Monday, April 27, 2015

कभी हालात...बेबसी पर रोना आया

ये किसान हैं। कोई इन्हें संपन्न कहता है कोई इन्हें बेबस कहता है। किसी को इनके हालात पर रोना आता है पर कभी इनके आंसू नजर नहीं आते हैं। बारिश हो जाती है। फसल बर्बाद हो जाती है। आंधी और तूफान में सब कुछ उड़ जाता है। खेत में खड़ी फसलें सपाट हो जाती हैं। आम और लीची की फसल पर ओले पड़ जाते हैं और रही सही कसर सरकार की मुआवजा नामक बीमारी पूरी
इस वक्त पूरे देश में किसानों के प्रति संवेदनाओं का ज्वार उत्पन्न हो गया है। अचानक वे वोट बैंक की राजनीति से ऊपर उठकर सभी के दिलों में एक कसक की तरह उभर रहे हैं। हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, बिहार सभी जगह किसानों की एक ही दशा है। लंबे वक्त के बाद ऐसे दिन देखने को मिले कि बैसाखी के दिन किसानों के घर दिए नहीं जल रहे थे। मंदिरों और गुरुद्वारों में अपने आराध्य को अर्पित करने के लिए उनके पास फसल नहीं बची थी। हताशा और निराशा के इस दुर्दिन में आत्महत्या का एक ऐसा दौर चला कि अब तक पूरे देश में करीब अस्सी किसानों ने मौत को गले लगा लिया है। पूरा देश शोकाकुल है पर साथ ही विवश भी है किसानों के प्रति। जो अन्नदाता उनका पेट भरता है, उन्हें कैसे मदद पहुंचाई जाए? यह एक यक्ष प्रश्न है। हर छोटी बात पर धरना-प्रदर्शन को आतुर रहने वाले राजनीतिक दल किसानों के मुद्दे पर शांत बैठे हैं। राजनीति हो रही है तो सिर्फ इस बात को लेकर कि किसानों को मुआवजे की राशि कितनी मिलनी चाहिए। कांग्रेस शासन में अगर दस हजार रुपए प्रति एकड़ मुआवजा मिलता था तो वही कांग्रेस के नेता अब तीस हजार प्रति एकड़ देने की मांग कर रहे हैं। मुआवजे की राशि को लेकर बयानबाजी चल रही है पर जमीनी हकीकत से किसी को मतलब नहीं है।
कोई एक कदम आगे नहीं बढ़ रहा है कि अपने पॉकेट से किसानों के लिए चंदा जमा करने की मुहिम शुरू करे। साधारण सी साधारण बात के लिए सोशल मीडिया कैंपेन चलाने वाले लोग भी किसानों के लिए किसी मुहिम की कल्पना नहीं कर पा रहे हैं। वोटिंग के दौरान किसानों के घरों तक आसानी से पहुंचने वाले भी इस समय ‘जेठ की दुपहरिया’ की दुहाई देकर एयर कंडिशन कमरों में किसानों की व्यथा पर मंथन कर रहे हैं। पर वह अन्नदाता कहीं अपनी खड़ी और बर्बाद हो चुकी फसल पर ट्रैक्टर चलाने को मजबूर है। कहीं वह एक बार फिर कर्ज लेने के लिए साहूकारों के घरों के आगे लाइन में लगा है। मध्यमवर्गीय परिवार को बात-बात पर लोन देने वाले बैंक भी खामोश हैं। गाड़ी के लिए लोन चाहिए, टीवी और फ्रिज भी आसान किस्तों पर उपलब्ध हैं। यहां तक कि बच्चे की लग्जरी साइकिल खरीदने के लिए भी ईएमआई की व्यवस्था करने वाले बैंक किसानों के लिए क्या कर रहे हैं इसे देखने वाला कोई नहीं। क्या कभी किसानों को भी फसलों की बुआई के लिए ईएमआई से रकम चुकाने की सहूलियत मिलेगी? क्या बैंकिंग सेक्टर इतनी दरियादिली दिखाएगा कि किसानों को दिए गए कर्ज की ब्याज राशि में कटौती कर दे? या सिर्फ यह दिखावा ही रहेगा कि हम किसानों के प्रति अपनी संवेदनाएं ही व्यक्त करते रहें। दिल्ली में राजस्थान के किसान गजेंद्र की आत्महत्या के पीछे की कहानी चाहे जो कुछ भी है पर गजेंद्र ने एक बात तो स्पष्ट कर ही दी है कि किसान अच्छे हालात में नहीं जी रहे हैं। उसकी आत्महत्या से पहले भी साठ से सत्तर किसान आत्महत्या कर चुके थे, पर गजेंद्र की हत्या ने संसद में नेताओं को हो-हल्ला करने पर मजबूर जरूर कर दिया। नेशनल मीडिया और इंटरनेशनल मीडिया में भारतीय किसानों पर बहस का दौर भी शुरू हो चुका है। अगर गजेंद्र ने दिल्ली में आत्महत्या न की होती तो शायद वह भी एक गुमनाम किसान की तरह अब तक मिट्टी में मिल चुका होता। अब तक जितने किसानों ने आत्महत्या की है उनमें किसी एक किसान का नाम भी लोगों को याद हो तो आपका उनके प्रति संवेदनात्मक आंसू सार्थक हो जाए पर अफसोस ऐसा नहीं है। न तो हमें किसी किसान का नाम याद है और न हम गजेंद्र को भूल पाएंगे। तो क्या एक बार फिर इस बात का प्रमाण मिल चुका है कि मीडिया ही है जो मुद्दे बनाता है और उसे संसद से लेकर सड़क तक ले जाता है। मंथन इस बात पर नहीं होना चाहिए कि कोई मुद्दा कब बड़ा हो जाए, मंथन इस बात पर होना चाहिए कि जमीनी स्तर का मुद्दा क्या है। गजेंद्र का रामलीला मैदान में भरी सभा में पेड़ पर लटकना मुद्दा है या फिर रोज-रोज तिल-तिल कर मर रहा किसान मुद्दा है। आम आदमी को भी इस पर मंथन करना चाहिए। हमें यह भी सोचना चाहिए कि अपने अन्नदाताओं की भलाई के लिए हम क्या कर सकते हैं? चलिए एक कदम ही सही, पर सार्थक तरीके से उनके बारे में सोचिए तो जरूर।
कर देती है। किसानों की यह कहानी कोई आज की नहीं है। सालों से यही कहानी चली आ रही है पर इस साल ऐसा क्या हो गया है कि किसान इतनी तादात में आत्महत्या कर रहे हैं। क्या उन्हें जून में फसलों को लगने वाला झुलसा रोग लग गया है या फिर सच में वे इस कदर परेशान हैं कि आत्महत्या ही उन्हें अंतिम विकल्प नजर आ रहा है। यह मंथन का समय है।

चलते-चलते

मेरे मित्र ज्ञानेन्द्र ने अपनी कविता के माध्यम से किसानों के दर्द को आप तक पहुंचाने का सार्थक प्रयास किया है। 
सो के उठा रामदीन तो देखा खेत पर
बिखरा था खून
हर जगह जिधर नजर घुमाता
सिर्फ   खून, खून ही खून
ठिठक कर बैठ गया धरा पर वह
सहलाने लगा मिट्टी को, सोचने लगा
कल तक तो यहां बालियां थीं, खुशहाली थी
आज खून कैसे?/अचानक याद आया उसे/रात आई भीषण बारिश थी
बेटे की आंखों में मैंने देखे थे आंसू
तभी, ठिठका कहीं यह वही खून तो नहीं जो मैंने, बेटे की आंखों में देखे थे
तब तक जमुनी दौड़ती हुई खेत पर आई और/रूहासे कंठ से बोली बाबा, जल्दी चलो, बाबू (पापा) उठ नहीं रहे।।

Saturday, April 18, 2015

आइए इस शहादत को नमन करें

आइए इस शहादत को नमन करें
जब आप आज यह ‘मंथन’ पढ़ रहे होंगे तब तक भारत माता के एक सपूत का जन्मदिन गुजर चुका होगा। यह भारतीय वीर अपने जन्मदिन में घर पर आने वाला था पर उसकी किस्मत में भारत मां के नाम पर शहीद होना लिखा था। 17 अप्रैल को उसका जन्म दिन था। 11 अप्रैल को नक्सलियों के साथ सीधी लड़ाई में यह सपूत शहीद हो गया। ये वीर सूपत हैं प्लाटून कमांडर शंकर राव जो इसी 13 अप्रैल को अपने घर, अपने परिवार के पास, अपनी जुड़वा बेटियों के पास छुट्टी पर आने वाला था। अप्रैल का महीना बेहद खास होता था इस परिवार के लिए। 17 अप्रैल को शंकर अपना जन्मदिन मनाते थे, 24 अप्रैल को शादी की सालगिरह और 29 अप्रैल को जुड़वा बेटियां चंचल और चांदनी उनके घर आई थीं। किस्मत ने ऐसी व्यूह रचना कर रखी थी कि अप्रैल में ही शंकर ने वीरगति को प्राप्त किया। 
नक्सली इलाकों में जंगल की ड्यूटी को कालापानी से भी भयंकर माना जाता है पर शंकर राव ने खुद वीआईपी ड्यूटी को गुडबाय कर जंगल में नक्सलियों से लोहा लेने की ठानी थी तभी तो चंद महीने ही नेताओं की वीआईपी ड्यूटी में गुजारने के बाद इस जांबाज ने जंगल की ड्यूटी को चुना। खुद आवेदन देकर अपना तबादला करवाया।
11 अप्रैल को सुकमा जिले के पिड़मेल के जंगल में एसटीएफ की एक टुकड़ी और नक्सलियों के बीच सीधी मुठभेड़ में अपनी टीम का नेतृत्व कर रहे शंकर शहीद हो गए। उनके साथ सात अन्य जवान भी शहीद हुए। इन शहीदों को नमन पूरा देश करता है पर उनका क्या जो शहीदों को नमन तो क्या अपमान करने से भी नहीं चूकते। शंकर राव को ही ले लें। नक्सली मूवमेंट के खिलाफ बेहतरीन काम करने वाले इस जांबाज का नाम वीरता पुरस्कार की अंतिम दो की सूची में था पर अंतिम समय पर यह नाम हटा दिया गया। परिजनों को तो इस बात का बेहद अफसोस है पर जीते जी शंकर ने कभी पुरस्कारों की चाह नहीं की तभी तो हर वक्त अपने साथियों के साथ जंगल की खाक छानते फिरते रहे। पूरे सैन्य सम्मान के साथ शंकर राव का अंतिम संस्कार किया गया। हम सबको दुआ करनी चाहिए कि अंतिम संस्कार में होने वाले खर्च की राशि कहीं शहीद शंकर राव के परिवार से ही न मांग ली जाए। ऐसा हो चुका है। जब रायपुर के गरियाबंद में नक्सलियों से लोहा लेते शहीद हुए एसपीओ किशोर पांडेय के परिजनों को अंतिम संस्कार में हुआ खर्च वापस करने के लिए प्रशासन द्वारा नोटिस भेज दिया गया था। मीडिया ने जब यह खबर हाईलाइट की तो मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह की सरकार को होश आया। ऐसा नहीं है कि यह कोई पहली घटना है, जिसमें शहीदों का अपमान किया गया हो।
ऐसे हजारों किस्से हमारे आसपास मौजूद होंगे जहां हम शहीदों के परिजनों को बेबस और लाचार देख सकते हैं। जरा आप भी मंथन करिए इन परिजनों के हाल पर। जब उनके घर का चिराग बुझ गया हो और सरकारी तंत्र उस घर में रोशनी करने की जगह हालात को और खराब करने में जुटा रहता हो। शहीदों के नाम पर बड़े-बड़े वादे होते हैं। तमाम घोषणाएं होती हैं। ऐसा नहीं है कि ये पूरे नहीं होते हैं पर उन आंकड़ों पर भी गौर करना जरूरी है कि क्यों सरकारी तंत्र के सताए लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। आखिर ऐसी क्या जरूरत पड़ गई है कि विभिन्न राज्यों और जिलों में शहीदों के परिजनों को अपना संगठन बनाना पड़ गया। आए दिन शहीदों के परिजन आपको सरकारी दफ्तरों में चक्कर खाते मिल जाएंगे। क्या कभी हमने मंथन किया है कि भारत मां के सपूत कैसे बलिदान की वेदी पर हंसते-हंसते अपनी आहूति दे देते हैं और हम उनके परिजनों के साथ कैसा दोगला व्यवहार करते हैं। मंथन सिर्फ इस बात पर नहीं होना चाहिए कि शहीदों के परिजनों का हम सम्मान करें और  यह भी नहीं कि हम सिर्फ शहीदों के मजार पर हर बरस जाकर मेला लगाएं, बल्कि मंथन तो इस बात पर होना चाहिए कि क्यों नहीं केंद्रीय स्तर पर ऐसी व्यवस्था हो कि शहीदों के परिजनों को विशेष श्रेणी में रखा जाए। उन्हें वह सम्मान दिया जाए जिसके वे हकदार हैं। परिजनों के लिए सिर्फ घोषणाएं कर देने से बात नहीं बनने वाली जमीनी हकीकत को स्वीकार करते हुए उनके लिए कुछ बेहतर करने की जरूरत है। कहीं ऐसा न हो कि हम शहीदों के मजार पर सिर्फ मालाएं ही चढ़ाते रहें और इन जांबाजों को जन्म देने वाले माता-पिता दर-दर की ठोकरें खाएं। पत्नी और बच्चे कहीं हमें रास्ते पर भीख मांगते नजर आ जाएं।
चलते-चलते
एक शहीद की डायरी का पहला पन्ना..
चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूंथा जाऊं,
चाह नहीं, प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊं
चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर हे हरि, डाला जाऊं,
चाह नहीं, देवों के सिर पर
चढूं भाग्य पर इठलाऊं।
मुझे तोड़ लेना वनमाली!
उस पथ पर देना तुम फेंक
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ जाएं वीर अनेक।।

जब एक पुष्प की ऐसी अभिलाषा हो सकती है तो हम क्यों पीछे रहें? आप भी प्रण लें, किसी शहीद के परिजन अगर सामने आएं तो उन्हें सम्मान करें और उस शहीद को सैल्यूट करें जिसने हमारे लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए।

Thursday, April 16, 2015

नेट न्यूट्रैलिटी के भूत को समझिए

नेट न्यूट्रैलिटी के भूत को समझिए
नेट न्यूट्रैलिटी का भूत अभी सिर्फ डराने के लिए है। अगर इसका इलाज नहीं कराया गया तो यह राहू-केतू के रूप में आपके जीवन में प्रवेश कर जाएगा और आपको इस कदर परेशान करेगा कि आप न इसे दूर कर पाएंगे और इसके करीब आना आपकी मजबूरी में शुमार होगा। स्मार्ट फोन के जमाने में आपके मुंह में नेट सर्फिंग और मोबाइल एप्प रूपी खून लग चुका है। इसकी आपको आदत हो गई है। या यूं कहिए कि यह आपकी जरूरत बन गई है। ऐसे में नेट न्यूट्रैलिटी को समझना बेहद जरूरी है। आखिर क्यों इसका हमारा युवा वर्ग विरोध कर रहा है। और क्यों आपको भी इस अभियान से जुड़ने की जरूरत है।
दरअसल नेट न्यूट्रैलिटी को समझने के लिए आपको पहले इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर के संसार को समझना जरूरी है। इस वक्त हमारे पास इंटरनेट एक्सेस के लिए दो विकल्प हैं। पहला है आईएसपी (ISP) यानि इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर और दूसरा है टीएसपी (TSP) यानि टेलीकम्यूनिकेशन सर्विस प्रोवाइडर। डेस्कटॉप कंप्यूटर पर हमें इंटरनेट सुविधा आईएसपी द्वारा प्राप्त होती है। दूसरी तरफ मोबाइल के जरिए जो इंटरनेट हम चलाते हैं उसे टीएसपी हमें प्रदान करता है। सरकार ने आईएसपी और टीएसपी को लाइसेंस दे रखा है कि वे हमें इंटरनेट सुविधा प्रदान करें। इसके एवज में हम इन प्रोवाइडर कंपनियों को अच्छी खासी रकम देते हैं। इन्हीं प्रोवाइडर कंपनियों में मोबाइल कंपनियां भी शामिल हैं।
अब समझते हैं इंटरनेट के खेल को
जब से भारत ने स्मार्ट फोन की दुनिया में कदम रखा है, तब से मोबाइल कंपनियों में इंटरनेट सुविधा देने के लिए होड़ मच चुकी है। हमें एक जीबी डाटा के लिए कम से कम दो सौ रुपए सर्विस प्रोवाइडर कंपनियों को देने पड़ रहे हैं। इसी की होड़ मची है कि कौन कितनी सस्ती दर पर इंटरनेट सुविधा प्रदान करता है। सस्ती दर के अलावा एक और चीज काफी मायने रखती है और वह स्पीड। टूजी स्पीड, थ्री जी स्पीड और अब फोर जी स्पीड इसी व्यवसायिक प्रतिस्पर्द्धा के दूसरे रूप हैं। आज से एक साल पहले प्रतिस्पर्द्धा थी सस्ती इंटरनेट सुविधा की। अब प्रतिस्पर्द्धा है कम से कम दर में अधिक से अधिक स्पीड में इंटरनेट सुविधा की।
अब बात नई प्रतिस्पर्द्धा की
ऊपर की दोनों प्रतिस्पर्द्धा अपने-अपने स्तर से चलती रहेगी। पर आने वाला वक्त एक अलग तरह की प्रतिस्पर्द्धा का है। यह प्रतिस्पर्द्धा रिफलेक्ट हो रही है नेट न्यूट्रैलिटी के रूप में। दरअसल स्मार्ट फोन के बढ़ते प्रभाव ने मोबाइल एप्प के मार्केट को अचानक से हाईलाइट कर दिया है। लाखों एप्प इस वक्त मौजूद हैं। हम अपनी जरूरतों के हिसाब से इन एप्प को अपने स्मार्ट फोन में डाउनलोड करते हैं और उसका उपयोग करते हैं। पहले जो एप्प आए वे सुविधाओं के मद्देनजर डिजाइन किए गए। जैसे कि आप पता कर सकते थे कि आपके नजदीक कौन सा बेहतर होटल है, कहां मुगलई खाना मिल सकता है। देश में कहां-कहां पिकनिक के हॉट स्पॉट हैं। पर पिछले छह महीने में अचानक से कॉमर्शियल एप्प की बाढ़ आ गई है। जैसे फ्लिपकार्ड, गाना डॉट काम, ओएलएक्स आदि..आदि। इन कॉमर्शियल एप्प के जरिए एप्प कंपनियां करोड़ों रुपए कमा रही हैं। एक अनुमान के मुताबित इन एप्प आधारित सर्विस का मासिक कारोबार करीब साढ़े सात हजार करोड़ रुपए पहुंच गया है।
परेशान हुई सर्विस प्रोवाइड कंपनियां
एप्प और नेट के इस कॉमर्शियल यूज ने मोबाइल कंपनियों को हिला कर रख दिया है। ये सोच रही हैं कि सर्विस हम मुहैया करा रहे हैं और एप्प कंपनियां कमा रही हैं। ऐसे में इन्होंने एक अनोखा रास्ता अख्तियार किया। इन्होंने एप्प कंपनियों से करार शुरू किया है कि आप एक निश्चित राशि हमें पेड करें तो हम आपकी सर्विस को फास्ट कर देंगे और दूसरी सर्विस को स्लो कर देंगे। यही करार ग्राहकों के साथ भी शुरू हो चुका है।
यहीं से शुरू हुआ प्रोटेस्ट
जैसे ही मोबाइल कंपनियों ने इस तरह की बात की, युवा वर्ग एक हो गया। आप भी इस बात को समझें। जब मोबाइल कंपनियां सिर्फ सर्विस प्रोवाइडर हैं तो उन्हें किसने यह हक दे दिया कि वह हमारी सर्विस को स्लो या फास्ट कर दे। यह हमारा अधिकार है कि हमें इंटरनेट की अच्छी सर्विस मिले, क्योंकि इसके एवज में हम इन्हें पेड कर रहे हैं। इंटरनेट इन कंपनियों की बपौती नहीं है। ये सिर्फ सर्विस प्रोवाइडर हैं, जिसे हमारी सरकार ने लाइसेंस दे रखा है कि वे हमें इंटरनेट की सुविधा प्रदान करें।
इसे ऐसे भी समझें
माल लिजिए मेरे पास एयरटेल का मोबाइल कनेक्शन है। जाहिर है एयरटेल से ही मैं इंटरनेट सुविधा अपने मोबाइल पर ले रहा हूं। अब कंपनी कहती है आप फेसबुक की फास्ट सर्विस चाहते हैं तो पचास रुपए अतिरिक्त खर्च करें। जैसे ही मैंने फेसबुक के लिए पेड किया वह फास्ट हो गई, लेकिन उसके एवज में दूसरे सभी एप्प जैसे व्हॉट्सएप, स्काईपी आदि स्लो कर दिए गए। पर हमारा हक है कि हमें सभी सर्विस एक समान मिले। यही है नेट न्यूट्रैलिटी।
आप भी जुड़ें इस अभियान से
इन मोबाइल कंपनियों पर नकेल कसने के लिए सरकार ने एक संस्था भी बना रखी है, जिसे ट्राई के रूप में आप और हम जानते हैं। ट्राई ने लोगों से भी राय मांग रखी है कि वे नेट न्यूट्रैलिटी के संबंध में अपनी राय जाहिर करें। ट्राई की वेबसाइट पर जाकर आप अपनी बात जरूर रखें या नहीं तो www.savetheinternet.in पर जाएं और अपनी राय जाहिर करें। अगर आज हमने इस अभियान को आगे नहीं बढ़ाया तो आने वाले वक्त में ये मोबाइल कंपनियां और इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर कंपनियां हमारा खून जोंक की तरह चूसती रहेंगी।
उम्मीद है मेरा यह आलेख आपको बौद्धिक रूप से कुछ हद तक समृद्ध करने में सक्षम हुआ होगा।

Saturday, April 4, 2015

सेक्स की आजादी व सशक्तिकरण

मैं चाहूं ये करूं, मैं चाहे वो करूं, मेरी मर्जी। यही तो दीपिका पादुकोण कह रही हैं। अंग्रेजी में। माई च्वाइस में, शॉर्ट फिल्म के जरिए। 99 सहयोगियों के साथ। मैसेज दे रही हैं। महिला सशक्तिकरण के लिए यह जरूरी है। जिस देश में आज भी सेक्स जैसे मुद्दे पर छिप कर बोला और कहा जाता है। इस मुद्दे को दीपिका ने बेबाकी से उठाया है। बहस छिड़ी है। महिलाओं को सेक्स और सेक्सुअल रिलेशनशिप में भी आजादी मिलनी चाहिए। पर क्या यही महिला सशक्तिकरण है? आधुनिक भारतीय महिलाओं की आजादी और उनके तथाकथित सशक्तिकरण का यही एकमात्र जरिया है। मंथन जरूरी है कि क्या सिर्फ आधुनिक कपड़ों और सेक्स में आजादी से महिला सशक्तिकरण के पैरामीटर तय हो जाएंगे।
कहने को हम 21वीं सदी के बाशिंदे हैं। पूरा देश तरक्की के नए आयाम को महसूस कर रहा है। महिलाएं हर क्षेत्र में बेहतर काम कर रही हैं। ऐसे में दीपिका पादुकोण माई च्वाइस के साथ एक ऐसे मुद्दे को सामने लेकर आई हैं, जिस पर अब भी बहुत लोग खुलकर नहीं बोल पा रहे हैं। सोनाक्षी सिन्हा और आलिया भट्ट ने तो खुलकर बोला। पर क्या इस संवेदनशील मुद्दे और लुक छिप कर टीका-टिप्पणी करने वाले इस मुद्दे पर और कोई खुलकर सामने आया? खासकर महिलाएं या महिला सेलिब्रेटी। जवाब न में होगा। आखिर ऐसा क्यों है कि हम आज भी सेक्स पर बातचीत के मुद्दे पर इतने डरे सहमे हैं। क्यों ऐसी सोच पनपी है कि मैं अगर कुछ बोल दूंगा तो वह क्या सोचेगा। अरे मत बोलो, फैमिली वाले क्या सोचेंगे? यह भारतीय मानसिकता है या दूसरे शब्दों में कहें तो भारतीय संस्कार हैं, जो हमें आज भी कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन पर चर्चा करने में शर्म का अहसास दिलाती हैं।
ऐसे में दीपिका का बेबाकी से यह कहना कि महिलाओं को भी यौन इच्छाओं में आजादी मिलनी चाहिए। उसे यह आजादी मिलनी चाहिए कि वह शादी के पहले सेक्स करे या न करे। वह शादी के बाद किसी दूसरे से संबंध रखे या नहीं। वह आजाद ख्यालों के साथ समाज में रहे। एक बार फिर बहुत लोगों को दीपिका की यह बेबाकी अच्छी नहीं लग रही है। भले ही दीपिका की माई च्वाइस शॉर्ट फिल्म को महज चार से पांच दिनों में यू-ट्यूब पर 35 लाख से अधिक हिट मिल चुके हैं पर उंगलियों पर गिने जाने वाले सेलिब्रेटी ने इस पर अपनी राय रखी है। चंद बड़े सितारों को छोड़ दिया जाए तो कोई भी इस इश्यू पर बोल नहीं रहा है। भारतीय समाज में महिलाओं को तो क्या पुरुषों को भी यह आजादी नहीं है कि सेक्स और सेक्सुअल रिलेशनशिप को खुले तौर पर स्वीकार कर लें। उंगलियों पर गिने जाने वाले लोग खुद को गे या लेस्बीन कहलाना पसंद करते हैं। विवाहेत्तर संबंधों की बातें भी परदे के पीछे रहती हैं। लुकछिप कर यह सबकुछ होता है। क्या कोई पुरुष यह कहने की हिम्मत दिखाता है कि उसके विवाहेत्तर संबंध हैं? क्या कोई पुरुष इस बात को सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर सकता है कि उसके अपनी जिंदगी में कितनी महिलाओं के साथ संबंध
रहे हैं।
निश्चित तौर पर जवाब न में होगा। ऐसे में दीपिका पादुकोण महिलाओं से क्यों यह अपेक्षा रख रही हैं कि वह सेक्स के मामले में बेबाक होकर महिला सशक्तिकरण का उदाहरण प्रस्तुत करें? क्यों वह अपनी फिल्म में 99 सहयोगियों के साथ यह कह रही हैं कि हमें सेक्स के प्रति आजादी मिले?
महिलाएं सशक्त हो रही हैं इसमें दो राय नहीं है। वैवाहिक मामलों, प्रेम संबंधों, लिव इन रिलेशनशिप के मामलों में भी उनकी आजाद ख्याली भारतीय समाज में अब कोई अचंभा नहीं रह गई है। अपनी मर्जी का पार्टनर चुनने और शारीरिक जरूरतों को पूरा करने के लिए भी अब उन्हें किसी सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं रह गई है। अब भारतीय महिलाएं भी
होने वाले पति से शादी से पहले एचआईवी टेस्ट की रिपोर्ट मांगने में नहीं शर्मा रही हैं। शादी के बाद पार्टनर से अलग होने का फैसला और कोर्ट का दरवाजा भी वो अपनी मर्जी से खटखटा रही हैं। क्या यह महिला सशक्तिकरण नहीं है?
पर सवाल यह है कि सिर्फ सेक्स में आजादी को ही महिला सशक्तिकरण का पैमाना क्यों मान लिया जाए? क्यों यह सोच विकसित कर ली जाए कि छोटे और शरीर दिखने वाले कपड़े पहनने की आजादी मिलेगी तब ही महिला सशक्त होगी। क्यों यह प्रोवोक करने की जरूरत पड़ रही है कि महिलाएं सेक्सुअल आजादी की आवाज उठाएं। मंथन जरूरी है। यह सही है कि किसी शॉर्ट फिल्म के जरिए अपनी बातों को बोलने और भावनाओं को व्यक्त करने की आजादी सभी को है। ऐसे में दीपिका ने जो कुछ भी किया और कहा है वह सौ फीसदी सही है। इससे पहले भी कई फिल्मों, किताबों, नॉवेल्स में भी इस तरह के मुद्दों को उठाया गया है। पर जब बात किसी सेलिब्रेटी की आती है बहस होना स्वाभाविक है।
चलते-चलते
दीपिका आपने अच्छा किया यह मुद्दा उठाया। पर महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देने के लिए आपके पास कुछ और भी मुद्दे हो सकते थे। सेक्स की आजादी जैसा सब्जेक्ट चुनना कहीं आपकी पॉपुलेरिटी का नया स्टैंड तो नहीं है क्योंकि वो आप ही हैं जिन्हें छोटे कपड़े पहनकर सार्वजनिक कार्यक्रमों में आने से कोई परहेज तो नहीं रहता है, पर जब उन्हीं छोटे कपड़ों में आपकी तस्वीर छप जाती है तो आप बवाल खड़ा कर देती हैं। महिलाओं को सशक्त करने के लिए, उन्हें जागरूक करने के लिए
आपका धन्यवाद।