Saturday, March 21, 2015

नकल रोकने को अक्ल तो लगाइए

मीडिया में छाई बिहार हाईस्कूल परीक्षा में नकल करवाने की तस्वीरों के पीछे की कहानी कोई नई नहीं है। वर्षों-वर्षों से यही परिपाटी चली आ रही है। हां, यह अलग बात है कि सोशल मीडिया की कृपा से इस बार इन तस्वीरों ने जो सुर्खियां बटोरीं उसने बिहार की शिक्षा व्यवस्था पर बहस को जन्म दे दिया है। बहस इस बात को लेकर भी हो रही है जिस राज्य से सबसे अधिक आईएएस और आईपीएस, डॉक्टर, इंजीनियर, बैंकर आदि निकलते हैं, वहां ऐसी क्या मजबूरी है कि इस तरह मास लेबल की नकल करवाई जाए। जिस राज्य में लड़कियों की मिनिमम एजूकेशन क्वालिफिकेशन ग्रेजूएशन होती है, उस राज्य की हाईस्कूल परीक्षा में नकल का इस कदर बोलबाला क्यों है? सवाल जितना लाजिमी है, जवाब खोजना उतना ही कठिन है।
अस्सी और नब्बे के दशक से ही बिहार हाईस्कूल की बोर्ड परीक्षाओं में नकल का प्रवेश हो चुका था। पहले यह हैसियत और पैरवीवाले लोगों की जद में था। पैसे के दम पर अलग कमरे का अरेंजमेंट करवा दिया जाता था। वहां एक साथ आठ-दस बच्चों को बैठाकर परीक्षा दिलवा दी जाती थी। इसके बाद भी अच्छे रिजल्ट की आस न हो तो कॉपी किस शिक्षक के घर जा रही है उसकी जानकारी लेने के लिए पैसे खर्च करने की कवायद शुरू होती थी। सबकुछ प्लान के अनुसार हो जाने के बाद जब अखबार में रिजल्ट आता था तो पूरे गांव में मिठाई बंटवा दी जाती थी। उनके बेटे का रोल नंबर फर्स्ट डिविजन वाली लिस्ट में जो होता था। हाईस्कूल फर्स्ट डिविजन से पास होना अस्सी-नब्बे के दशक में स्टेटस सिंबल सा बन गया था। इसके बाद का दौर परीक्षा में खुलेआम नकल का दौर था। हाल तब और भी बेहाल हो गया जब होम सेंटर (स्वकेंद्र) की रवायत लालू यादव के राज में आई। फिर तो अपने स्कूल में ही परीक्षा सेंटर होने के कारण जमकर नकलबाजी शुरू हुई। हालांकि एक-दो साल में यह व्यवस्था समाप्त कर दी गई।
नकल की आदत इस कदर बिहार के स्टूडेंट के अंदर बस गई थी कि इसके बिना हाईस्कूल की परीक्षा पास करना असंभव प्रतीत होता है। हालांकि यहां यह बात भी गौर करने वाली थी कि यही स्टूडेंट चार-पांच साल बाद ग्रेजूएशन करते ही यूपीएससी परीक्षा हो या कोई और प्रतियोगी परीक्षा, सभी में अव्वल आते थे। बात वहीं आकर टिकती है कि आखिरकार ऐसी क्या मजबूरी है कि सबसे अधिक नकल हाईस्कूल परीक्षा में ही होती है। दरअसल, इस रहस्य को समझने के लिए हमें बिहार की स्कूली शिक्षा व्यवस्था को नजदीक से देखने की जरूरत है। जो शिक्षक इस नकल रोकने के लिए जिम्मेदार हैं, वही शिक्षक नकल को बढ़ावा देने के लिए भी उत्तरदायी होते हैं।
365 दिन के एक वर्ष में 180 दिन का एकेडमिक सेशन होता है। इसमें भी शिक्षकों को शिक्षण कार्य के अलावा कई अन्य सरकारी कामों में भी अपनी भागीदारी सुनिश्चित करवानी पड़ती है। जनगणना से लेकर, कोई सरकारी सर्वे हो, चुनाव हो या फिर अन्य कोई सरकारी अभियान। अगर शिक्षकों ने इन सरकारी कामों से जी चुराया तो उनके ऊपर एफआईआर तक दर्ज हो जाती है। यह कैसी विडंबना है कि जिस काम के लिए शिक्षकों को रखा गया है वही काम उनसे ठीक तरीके से नहीं करने दिया जाता है। यह बिहार की शिक्षा व्यवस्था ही नहीं, बल्कि भारत के सभी प्रांतों की शिक्षा व्यवस्था का सबसे बड़ा दोगलापन है। शायद यही कारण है कि भारत के तकरीबन सभी प्रदेशों में सरकारी शिक्षा बदहाली के कगार पर पहुंच गई है। सालों
सरकारी शिक्षकों की नियुक्ति प्रक्रिया भी इतने पुराने ढर्रे पर चल रही है जिसकी आज के समय में कोई उपयोगिता नहीं है। ऐसे में स्कूली शिक्षा पाने के लिए बच्चे जब स्कूल जाते होंगे तो उन्हें क्या ज्ञान मिलता होगा इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। बिहार के शिक्षामंत्री कह रहे हैं हम परीक्षा में नकल नहीं रोक सकते हैं पर इस सवाल का वे जवाब नहीं दे रहे हैं कि स्कूलों में पढ़ाई क्यों नहीं करवा पा रहे हैं। जब पढ़ाई होगी नहीं तो नकल तो एक विकल्प है ही।
बिहार में यही मानसिकता काफी गहरी बैठ गई है कि किसी तरह अच्छे नंबरों से हाईस्कूल पास करो। कॉलेज में एडमिशन लो। फिर प्रतियोगी परीक्षाओं में जी-तोड़ मेहनत करो। शायद यही कारण है कि तमाम नकलचियों के हो हल्ला के बावजूद भारत में सरकारी नौकरियों में सबसे अधिक बिहार के युवा ही काबिज हैं। ऐसे में नकल करने वाले बच्चों को दोष देने के बजाय, मंथन इस बात पर करना चाहिए कि इन्हें नकल करने को मजबूर कौन कर रहा है?
साल हाईस्कूल में बच्चों के फेल होने का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है। हर साल प्राथमिक और हाईस्कूल शिक्षा के आंकड़े जारी होते हैं। उन पर भी गौर करना जरूरी है। वहां यह देखना दिलचस्प है कि शिक्षकों की उपस्थिति का प्रतिशत कितना रहता है। जब स्कूलों में शिक्षक जाएंगे ही नहीं तो पढ़ाई क्या होगी? बिहार में तो 2010 में आठ हजार शिक्षकों को सिर्फ इसलिए नौकरी से निकाल दिया गया था कि वे पांचवीं क्लास के बच्चों के प्रश्न का जवाब भी ठीक से नहीं दे सके थे। यह परीक्षा एक शिक्षक को अपने कॅरियर में एक बार जरूर देनी पड़ती है।