Saturday, August 22, 2015

लात का भूत बात से नहीं मानता


बहुत पुरानी कहावत है कि लात का भूत बात से नहीं मानता है। कुछ ऐसा ही है पाकिस्तान और भारत के बीच औपचारिक संवादों का रिश्ता। एक साल पहले भी कुछ ऐसा ही हुआ था। जब दोनों देशों के बीच उच्च स्तरीय वार्ता को रद कर दिया गया था, क्योंकि पाक ने हुर्रियत नेताओं को न्योता देकर पैंतरेबाजी की थी। पर अब देश की जनता बीजेपी सरकार से यह सवाल पूछ रही है कि आखिर एक साल में ऐसा क्या बदलाव आ गया कि सरकार पाकिस्तान के साथ आमने-सामने बैठकर बातचीत करने पर राजी हो गई है। अगर 23-24 अगस्त को नई दिल्ली में दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के बीच बैठक होती है तो निश्चित तौर पर कई प्रमुख मुद्दों को उठाया जाएगा। पर मंथन का वक्त है कि क्या इस तरह की बैठक से कोई रिजल्ट भी निकल सकेगा। बताने की जरूरत नहीं कि इस तरह कितनी और बैठकों को दौर पहले भी चल चुका है, रिजल्ट आज तक सामने नहीं आ सका है।
दरअसल पाकिस्तान ने हुर्रियत नेताओं को न्योता भेजकर शतरंज की एक ऐसी चाल चली है जिसमें भारत सरकार उलझ कर रह गई है। पिछले दिनों जब विदेशी धरती पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुलाकात हुई थी उसी समय इस बात पर मुहर लग गई थी कि दोनों देशों के सुरक्षा सलाहाकार आपस में बातचीत करेंगे। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह संदेश साफ तौर पर गया कि दोनों देश इस दिशा में सकारात्मक रवैया अपना रहे हैं। इसी बीच पाकिस्तान ने कई पैंतरे चले। पहले जम्मू-कश्मीर की अंतराष्टÑीय सीमा पर जमकर सीजफायर का उल्लंघन किया। सीमावर्ती गांवों में सिविलियंस पर गोलियां दागीं। आतंकियों को सीमापार भेजा। गुरदासपुर में हमला हुआ। बीएसएफ के काफिले को निशाना बनाया गया। सभी का एकमात्र उद्देश्य था कि किसी तरह भारत एक बार फिर इस वार्ता को अपने स्तर पर रद कर दे। ताकि पाकिस्तान अंतरराष्टÑीय स्तर पर यह स्थापित करने में कामयाब रहे कि भारत बातचीत करना ही नहीं चाहता है।
मोदी सरकार के सामने बड़ी चुनौती है। अगर वह बातचीत अपने स्तर पर रद कर देती है तो पाकिस्तान अपने प्रोपगेंडा में कामयाब हो जाएगा। अगर बातचीत होती है तो पूरा देश सवाल कर रहा है कि मोदी सरकार इतना क्यों झुक रही है। चुनाव के पहले जो नरेंद्र मोदी पाकिस्तान को र्इंट का जवाब पत्थर से देने की बात करते थे आज वे इतने खामोश क्यों हैं। पर सच्चाई यही है कि पाकिस्तान कभी इस तरह की बातचीत होेने ही नहीं देना चाहता है। पूरे विश्व को यह बात पता है कि पाकिस्तान में लोकतांत्रिक सरकार होने के बावजूद वहां सेना का सरकार में कितना प्रत्यक्ष हस्तक्षेप है। साथ ही आईएसआई की भूमिका कितनी गहरी है इसे भी बताने की जरूरत नहीं। ऐसे में सेना और आईएसआई यह बात आसानी से कैसे स्वीकार कर लेगी कि इस तरह की बैठक में आतंकवाद का मुद्दा टारगेट नहीं होगा। हाल ही में जिंदा पकड़ाए आतंकी नावेद ने जितने खुलासे किए हैं वह यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि किस तरह पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई भारत को नुकसान पहुंचाने का प्रयास कर रही है। ऐसे में एनएसए स्तर पर होने वाली बैठक में यह मुद्दा जरूर उठेगा। भारत की तरफ से तो एक लंबा चौड़ा डॉजियर भी तैयार कराया जा रहा है ताकि पाकिस्तान को सौंपा जा सके। ऐसे में पाकिस्तान द्वारा भारत के अलगाववादी नेताओं को न्योता देने पर आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए।
भारत ने इससे पहले पिछले साल जुलाई में होने वाली बैठक में अपने विदेश सचिव को इसीलिए नहीं भेजा था क्योंकि उस वक्त भी पाकिस्तान ने अलगवादी नेताओं को न्योता भेजा था। पाकिस्तान ने अब इसी फिराक में अंतिम पैंतरा चला है। ऐसे में मंथन जरूर करना चाहिए कि ऐसी बैठकों का क्या नतीजा निकलेगा। पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार में सबसे गहरी पैठ रखने वाली सेना और आईएसआई कभी भी भारत के साथ दोस्ताना संबंधों को तवज्जो नहीं देगी, क्योंकि इससे उनके अस्तित्व पर संकट उत्पन्न हो जाता है। भारत विरोधी अभियान और विद्वेश के आधार पर ही पाकिस्तानी फौज मुस्लिम राष्टÑ को एकजुट रखती है। खुद पाकिस्तान आतंक से लंबे समय से जूझ रहा है, पर इस बात को पूरा विश्व जानता है कि आतंक का सबसे बड़ा गढ़ भी पाकिस्तान ही है।
भारत ने बेशक एक अच्छी पहल की है और पाकिस्तान के तमाम पैंतरेबाजी के बावजूद अब तक बातचीत रद नहीं की है। पर यह भी समझने की जरूरत है कि लातों के भूत बातों से कभी नहीं मानते। हम युद्ध के जरिए कोई हल भले ही नहीं निकाल सकते, लेकिन पाकिस्तान को काबू में रखने के लिए उस पर कड़ा अंतरराष्टÑीय  दबाव बनाना होगा। भारत को मजबूत तथ्यों और तर्कों के आधार पर पाकिस्तान को बेनकाब करना होगा। अंतरराष्टÑीय स्तर पर पाकिस्तानी झूठ को मजबूती से रखना होगा, तभी पाकिस्तान को काबू में रखा जा सकता है। पाकिस्तान को बेशक सैन्य कार्रवाई से नहीं, पर आक्रामक कूटनीति के जरिए तो दबाया ही जा सकता है। कई मौकों पर भारत ने ऐसा किया भी है। भारत ने फिलहाल पाकिस्तान के राष्टÑीय सुरक्षा सलाहकार सरताज अजीज के साथ होने वाली वार्ता को रद नहीं किया है। यह वार्ता रद भी नहीं होनी चाहिए, ताकि विश्व में संदेश साफ जाए कि   भारत हर तरफ से शांति चाहता है। पर साथ ही इस बात की भी तैयारी करनी चाहिए कि पाकिस्तान पर अंतरराष्टÑीय दबाव कैसे बनाया जाए।

चलते-चलते
पाकिस्तान की तरफ से हुर्रियत नेताओं को न्योता भेजने के बाद भारत ने जिस तरह से अलगाववादी नेताओं को चंद घंटों के लिए नजरबंद कर दिया यह कई मायनों में महत्वपूर्ण है। अब समय आ गया है कि ऐसे नेताओं को किसी भी तरह से छूट न मिले। बहुत हो चुकी है इनकी मनमानी। अब समय आ गया है कि भारत सरकार कड़े कदम उठाए।

Saturday, August 8, 2015

कहा भी न जाए, रहा भी न जाए


वेंसन बोर्न फॉर ब्लू कोट नामक शोध संस्थान ने हाल ही अपनी रिपोर्ट पेश की है। संस्था ने 11 देशों में एक सर्वे कराया। इसमें पाया कि साइबर सुरक्षा संबंधी खतरों के बावजूद इन 11 देशों में सबसे अधिक पोर्न साइट देखी जाती है। इस मामले में पाकिस्तान जहां सबसे टॉप पर है, वहीं भारत का नंबर छठा है। चीन में 19 फीसदी कर्मचारी आॅफिस के अंदर सबसे अधिक पोर्न देखते हैं, वहीं ब्रिटेन इस मामले में तीसरे नंबर पर है। यह हाल तब है जब चीन की सरकार ने सोशल मीडिया और पोर्न साइट्स पर जबर्दस्त लगाम लगा रखा है। पोर्न को लेकर इतना जबर्दस्त उफान क्यों है? यह मंथन इस वक्त इसलिए जरूरी है क्योंकि भारत सरकार ने पहले 857 पोर्न साइट्स पर पाबंदी लगाई, फिर 72 घंटे के अंदर करीब 700 साइट्स को ओपन कर दिया। मंथन इस बात पर भी होना चाहिए कि क्या पोर्न साइट्स को बैन कर देना ही एक मात्र सॉल्युशन है? या कुछ और भी उपाय किए जा सकते हैं जिससे भारत में लगातार बढ़ रही यौन हिंसाओं पर लगाम लगाई जा सके।
दरअसल पोर्नोग्राफी के विषय में काफी पुरानी फ्रेज है कि ‘पोनोग्राफी इज द बीस्ट, व्हिच थ्राइव आॅन द रिप्रेशन’। कहने का अर्थ है पोनोग्राफी एक ऐसे राक्षस के समान है, जिसे जितना दबाया जाएगा, वह उतना ही ताकतवर बन जाएगा। आप कितने वेबसाइट्स बंद कर देंगे, एक बंद करेंगे दस और खुल जाएंगे। भारत सरकार ने एक अच्छे उद्देश्य के साथ एक साथ इतने वेबसाइट्स को बंद करने का दु:साहस दिखाया। दु:साहस इसलिए क्योंकि पिछले महीने ही आठ जुलाई को सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने पोर्न साइट्स संबंधी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा था कि हमारा लोकतंत्र व्यक्तिगत आजादी का मौलिक अधिकार देता है। इस वजह से इस पर पाबंदी नहीं लगाई जा सकती है। हालांकि, इसका एक दूसरा पहलू यह भी था कि सुप्रीम कोर्ट ने यह भी माना था कि यह एक गंभीर मसला है, क्योंकि दिनों-दिन भारत में यौन हिंसा का ग्राफ बढ़ता जा रहा है। भारत में पोर्नोग्राफी की स्वतंत्रता ने अंडर एज बच्चों को सबसे अधिक प्रभावित किया है। बच्चों से संबंधी पोर्नोग्राफी भी बढ़ती जा रही है। फिलहाल सरकार ने भारी विरोध के बाद अधिकांश साइट्स से प्रतिबंध तो हटा दिया है पर यह प्रतिबंध उन साइट्स पर लागू रहेगा जो चाइल्ड पोर्नोग्राफी कंटेंट का प्रकाशन करती हैं।
बात सिर्फ इतनी ही नहीं है कि कौन सी साइट्स बंद की जाए और कौन सी नहीं, बात इससे भी बड़ी है। एक तरफ जहां भारतीय लोकतंत्र द्वारा प्रत्येक भारतीय को दी गई व्यक्तिगत स्वतंत्रता का प्रश्न है, तो दूसरी तरफ समाज में जहर की तरह फैल चुके विकृत मानसिकता का प्रश्न। भारत में सबसे पहले मोबाइल क्रांति और उसके बाद हाल के वर्षों में आए इंटरनेट क्रांति ने इस विकृत हो चुकी मानसिकता को बढ़ाने में बड़ा योगदान दिया है। पहले छिप-छिप कर देखी जाने वाली पोर्न फिल्में अब एक क्लिक पर किसी भी साधारण मोबाइल पर भी उपलब्ध हैं। करीब चालीस हजार वेबसाइट्स बिना किसी तरह की चार्ज किए आसानी से पोर्न कंटेंट आपको उपलब्ध कराती हैं। यही कारण है कि एक स्कूल बस का ड्राइवर अपने खाली समय में अपने मोबाइल पर पोर्न फिल्में देखने के बाद जब छोटी-छोटी बच्चियों को बस में बैठाता है तो उसकी नजरों में हैवानियत नजर आती है। इस वक्त भारत का शायद ही कोई ऐसा शहर बचा होगा जहां छोटी बच्चियों के साथ यौन हिंसा नहीं हुई होगी। जिस दिन पोर्न साइट्स के बैन पर बहस हो रही थी, उसी दिन बंगलुरू में एक स्कूल बस के ड्राइवर ने स्कूल गोइंग मासूम बच्ची के साथ जो किया वह समाज को आइना दिखाने के लिए काफी है। हम यह भी क्यों भूल जाते हैं कि इसी तरह के कंटेंट ने बच्चों को समय से पहले ही जवान करना शुरू कर दिया है। नाबालिग बच्चों का सेक्सुअल क्राइम का ग्राफ भी दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा है। वे इसलिए इस तरह के क्राइम में इनवॉल्व हो रहे हैं, क्योंकि उन्हें आसानी से अपने मोबाइल पर पोर्न सामग्री मिल जाती है। इसके बाद उनमें अच्छे और बुरे की समझ खत्म हो जाती है। अपनी शरीरिक जरूरतों को पूरा करने के लिए वे कुछ ऐसा कदम उठा लेते हैं, जो बहुत ही घातक होता है।
दरअसल, पोर्नोग्राफी के हिमायती अपनी बात तो करते हैं पर चाइल्ड पोर्नोग्राफी को नजरअंदाज कर देते हैं। भारत में डिजिटल पोर्नोग्राफी का बाजार करीब सात सौ करोड़ का आंकड़ा पार कर रहा है। कई वेबसाइट्स इस माध्यम से कमाई के साधन भी उपलब्ध कराती हैं। प्रोवोक करती हैं कि आप कंटेंट बेचें। अब इन हिमायतियों को कौन समझाए कि यह कंटेंट आपके और हमारे बीच से ही जेनरेट किया जाता है। चाहे वह होटल, चेंजिंग रूम, लेडीज बाथरूम में फिट किया गया गुप्त कैमरा हो या नशीला पदार्थ खिलाकर अपनों से धोखा। आप अपनी वयस्कता का हवाला देकर पोर्न स्वच्छंदता की मांग तो कर सकते हैं पर एक जिम्मेदार व्यक्ति के तौर पर आपको चाइल्ड पोर्नोग्राफी को बैन करने के लिए भी आवाज उठानी होगी। पर अफसोस इस बात का है कि पोर्नोग्राफी के हिमायती इस तरफ एक बार भी अपनी आवाज नहीं उठाते।
अच्छा हुआ कि भारत सरकार ने पोर्न साइट्स बंद करने की शुरुआत कर एक नए बहस को जन्म दिया है। इस पर और अधिक बहस की जरूरत है, ताकि अच्छी और बुरी बातों के बीच   तारतम्य बैठाया जा सके और एक निश्चित हल की तरफ कदम बढ़ाया जा सके। दुनिया के अधिकांश देशों ने अपने यहां चाइल्ड पोर्नोग्राफी और इंटरनेट को और अधिक सुरक्षित बनाने की दिशा में कई कदम उठाए हैं। भारत सरकार को भी इस तरफ ध्यान देने की जरूरत है।
वर्ष 2013-14 में पड़ोसी देश चीन में ‘क्लीनिंग द वेब’ अभियान शुरू किया गया था। इस अभियान के काफी बेहतर रिजल्ट सामने आए। कई अश्लील साइट्स को पूरी तरह बंद कर दिया गया। फ्रांस ने ‘किंडर सर्वर’ शुरू करके बच्चों को प्रोटेक्ट करने का अभियान शुरू किया है। पर अफसोस इस बात का है कि भारत में इस संबंध में अब तक कानून का कोई प्रावधान ही नहीं है। भारत सरकार ने एक दु:साहसी कदम तो उठाया पर इस कदम को कानून के दायरे में बांधने की भी जरूरत है। अभी तो हिमायती लोग सुप्रीम कोर्ट का हवाला दे रहे हैं पर सुप्रीम कोर्ट ने यह भी तो कहा है कि गंभीरता से सोचें। यह गंभीरता बेहतर तरीके से सोच-समझकर कानून बनाने की ओर इशारा है। इस पर मंथन किया जाना बेहद जरूरी है।

चलते-चलते
शुक्रवार को ही लोकसभा में महिला एवं विकास मंत्री मेनका गांधी ने एक लिखित प्रश्न के जवाब में बताया है कि पिछले कुछ साल में भारत में नाबालिगों के खिलाफ यौन उत्पीड़न के मामलों में बढ़ोतरी हुई है। उन्होंने बताया है कि 2012, 2013 और 2014 में 18 साल से कम उम्र के बच्चों के साथ यौन उत्पीड़न के क्रमश: 8,541, 12,363 और 13,766 मामले दर्ज किए गए हैं। अब आप भी मंथन करिए क्या इस मुद्दे पर सार्थक बहस नहीं होनी चाहिए।

Tuesday, August 4, 2015

लो जी शुरू हो चुका है पाकिस्तान में मौजूद गीता पर ड्रामा


पिछले दो-तीन दिनों से तमाम न्यूज पेपर्स और न्यूज चैनल्स में सबसे बड़ी स्टोरी बनी है पाकिस्तान की गीता। 13 साल पहले भटककर पाकिस्तान पहुंची इस गूंगी बहरी लड़की की कहानी को ऐसे पेश किया जा रहा है जैसे हम उसे उसके घर पहुंचा के ही रहेंगे। पता नहीं क्यों मुझे चीढ हो रही है ऐसी स्टोरी से। ऐसा लग रहा है पूरा ड्रामा क्रिएट किया गया। सलमान खान की फिल्म बजरंगी भाईजान का यह मुझे मार्केटिंग कैंपेन जैसा लग रहा है। नहीं तो अचानक क्यों यह स्टोरी इतनी हाईलाइट होती। वह भी मास लेवल पर इसे प्रचारित और प्रसारित किया जाता।
दरअसल हम मनुष्यों की यह जेनेटिक प्रॉब्लम है कि हम चीजों को बहुत जल्दी भूल जाते हैं। बता दूं कि यह वही लड़की गीता है जिसकी कहानी ने मीडिया की सुर्खियां बटोरी थी वर्ष 2011-2012 में। उस वक्त सोशल मीडिया इतने उफान पर नहीं थी। और न ही बजरंगी भाईजान जैसी फिल्मी कहानी परदे पर अवतरित हुई थी।
2011-12 में सबसे पहले पाकिस्तानी मीडिया ने गीता की स्टोरी को दुनिया को बताया था। 'अमन की आशा' के नाम से उस वक्त यह खबर सुर्खियां बनी थी। उस वक्त भारतीय मीडिया में भी यह खबर साधारण तरीके से कैरी की गई थी, जबकि पाकिस्तानी मीडिया ने इसे प्रमुखता से उठाया था। उस वक्त भारतीय मीडिया को यह स्टोरी बेहद औसत लगी थी, अचानक बजरंगी भाईजान की कृपा से यह स्टोरी हॉट इश्यू बन गया है।
गीता की कहानी दूसरी बार मीडिया के जरिए आम लोगों के सामने है। मीडिया में आ रही खबरों के बाद मोदी सरकार ने जिस तरह संज्ञान लिया है ठीक उसी तरह उस वक्त भी विदेश मंत्रालय तक बात पहुंची थी। विदेश मंत्रालय की पहल पर पाकिस्तान में मौजूद भारतीय दूतावास भी हरकत में आया था। पाकिस्तानी अखबार द डॉन के अनुसार तत्कालीन एंबेसडर ने एथी फाउंडेशन में रह रही गीता का हाल चाल लिया था। पर कोई सार्थक रिजल्ट सामने नहीं आया। बात आई और गई। 
अब एक बार जब सलमान खान जैसा स्टार शाहिदा नाम की लड़की को सिल्वर स्क्रीन पर लेकर आया है तो अचानक गीता भी छोटे परदे पर छा गई है। भारतीय अखबारों के पन्ने रंगे जा रहे हैं, टीवी स्क्रीन पर स्पेशल इंटरव्यू दिखाए जा रहे हैं। हर किसी को सिर्फ बजरंगी भाईजान ही नजर आ रहे हैं। किसी खबर में यह नहीं बताया जा रहा है कि यह वही गीता है जो तीन साल पहले भी अपने घर की तलाश कर रही थी। हर स्टोरी को बजरंगी भाईजान से जोड़ कर ही दिखाया जा रहा है।
क्या इसे महज संयोग मान लिया जाए, या फिर एक सार्थक मार्केटिंग कैंपेन। जिसमें पता नहीं गीता का कितना भला होगा, पर भाईजान का तो भला हो ही रहा है। बजरंगी भाईजान चंद दिनों में ही तीन सौ करोड़ का आंकड़ा छूने लगी है, अब तो लगता है जिस तरह मीडिया में गीता को बजरंगी भाईजान का अघोषित भाई बनाया जा रहा है उससे कम से कम भाईजान पांच सौ करोड़ तो जरूर कमा लेंगे। क्या कहते हैं आप?
फिलहाल सुषमा स्वराज ने पाकिस्तान में मौजूद भारतीय दूतावास को गीता की खोजखबर लेने को कहा है। देखते हैं यह खोजखबर 2011-12 की तरह सिर्फ खानापूर्ति होगी या सच में गीता को भारत में खोया उसका परिवार मिल जाएगा। हालांकि भाईजान ने अभी तक कोई बयान जारी नहीं किया है।

Monday, August 3, 2015

हर बात में पाकिस्तान की मां-बहन तो मत करो

कश्मीर या देश के किसी कोने में छोटी आतंकी घटना भी होती है तो हम सौ प्रतिशत दोषारोपण पाकिस्तान पर कर देते हैं। न कोई तथ्य न कोई आधार सिर्फ मुस्लिम दाढ़ी और खतना किए गए अंग के आधार पर हम प्रथम दृष्टया में आतंकियों को पाकिस्तानी करार दे देते हैं। जांच रिपोर्ट कभी सार्वजनिक नहीं होती कि आखिर हम किस-किस आधार पर उन्हें पाकिस्तान या वहां मौजूद आतंकी संगठन से जुड़ा हुआ बता रहे हैं। समझौता एक्सप्रेस से एक पाकिस्तानी महिला तमाम अज्ञात कारणों से भारत में आ जाती है और हम उसे बिना कुछ सोचे समझे पाकिस्तानी जासूस करार दे देते हैं। भले ही वह अपने बजरंगी भाईजान से मिलने आने की कहानी बताती हो। अगर बॉर्डर पर बैठकर कोई बच्चा पोट्टी करते हुए पकड़ा गया तो उसे भी पाकिस्तान की साजिश करार देते हुए हम कहेंगे कि पाकिस्तान अब भारत में प्रदूषण फैला रहा है। पोट्टी बम का इजात कर लिया गया है। हद है।
इसमें दो राय नहीं कि पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से भारत लंबे समय से लड़ रहा है। पर हमें यह सच्चाई भी स्वीकारनी होगी कि भारत से अधिक आतंकी घटनाएं पाकिस्तान में हो रही हैं। तो क्या हम मान लें कि पाकिस्तान में यह आतंकी घटनाएं भारत करवा रहा है। पाकिस्तान के अखबार और न्यूज चैनल तो ऐसा ही मानते हैं। कहते हैं भारतीय खुफिया एजेंसियां इन घटनाओं को करा रहा है। हम पाकिस्तानी पर दोष मढ़ते आए हैं और पाकिस्तान भारत पर दोषारोपण करता है। हल कुछ नहीं निकलता है।
जबकि सच्चाई यह है कि भारत से अधिक पाकिस्तान में आतंकियों को फांसी पर लटकाया जाता है। हर साल यह आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है। वहां से तो कभी किसी आतंकी की फांसी पर कोई बवाल की खबर आज तक नहीं आई। भारत में तो पिछले दस सालों में सिर्फ चार दोषियों को फांसी की सजा मिली है। इसमें से सिर्फ एक आतंकी था। जबकि दो आतंकी साजिश में शामिल होने का आरोपी और एक को अन्य आरोप में फांसी पर चढ़ाया गया। जबकि पाकिस्तान में हर साल सैकड़ों आतंकी फांसी के तख्ते पर लटका दिए जा रहे हैं।
तो हम कैसे सौ प्रतिशत रूप में भारत में होने वाले हर एक आतंकी घटना के पीछे पाकिस्तान को दोष दे दें। यह भी तो हो सकता है कि पाकिस्तान की आड़ में कोई दूसरा देश अपना स्वार्थ सिद्ध कर रहा हो। चीन को हम कैसे भूल सकते हैं। इसके अलावा पश्चिमी देश क्या कभी भारत की प्रगति से खुश हुए हैं? वो तो भारत को एक बाजार के रूप में ही देखती आई है।
कहा जाता है कि पाकिस्तान में कई आतंकी संगठन काम कर रहे हैं। उन्हीं के जरिए भारत में आतंक का खेल रचा जाता है। हो सकता है यह सच है। कई मौंकों पर इसके पुख्ता प्रमाण भी मिले हैं। पर यह भी तो हो सकता है कि इन आतंकी संगठनों को पाकिस्तान के अलावा कहीं और से फंडिंग हो रही हो और इन्हें भारत में दहशत फैलाने का कांट्रैक्ट दिया जाता हो। भारत में भी तो कई ऐसे संगठन हैं जिन्होंने भारत के भीतर ही देश के खिलाफ जंग छेड़ रखा है। देश के किसी कोने में चले जाएं, बिहार, झारखंड, नार्थ ईस्ट हर तरफ आपको कोई न कोई संगठन ऐसा मिल जाएगा जो भारत में रहकर ही भारतीय व्यवस्था के खिलाफ जंग लड़ रहा है। अघोषित गृह युद्ध छेड़ रखा है इन्होंने।
बात सिर्फ एक दूसरे के खिलाफ आरोप-प्रत्यारोप का नहीं है, बल्कि उन कारणों की खोज करने का है जिसकी आग में दोनों देश परस्पर जल रहे हैं। भारत से अधिक पाकिस्तान में हर साल लोग आतंकी घटनाओं में मारे जा रहे हैं।
इसमें भी दो राय नहीं कि बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होए। पाकिस्तान ने अपने शुरुआती दिनों में आतंक को इतना बढ़ावा दिया कि आज उसका वही बोया हुआ बीज बड़ा हो गया है। पर यह भी सच है कि आज वहां भी हमारे जैसे ही आम लोग हैं, जो आतंक के साए में जी रहे हैं। उन्हें इस बात से मतलब नहीं है कि दोनों देश में क्या राजनीतिक षडयंत्र रचे जा रहे हैं, वे तो सिर्फ सुकून की जिंदगी जीना चाहते हैं।
पाकिस्तान में जब भी आतंकी घटनाएं होती हैं उसमें अफगानिस्तान, ब्लुचिस्तान से आए आतंकियों का हाथ होने की बात सामने आती हैं। जिस तरह हम आंख मूंदकर यह रिपोर्ट कर देते हैं कि पाकिस्तान से आए हिजबुल या लश्कर या अन्य किसी संगठन के आतंकियों ने हमला किया है। ठीक उसी तरह पाकिस्तान में रिपोर्ट छपती है कि भारत समर्थित आतंकी संगठनों ने हमला किया है। भारत पर हमेशा यह आरोप पाकिस्तान द्वारा लगाया जाता है कि ब्लुचिस्तान और अफगानिस्तान या कश्मीर के विवादित इलाकों में कई आतंकी संगठन मौजूद हैं जिन्हें भारत का समर्थन मिला हुआ है।
हां एक और आरोप पाकिस्तान पर लगाया जाता है कि पाकिस्तान दाउद इब्राहिम, लखवी, हाफिज सईद जैसे आतंकियों को पनाह देता है। पाकिस्तान के संरक्षण में इन्हें रखा गया है। वहां कि अदालत ने हाफिज और लखवी को रिहा कर दिया तो भारत ने आपत्ती जताई। पर कौन समझाए कि वहां भी हमारी जैसी ही न्याय व्यवस्था है। जब हमारे यहां अबू आजमी जैसा आदमी सभी आरोपों से बरी हो जाता है, फूलन देवी जैसी डकैत विधायक बन जाती है, तो पाकिस्तान में होनी वाली न्यायिक प्रक्रियाएं भी तो सामान्य ही हैं। हर साल भारत में सबूतों के आभाव में हजारों हार्ड कोर क्रिमिनल बरी   हो जाते हैं, इनमें से तो कई हमारी आम जनता के सहयोग से संसद की गरिमा बढ़ाने भी पहुंच जाते हैं। ऐसे में अगर वहां लखवी और हाफिज जैसे लोग खुले आम घूम रहे हैं तो इसमें आश्चर्य की  क्या बात है। उन्हें अगर पाकिस्तान की जनता का समर्थन मिला हुआ है तो इसमें पाकिस्तान की क्या गलती है। हमारे यहां भी कई बाहूबलियों और हार्डकोन क्रिमिनल्स को जनता सिर आंखों पर बैठाए रखती है।

सवाल यह उठता है कि क्या भारत और पाकिस्तान आजीवन इसी तरह का दंश झेलते रहेंगे। बात साफ है, आग इधर भी लगी है और उधर भी। ऐसे में हमें यह देखना और समझना जरूरी है कि आखिर वो कौन लोग हैं जो इस आग को ठंडा होने नहीं देना चाहते हैं। जब-जब भारत और पाक के बीच कुछ बात बनती नजर आती है गुरदासपुर जैसी आतंकी घटनाएं सामने आ जाती हैं। भारत भी दो टूक जवाब दे देता है जबतक ऐसी घटनाएं होंगी हम बातचीत नहीं करेंगे। पर इस बात को समझना जरूरी है कि आखिर कुछ लोग तो जरूर हैं जो यह बातचीत नहीं होने देना चाहते हैं। ऐसे में हर बात पर हमें पाकिस्तान की मां-बहन करना छोड़ना होगा। दूसरी निगाहों से भी हमें भारत पाक के संबंधों को देखना जरूरी है।

Saturday, August 1, 2015

देशद्रोही के मृत्युदंड पर शोर क्यों?

अपने कार्यकाल के दौरान एक बार प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने कहा था कि इस देश में केवल आतंकवादियों के लिए मानवाधिकार है, जनसाधारण के लिए नहीं। आज भी उनका यह कथन कितना प्रासंगिक है, यह हमें देशद्रोही याकूब मेमन के फांसी की रात देखने को मिला। ऐसा लग रहा था मानो पूरे न्यायिकतंत्र को चंद लोगों ने बंधक बना लिया है। ऐसा थ्रिलर सस्पेंस था जैसा रामगोपाल वर्मा की फिल्म में होता है। एक देशद्रोही अपराधी के लिए देश के तथाकथित बड़े और नामी वकीलों की फौज खड़ी हो गई थी। हद तो यह थी कि सर्वोच्च न्यायालय जैसी संस्था भी बेबस लग रही थी। ऐसी स्थिति तब थी जब एक अपराधी की दया याचिका दो बार राष्टÑपति के पास से खारिज हो चुकी थी। सुप्रीम कोर्ट में ही कई बार सुनवाई हो चुकी थी। तीन सौ पन्नों में उसका अपराध दर्ज कर उसे दोषी करार दिया गया था। मंथन का समय है कि क्या हमें एक दोषी करार दिए गए अपराधी के लिए इतना सब करने की जरूरत थी? वह भी उस स्थिति में जब उस अपराधी पर आधिकारिक तौर पर 257 लोगों की जघन्य हत्या में शामिल होने का दोष सिद्ध हो चुका था।
अंतत: याकूब मेमन को फांसी तो हुई, पर जो ड्रामेटिक सीन क्रिएट हुआ उसने चाहे-अनचाहे याकूब को हीरो बना दिया। पूरी मुंबई में अघोषित रूप से कर्फ्यू लगाने के साथ ही देश में हाई अलर्ट जारी कर संदेश दिया गया कि हम कितने भयभीत हैं। धन्य है हमारा लोकतंत्र, एक तरफ अपराधी को सजा भी दें और आम लोगों में इतना डर पैदा कर दें कि वह घर से निकलने में भी संकोच करे। क्या हम इतने बेबस हैं कि किसी अपराधी को सजा देने में भी हमारे हाथ-पांव फूलने लगे हैं?
याकूब मेमन की फांसी पर रोक लगाने को जिन तथाकथित संभ्रात लोगों की फौज सामने आई उनमें से किसी को यह नजर नहीं आ रहा था कि ऐसे ही किसी आपराधिक षडयंत्रकारी के कारण गुरदासपुर में आतंकी घुस आए और उन्होंने वहां बेकसूर लोगों को मौत के घाट उतार दिया। इन आतंकियों से मुकाबला करने में एक एसएसपी भी शहीद हो गए। यह तो संयोग ही है कि कोई आतंकी जिंदा नहीं पकड़ा गया, नहीं तो मानवाधिकार के ये पैरोकार उस आतंकी को बचाने की पैरवी में भी जुट जाते। इन तथाकथित संभ्रात लोगों ने एक बार भी गुरदासपुर की घटना का विरोध या प्रतिक्रिया अपने ट्विटर अकाउंट या अन्य किसी प्लेटफॉर्म पर नहीं किया। पर याकूब के हर एक पल की अपडेट और अपनी भावनाओं का बखूबी इजहार कर रहे थे। किसी ने उस शहीद एसएसपी को श्रद्धांजलि नहीं दी, पर याकूब की फांसी पर इतने आंसू बहा दिए कि सर्वोच्च न्यायलय को रात में कोर्ट लगानी पड़ गई।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि याकूब के मामले में न्यायिक प्रक्रिया को बंधक बना लिया गया। कानून का इतना दुरुपयोग कभी नहीं देखा गया। सरकार और सर्वोच्च न्यायालय ने शायद यह सब इसलिए किया ताकि बाद में कोई आरोप न मढ़ दिया जाए। पर क्या इसके बावजूद आरोप नहीं लग रहे हैं?
मंथन का वक्त है कि आखिर नरेंद्र मोदी सरकार की ऐसी क्या मजबूरी थी कि उसने याकूब मेमन जैसे देशद्रोही की फांसी की सजा की तारीख को सार्वजनिक कर दिया। क्यों नहीं कसाब और अफजल गुरू के मामले में अपनाई गई रणनीति लागू की गई? क्या यह एक राजनीतिक चूक है या फिर सोची-समझी राणनीति के तहत ऐसा किया गया? सामान्य जनता मीडिया को भी आरोपों के कठघरे में खड़ा कर रही है कि बेवजह याकूब मेमन के मामले को इतना दिखाया गया। मीडिया ने उसकी फांसी को किसी सेलिब्रिटी आइटम की तरह ट्रीट किया। पर मीडिया पर दोषारोपण बेवजह है। मीडिया ने तो वही दिखाया जो हो रहा था। अगर देर रात में न्यायिक प्रक्रिया को चंद लोग कानून का सहारा लेकर बंधक बना लें तो क्या यह खबर नहीं दिखाई जानी चाहिए? अगर एक अपराधी की मौत पर पूरे देश को हाई अलर्ट पर डाल दिया गया तो क्या यह खबर रोक देनी चाहिए? पूरी मुंबई की पुलिस सहित अर्द्धसैनिक बलों को सड़कों पर उतार दिया जाए तो क्या यह खबर नहीं है? मीडिया पर दोष मढ़ देना सबसे आसान काम बन गया है। मीडिया तो अपना काम ही कर रही है, यह पेशागत मजबूरी है कि खबरों को दिखाया जाए। जो लोग मीडिया पर दोष मढ़ते हैं वे लोग ही समाचार चैनल बदल-बदल कर इसकी कवरेज भी देख रहे होते हैं। और दूसरे दिन दो-तीन तरह के अखबार भी खरीद लाते हैं, ताकि विस्तार से खबरों को पढ़ सकें।
याकूब की फांसी के बाद एक बार फिर मृत्युदंड पर बहस तेज हो गई है। बहस इस बात पर हो रही है कि क्या कठोरतम दंड के रूप में फांसी की सजा ही एकमात्र विकल्प है? क्या यह प्रावधान बरकरार रहना चाहिए? पुरातन काल से मानवीय इतिहास में मृत्युदंड की परंपरा रही है। तर्क दिया जाता है कि जो जैसा करेगा वैसा भुगतेगा, तथा दूसरे लोगों में भी सजा का भय कायम होगा। हालांकि, आधुनिक समाज में इस दंड को अमानवीय कहा जाता रहा है। करीब 160 देशों ने इस दंड का प्रावधान अपने संविधान से हटा दिया है। संयुक्त राष्टÑ ने भी 2007 में इस दंड के विरोध में प्रस्ताव पारित किया था। पर यह जानना भी जरूरी है कि अमेरिका, जापान, चीन जैसे विकसित देशों में यह सजा पूर्णत: लागू है। चीन में तो हर साल फांसी की सजा का आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है। भारत तो इस मामले में काफी   पिछड़ा है। पिछले दस साल में 1303 अपराधियों को फांसी की सजा सुनाई गई, पर लोकतांत्रिक और न्यायिक व्यवस्था के कारण सिर्फ तीन को फांसी पर लटकाया गया। याकूब चौथा अपराधी था। सर्वोच्च न्यायालय ने तो अस्सी के दशक में ही यह व्यवस्था कर दी थी कि सिर्फ रेयरेस्ट आॅफ रेयर मामले में ही फांसी दी जाए। ऐसे में बेवजह इस बात पर बहस हो रही है कि फांसी की सजा जायज है या फिर इसे खत्म कर देना चाहिए। अगर किसी ने अपराध किया है तो उसे सजा भुगतने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। याकूब जैसे देशद्रोही के लिए सारे विकल्प खत्म हो चुके थे।


चलते-चलते
राजनीति में मुर्दे दफन नहीं होते
सोशल मीडिया के बहकावे में आकर भारतीय जनमानस भी अपनी भावनाओं को उससे जोड़ देता है। ऐसा ही याकूब के मामले में हो रहा है। सोशल मीडिया और ओवैसी जैसे लोगों के बहकावे में आकर प्रश्न किया जा रहा है कि राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी की सजा क्यों नहीं? यहां भी हिंदू और मुस्लिम की बातों को फैलाया जा रहा है। पर सच्चाई यह है कि मोदी सरकार ने ही उन हत्यारों को फांसी देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में क्यूरेटिव पिटीशन दाखिल किया। यह क्यूरेटिव पिटीशन इसलिए दिया गया था क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दिया था। कोर्ट ने इसी बुधवार को केंद्र सरकार की पिटीशन को इस आधार पर खारिज कर दिया क्योंकि दया याचिका पर विचार करने में पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार को 11 साल का वक्त लग गया था। ऐसे में इतना वक्त गुजर जाने के बाद कोर्ट के पास दूसरा आॅप्शन नहीं था। सवाल तो उठेगा ही कि क्यों नहीं कांग्रेस का कोई बड़ा नेता इस सवाल का जवाब दे रहा है कि कांग्रेस सरकार को दया याचिका पर विचार करने में इतना लंबा वक्त क्यों लग गया था। जबकि, दस साल से कांग्रेस ही केंद्र में थी। राजीव गांधी भी कांग्रेस के ही नेता थे। ठीक ही कहा गया है कि राजनीति में मुर्दे दफन नहीं होते, उन्हें जिंदा रखा जाता है, ताकि उन्हें समय पर जिंदा किया जा सके।