से किया जा रहा है। मंथन का वक्त है कि क्या इस तरह मांस पर प्रतिबंध धार्मिक हिंसा के रूप में परिलक्षित नहीं हो रहा है।

बेशक यह सौ प्रतिशत धार्मिक हिंसा ही है। भारत एक पूर्ण रूप से लोकतांत्रिक देश है। जहां हर धर्म के अनुयायियों को अपने अनुसार रहने, अपने अनुसार खाने-पीने, अपने अनुसार धर्म का प्रचार प्रसार की स्वतंत्रता प्राप्त है। भारत में धार्मिक स्वतंत्रता इस हद तक है कि अगर आप जैन धर्म के मुनी हैं या नागा साधु हैं तो आप सड़क पर पूर्ण रूप से नंगे भी चल सकते हैं, पर अगर आप उस धर्म के अनुयायी या मुनी नहीं हैं और सड़क पर नंगे चलने की कोशिश करेंगे तो आपके खिलाफ तमाम कानूनी धाराओं में कार्रवाई हो सकती है। अगर आपके द्वारा सार्वजनिक रूप से नि:वस्त्र रहने या सड़क पर नग्न चलने की किसी ने शिकायत कर दी तो आपके खिलाफ सार्वजनिक स्थल पर अश्लीलता फैलाने का मामला तक दर्ज हो सकता है। आईपीसी की धारा 294 के तहत आपको जेल भेजा जा सकता है। अगर किसी महिला के सामने आपने इस तरह की नग्न अश्लील हरकत की तो धारा 354 में आपके खिलाफ मुकदमा दर्ज होगा। यहां तक कि 81 पुलिस एक्ट में भी इस तरह का प्रावधान है। आपके खिलाफ सख्त कार्रवाई होगी, बदनामी होगी वह अलग।

तात्पर्य इतना है कि जिस देश में इस तरह की उच्चतम धार्मिक स्वतंत्रता आपको मिली है वहां यह कैसे स्वीकार किया जा सकता है कि आप किसी धर्म के विशेष सप्ताह के दौरान मांस खाने पर प्रतिबंध लगा सकते हैं। मंथन का वक्त है कि इस तरह की जरूरत क्यों पड़ गई? क्या यह सब इसलिए किया जा रहा है जिसका राजनीतिक फायदा उठाया जा सके? या फिर इसलिए किया जा रहा है ताकि सच्चे अर्थ में जानवरों पर हो रहे अत्याचार को रोका जा सके? या फिर इसलिए भी किया जा रहा है ताकि किसी धर्म विशेष को यह संदेश दिया जाए कि आपकी जो मर्जी हो, हम तानाशाह हैं, हम आपके खाने-पीने पर भी प्रतिबंध लगवा सकते हैं। यह बेहद गंभीर विषय है।
हमारे देश में जितने धर्मों के अनुयायी हैं उनमें अगर परसेंटेज निकाला जाए तो मांसाहारियों का परसेंटेज निश्चित रूप से अधिक आएगा। मांस का भक्षण चाहे बीफ के रूप में हो, मटन के रूप में हो, चिकन के रूप में हो या पोर्क के रूप में। कहने का आशय इतना भर है कि किसी धर्म में गाय को मां से भी ऊंचा दर्जा दिया गया है, तो किसी धर्म में सूअर को पाक माना गया है। हैं तो सभी जानवर हीं। फर्क बस इतना है कि उनके ऊपर धर्म का स्वघोषित लेबल लगा दिया गया है। ऐसे में किसी विशेष धर्म के अनुयायियों के पवित्र सप्ताह में मांसाहार पर प्रतिबंध लगाना कहां तक न्यायोचित है? और वह भी सिर्फ गौमांस पर। चिकन, मटन और मछली को इससे अलग रखा गया है।
भारत में सभी व्यक्ति को अपने धर्म के अनुसार रहने और खाने की स्वतंत्रता है। ऐसे में अगर आज बीफ पर बैन लगाया गया है तो कल हमें इस बात के लिए भी तैयार रहना चाहिए कि दूसरे धर्म के अनुयायी भी अपने पवित्र सप्ताह में, पाक महीनों में किसी विशेष मांस के खाने पर प्रतिबंध लगाने की मांग करने लगें। यह विवाद इसलिए भी उठ रहा है क्योंकि जिन प्रदेशों में बीफ पर बैन लगाया गया है वहां किसी न किसी रूप में भारतीय जनता पार्टी की सरकार मौजूद है। ऐसे में किस तरह का संदेश जा रहा है यह बताने की जरूरत भी न हीं है। इस वक्त भले ही बीजेपी का समर्थन करने वाले इसे न्यायालय का निर्णय बताकर अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश में लगे हैं, पर इतना तय है कि बीफ बैन को लेकर शुरू हुई राजनीति आगे भी कई रंग दिखाएगी। बीफ बैन का समर्थन करने वाले इसे पशु प्रेम से जोड़कर भी देख रहे हैं। पर हमें पशु प्रेम और मांसाहार को बिल्कुल अलग करके देखना चाहिए। पशुप्रेम को बढ़ाने के लिए हमें किसी पवित्र सप्ताह या पवित्र माह का इंतजार नहीं करना चाहिए। मंथन जरूर करें कि हम इस तरह की धार्मिक हिंसा को कैसे रोक सकते हैं। यह अलार्मिंग सिचुएशन है। आने वाला समय हमें अलार्म बजाने का मौका नहीं देने वाला है।

चलते-चलते
बॉम्बे हाईकोर्ट ने मुंबई में मीट बैन पर प्रतिबंध मामले की सुनवाई के दौरान शुक्रवार को कहा कि इस तरह की परंपरा गलत है। उधर महाराष्टÑ सरकार ने भी कोर्ट को बताया है कि मीट बैन को चार दिनों से घटाकर दो दिन कर दिया गया है। हालांकि वीरवार को जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने प्रदेश में गौमांस पर प्रतिबंध को सख्ती से लागू करने का निर्देश राज्य सरकार को दिया था। पर यह सच्चाई भी जाननी जरूरी है कि कश्मीर में पिछले 150 वर्षों से गौमांस पर पूर्ण प्रतिबंध लगा हुआ है। ऐसे में मीट बैन के समर्थकों को कोर्ट का हवाला देने वाली बातें नहीं करनी चाहिए।


Friday, September 4, 2015

साहब! सड़क पर कलाम का नाम बदनाम ना करो

बहुत पहले गैंगटोक गया था। वहां का सबसे मुख्य मार्ग, जहां लग्जरी होटल्स की बहार है, सबसे अधिक इटिंग ज्वाइंट्स हैं, उसका नाम महात्मा गांधी मार्ग था। पर यह नाम सिर्फ कागजों और वहां लगे एक शिलापट पर ही दिखता था। पूरे गैंगटोक में किसी से भी पूछ लें कि महात्मा गांधी मार्ग जाना है, वहां जाने का रास्ता बता दें। सब यही पूछेंगे महात्मा गांधी मार्ग? यह कहां है? पर जैसे ही आप पूछेंगे माल रोड जाना है, लोग वहां गलियों से पहुंचने तक का आसान रास्ता बता देंगे। बात सिर्फ इतनी है कि क्या हम किसी सड़क का नाम किसी महापुरुष के नाम पर रखकर उन्हें सम्मान के उच्चतम शिखर पर पहुंचा देते हैं या हमें मंथन करने की जरूरत है कि सड़कों के नाम पर राजनीति न कर उन महापुरुषों के विचारों को जन-जन तक पहुंचाने के प्रति कृतसंकल्पता दिखानी होगी। साथ ही, क्या हमें भारतीय ऐतिहासिकता से जबर्दस्ती छेड़छाड़ करनी चाहिए?
दिल्ली के सबसे ऐतिहासिक औरंगजेब मार्ग का नाम परिवर्तित कर डॉ. अब्दुल कमाल के नाम पर कर दिया गया है। यह फैसला दिल्ली की आप सरकार और उसके अंडर काम करने वाली एनडीएमसी (नई दिल्ली नगर निगम पालिका परिषद) ने इतनी जल्दबाजी में लिया जिसका कोई अर्थ समझ से परे है। स्पष्ट कर दूं कि भाजपा सांसद महेश गिरि, मीनाक्षी लेखी व आप के ट्रेड विंग सचिव ने एनडीएमसी से गत 28 अगस्त को नाम बदलने की सिफारिश की थी और एक सप्ताह के अंदर-अंदर यह हो भी गया। लुटियंस दिल्ली के तकरीबन सारे मार्ग या तो मध्यकालीन मुगल शासकों के नाम पर हैं, या उनके नाम पर हैं जिनके नाम मुगलकालीन शासकों ने रखे थे। ऐतिहासिक तथ्य है कि इन्हीं नामों में सम्राट अशोक के नाम पर भी मार्ग स्थापित है और पृथ्वीराज चौहान के नाम पर भी मार्ग है। बात सिर्फ हिंदु या मुसलमान शासकों या राजाओं की नहीं है, बात यह है कि हम क्यों ऐतिहासिक तथ्यों के साथ छेड़छाड़ करने पर तुले हैं। क्या यह इतना जरूरी था कि एक मुगलकालीन बादशाह के नाम पर जिस सड़क का नाम था वहां एक सर्वकालिक महान व्यक्ति का नाम चिपकाकर उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त कर दें।
मुगल शासक औरंगजेब के चरित्र, उसकी राजकाज की क्षमता के आधार पर लंबी बहस हो सकती है। डॉ. कलाम के नाम का समर्थन करने वाले औरंगजेब को एक निरंकुश शासक तक बताने में नहीं चूक रहे हैं, पर क्या इस ऐतिहासिक तथ्य से भी इनकार किया जा सकता है कि वह हमारे देश का ही शासक था? क्या हम भविष्य में इतिहास के किताबों से भी औरंगजेब का नाम हटाने की सिफारिश कर सकते हैं? क्या इतिहास के प्रश्नपत्रों और यूपीएससी की परीक्षाओं में भी औरंगजेब के नाम से प्रश्न पूछने पर मनाही की घोषणा की जा सकती है? अगर ऐसा नहीं है तो दिल्ली सरकार को इसका जवाब भी देना चाहिए कि औरंगजेब मार्ग का नाम परिवर्तित करने के पीछे क्या और कैसा तर्क था।
इस वक्त सीरिया में आईएस के लड़ाकू एकसूत्रीय काम में लगे हैं, वह काम है वहां मौजूद सैकड़ों साल पूराने ऐतिहासिक इमारतों का ध्वस्त करने का। विध्वंसक बारूद लगाकर ऐतिहासिक इमारतों और खंडहरों को जमींदोज किया जा रहा है। आईएस लड़ाकों की मंशा को आसानी से समझा जा सकता है कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं। तो क्या हमारे देश में भी उसी प्रवृति की एक झलक मिली है। अभी एक मार्ग का नाम परिवर्तित किया गया है, उसके बाद क्या लाल किले और आगरे के किले और ताजमहल की भी बारी आएगी?
सरकार के कदम की सराहना करने वाले अब इस बात की भी मांग करने लगे हैं कि औरंगजेब रोड की तरह ही हुमायंू रोड, अकबर रोड आदि का नाम भी बदल कर नए युग निर्माताओं के नाम पर रखना चाहिए। हो सकता है आने वाले दिनों में ऐसा कर भी दिया जाए। पर इस पर भी मंथन जरूर किया जाना चाहिए कि इन्हीं मुगलशासकों द्वारा लालकिला भी बनाया गया था। इसी लालकिले की प्राचीर से हर साल स्वतंत्रता दिवस की हुंकार भरी जाती है। यही प्राचीर भारत की भव्यता और विराटता के प्रतीक के रूप में पूरे विश्व में नुमांया होती है।
भारतीय स्वतंत्रता में सक्रिय भागीदारी निभाने वाले स्वतंत्रता सेनानियों, नए भारत का निर्माण करने वालों युगपुरुषों और बड़े राजनेताओं के नाम पर सड़कों का नामकरण करने में कोई बुराई नहीं है। पर यह भी मंथन करने वाली बात है कि ऐतिहासिक तथ्यों या नामों से छेड़छाड़ कर हम कौन सा संदेश देना चाहते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि डॉ. कलाम का सम्मान हर एक भारतीय दिल से करता है, पर क्या हम ऐतिहासिक नामों को बदलकर उनका नाम वहां चस्पा कर डॉ. कलाम के आदर्शों का उचित सम्मान कर रहे हैं। क्या हम औरंगजेब की तुलना डॉ. कलाम से कर रहे हैं। इसे भारत सरकार के राणनीतिकारों की ऐतिहासिक भूल के रूप में देखा जाना चाहिए।
हर साल दिल्ली में सैकड़ों नए मार्ग बनाए जाते हैं। दिल्ली और नई दिल्ली में लगातार विकास हो रहा है। सैकड़ों फ्लाईओवर और नए मार्ग इस तरह बन रहे हैं कि दिल्ली के लोग भी हर तीसरे महीने कन्फ्यूज रहते हैं कि किस रास्ते से जाना है। क्या हम ऐतिहासिकता से छेड़छाड़ किए बगैर इन्हीं मार्गों में से किसी एक का नाम डॉ. कलाम के नाम पर नहीं रख सकते थे? क्या यह जरूरी था कि एक ऐतिहासिक मार्ग   के नाम के साथ ही छेड़छाड़ कर हम डॉ. कलाम के प्रति सच्ची श्रद्धा दिखा सकते हैं? अब तो जो होना था वह हो गया। पर मंथन जरूर किया जाना चाहिए कि भविष्य में हम इस ऐतिहासिक भूल को नहीं दोहराएं, क्योंकि बहुत जोर-शोर से मांग हो रही है कि तमाम अन्य वैज्ञानिकों, शहीदों और बड़े हिंदू राजनेताओं के नाम पर सड़कों का नामकरण किया जाए। कहीं ऐसा न हो जाए कि हम भी सड़कों के नाम के खेल में आईएस लड़ाकों जैसा ही कदम नहीं उठाते रहें। ऐतिहासिकता को नष्ट करते रहें।


चलते-चलते
नई दिल्ली नगर पालिका परिषद (एनडीएमसी) द्वारा नाम बदलने के खिलाफ दायर याचिका पर दिल्ली हाईकोर्ट ने एनडीएमसी से पूछा है कि उसने किस आधार पर औरंगजेब रोड का नाम बदलकर एपीजे कलाम रोड किया है? सुनवाई 22 सितंबर को होनी है, पर एनडीएमसी ने तर्क दिया है कि इससे पहले भी वह कई सड़कों का नाम बदल चुका है। एनडीएमसी द्वारा दी गई जानकारी पर आप भी गौर फरमाएं...
1.हुमायुं लेन को बरदुकिल लेन
2.स्टिंग रोड को कृष्णा मेनन मार्ग
3.वेलेसले रोड को जाकिर हुसैन मार्ग
3.कनाट सर्कस को इंदिरा चौक
4.कनाट प्लेस को राजीव चौक
5.कनिंग लेन को माधव राव सिंधिया लेन
6.विलिंगटन क्रिसेंड रोड को मदर टेरेसा रोड