Saturday, February 28, 2015

मुस्कुराइए... पर कुछ करिए भी हुजूर

राष्टÑपति के अभिभाषण पर चर्चा का जवाब देते हुए लोकसभा में प्रधानमंत्री मोदी अपने पूरे रंग में थे। मुस्कुरा-मुस्कुरा कर उन्होंने विपक्ष को उसके ही पैतरों से करारा जवाब दिया। प्रतिबद्धता भी दिखाई। सामंजस्य की बात भी कही। विपक्ष से सहयोग की मांग भी की। सबसे अहम है आने वाले दिनों में राज्यसभा में पेश होने वाला भूमि-अधिग्रहण बिल। बिल पास कराने के लिए राज्यसभा में मौजूद आंकड़े बीजेपी के पक्ष में नहीं हैं। शायद यही कारण है प्रधानमंत्री पहले सैफई में दिखे। फिर दिल्ली में लालू की बेटी की शादी में नीतीश कुमार के साथ डिनर किया। हर जगह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चिर परिचित मुस्कुराहट ने सभी को अपना कायल बना लिया पर क्या सिर्फ मुस्कुराने से काम चल जाएगा। दिल्ली में देश भर के किसान सैकड़ों मील की पदयात्रा कर पहुंचे हुए हैं। अन्ना हुंकार भर रहे हैं। भूमि-अधिग्रहण बिल को लेकर विपक्ष भी हमलावर है। मोदी सरकार की मंशा भले ही भूमि अधिग्रहण बिल को लेकर पाक साफ हो सकती है पर जनता के बीच इस बिल को लेकर तमाम तरह की भ्रांतियां हैं। यह कोई पहली बार नहीं है कि भूमि-अधिग्रहण का मामला इतना गरम हुआ हो। असल में इन सबके बीज अंग्रेजों ने अपने शासन काल में ही डाल दिए थे। आज भी 1894 में अंग्रेजों द्वारा बनाए गए भूमि अधिग्रहण कानून के तहत ही मूल रूप से काम चल रहा है। समय-समय पर थोड़ा बहुत संशोधन जरूर हुआ, लेकिन आधार वही 1894 का कानून ही है।
   इस भूमि अधिग्रहण कानून की नींव फोर्ट विलियम हंटर ने 1824 में बंगाल में डाली थी। इसी के तहत किसी भी व्यक्ति के अचल संपत्तियों का अधिग्रहण पब्लिक वेलफेयर के लिए किया जा सकता था। इस शुरुआत ने अंग्रेजों के हौसले बढ़ाए।बात जब भारत में रेल नेटवर्क बिछाने की आई तब इसे कानून का रूप दे दिया गया। भले ही रेल नेटवर्क का विस्तार अंग्रेजों ने अपनी सुविधा के लिए किया, लेकिन 1894 में इसने एक ऐसे कानून को जन्म दे डाला जो आज तक विवाद का विषय बना हुआ है। यह विडंबना ही है कि आज भी इसी कानून के तहत केंद्र सरकार या केंद्रीय एजेंसियां और राज्य सरकारों द्वारा अधिकृत कंपनियां सेज जैसे मामलों और किसान आंदोलनों को कुचलते हुए उनकी जमीनों को अधिगृहीत करती आ रही हैं। महज मुआवजा देकर खाना पूर्ति कर दी जाती है। इसमें सबसे बड़ा परिवर्तन 1978 में तब आया, जब 44वें संविधान संशोधन के जरिए संपत्ति के अधिकार को मूल अधिकार की श्रेणी से ही बाहर निकाल दिया गया। इस तरह सरकार ने अपने हाथ में एक ऐसा अधिकार ले लिया जिसके तहत कहीं भी किसी की भी जमीन, भवन का अधिग्रहण का अधिकार सरकार के पास आ गया।
    मंथन सिर्फ अंग्रेजों द्वारा बनाए गए जमीन अधिग्रहण का कानून को लेकर ही नहीं होना चाहिए बल्कि अंग्रेजों द्वारा बनाए गए ऐसे ही कई कानून आज भी भारतीयों के लिए जी का जंजाल बने हुए हैं। केंद्र में जब सत्ता पाने की होड़ चल रही थी तो चुनावी वादों के दौरान नरेंद्र मोदी ने अंग्रेजों द्वारा बनाए कानूनों की खूब खिल्ली उड़ाई थी। कहा गया कि हम लंबे समय से ऐसे कानूनों को ढो रहे हैं। इन्हें हटाने की जरूरत है। सत्ता में आने के बाद भी उन्होंने कई कानूनों को खत्म करने के प्रति प्रतिबद्धता दिखाई पर एक बार फिर से नए सिरे से इन कानूनों पर मंथन करने की जरूरत है। दरअसल, अंग्रेजों ने भारत छोड़ने से पहले कुछ ऐसे कानूनों की सौगात दी जो अब आउट डेटेड हो चुके हैं।
    अंग्रेजी हुकूमत के वरिष्ठ अधिकारी फोर्ट विलियम हंटर और मैक्स मूलर की अध्यक्षता में गठित विलियम हंटर कमीशन के जरिए ही अंग्रेजों ने भारत में 34, 735 कानून बतौर दस्तावेज छोड़े। इसमें प्रमुख रूप से इंडियन पुलिस एक्ट, लैंड एक्यूजिशन एक्ट, इंडियन एजूकेशन एक्ट प्रमुख हैं। अंग्रेजों का इसके पीछे क्या उद्देश्य था यह तो अब तक सामने नहीं आ सका है पर मोटे तौर पर समझा जाए तो कहा जा सकता है कि वे भारत में अपनी छाप छोड़ कर जाना चाहते थे। लार्ड मैकाले ने जिस तरह अपनी शिक्षा नीतियों के तहत भारतीय शिक्षा व्यवस्था के आधार स्तंभ माने जाने वाले गुरुकुलों को नष्ट किया, उसी का परिणाम हुआ कि भारत में प्राइवेट शिक्षा की बाढ़ आ गई।
   एक अनुमान के मुताबिक करीब सात लाख चौंतीस हजार गुरुकुलों का अस्तित्व समाप्त कर दिया गया। इसके सापेक्ष में पब्लिक और कॉन्वेंट स्कूलों को खड़ा कर दिया। आज भी हम इसी शिक्षा व्यवस्था को ढोने को मजबूर हैं जबकि इसका सबसे बड़ा पहलू यह है कि किसी भी पश्चिमी देश में यहां तक कि स्वयं ब्रिटिश सरकार ने भी इस शिक्षा व्यवस्था को लागू नहीं कर रखा है।  ऐसे ही दर्जनों कानून और नीतियां हैं जिसे अंग्रेजों ने हम पर लाद दिया और आज स्वतंत्रता के कई दशकों के बाद भी हम उन्हीं नीतियों को ढोए जा रहे हैं। प्रधानमंत्री ने संसद में एक बार फिर इंडिया फर्स्ट के अपने संकल्प को दोहराया है। इसी इंडिया फर्स्ट की उम्मीद को साकार करने के लिए भारत की जनता ने उन्हें अपार समर्थन के साथ भारत की बागडोर सौंपी है। उम्मीदें काफी बढ़ गई हैं। ऐसे में आप चाहे सैफई की पार्टी में मुस्कुराइए, या दिल्ली में लालू यादव और नीतीश कुमार के साथ डिनर टेबल पर मुस्कुराइए। पर याद रखिए पूरा भारत आपकी तरफ बड़ी आशा से देख रहा है।

Wednesday, February 25, 2015

भूमि अधिग्रहण : विकास और संघर्ष की कहानी

भूमि अधिग्रहण : विकास और संघर्ष की कहानी
अभी हाल ही में झारखंड की यात्रा कर के लौटा हूं। दो शहरों में ज्यादा वक्त बिताया। जमशेदपुर और रांची। ट्रेन यात्रा के दौरान बोकारो स्टील सिटी भी आया। दिल्ली पहुंचा तो अन्ना का आंदोलन भी पूरे चरम पर दिखा। भूमि अधिग्रहण के मामले को लेकर देश भर के किसान गांधी के सत्याग्रह की डगर पर चलते दिखे। भूमि अधिग्रहण के मामले पर भले ही देश भर के लोग मेरी तरह ही कंफ्यूज हैं, पर कुछ बुनियादी बातें हैं जिनसे मेरी तरह शायद आप भी इत्तेफाक रखते हों। अगर समय हो तो पूरा पढ़ें और समझने की कोशिश करें अधिग्रहण के पूरक के रूप में साथ चलते देश के विकास और लोगों के संघर्ष की कहानी को।
पहले बात बोकारो की। भारत की आर्थिक समृद्धि में बोकारो शहर ने काफी कुछ योगदान दिया है। छोटानागपुर पठार पर स्थित यह शहर स्टील सिटी के नाम से प्रसिद्ध है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री स्वर्गीय जवाहरलाल नेहरू ने जब भारत के पहले स्टील प्लांट की परिकल्पना की थी, उसके बाद ही बोकारो की एक अलग पहचान बनी। स्टील प्लांट के लिए छोटानागपुर रियासत की हजारों एकड़ भूमि अधिग्रहित की गई। धीरे-धीरे प्लांट के विस्तार के साथ ही अधिग्रहण बढ़ता गया। क्षेत्र के आदिवासियों को इस अधिग्रहण का मुआवजा कितना मिला इसकी आधिकारिक जानकारी खोजने पर मिल सकती है, पर यहां के लोगों का आर्थिक विकास जरूर हुआ। बोकारो स्टील प्लांड ने समृद्धि और विकास की एक नई इबारत लिखी। हां यह बात दिगर है कि इसी छोटानागपुर पहाड़ से लगते इलाकों में धीरे-धीरे नक्सलवाद ने भी जड़ें जमार्इं। इसके कारणों की व्याख्या भी की जा सकती है। फिलहाल इतना काफी है कि एक तरफ स्टील सिटी के माध्यम से जहां देश विकास के मार्ग पर आगे बढ़ा, वहीं साथ-साथ आदिवासियों ने अपनी समृद्धि, जल, जमीन और जंगल के लिए संघर्ष की शुरुआत भी की।
अब बात जमशेदपुर की। झारखंड के पूर्वी सिंहभूम के हिस्से में जमशेदपुर आता है। वहां जाकर भी आपको समृद्धता का अनोखा अनुभव होगा। पर सोच-सोच कर दिमाग की बत्ती जलने और बुझने लगेगी कि  कैसे एक कारखाने के लिए एक आद्यौगिक घराने को पूरा का पूरा शहर ही लीज पर दे दिया गया। अंग्रेज सरकार की कृपा से 1907 में इसे बसाया गया। पारसी व्यवसायी जमशेद जी नौशरवान जी टाटा ने इस शहर की परिकल्पना की और इसे मूर्त रूप दिया। खनिज संपदा से भरपूर इस क्षेत्र को पूरी तरह जमशेदजी टाटा को सुपूर्द कर दिया गया। भूमि अधिग्रहण के बाद इस क्षेत्र के लोगों के साथ-साथ दूसरे राज्यों के लाखों लोगों को रोजगार मिला। यह शहर भी भारत के विकास का प्रतीक बना। 1907 में टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी (टिस्को) की स्थापना से इस शहर की बुनियाद पड़ी। इससे पहले यह साक्ची नामक एक आदिवासी गांव हुआ करता था। साक्ची आज समृद्धता का प्रतीक बना हुआ है। हर तरफ अट्टालिकाएं खड़ी हैं, पर आदिवासी खोजे नहीं मिलेंगे आपको। अगर मिल भी गए तो हड़िया (स्थानीय पेय पदार्थ) बेचते या सब्जी की ठेली पर। अधिकतर मजदूर वर्ग भी इन्हीं आदिवासियों में से है।
अब बात करते हैं झारखंड की राजधानी रांची की। रांची तो अपने आप में एक बड़ा शहर है। पर इसी शहर में एक और शहर बसता है जिसे एचईसी के नाम से जाना जाता है। एचईसी का पूरा नाम है हेवी इंजीनियरिंग कॉरपोरेशन। एचईसी को बसाने के लिए इतनी अधिक मात्रा में भूमि अधिग्रहित की गई कि उस एरिया में एक और शहर बसाया जा सकता है। आज भी वहां हजारों एकड़ जमीन खाली पड़ी हैं। इन जमीनों का कोई उपयोग नहीं है। आप जब एचईसी एरिया में प्रवेश करेंगे तो कई एरिया में ऐसा सन्नाटा पसरा मिलेगा जैसे वहां बरसों से कोई नहीं गया हो। 
भले ही विकास के नाम पर इन तीनों शहरों में लाखों एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया गया हो, पर एक बात जरूर समझने लायक है क्या उन किसानों और आदिवासियों का भला हो पाया, जिनका उस जमीन पर मालिकाना हक था। रांची प्रवास के दौरान झारखंड में पत्रकारिता के प्रमुख आधार स्तंभ माने जाने वाले  हरिनारायण सिंह जी के घर पर भी जाना हुआ। उनके ड्राइंग रूम में बैठी एक महिला को देखते ही आदिवासियों के संघर्ष की एक पूरी किताब सामने नजर आ गई। दयामनी दीदी के नाम से पूरे झारखंड में इनकी पहचान है। कभी आमने-सामने बात नहीं हुई पर सामने देखकर बस उन्हें समझने की कोशिश करता रहा। कैसे आदिवासियों के हक के लिए संघर्ष करते हुए इस औसत कद काठी की महिला ने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। दीदी का संघर्ष आज भी जारी है।
जहां तक मेरी औसत समझ है उसके अनुसार साधारण शब्दों में मैं कह सकता हूं कि विकास के लिए भूमि अधिग्रहण जरूरी है, पर उन शर्तों पर नहीं जिससे कुछ लोगों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाए। देश के विकास में अपना योगदान देते वे इस बात की एहसास खो दें कि कभी वे भी इसी जमीन के लिए जीते थे।

Saturday, February 21, 2015

बहुत याद आए झा सर

रांची प्रवास 2010 के दौरान मैं झा सर और राजीव भाई।
बहुत याद आए झा सर
करीब पांच साल बाद रांची जाने का मौका मिला था। जब से रांची छोड़ा और उसके बाद वहां जाने का मौका मिलता था, एक शख्स थे जिनसे मिले बिना सबकुछ अधूरा सा लगता था। वह थे झा सर। इस बार की रांची यात्रा में आरएन झा सर को काफी मिस किया। बहुत लोगों से मुलाकात हुई। पुरानी यादें ताजा हुर्इं। हरमू रोड से गुजरने का मौका भी मिला। अशोक नगर की तरफ जाते हुए एकबारगी ऐसा लगा कि गाड़ी हरमू चौक से बांयी ओर मोड़ दूं और उस घर के सामने पहुंच जाऊं जहां झा सर ने जिंदगी का लंबा वक्त गुजारा था। बहुत तमन्ना थी उस घर को देखने की। सोचा चलूं देख कर आया जाए उस 420 नंबर की दोनों स्कूटर को। क्या उस घर में अब भी बिल्लियों का जमघट लगा होगा? क्या झा सर की टेबल पर अब भी सैकड़ों कलमों का जखीरा पड़ा होगा। पर हिम्मत नहीं हुई। या यूं कहिए मन ने इजाजत नहीं दी। मन ने इजाजत इसलिए नहीं दी कि क्योंकि आंसूओं ने उसका रास्ता रोक दिया था। हरमू चौक से थोड़ा आगे बढ़ते ही रोड के बांयी ओर से कैप्टन कूल महेंद्र सिंह धौनी का आलिशान बंगला भी नुमाया हुआ। गाड़ी में बैठी मेरी आंटी ने बताया कि जब धौनी यहां आता है रोज यहां हजारों लोगों की भीड़ धौनी की एक झलक पाने को घर के सामने खड़ी रहती है। झा सर और धौनी के बीच कोई समानता नहीं है। पर पता नहीं क्यों मन में बरबस ही यह सवाल कौंध गया कि क्या कभी ऐसा किसी पत्रकार के लिए भी होगा। लोग उस पत्रकार की एक झलक पाने को घंटों उसके घर के बाहर खड़ा होंगे। झा सर शायद जिंदा होते तो इस सवाल का जवाब बेहतर दे पाते। अनुभव के आधार पर बता सकता हूं कि झा सर कहते.. पत्रकारिता ने जिस तेजी ग्लैमर का लबादा ओढ लिया है, पत्रकारों ने उसी तेजी से अपना सम्मान और ग्लैमर खो दिया है। अब वो बात कहां है पत्रकारिता में और पत्रकारों में।
रांची कॉलेज कैंपस के पास से गुजरते हुए पत्रकारिता विभाग का अपना ठौर भी दिखा। वहां भी नहीं गया। बस दूर से ही देखकर यादें ताजा कर ली। जिंदगी है, यूं ही चलती रहेगी। लोग मिलेंगे, बिछड़ेंगे। कुछ यादें धुंधली पड़ जाएंगे, पर कुछ यादें आपकी जिंदगी का अहम हिस्सा बनी रहेंगी। झा सर आप मेरे लिए हमेशा जिंदगी के हर मोड़ पर साथ रहेंगे। साक्षात।

नीचे का आलेख मैंने झा सर की अनंत यात्रा पर चले जाने के दौरान लिखा था। उसे भी साझा कर रहा हूं। 

अनंत यात्रा पर  झा सर

झारखंड की पत्रकारिता के एक आधार स्तंभ आरएन झा हमारे बीच से अनंत यात्रा पर निकल गए. जितने साधारण तरीके से उन्होंने अपनी पत्रकारिता के जीवन की यात्रा पूरी की उसी तरह चुपके से जीवन की अनंत यात्रा की ओर रुखसत हुए. शायद उन्हें इस बात का एहसास हो चुका था कि जीवन की यात्रा का पड़ाव आ चुका है इसलिए वह अपनी कमर्भूमि रांची की वादियों में अंतिम सांस लेना चाहते थे, लेकिन वक्त ने उन्हें अपनी मातृभूमि बिहार के मधुबनी के एक छोटे से गांव में ही रोक लिया. जिसने भी उनके मौत की खबर सुनी स्तब्धता और शुन्यता की गहराई में उनकी यादों से दो चार होने लगा.
मैं उनके संपर्क में वर्ष 2000 में आया. रांची के पत्रकारिता विभाग द्वारा आयोजित रिटेन एग्जाम में क्वालिफाई कर जब इंटरव्यू देने पहुंचा तो सामने डायरेक्टर ऋता शुक्ला बैठी थीं. उनकी बगल वाली कुर्सी पर बैठे उस शख्स देखते ही लग गया था कि यह कोई जिंदादिल इंसान है. बेहद दुबला पतला शरीर, आंखों पर मोटा चश्मा, सफेद बाल (जो उनकी स्टाइलिश टोपी के नीचे से नजर आ रही थी) और सबसे अलग उनकी शर्ट. बाद में पता चला कि वह शर्ट उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी पूंजी थी. शर्ट पर विश्र्व के सभी नामी अखबारों के खबरों की कटिंग का प्रिंट था. अद्भाूत थी वह शर्ट. पत्रकारिता विभाग में एक साल की पढ़ाई के दौरान इस जिंदादिल इंसान की हर एक बात आज भी याद आती है. पत्रकारिता के पहले दिन के पहले क्लास में उन्होंने पहली सीख दी..... पत्रकारिता में कभी फ्री में काम मत करना, यह तुम्हारी अहमियत कम कर देती है और दूसरों के लिए मुश्किल पैदा कर देती है. आज भी उनकी दी यह सीख मैं अपने जूनियर्स को जरूर देता हूं.
टूट कर मोहब्बत की
ताउम्र उन्होंने अपनी जिंदगी से जीवन संगिनी नाम को दूर रखा. कहते थे मैंने तो पत्रकारिता
से शादी कर ली है, इसी के साथ जीऊंगा इसी के साथ मरूंगा. अपनी पत्रकारिता की जिंदगी के बारे में वे बहुत कम शेयर किया करते थे, लेकिन जो उन्होंने सीखा उसे प्रैक्टिकली अपने शिष्यों से जरूर शेयर करते थे. हिन्दुस्तान टाइम्स में लंबी पारी खेलकर जब वे रिटायर हुए तो रांची स्थित पत्रकारिता विभाग को अपना ठौर बनाया. यहां युवाओं की फौज उनकी रगों में बहते खून को और तेज कर देती थी. अक्सर कहा करते थे आप लोगों के साथ बिताया गया यह लम्हा मुझे मेरी जिंदगी में कई साल जोड़ देता है. उम्र का 85 वां पड़ाव पार करते हुए भी उनका युवाओं जैसा जोश किसी को भी हैरान कर देता था. उन्होंने पत्रकारिता से टूट कर मोहब्बत की.
खोजी पत्रकारिता का 'चौकीदार'
रात का अंधेरा हो या दिन का उजाला, उन्होंने खोजी पत्रकारिता को एक ऐसे मुकाम पर पहुंचाया जो आज भी नए पत्रकारों के लिए एक सीख है. बिहार का अब तक सबसे बड़ा घोटाला जिसे चारा घोटाले के नाम से लोग जानते हैं, यह आरएन झा की कलम की ही पैदाइश थी. चारा घोटाले ने खोजी पत्रकारिता के जो मानक स्थापित किए वह आज भी झारखंड की पत्रकारिता में माइल स्टोन हैं.
420  ही रहना है मुझे
पत्रकारिता में एथिक्स की बातों को उन्होंने अपनी जिंदगी में साक्षात उतार रखा था. आज के दौर की पत्रकारिता को वे संक्रमण का दौर कहा करते थे. उनके पास दो स्कूटर थे. एक लैंबरेडा का पुराना मॉडल और दूसरा वेस्पा. दोनों ही स्कूटर का नंबर 420 था. एक बार ऐसे ही जब उनसे हमने पूछा कि आखिर इसका राज क्या है, तो कहा जिंदगी में 420 को लोग बुरी नजर से देखते हैं, लेकिन मेरी जिंदगी की यही सच्चाई है. पत्रकारिता के पूरे कॅरियर के दौरान उन पर न तो किसी चार सौ बिसी की परछाईं पड़ी और न ही वे अपने पास ऐसे लोगों को फटकने देते थे.
उबले आलू, गरम चाय और सिगरेट का धुंआ
मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुंए में उड़ाता चला गया.....जब सदाबहार हीरो देवानंद पर यह सुपर डुपर गीत फिल्माया गया था तो उस वक्त मैं पैदा भी नहीं हुआ था. झा सर के संपर्क में आया तो उन्हें देखकर हर वक्त यही गीत जुबां पर चला आता था. एक बार जब   उनके घर गया तो पता चला कि वे दिनभर चाय और सिगरेट पर ही गुजार देते हैं. रात में उबले हुए आलू और चावल नमक के साथ खाते हैं. सिगरेट और चाय उनकी कमजोरी थी. क्लास में आने से ठीक पहले उनकी सिगरेट बुझती थी और बाहर निकलते ही सुलग जाती थी. उम्र के उस पड़ाव (85 साल) में जब लोग बिस्तर पकड़ लेते हैं पत्रकारिता का यह मसीहा उसी जिंदादिली से सिगरेट का धुंआ उड़ाता था. वर्ष 2010 में रांची में पत्रकारिता विभाग की ओर से एक सेमिनार में मैं भी देहरादून से शामिल हुआ था. उनसे मेरी यह अंतिम मुलाकात थी. उसी जिंदादिली से अपनी बेशकीमती शर्ट और सिगरेट के धूंए के बीच उन्होंने तस्वीर खिंचवाई और कहा इस तस्वीर को संभाल कर रखना. अब अधिक दिनों तक मैं यह शर्ट नहीं पहन सकूंगा. झा सर आप की यादें हमेशा साथ रहेंगी.