Friday, May 29, 2015

सॉरी बापू, तुम ही चले जाओ यहां से

जिस राष्टÑपिता महात्मा गांधी ने ताउम्र शराबबंदी की खिलाफत की, उसी राष्टÑपिता की प्रतिमा को शराब के बार के लिए अपमानित होना पड़ा है। आंध्रप्रदेश के गुंटूर जिले में प्रशासन के एक फैसले ने सभी को सोचने पर मजबूर कर दिया है। दरअसल बार के ठीक सामने महात्मा गांधी की प्रतिमा लगी थी। करीब 27 साल पहले स्थापित इस प्रतिमा के सामने बार खोल दिया गया था। कुछ दिनों से वहां के समाजिक कार्यकर्ता और स्थानीय लोग बार का विरोध कर रहे थे। प्रशासन से गुहार लगाई गई। बताया गया कि जिस व्यक्ति ने उम्र भर शराब का विरोध किया उसी की प्रतिमा के सामने बार खोलना उनका अपमान है। तत्काल बार को कहीं और शिफ्ट किया जाए। पर प्रशासन ने न जाने किन कारणों से बापू की प्रतिमा को ही वहां से हटवा दिया।
स्थानीय प्रशासन ने मीडिया में बयान दिया है कि महात्मा गांधी की प्रतिमा को कहीं और स्थापित कर दिया जाएगा। अब यह मामला पूरे देश में चर्चा का विषय बन चुका है कि ऐसी क्या मजबूरी रही होगी कि बार को हटाने की बजाय गांधी की प्रतिमा को ही शिफ्ट कर दिया गया। मजबूरी चाहे जो भी रही हो, लेकिन इस एक घटना ने सिद्ध कर दिया है कि आज शराब माफियाओं की पकड़ कहां तक है। कैसे उनके हितों को सुरक्षित रखने के लिए तमाम सरकारी प्रयास किए जाते रहते हैं। चाहे ठेके के आवंटन की प्रक्रिया हो या बार को लाइसेंस देने का मामला, हर जगह शराब माफियाओं ने अपनी पकड़ बना रखी है। देश के कई हिस्सों में आए दिन शराब के ठेकों और दुकानों को लेकर विरोध प्रदर्शन होता रहता है। कहीं स्कूलों के आसपास ठेका खोल दिया जाता है, कहीं मंदिर के पास।
ऐसा तब है जबकि सुप्रीम कोर्ट की रुलिंग है कि स्कूल, कॉलेज, मंदिर आदि के सौ मीटर के दायरे में शराब के ठेके नहीं खोले जा सकते हैं। बावजूद इसके प्रशासन द्वारा धड़ल्ले से लाइसेंस जारी कर दिए जाते हैं। जबकि होना यह चाहिए कि ठेकों का फीजिकल वैरिफिकेशन करवाया जाए। लाइसेंस जारी करने से पहले यह देखा जाना चाहिए कि किस जगह पर ठेका खोला जा रहा है। इससे क्या प्रभाव पड़ सकता है। कुछ राज्यों में ऐसा सख्त प्रावधान भी है। पर अधिकतर राज्य इसके प्रति सजग नहीं हैं। प्रशासनिक शह पाकर शराब माफियाओं के हौसले बुलंद रहते हैं। यह भी सच्चाई है कि हर साल शराब के ठेकों के आवंटन से सरकार को करोड़ों रुपए का राजस्व प्राप्त होता है। पर क्या इस शर्त पर हम कुछ ऐसा भी कर सकते हैं जो सरासर गलत है। यह मंथन का वक्त है।
हर राज्य की अपनी आबकारी नीतियां होती हैं। समय-समय पर इसमें संशोधन भी होते रहते हैं। पर अमूमन ये संशोधन राजस्व से जुड़े होते हैं। बेस प्राइस से लेकर स्टॉक प्राइस पर बातें होती हैं। पर कभी इससे जुड़ी विसंगतियों पर सरकार अपनी नीतियों में मंथन नहीं करती है। कभी इन विसंगितयों को दूर करने के लिए पॉलिसी बनाने पर विचार नहीं किया जाता।  अगर कोई गांव शराब बंदी के खिलाफ पूरी तरह एकजूट है फिर क्यों उस गांव के लिए भी ठेके आवंटित कर दिए जाते हैं? क्या इसे लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं माना जाना चाहि? आबकारी नीतियों में संशोधन की प्रक्रिया अनवरत जारी है। कभी राजस्व से ऊपर जाकर भावनाओं के बारे में भी नीतियों का जिक्र किया जाना चाहिए। हर राज्य को शराब के ठेकों, दुकानों पर कुछ ऐसी नीतियों का भी एलान करना चाहिए जिसका आम लोग स्वागत कर सकें।
आज भी भारतीय समाज में शराब पीने को खराब नजर से देखा जाता है। उच्च मध्यमवर्गीय परिवार या एलिट परिवार की बात को छोड़ दिया जाए तो आम मध्यम वर्गीय परिवार में इसे छिप छिपाकर परोसा जाता है। शराब की दुकानों से शराब खरीदने के बाद अखबार या लिफाफे में छिपाकर ले जाने की जरूरत पड़ी है। ऐसी स्थिति में क्या सरकार की यह जिम्मेदारी नहीं बनती है कि ठेके के परमिशन देने वक्त, या दुकानों का आवंटन करते वक्त जिम्मेदारी पूर्वक यह देखे कि यह कहां स्थापित किया जा रहा है। शराबबंदी को लेकर हजारों आंदोलन हो चुके हैं। बावजूद इसके सरकारी तंत्र की इस दिशा में सुस्ती गंभीर स्थिति पैदा होने का संकेत दे रही है। आंध्रप्रदेश में जो कुछ भी हुआ, भले ही इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं। प्रशासन के अपने तर्क या कुतर्क हो सकते हैं। पर इस एक ताजी घटना ने मंथन करने पर मजबूर कर दिया है कि अभी भी वक्त है हमारी राज्य सरकारें शराब की दुकानों के प्रति संवेदनशील रवैया अपनाए। ताकि भविष्य में होने वाली ऐसी शर्मिंदगी भरी घटनाओं से बचा जा सके।


Thursday, May 28, 2015

डियर ‘मैगी’ तुम ऐसी तो न थी

ओ डियर मैगी, तुम ऐसी तो नहीं थी। दुनिया भर की यादें तुमसे जुड़ी हैं। पीले आवरण में ढंका तुम्हारा सफेद और साफ सुथरा बदन, तुम्हारा टेढ़ा मेढ़ा होना, इठला कर गरम पानी में अपने आप को बिखेर लेना। उफ ! तुम्हारी इन अदाओं पर कौन न मर जाए। दो मिनट में तुम्हारा तैयार हो जाना, तुम्हारे वो गरम तेवर का रसा-स्वादन। सब कुछ तो था तुममें। पर तुम ऐसी क्यों हो गई हो। क्यों तुम्हारे नाम पर इन दिनों एक अजीब सा माहौल बनने लगा है। मैगी, तुम्हें तो शायद पता भी न हो कि तुम्हारे कारण धक-धक गर्ल माधूरी दीक्षित को नोटिस मिल गया है। क्योंकि उसने तुम्हारा विज्ञापनों के जरिए गुनगान किया था।
क्यों मैगी, आखिर क्यों, तुमने अपने आप को इतना व्यवसायिक बना लिया है। शायद ही कोई ऐसा शख्स होगा जिससे तुम्हारी यादें न जुड़ी हों। हर एक शख्स की जिंदगी का पन्ना पलट लिया जाए तो सबमें मैगी तुम्हारी एक कहानी बसी होगी। तुमने मेरे बैचलर्स लाइफ को कितना इजी गोइंग बना दिया था। सुबह जब आॅफिस जाने की हड़बड़ी होती थी, तो वो तुम ही थी जो साथ निभाती थी। देर रात आॅफिस से थक कर आने के बाद खाना न बनाने का मूड हो तब भी तुम मौजूद थी। हर उस पल में तुम हमारे साथ रही। हर सुख दुख में साथ रही। मुफलिसी का दौर आया तब भी तुमने साथ न छोड़ा। पॉकेट भरा हो तब भी तुम्हें ही हमने चाहा।
जवानी तो जवानी, बचपन में भी तुम्हारे लिए तो हम दो मिनट रुकने को तैयार रहते थे, सिर के बल रहने को तैयार रहते थे। मुझे याद है आज भी जम्मू-कश्मीर की मेरी वो मौज मस्ती की यात्रा। जब मैं अपने दोस्त ज्ञानेंद्र के साथ घोर बर्फबारी में उधमपुर से ऊपर पटनी टॉप और नत्था टॉप पर चला गया था। जबर्दस्त ठंड, बर्फबारी के बीच जब पेट में आग लगी थी, तब तुमने कैसे हमें बचाया था। माइनस 7 डिग्री में भी तुम सुलभ थी। तुमने हमें बचाया था मैगी, कैसे भूल सकता हूं तुम्हारा शुक्रिया अदा करना।
मैं उस वक्त को भी नहीं भूल सकता जब पत्नी मेघा के साथ चाइना बॉर्डर के पास नाथूला टॉप गया था। वहां भी मैंने तुम्हें पाया था। भयानक ठंड में फंस जाने के बाद अमीरी गरीबी की सारी दीवार को तुमने चकनाचुर कर दिया था। मजूदर से लेकर धन्ना सेठ भी उस दिन तुम्हारे कारण ही बच सके थे। 
चाहे हिमाचल की पहाड़ी हो या बंगाल की खाड़ी। अंडमान का निर्जन टापू हो या मुंबई की चाल। तुम्हें हमने हर जगह पाया है। मैगी तुम तो कल्पना भी नहीं कर सकती कि तुम कितनी खास हो हम लोगों के लिए। शादी शुदा बैचलर्स की बात हो या शादी शुदा होने पर पत्नी का रूठ जाना और किचन में न जाने की कसम खा लेना। तुम ही तो हो जो हमारा ख्याल रखती हो। मम्मीयों के किटी पार्टी में चले जाने पर बच्चों की देखभाल करने वाले पतियों के लिए भी तुम संजीवनी हो। हॉस्टल लाइफ की तो तुम लाइफ लाइन हो। साउथ इंडिया में जाकर दस दिन रहने वाले नॉर्थ इंडियन के लिए भी तुम ही सहारा बनती हो। आॅफिस के कैंटिन की भी तुम ही शान रहती हो। मैगी तुम्हारी कितनी तारीफ करूं मैं। जितनी भी तारिफ करूंगा कम पड़ जाएगी
पर अब डर लग रहा है। जिस तरह तुम्हारे खिलाफ लोग जहर उगल रहे हैं उसने मुझे विचलित कर दिया है। मैगी तुम्हारे ऊपर तरह-तरह के आरोप लग रहे हैं। सब कह रहे हैं कि तुम्हारे अंदर लेड और मोनोसोडियम ग्लूटामेट (एमएसजी) की मात्रा अधिक है। कह रहे हैं कि लैब रिपोर्ट में यह बातें आई हैं। लोग हंगामा कर रहे हैं। कहते हैं कि तुम्हारे कारण हर्ट अटैक का खतरा बढ़ सकता है। ऐसा कैसे हो सकता है मैगी। तुम तो हर दिल पर राज करती हो उनके दिल को कैसे बर्बाद कर सकती हो । विश्वास नहीं होता है। क्यों नहीं तुम सामने आ रही हो। सामने आकर कह दो मैगी कि तुम्हारे खिलाफ राजनीतिक साजिश रची गई है। मार्केटिंग की प्रतिस्पर्द्धा के कारण तुम्हें बदनाम किया जा रहा है। यह एक सोची समझी राजनीति का हिस्सा है। तुम्हारे खिलाफ हेल्थ और फूड विभाग वालों ने भी मोर्चा खोल दिया है। मैगी तुम शांत क्यों बैठी हो। सामने आओ और कह दो सब झूठ है।
क्या सच में तुम हमारे बीच से चली जाओगी। तुम न होगी तो क्या होगा। मैगी एक तुम ही तो हो जिसे बच्चे से लेकर बूढ़े तक पसंद करते हैं। एक  तुम ही तो हो जो हर वक्त, हर पल साथ रहती हो। प्लीज कुछ करो। सामने आओ अपनी कंपनी के लोगों के साथ। अगर सच में तुममें कुछ कमी है तो उसे भी स्वीकार करो। गलती किससे नहीं होती है। पर एक गलती की इतनी बड़ी सजा मत दो। तुम्हारा चले जाना किसी को बर्दास्त नहीं होगा। अगर तुमने गलती की है तो उसे सुधारने की कोशिश करो। टीवी पर आओ, वादा करो। भरोसा दिलाओ। मैगी तुम्हारी बदनामी मैं नहीं देख सकता। तुम मेरी थी, मेरी हो, मेरी ही रहोगी।

आई लव यू मैगी।

Saturday, May 23, 2015

शौच के लिए सोच कहां से लाओगे

मेरे कॉलेज का मित्र है रोहन सिंह। कॉलेज के दिनों से ही समाज सेवा में रुचि कुछ ज्यादा ही थी। कई बार इस समाज सेवा ने उसे परेशानी में डाला। किस्मत का खेल देखिए उसे नौकरी भी मिली तो एक ऐसे मिशन में जो समाज सेवा से भी बढ़कर है। बिहार के अररिया जिले में वह भारत सरकार के अब तक के सबसे बड़े सेनिटेशन अभियान से जुड़ा है। यह अभियान वैसे तो कांग्रेस के शासन काल में 2005 में ही शुरू हो चुका था, पर वक्त के साथ-साथ इसने अब तक अपने तीन नामाकरण करवा लिए हैं। फिलहाल मोदी सरकार के स्वच्छ भारत अभियान (ग्रामीण) के तौर पर इसे हम देख और समझ रहे हैं। निर्मल भारत अभियान, संपूर्ण स्वच्छता अभियान से होता हुआ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नारा दिया स्वच्छ भारत का। नाम चाहे जो हो, पर उद्देश्य सिर्फ एक था भारत को स्वच्छ बनाना। स्वच्छता चाहे सड़क और गली मोहल्ले की हो, या फिर भारत के लोगों को शौचालय उपलब्ध कराने की।

आज भी हमारे देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिन्हें शौचालय उपलब्ध नहीं है। ग्रामीण इलाकों की तो बात छोड़िए राष्टÑीय राजधानी नई दिल्ली में भी सुबह के वक्त आप रेलवे ट्रैक पर आसानी से इन आंकड़ों से दो चार हो सकते हैं। यह हालात तब है जब संपूर्ण स्चछता अभियान की शुुरुआत हुए दस साल हो चुके हैं। हर साल करोड़ों रुपए का बजट जारी हो रहा है। हर साल करोड़ों रुपए खर्च भी हो रहे हैं। पर दस साल में हर साल की दर से सिर्फ दस करोड़ रुपए ही ईमानदारी से नई दिल्ली के ऊपर खर्च कर दिए गए होते तो सुबह के समय ट्रेन से आते वक्त हमें शर्मिंदा न होना पड़ता। ट्रेन से दिल्ली पहुंचने वाले विदेशी जब अपने कैमरे से इस नजारे को कैद करते हैं तो ट्रेन में मौजूद हर एक भारतीय का सिर शर्म से झुक जाता है। आज भी नई दिल्ली के बाहरी इलाकों में रेलवे ट्रैक के किनारे रहने वाले हजारों लोगों की जिंदगी ट्रैक पर शौच से ही शुरू होती है।

बहुत लोगों को शायद पता न हो, पर यह सच है कि टोटल सेनिटेशन प्रोग्राम के तहत बनने वाले शौचालय की लागत मात्र बारह हजार रुपए आती है। ग्रामीण भाषा में शौचालय की इस तकनीक को सोखता शौचालय और पेपर वर्क में इसे दो गड्ढे वाला शौचालय कहते हैं। इस दृष्टि से देखा जाए तो दस साल के अरबों रुपयों के बजट में से सिर्फ दस करोड़ में नई दिल्ली में इतने सार्वजनिक शौचालय बनाए जा सकते हैं, जिससे घर-घर में शौचालय उपलब्ध हो जाए। पर बात आती है शौच के लिए उत्पन्न होने वाले सोच की।
पूरे भारत में केंद्र सरकार के अभियान के अलावा भी राज्य स्तर की भी कई योजनाएं चलाई जा रही हैं। कई राज्यों में राज्य सरकार की योजना को केंद्र सरकार की योजना में समाहित कर काम चलाया जा रहा है। उद्देश्य सिर्फ एक है कि पूरे भारत के लोगों को कम से कम शौचालय की सुविधा मिले। पर दिक्कत इस बात की है कि आज भी न तो इसकी प्रॉपर मॉनिटरिंग को चैनलाइज किया गया है और न ही समय पर बजट रिलीज किया जा रहा है। । मॉनिटरिंग सिस्टम सिर्फ कागजों तक ही सीमित है। सबसे अधिक दिक्कत मैन पॉवर की है। मनरेगा को भी इसमें सम्मिलत कर लिया गया है, पर बावजूद इसके शौचालय बनाने वाले मजदूरों की कमी है।

दोस्त रोहन से एक दिन बात हो रही थी। मैंने ऐसे ही पूछ लिया, दोस्त तुम तो एक ऐसे मिशन में लगे हो जिसके बारे में सार्वजनिक तौर पर बातचीत करने में भी शर्मिंदगी होती है। शर्मिंदगी से बचने के लिए जहां एक नंबर और दो नंबर, अमेरिका और पाकिस्तान जैसे कोडवर्ड का उपयोग होता है, वैसी स्थिति में तुम कैसे काम कर लेते हो। इस सवाल पर मंथन इसलिए भी जरूरी है क्योंकि अगर ग्रामीण इलाकों में शौचालय बना भी दिए जाएं तो उस सोच को कैसे विकसित किया जाएगा, जिससे लोगों को वहां जाने के लिए प्रेरित किया जाए। रोहन ने बताया कि जिले स्तर पर, ब्लॉक स्तर पर इसके लिए व्यवस्था की गई है। वॉलेंटियर्स गांव-गांव में जाते हैं और लोगों को शौच के प्रति जागरूक करने का काम करते हैं। उन्हें बताया जाता है कि खुले में शौच के कितने नुकसान हैं। पर इस काम में भी जबदसर््त दिक्कत आती है। जब शहर के सभ्य और पढ़े लिखे लोगों को इस मुद्दे पर बात करने में संकोच होता है, तो ग्रामीण इलाकों का स्थिति का अंदाजा स्वयं लगाया जा सकता है।
पूरे भारत में अब तक स्चछता अभियान के तहत लाखों शौचालय बनाए जा चुके हैं, पर सोच के आभाव में इनमें से आधे से अधिक अभी तक लोगों की बाट जोह रहे हैं। गांव में आज भी लोग खेतों में लोटा लेकर जाना पसंद करते हैं। ऐसे में इस प्रोग्राम की सार्थकता कैसे सिद्ध होगी यह यक्ष प्रश्न है। हां यह जरूर है कि हमें शौच के प्रति पहले सोच विकसित करवाने पर ध्यान देने की जरूरत है। टीवी पर शौचालय के प्रति जागरूकता के विज्ञापन जरूर टेलिकास्ट हो रहे हैं, पर जमीनी स्तर पर इस सोच को विकसित करने के लिए व्यापक अभियान की जरूरत है। और हां गांव को इस अभिषाप से मुक्ति दिलाने से पहले शहरों पर भी ध्यान देने की जरूरत है। स्मार्ट सिटी की परिकल्पना से पहले शौच मुक्त सिटी की परिकल्पना पर फोकस किया जाए तो बेहतर होगा।

चलते-चलते
करोगे शौच, तो लगेगा जुर्माना
केंद्र सरकार अब स्वच्छ भारत अभियान को कानूनी अधिकार देने जा रही है। संसद के मानसून सत्र में   सरकार एक ऐसा विधेयक लाने जा रही है, जिसमें खुले में शौच करने को लघु अपराध की श्रेणी में माना जाएगा। अगर कोई व्यक्ति खुले में शौच करते पकड़ा जाता है तो मौके पर ही उसे आर्थिक जुर्माना लगाया जाएगा।

Wednesday, May 20, 2015

कदम मिलकर चलना होगा

अटल बिहारी वाजपेयी जी अपने जन्मदिन पर हर साल एक कविता लिखते थे और पाठकों को समर्पित करते थे। ऐसे ही किसी जन्मदिन पर उन्होंने एक कविता लिखी। शीर्षक दिया ... कदम मिलकर चलना होगा। शायद वे उस वक्त प्रधानमंत्री बन चुके थे। वे अच्छी तरह जानते थे बिना सभी का साथ लिए दो कदम चलना भी मुश्किल होगा। आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का जो हाल है उसमें अटल जी यह कविता काफी अर्थपूर्ण लगेगी। दोनों ही नए विजन, ईमानदार राजनीति और दूरगामी सोच के साथ पूर्ण समर्थन के साथ सत्ता में आए हैं। ऐसे में इस कविता के भाव का आप भी रसास्वादन कर सकते हैं।

कदम मिलकर चलना होगा
बाधाएँ आती हैं आएँ
घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,
निज हाथों में हँसते-हँसते,
आग लगाकर जलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।


हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।


उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।


सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढ़लना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।


कुछ काँटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

-
अटल बिहारी वाजपेयी

Friday, May 15, 2015

क्या तय हो सकती है रेप और सेक्स करने की उम्र?

यह प्रश्न कुछ ऐसा है जिसका जवाब लंबे समय से अनुत्तर ही है। हां यह अलग बात है कि तमाम रिपोर्ट और तथ्यों के आधार पर इनको एक टाइम फॉर्मेट में बांधने का प्रयास जरूर किया गया। बाल विवाह जैसी प्रथा को खत्म करने के साथ लड़कियों की शादी की उम्र का संवैधानिक तौर से निर्धारण इसी प्रयास का एक सकारात्मक पहलू है। इसके अलावा अभी हाल ही में बाल अपराधों को लेकर हुए संवैधानिक परिवर्तन को भी उसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। पर अब भी यह कहना मुश्किल है कि अगर कोई लड़की अपनी मर्जी से तय उम्र से पहले शादी कर ले, या कोई नाबालिग लड़का आपसी सहमति से किसी नाबालिग लड़की से शारीरिक संबंध स्थापित कर ले तो उसे किस दायरे में रखा जाएगा। भारत में तो इस तरह के मामले परिजन अपने स्तर पर निपटा ले रहे हैं। कोर्ट कचहरी और पुलिस की फाइल तो दूर की बात है। यह मंथन का विषय इसलिए भी है कि हाल में आरटीआई द्वारा एक ऐसे सच से पूरे भारत का सामना हुआ है जिसमें स्पष्ट हुआ है कि अबॉर्शन कराने वालों में अंडर एज लड़कियों की संख्या काफी अधिक थी।
महाराष्टÑ के स्वास्थ विभाग ने आरटीआई द्वारा मांगे जवाब में बताया है कि वर्ष 2014-15 के अब तक के आंकड़ों के अनुसार कुल 31 हजार महिलाओं ने अबॉर्शन करवाया। इसमें 15 से 19 साल की उम्र की लड़कियों की संख्या 1600 के करीब है। यह आंकड़ें सिर्फ महाराष्टÑ के ही हैं। अगर पूरे भारत से ऐसे आंकड़ों को एकत्र किया जाए तो चौंकाने वाले खुलासे हो सकते हैं। वहीं यौन हिंसा में सम्मिलत अंडर एज लड़कों का आंकड़ा भी बाल सुधार निकेतनों में बढ़ता ही जा रहा है।

दरअसल बात सिर्फ अनसेफ सेक्स और अबॉर्शन की नहीं है। बात है लड़के और लड़कियों में तेजी से हो रहे हार्मोनल विकास की। आज की पीढ़ी समय से पहले ही बड़ी हो जा रही है। इंटरनेट की स्वच्छंदता और वहां सेक्स सामग्रियों की उपलब्धता ने युवा पीढ़ी को वक्त से पहले काफी समझदार बना दिया है। सेक्स के मामले में यह स्वच्छंदता कुछ अधिक है। दिनों दिन बढ़ रहे सेक्सुअल हरैसमेंट, रेप, आदि की घटनाओं में इंटरनेट ने बड़ा रोल प्ले किया है। एक तरफ जहां युवा मन को इंटरनेट के जरिए यौन संबंधी जिज्ञासा को शांत करने का आसान साधन मिल गया है, वहीं इन जिज्ञासा और इच्छाओं की पूर्ति के लिए अपने आस-पास आसान सा जरिया खोजने में वे जुट जा रहे हैं। इंटरनेट पर मौजूद साधनों ने एक ऐसी यौन विकृति को जन्म दे दिया है, जिसमें हम रिश्ते, नाते, छोटे -बड़े, अपने पराए सभी की सीमाओं को तोड़ चुके हैं। एनसीआरबी के आंकड़ें गवाही देते हैं कि रेप के मामलों में अधिकतर करीबी और परिवार के लोग ही शामिल होते हैं। छोटी बच्चियों के मामले में यह प्रतिशत तो 85 का आंकड़ा छू रहा है। छोटी बच्चियों को गुड टच और बैड टच में अंतर नहीं पता होता और वे आसानी से शिकार बन जाती हैं। जबकि कॉलेज गोइंग
में यौन इच्छा की पूर्ति की प्रबल इच्छा अपने हमउम्र युवाओं के प्रति आकर्षित करती है। यही कारण है कि हाल के वर्षों में सेक्स से जुडेÞ अपराधों की संख्या में आश्चर्यजनक बढ़ोतरी हुई है।
यह मंथन का समय है। क्या हम कानूनों के बंधन में बांध कर ऐसे अपराधाओं को रोक सकते हैं? क्या सिर्फ शादी की उम्र का निर्धारण और बाल अपराधों की श्रेणियां तय कर ऐसी घिनौनी हरकतों पर लगाम सकते हैं? या फिर हमें नई सोच के साथ इसमें आगे बढ़ना होगा। इसी 26 मई को प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी सरकार के एक साल होने जा रहे हैं। इन एक सालों में महिला सुरक्षा को लेकर तमाम दावे हुए हैं। कई नई पहल भी की गई है। पर यौन हिंसा की जड़ों में हम अभी तक जाने में पीछे ही रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस वक्त चीन की यात्रा पर हैं। भारत को स्मार्ट बनाने की परिकल्पना पर मंथन हो रहा है। पर क्या हम यौन हिंसा को रोकने के लिए कृत संकल्प नजर आ रहे हैं। यह यक्ष प्रश्न है कि आखिर इसका निदान कैसे हो।
प्रधानमंत्री को चीन और जापान से इस दिशा में किए गए कार्यों को भी जरूर देखना चाहिए। देखना चाहिए कि चीन ने कैसे इंटरनेट पर पोर्न सामग्रियों को रोकने के लिए बेहतरीन प्रबंधन किया है। प्रधानमंत्री को यह देखना चाहिए कि कैसे वहां के युवाओं को सेक्स एजूकेशन के लिए बेहतरीन माहौल प्रदान किया जा रहा है। महिलाओं की सुरक्षा के लिए भी वहां किए जा रहे प्रयासों को भी करीब से देखने का उनके पास मौका है। सिर्फ स्मार्ट सिटी और बुलेट ट्रेन चलाकर हम सभ्य और विकासात्मक समाज की परिकल्पना नहीं करे सकते हैं। हमें अपने समाज को सभ्य बनाने के लिए कैंसर का रूप ले रही यौन विकृतियों को दूर करने का प्रयास करना होगा। भारत सराकार को भी इंटरनेट पर मौजूद पोर्न सामग्रियों और इस तरह की यौन हिंसा को बढ़ावा देने वाली वेबसाइट्स पर लगाम कसने की जरूरत है। 
जब चीन सरकार तमाम खतरों को भांप कर ट्वीटर जैसी सोशल साइट्स को बंद कर अपनी सुविधा के अनुसार सोशल साइट्स चलाने में सक्षम है, तो क्या भारत सरकार यौन हिंसा को रोकने के लिए इंटरनेट पर मौजूद पोर्न साइट्स को बंद करने का प्रयास नहीं कर सकती। प्रधानमंत्री मोदी को भी चीनी ट्वीटर अकाउंट वीबो पर अपना अकाउंट बनाना पड़ा है, क्योंकि वहां के   लोगों से संवाद के लिए यह जरूरी है। तो क्या भारत कुछ ऐसा नहीं कर सकता है, जो यहां के लोगों के लिए जरूरी है।

Wednesday, May 13, 2015

हिन्दी-चीनी कैसे होंगे भाई-भाई?

किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री की चीन यात्रा को वैश्विक स्तर पर काफी महत्वूपर्ण माना जाता है। इसके तमाम कारण हैं, पर सबसे बड़ा कारण यह है कि अगर इन दोनों देशों के रिश्ते मजबूत हुए तो एशिया में एक ऐसी ताकत का जन्म होगा जो विश्व के सबसे शक्तिशाली देश को आसानी से चुनौती दे सकता है। यह चुनौती आर्थिक स्तर से लेकर तमाम दूसरे स्तर तक का हो सकता है। शायद यही कारण है कि भारतीय प्रधानमंत्रियों के चीन यात्रा की घोषणा के साथ ही सबसे अधिक बेचैनी पश्चिमी देशों में महसूस की जाती है। करीब सात साल बाद कोई भारतीय प्रधानमंत्री चीन जा रहा है। इससे पहले 2008 में जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने चीन की यात्रा की थी तो पश्चिमी देशों के लग
भग सभी अखबारों ने इस यात्रा को अपने प्रथम पन्ने की लीड बनाई थी। हद तो यह थी की भारत चीन के बीच हो रही वार्ता को लगभग सभी अखबारों में कई दिनों तक प्रमुखता से जगह दी गई थी। अब एक बार फिर से भारतीय प्रधानमंत्री की चीन यात्रा हॉट टॉपिक बन गई है। भारतीय मीडिया तो एक हफ्ते पहले से ही वहां पहुंच चुकी है और भारत एवं चीन की सांस्कृति विरासत से लेकर, आर्थिक निर्भरता पर चर्चा कर रही है।
दोस्ती के बीच बॉर्डर की ‘दीवार’
पर सोचने वाली बात यह है कि जो चीन अपनी सीमाओं को लेकर इतना सजग है। हमेशा अपनी हरकतों से भारतीय सेना को परेशान करता रहता है। अरुणाचल प्रदेश को लेकर जिसकी नियत साफ नहीं है। उत्तराखंड से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक के भारतीय बॉर्डर को हर तरफ से घेरता जा रहा है। उत्तराखंड बॉर्डर से लेकर एवरेस्ट तक रेल लाइन बिछाने की कवायद कर रहा है। वही चीन आखिर भारत से इतना आर्थिक रिश्ता क्यों मजबूत कर रहा है।
राजीव गांधी की सार्थक पहल
चीन के साथ 1962 की लड़ाई ने दोनों देशों के बीच काफी कड़वाहट भर दी थी। पर 1988 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने दोनों देशों के बीच मित्रता की पहल की और इस मित्रता ने एक ऐसा माइल स्टोन क्रिएट किया, जिसने दोनों देशों में आर्थिक सुधार को एक नया आयाम दिया। आधुनिक चीन के निर्माता कहे जाने वाले देंग शियाओपिंग ने इस दोस्ती को हाथों हाथ लिया। उन्होंने तो यहां तक कहा कि दोनों देश एक दूसरे के बिना प्रगति नहीं कर सकते। भारतीय इतिहास में प्रधानमंत्री राजीव गांधी की यह पहल सुनहरे अक्षरों में लिखी गई। दोनों देशों के बीच व्यापारिक गतिविधियों ने कई मुकाम हासिल किए। आज तो हाल यह है कि भारतीय बाजार चीनी प्रोडक्ट से भरे पड़े हैं। दीपावली के दीये भी चीनी बल्ब से चमकते हैं। भारतीयों की आम जिंदगी में भी चीनी प्रोडक्ट ने अपना बाजार स्थापित कर लिया है।
चीन का सबसे बड़ा बाजार भारत
आज चीन के लिए भारत एक ऐसा बाजार बन चुका है, जिसके बगैर वहां की अर्थव्यवस्था चरमरा सी जाएगी। शायद यही कारण है कि चीन ने भी भारत के साथ अपनी मित्रता को और मजबूती देने का मन बना रखा है। जिस तरह मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद शी जिंगपिंग ने भारत की यात्रा की। और अब भारतीय प्रधानमंत्री चीन जा रहे हैं यह एक नए युग की शुरुआत ही मानी जाएगी। आज चीन का आर्थिक विकास भारत से करीब पांच गुणा अधिक है। जनसंख्या के मामले में भले ही हम एक दूसरे के करीब हैं पर आर्थिक मामले में हम काफी पीछे हैं।
कैसे पूरा होगा भाई-भाई का सपना
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 14 मई से शुरू हो रही चीन यात्रा कई मायनों में महत्वपूर्ण मानी जा रही है। आधुनिक भारत की परिकल्पना हो या फिर मेक इंडिया का उनका नारा। यह सब पड़ोसियों के बगैर संभव नहीं है। जापान की यात्रा के बाद नरेंद्र मोदी की चीन यात्रा इसी कड़ी का अहम हिस्सा है। पर इस दौरान चीन के साथ बॉर्डर पर वक्त बे वक्त के तनाव को भी सुलझाने का सार्थक प्रयास किया जाना जरूरी है। जब तक दोनों देश एक दूसरे पर विश्वास नहीं जताएंगे, तब तक हिंदी चीनी भाई-भाई का सपना अधूरा ही रहेगा। आर्थिक रूप से समृद्धि तभी आ सकती है, जब बॉर्डर पर शांति कायम रहे। दोनों देशों के बीच बॉर्डर मामला सुलझाने के लिए 2003 के बाद से 18 राउंड बैठक हो चुकी है। पर नतीजा जीरो ही रहा है। ऐसे में मोदी की चीन यात्रा का यह पहलू भी महत्वपूर्ण होगा।
क्या ऐहितासिक बन सकेगी यह यात्रा
आने वाले वक्त में दोनों देशों के बीच संबंध इस बात पर निर्भर करेंगे कि क्या दोनों देश आज भी देंग शियाओपिंग की नीतियों को प्रासंगिक मानते हैं। आधुनिक चीन की चकाचौंध ने पश्चिमी देशों को भी आकर्षित कर रखा है। कुछ देशों ने तो यह भी मान लिया है कि आने वाला समय चीन का ही होगा। एशिया में चीन का वर्चस्व होगा। पर अगर चीन ने भी ऐसा मान लिया तो यह इतिहास की सबसे बड़ी आर्थिक भूल होगी। चीन और भारत के बीच अब एक ऐसा अन्नयोन्यार्शय संबंध कायम हो चुका है कि दोनों देश एक दूसरे के बगैर अधूरे होंगे। ऐसे में भारतीय प्रधनमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन यात्रा एक ऐतिहासिक यात्रा होगी। यह भविष्य की रूपरेखा तय करने वाली यात्रा साबित होगी।

Friday, May 8, 2015

सलमान... यह खत तुम्हारे नाम

अच्छा हुआ सलमान खान तुम अदालत में पेश हुए। अच्छा हुआ कि तुम्हारे चेहरे से दबंगता का परदा हट गया। अच्छा हुआ कि तुम्हारे बहाने हमें यह अहसास हुआ कि तुम्हारे जैसे सेलिब्रेटी और हमारे जैसी आम पब्लिक में आदमी और कुत्ते का फर्क है। हालांकि जहां तक दुनिया जानती है तुमने भी अपने घर में कुत्तों को पाल रखा है। जरूर वे वफादार होंगे, इसीलिए वह तुम्हारे बेडरूम तक जाने की हनक रखते हैं। आम आदमी भी वफादार होता है, यह तुम्हारे अदालती प्रकरण ने स्थापित कर दिया। पर तुम्हारी हनक, तुम्हारी दबंगई, तुम्हारी सेलिब्रेटी इमेज एक पल में हवा हो गई थी। यह तो तुमने भी देखा उस दिन, जब तुम अदालत के कटघरे में बेबस और लाचार खड़े थे। चलो तुम्हें अहसास तो हुआ कि तुम भी एक आम इंसान ही हो। हां, यह अलग बात है कि तुम्हारी औकात कुछ अधिक है, कम से कम फुटपाथ पर सोने वालों से। पर सलमान शायद तुम यह भूल बैठे थे कि बुलंदी देर तक किस शख्स के हिस्से में रहती है, बहुत ऊंची इमारत हर घड़ी खतरे में रहती है।
सलमान तुम्हें भले ही हाईकोर्ट से राहत मिल गई है पर शायद अब तुम भी इस बात से इत्तेफाक रखोगे कि कानून का दायरा बहुत बड़ा है। तुम्हारी रिहाई या बेल पर बहस करना बेमानी है क्योंकि हमारी न्यायिक व्यवस्था में बहुत कुछ ऐसा है, जिसे सार्वजनिक तौर पर लिखा नहीं जा सकता, सिर्फ कहा और सुना जा सकता है। इसी न्यायिक व्यवस्था को तुमने अपनी फिल्मों में बहुत खूबसूरती से बयां भी किया है। पर तुमने शायद यह कभी मंथन नहीं किया होगा कि असल जिंदगी और फिल्मी जिंदगी में क्या-क्या समानताएं और क्या-क्या असमानताएं हैं? फिल्मों के जरिए तुम करोड़ों दिलों पर राज करते हो। तुम्हारी हर इक अदा पर तालियां बजती हैं। पर कभी तुमने मंथन किया है कि क्यों तुम्हारी छवि बैड ब्वॉयज के रूप में बनती रही है? क्या यह तुम्हारा अहंकार है? या फिर तुमने अपने आपको सभी से ऊपर मान लिया है?
सलमान तुम्हारी रॉबिन हुड वाली छवि का भी इन दिनों खूब प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। पर कोई यह बताने की जहमत नहीं उठाता कि ऐसा क्या परिवर्तन तुम्हारे अंदर आया कि वर्ष 2002 के बाद तुम सोशल वेलफेयर के कार्यों में काफी सक्रिय हो गए। क्या महान सम्राट अशोक के जीवन ने तुम्हें प्रेरित कर दिया था? कलिंग के युद्ध के बाद सम्राट अशोक ने जब रक्तरंजित तलवार देखी, अपनों के साथ गैरों को भी मरते देखा। मैदान में लाशों के ढेर के बीच खुद को नितांत अकेला पाया। तब उन्हें इस बात का अहसास हुआ था कि युद्ध  कितना भयावह होता है। इसके बाद उन्होंने जिस तरह अपने आप को परिवर्तित किया वह इतिहास के पन्नों में दर्ज है। रक्तरंजित तलवार हो या फिर रक्त रंजित गाड़ी का टायर, दोनों कष्ट तो देता ही है। क्या तुम उसी रक्तरंजित गाड़ी के टायर से द्रवित हो गए? क्या सच में तुम्हें ‘कुत्तों’ की मौत पर अफसोस हुआ? क्या सच में तुम्हारा भी हृदय परिवर्तित हो गया और तुमने एक ऐसे संगठन की स्थापना की जो ‘हृयूमन’ के लिए है। या यह सब भी तुमने इसलिए किया ताकि तुम
भविष्य में अपने बचाव में कुछ तर्क स्थापित कर सको। तुम्हारे बेल पिटिसन में भी इस बात को प्रमुखता से बताया गया था और यह छवि कहीं न कहीं न्याय के मंदिर में तुम्हारे लिए सार्थक भी बनी।
वर्ष 2002 की घटना के बाद से अचानक तुमने सोशल वेलफेयर के इतने काम किए जिसका वर्णन करने को शब्द नहीं। पर हर एक सोशल वेलफेयर के बाद इसकी पब्लिसिटी का काम भी बड़े ही प्लांड वे में करवाना किस रणनीति का हिस्सा थी? क्या तुम्हें न्याय के देवताओं ने समझा दिया था कि अपना बचाव करना है तो अपनी छवि को सुधारो। सलमान अगर तुम सच में कुछ करना चाहते तो कर सकते थे, उस व्यक्ति के लिए जो तुम्हारा बॉडीगार्ड था। पर शायद तुमने यह सोचा होगा कि उसने तुम्हारे खिलाफ बयान दिया तो उसे क्यों पूछा जाए? यहीं तुम्हारे द्रवित हो रहे हृदय ने तुम्हें धोखा दे दिया। अशोक ने जब अपनी रक्तरंजित तलवार को खुद से अलग किया, उसके बाद उसने कभी यह नहीं सोचा कि कौन अपना और कौन पराया? पर तुमने अपने रक्तरंजित गाड़ी के टायर देखने के बाद जो हृदय परिवर्तन किया उसमें अपने और परायों का खास ख्याल रखा।
सलमान मैं तुम्हें उतना करीब से नहीं जानता हूं। तुम्हें उतना ही जानता हूं जितना तुमने हमें बताया है, या मेरे जैसे पेशे के लोगों ने तुमसे जितना पूछा है। यह भी सच है कि इतना भर जान लेना काफी नहीं है। तुम्हारी अपनी निजी जिंदगी में बहुत कुछ तुम अच्छा कर रहे होगे, इसमें हमें संदेह नहीं पर   तुमने कभी मंथन किया है कि सड़क पर सोने वाला व्यक्ति क्यों वहां सोने पर मजबूर होता है। समय मिले तो मंथन जरूर करना और अगर सही में तुम अपने दिल में दया का भाव रखते हो तो सड़क के इन ‘वफादार कुत्तों’ को अपने घर में पल रहे कुत्तों जैसा ही प्यार और सम्मान देने की कोशिश करना। हो सके तो इनके लिए भी ‘बीइंग हृयूमन’ बनना। थैंक्स!
तुम्हारा एक ‘कुत्ता’ फैन


चलते-चलते
मुनव्वर राणा की यह चंद पंक्तियां तुम्हारे और हम जैसे लोगों के लिए-

भटकती है हवस दिन-रात सोने की दुकानों में,
गरीबी कान छिदवाती है तिनका डाल देती है।
अमीरे-शहर का रिश्ते में कोई कुछ नहीं लगता,
गरीबी चांद को भी अपना मामा मान लेती है।।


Tuesday, May 5, 2015

‘सरस्वती’ का सिर्फ नाम सुना है, अब देखेंगे भी

एक ऐसी नदी जो न जाने कितने सालों से एक रहस्य बनी हुई है। जिस सरस्वती का हम सिर्फ नाम ही सुनते आए हैं, पर आज तक किसी ने देखा नहीं है। एक ऐसी नदी जिसके नाम पर कितने तीर्थ स्थल बने हैं, संगम बने हैं, फिल्मी गाने बने हैं, पर दिखी आज तक नहीं है। उस नदी को अब हम साक्षात देख सकते हैं। वैज्ञानिकों ने वैसे तो कई तार्किक आधार पर इस नदी के अस्तित्व की बातें कही और लिखी हैं, पर ऐसा पहली बार हुआ है कि इस नदी को वास्तविकता प्रदान की
गई है। पिछले दिनों हरियाणा की मनोहर लाल खट्टर सरकार ने केंद्र सरकार की मदद से बड़े स्तर पर इस नदी को खोजने के अभियान की शुरुआत की थी। मंगलवार को इस अभियान को बड़ी सफलता मिली है। यमुनानगर जिले के मुगलवाली में सरस्वती नदी का पानी मिल गया है। विशेषज्ञों की टीम ने पाया है कि गंगा व यमुना नदी के पानी की धारा के साथ जिस प्रकार के खनिज मिलते हैं, वैसे ही खनिज पदार्थ सरस्वती नदी के पानी के साथ भी मिले हैं। 
धार्मिक मान्यताओं में सरस्वती का उद्गम स्थल हरियाणा के यमुनागर जिले के आदिबद्री को माना जाता है। इसकी पुष्टि इसरो और नासा के भी रिपोर्ट में भी हुई है। वैज्ञानिक तथ्यों के सामने आने के बाद अटल बिहारी सरकार के कार्यकाल में भी इस नदी को खोजने का काम शुरू हुआ था, पर सरकार बदली तो प्लान भी बदल गया। एक बार फिर जब नरेंद्र मोदी शासित बीजेपी की सरकार अस्तित्व में आई तो इस पर काम शुरू हुआ। केंद्र सरकार ने इसके लिए करीब पचास करोड़ रुपए का बजट निर्धारित किया। हरियाणा की खट्टर सरकार ने भी इस काम को अंजाम तक पहुंचाने में अपनी ताकत झोंक दी। पिछले महीने 21 अप्रैल को पूरे विधि विधान और अत्याधुनिक साजो सामान के साथ सरस्वती की खोज शुरू हुई।
विज्ञान और धार्मिक मान्यताओं के संगम ने एक पौराणिक नदी के अस्तित्व को फिर से जीवंत कर दिया है। यमुनागर के डीसी डॉ. एसएस फूलिया की मानें तो मंगलवार को मुगलवाली गांव में अलग-अलग स्थानों पर नौ से 10 फूट की खुदाई की गई। सैटेलाइट चित्रों का भरपूर सहयोग मिला। कई जगह नदी की धारा बहती हुई मिली है। कई जगहों पर सतह से छह फूट नीचे ही इसका प्रवाह मिला है। अब प्रयास किया जा रहा है कि दस फूट तक इसका श्रोत निकाला जाए, जिससे इसके प्रवाह में कोई रुकावट नहीं आ सके। इस गांव के आगे छलौर गांव में बांध बनाकर इस नदी के संपूर्ण अस्तित्व को पूरी दुनिया के सामने लाने की प्लानिंग शुरू हो गई है।
ये तो हुई आज के संदर्भ में बात। अब मैं आपको बताने का प्रयास कर रहा हूं कि आखिर सरस्वती नदी से जुड़ा रहस्य क्या है? क्यों यह नदी इतने दिनों तक एक पहेली बनी हुई थी।
नदियों के जरिए अगर आप भारत को मोटे तौर पर समझें तो पाएंगे कि भारत में तीन स्तर पर नदियां बहती थी। भारत के एक ओर सिन्धु और उसकी सहायक नदियां बहती थी। जबकि दूसरी ओर ब्रह्पुत्र और उसकी सहायक नदियों का राज था। इसी तरह भारत के बीच में गंगा, यमुना और सरस्वती अपनी सहायक नदियों के साथ प्रवाहित होती थी। इन्हीं नदियों के तटों पर मुख्यत: सभी सभ्यताओं का विकास हुआ। अब इनमें से सभी नदियों का अस्तित्व तो है पर सरस्वती नदी बीच में से विलुप्त हो गई। इलाहाबाद में संगम तट पर हर साल करोड़ों लोग पहुंचते हैं। बड़ी श्रद्धा के साथ वहां पूजा भी करते हैं। पर गंगा और यमुना के अलावा तीसरी नदी आज तक किसी को नहीं दिखी। धार्मिक मान्यताएं स्थापित कर दी गर्इं कि वह इसके नीचे से बहती है। ऊपर नहीं दिखती। सरस्वती कभी गंगा नदी से मिली या नहीं मिली, इस पर अब भी शोध किया जा रहा है। 
हालांकि वैदिक काल में एक और नदी द्षद्वती का वर्णन भी आया है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यह सरस्वती की सहायक नदी के तौर पर मौजूद थी। इस नदी का प्रवाह भी हरियाणा से होकर था। माना गया कि कालांतर में भीषण भूंकप के बाद पहाड़ों के ऊपर उठने के कारण इन नदियों ने भी अपना प्रवाह बदल दिया। दिशा बदलने के कारण जहां एक ओर सरस्वती विलुप्त हो गई, वहीं द्षद्वती ने यमुना का रूप ले लिया। यह भी मान्यता है कि यमुना और सरस्वती एक दूसरे के साथ ही बहने लगी। यही यमुना जब प्रयाग में गंगा के साथ मिली तो सरस्वती का संगम अपने आप स्थापित हो गया। धार्मिक ग्रंथों ने इस तथ्य को वैज्ञानिक आधार भी दिया। इसीलिए प्रयाग में तीन नदियों गंगा, यमुना और सरस्वती नदी का संगम माना गया है।
महाभारत में भी सरस्वती नदी का कई प्रसंगों में विस्तार से वर्णन किया गया है। महाभारत के अनुसार सरस्वती नदी का उद्गम स्थल आज के यमुनागर के आदिबद्री नामक स्थान पर है। आज यह आदिबद्री नामक स्थल हिंदुओं का बड़ा तीर्थस्थल है। हर साल यहां लाखों लोग पहुंचते हैं। इसी क्षेत्र के मुगलवाली में इस वक्त खुदाई के दौरान वैज्ञानिकों को नदी के अस्तित्व को खोजने में सफलता मिली है। 
विलुप्त होने का वैज्ञानिक आधार
फ्रेंच प्रोटो हिस्टोरियन माइकल डैनिनो ने अपने शोध ग्रंथ में सरस्वती नदी के विलुप्त होने के कारणों पर विस्तार से चर्चा की है। उनके शोध गं्रथ का नाम ‘द लॉस्ट रिवर’ है। करीब पांच हजार साल पहले यमुना और सतलुत का पानी सरस्वती के साथ मिलता था। अत्याधुनिक संसाधनों की मदद से इन हिमालयी नदियों का मार्ग पता लगाया   गया। इसके अनुसार संभवत: सरस्वती का पथ पश्चिम गढ़वाल के बंदरपंच गिरि पिंड से निकला होगा। यमुना भी इसके साथ-साथ बहा करती थी। कुछ दूर साथ-साथ चलने के बाद इनका प्रवाह एक हो गया होगा। यमुना ने अपने प्रचंड प्रवाह में सरस्वती को समाहित कर लिया।

Saturday, May 2, 2015

तुम अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं कॉपी-पेस्ट करके चाहोगे तो मुश्किल होगी

तुम अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं
कॉपी-पेस्ट करके चाहोगे तो मुश्किल होगी

गाने के बोल को आप राहूल गांधी से बिल्कुल जोड़ सकते हैं। मैं अपने ब्लॉग के माध्यम से यह हक आपको दे रहा हूं।
क्या जरूरत थी उन्हें कि वे नेपाल एंबेसी में गए। वह भी जबर्दस्ती की संवेदना लिखने को। संवेदनाएं दिल से निकले शब्द होते हैं। पर राहूल गांधी तो अपने पापा की तरह बनना चाहते हैं। शायद उन्हें इस बात का अहसास नहीं है कि आप पापा के जूते पहन सकते हो, पापा के कपड़े भी फिट बैठ जाएं पर बेटा कभी अपने पापा के बराबर खड़ा नहीं हो सकता। बेटा अपनी पहचान, अपनी शख्सियत तो बना सकता है पर अपने पिता से हमेशा छोटा ही रहेगा। पर राहूल गांधी की विडंबना ऐसी है कि वह न तो अपनी पहचान कायम कर पा रहे हैं और पिता की तरह बनना तो दूर की बात है।

कॉपी पेस्ट की संवेदनाओं ने ही उन्हें इस मुकाम तक पहुंचाया है कि अगर किसी सीरियस मुद्दे पर भी वे कुछ बोलें तो मजाक बन जाता है। सोशल मीडिया के टॉप ट्रेंड पर उनसे जुड़े जोक्स ट्रेंड करने लगते हैं। ऐसा नहीं है कि राहूल गांधी में वो क्षमता नहीं है कि वो दो लाइन संवेदना के लिख सकें, पर कहते हैं न कि दूध का जला छाज भी फूंक-फूंक कर पीता है। फिलहाल राहूल गांधी ऐसे दौर से गुजर रहे हैं कि उनकी हर एक बात पर मीडिया की निगाहें हैं। ऐसे में नेपाल त्रासदी को लेकर वे जो संवेदना प्रकट करना चाहते थे उसमें भी परफेक्शन चाहते थे। शायद यही कारण रहा होगा कि उन्हें कॉपी पेस्ट की जरूरत पड़ गई। दरअसल जब आपकी अपनी बुद्धी काम करनी बंद कर दे तो ऐसा ही होता है। इस समय राहूल गांधी को एक ऐसी टीम ने घेर रखा है जो राहूल को अपना दिमाग यूज करने नहीं दे रही है।
राहूल पंजाब के किसानों के बीच पहुंचे, विदर्भ के किसानों के बीच पहुंचे। अच्छी बात है वे किसानों का दर्द जानने जा रहे हैं, लेकिन उनकी हर चाल में सियासत की बू क्यों आ जाती है। पंजाब में जल्द ही चुनाव होने वाले हैं, वहां का राजनीतिक पारा ऐसे ही गरम है। ऐसे में हरियाणा के रास्ते सिर्फ पंजाब की यात्रा करने का उनका मकसद क्या था। जबकि आंकड़े गवाह हैं कि हरियाणा में इस वक्त तक करीब 50 किसान मौत की आगोश में चले गए हैं। खराब फसल और प्रकृति की मार से इनमें से कई किसानों ने आत्महत्या कर ली है, जबकि कई सदमे से काल की गाल में समा गए। जबकि पंजाब में स्थिति दूसरी है। वहां भी किसान परेशान हैं, पर मौत के आंकड़ों को हमेशा ऊपर रखा जाता है। वहां किसानों की मौत का प्रतिशत हरियाणा के मुकाबले न्यूनतम है। राहूल गांधी या यूं कहे कि उनके सिपहसलारों को पता था कि हरियाणा के किसानों के प्रति संवेदनाएं जता कर क्या होगा। पांच साल के लिए खट्टर सरकार कुर्सी पर विराजमान है। चलो पंजाब चलते हैं वहां के किसानों की संवेदना बटोरते हैं, सियासी फायदा मिलेगा।
हद है। किसानों के नाम से जन्मजात राजनीति करने वाली कांग्रेस के युवराज की। नहीं चाहिए हमें ऐसी दिखावटी संवेदनाएं। नहीं चाहिए हमें आपके कॉपी पेस्ट वाली संवेदनाएं। दिल से आप एक गरीब किसान के आंसू ही पोछ दें तो हम खुश हो जाएंगे। आप हमें न चाहो यह मंजूर है, पर दिखावटी और कॉपी पेस्ट वाली संवेदनाएं प्रकट करोगे तो मुश्किल होगी।

Friday, May 1, 2015

अच्छा हुआ गब्बर, जो तुम आ गए


अच्छा हुआ गब्बर, जो तुम आ गए
रमेश सिप्पी ने 1975 में जब एक गब्बर की परिकल्पना की थी तो पूरा विश्व एक ऐसे किरदार से मुखातिब हुआ, जिसने खलनायकी के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। एक खलनायक भी कितना सफल हो सकता है यह गब्बर ने बताया। क्रुर, बदमिजाज, रोबिला या कुछ और, आप जैसे भी उसे परिभाषित कर सकते थे, आपने किया। उस वक्त के गब्बर ने एक ऐसे किरदार की रचना की, जिसमें खलनायकी के अलावा दबंगता का भी मिश्रण था। गब्बर का नाम ऐसा चल पड़ा कि इस नाम से मुहावरे तक बन गए। हर एक दबंग में गब्बर की झलक मिलने लगी। फिर नब्बे के दशक का एक ऐसा दौर आया जब यही गब्बर इंसानियत की नसीहत देने और शान के साथ जीने का सलीका सिखाने लगा। बिना किसी डर और निर्भयता से समाज में रहने की बात करने लगा। भारतीयों की जुबान पर वह गाना रच और बस गया कि... गब्बर सिंह ये कह कर गया, जो डर गया वो मर गया। धीरे-धीरे गब्बर ने कई रूप बदले। पर अपने नाम को हर दौर में प्रासंगिक बनाए रखा। क्रिकेटर शिखर धवन ने तो गब्बर के नाम को इतना सार्थक रूप दिया है कि मैदान में उतरते ही हर तरफ गब्बर-गब्बर का शोर मच जाता है। अब एक बार फिर फिल्मी परदे पर ‘गब्बर इज बैक’ के जरिए गब्बर लौट आया है। एक नए अंदाज में।
क्या आपने कभी मंथन किया है कि एक वक्त का सबसे खतरनाक खलनायक कैसे समय के साथ-साथ समाज का नायक बनता चला जाता है। क्या यह परिवर्तित होते समाज का आईना है या फिर हमने यह स्वीकार कर लिया है कि समाज में जीना है तो गब्बर बनकर ही रहना होगा। दरअसल गब्बर बुराई के प्रतीक से बहुत आगे निकल चुका है। अस्सी के दशक के गब्बर और इस दशक के गब्बर में जमीन आसमान का फर्क आ चुका है। फिलहाल जिस नए गब्बर का फिल्मी परदे पर अवतरण हुआ है वह भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए आया है। जब लोकसभा चुनाव के दौरान भ्रष्टाचार सबसे बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनकर उभरा था, तब हर किसी के जहन में एक सवाल था आखिर इस मुद्दे से लड़ने के लिए कौन सा मॉड्यूल अपनाया जाएगा। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार बनी और भ्रष्टचार का मुद्दा इस सरकार का प्राइम असाइनमेंट बना। हर तरफ भ्रष्टचार से निपटने की शपथ दिलाई जाने लगी। गली मोहल्लों में भी लोगों ने हर एक कदम पर भ्रष्टचार को खत्म करने की जिम्मेदारी उठाई। पर अफसोस चंद दिनों बाद ही स्थितियां वही ढाक के तीन पात ही है। सरकारी दफ्तरों में आज भी सेवा शुल्क प्राथमिकता में शामिल है। प्राइवेट सेक्टर में इस सेवा शुल्क ने अपना नया नामकरण करवा लिया है। आजकल लोग इसे कॉरपोरेट एसाइनमेंट बताने लगे हैं। शिक्षा के बाजारीकरण में भी यह कल्चर खूब फल फूल रहा है।
कहते हैं फिल्में हमारे समाज का आईना होती हैं। शायद यही कारण है कि एक बार फिर गब्बर लौट आया है। नए अंदाज, नए तेवर, नए कलेवर में। यह वह गब्बर है जो आम आदमी का मुखौटा बन कर हमारे सामने आया है। इस गब्बर ने भ्रष्टचार से लड़ने के लिए दबंगता का मॉड्यूल अपनाया है। अस्सी के दसक वाले गब्बर के नाम से पचास कोस दूर तक का बच्चा जब रोता था तो मां उसे गब्बर के नाम पर सुला देती थी। आज वाला गब्बर भी उसी दबंगता के साथ समाज में मौजूद है। इस गब्बर के डर से पचास कोस दूर तक कोई रिश्वत लेने की सोचता भी नहीं है। अगर किसी ने ऐसा किया तो गब्बर आता है और उसे ऐसा सबक सिखाता है कि वह सपने में भी रिश्वत की बात नहीं सोचे।
तो क्या हमें यह मान लेना चाहिए कि भ्रष्टचार से लड़ने के लिए हमें भी गब्बर बनना होगा? मंथन करिए। क्यों हम भ्रष्टचार से लड़ने में कामयाब नहीं हो रहे हैं। दरअसल कमी हमारे अंदर है। हम अपने भय पर काबू पाने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। हमें डर है कि अगर हमने भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई तो तमाम तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ेगा। पर इसी डर से पार पाने को हमें गब्बर बनना होगा। जब तक गब्बर नहीं बनेंगे तब तक हम डरे सहमे रहेंगे। जिस दिन हमने अपने अंदर गब्बर जैसा जिगर पा लिया, उस दिन हम उस लड़ाई को लड़ने में सफल होंगे, जो हमें हर वक्त परेशान करता रहता है। क्रिकेटर शिखर धवन ने जब खुद को गब्बर के रूप में परिभाषित करने का मौका दिया तो पूरी दुनिया ने देखा कि कैसे उसने उछाल भरी पिच पर 150 किलोमीटर की रफ्तार से आ रही बॉल को बाउंड्री का रास्ता दिखाया। हर एक व्यक्ति के भीतर एक गब्बर छिपा है, पर जरूरत है उस गब्बर को बाहरी दुनिया से रूबरू करवाने की। ऐसे में अच्छा हुआ कि गब्बर एक बार फिर लौट आया है। हमें और हमारे समाज को आईना दिखाने के लिए।

चलते-चलते

‘गब्बर इज बैक’ सिनेमाघर में तालियां बटोर रही हैं। हालांकि यह तमिल फिल्म रमन्ना की रिमेक है। पर हिंदी सिनेमाप्रेमियों को इसके दबंगई वाले संवाद रोमांचित जरूर कर रहे हैं। फिलहाल एक मित्र ने बताया कि सिनेमा हॉल में काफी लंबे समय बाद किसी संवाद पर तालियों की गड़गड़ाहट सुनने को मिली है। रजत अरोड़ा ने गब्बर की दबंगता को जीवंत कर दिया है। और हां यह मत भुलिएगा गब्बर इज बैक का मूल है ‘नाम विलेन का, काम हीरो का’।