Friday, January 23, 2015

खुदा की नेमत हैं बेटियां


‘‘बहुत चंचल बहुत खुशनुमा सी होती हैं बेटियां
नाजुक सा दिल रखती हैं, मासूम सी होती हैं बेटियां
बात-बात पर रोती हैं, नादान सी होती हंै बेटियां
है रहमत से भरपूर, खुदा की नेमत हैं बेटियां
घर भी महक उठता है जब मुस्कुराती हैं बेटियां
होती है अजीब सी कैफियत जब छोड़ के चली जाती हैं बेटियां
घर लगता है सुना-सुना कितना रुला जाती हैं बेटियां
बाबूल की लाडली होती हैं बेटियां
ये हम नहीं कहते, ये तो खुदा कहता है कि
जब मैं बहुत खुश होता हूं तो पैदा होती है बेटियां ’’

यह कितना अद्भूत संयोग है। आज ही वसंत पंचमी है और आज ही गर्ल चाइड डे है। जीवन में किसी तरह की नई शुरुआत के लिए वसंत पंचमी का दिन ही श्रेष्ठ माना जाता है। यह जीवन के उत्साह का दिन है। इसी दिन प्रकृति करवट लेती है और तरफ सुख और समृद्धि की कामना होती है। ऐसी मान्यता है कि जब सृष्टि का निर्माण हुआ तो भगवान विष्णु की आज्ञा से ब्रह्मा ने मनुष्य की रचना की। मनुष्य की रचना के बाद भी हर तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। सभी मौन थे। सृष्टि में छाई विरानगी को दूर करने के लिए भगवान विष्णु ने एक बार फिर ब्रह जी से निवेदन किया। ब्रह्म जी ने अपने कमंडल की जल से मां सरस्वती की उत्पत्ति की। मां सरस्वती से प्रार्थना की गई कि वे वीणा बजाकर सृष्टि के इस मौन को तोड़ें। इसी वीणा की नाद से समस्त संसार में चेतना आई। तभी से वसंत पंचमी पर मां सरस्वती के पूजन की परंपरा शुरू हुई। 
कुछ इसी रूप में हमारी बेटियां भी हैं। संपूर्ण सृष्टि की तंद्रा को जागृत करने, इसमें उल्लास भरने, नव ऊर्जा का एहसास दिलाती ये बेटियां ही हैं जो सृष्टि के मौन को तोड़ने का दम रखती हैं। पुराणों की बात करें, वेदों की बात करें हर जगह इन्हें देवी के रूप में पूजा गया है। मानव सृष्टि का हर एक अंग इनके रूप रंग से गुलजार है। पर यह विडंबना ही है कि इन बेटियों को बचाने के लिए एक राष्टÑीय जन जागरण अभियान की जरूरत पड़ गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित तमाम बड़े नेताओं को कहना पड़ा कि बेटी को बचाएं। प्रधानमंत्री को यहां तक कहना पड़ा कि मैं भिक्षुक बनकर आपसे बेटियों की जिंदगी भीख मांग रहा हूं। मंथन का वक्त है कि क्या हम इतने कु्रर हो गए हैं, क्या हम इतने नीचे गिर चुके हैं कि बेटियों को होना पाप के समान मानने लगे हैं।
किसी की जिंदगी और मौत खुदा की नेमत है। इस नेमत को उसी तरह स्वीकार करना चाहिए जिस तरह हम इस धरती पर हैं। हम इस बात को क्यों नहीं समझते कि जब चाहे ऊपरवाला हमें अपने ऊपर पास बुला सकता है। जब हम अपनी मर्जी से इस धरती पर जिंदा नहीं रह सकते, तो एक बार मंथन करिए न कि हमें दूसरों की जिंदगी लेने का अधिकार किसने दे दिया। अगर किसी ने हमें भी कोख में ही मार दिया होता तो हमारा भी अस्तित्व नहीं होता। ऐसे में हम किसी बेटी को कोख में मारने का पाप कैसे कर सकते हैं। भारत के कई हिस्सों में लगातार सेक्स रेसियो में गिरवाट आ रही है। कई राज्य तो ऐसे हैं जहां यह स्थिति अलॉर्मिंग है। अब नहीं चेते तो कभी नहीं वाली स्थिति है।
मां सरस्वती को वाणी की देवी, ज्ञान की देवी के रूप में पूजा जाता है। वे इस समस्त संसार की परम चेतना हैं। शायद इसलिए ज्ञान प्राप्ति के लिए इस दिन छोटे बच्चों की पढ़ाई शुरू करवाई जाती है। उन्हें स्लेट और खल्ली पकड़ाई जाती है। आज चेतना का दिन भी है। इसी चेतना के दिन हमें भी बेटियों को बचाने का संकल्प लेना चाहिए। अब इन चर्चाओं का समय नहीं रह गया है, या यह बताने का वक्त नहीं है कि हमारी बेटियों आसमान की किन बुलंदियों की ओर अग्रसर है। न ही इस पर चर्चा होनी चाहिए। बस महसूस करने की जरूरत है। महसूस करना है बेटियों के सम्मान को। महसूस करना है उनकी मासूमियत को। जब तक दिल में बेटियों के प्रति सम्मान की भावना मजबूत नहीं होगी, वे कोख में ही दम तोड़ती रहेंगी।
चलते-चलते
बेटियों ने गर्व करने का एक और मौका पूरे देश को दिया है। भारतीय गणतंत्र के इतिहास में यह पहली बार होगा कि सशस्त्र बल की महिला टुकड़ी राजपथ पर परेड में भाग लेंगी। यह मील का पत्थर साबित होने जा रहा है। पूरे विश्व को मैसेज देने की कोशिश है कि भारतीय बेटियां युद्ध कौशल में भी उसी तरह अपना दमखम रखती हैं, जिस तरह आसमान की ऊंचाईयों में। परेड में तो सिर्फ 144 बेटियां ही शामिल होंगी, पर पूरे देश की बेटियों के लिए इससे बड़ी सम्मान की बात नहीं हो सकती।

Thursday, January 22, 2015

पाकिस्तान में माहौल नहीं है

Chaudhary Kabir Ahmad Khan with me in office.

पहली बार किसी पाकिस्तानी आॅफिसर को इतनी बेबाकी से अपने मुल्क की कमियों के बारे में बात करते सुना। हो सकता है पाकिस्तान में भी वे इसी तेवर के लिए जाने जाते हों, लेकिन स्पष्टवादिता की यह बेहतरीन मिसाल थी। पाकिस्तान से भारत आए पाक के टूरिज्म डेवलपमेंट कॉरपोरेशन के मैनेजिंग डायरेक्टर चौधरी कबीर अहमद खान का आज समाज के दफ्तर में आना हुआ था। विशेष आग्रह पर उन्होंने निमंत्रण स्वीकार किया था। पाकिस्तान में पर्यटन के माहौल पर चर्चा चली तो बेबाकी से कह उठे, वहां अभी माहौल नहीं है। पर्यटकों का आना तो दूर की बात है। जो भी आते हैं सिर्फ रिलिजियस टूरिज्म के लिए आते हैं। अमन के बिना टूरिज्म की बात तो बेमानी लगती है। दुआ करें कि पाकिस्तान में अमन हो और हम वहां मौजूद बेशकिमती सौगात को दूसरी दुनिया को दिखा सकें।
लाहौर बस पर था आतंकी खतरा
ऐसा नहीं है कि हमारे यहां आतंकी खतरा नहीं है। आए दिन आपलोग भी सुनते होंगे। हम भी आतंक से ग्रसित हैं। कुछ गलतियां जरूर हुर्इं जिसके कारण वहां आतंकवाद हावी हो गया। लाहौर बस सेवा पर भी आतंकी खतरा था। हमारी सिक्योरिटी एजेंसियों ने आतंकियों के मैसेज ट्रैप किए थे, जिसमें लाहौर बस सेवा को निशाना बनाए जाने की बात थी। सुरक्षा एजेंसियों ने अलर्ट जारी किया था। सिक्योरिटी रिजन के कारण इस सेवा का डेस्टिनेशन बदलकर बाघा बॉर्डर कर दिया गया। बाघा बॉर्डर से हम सभी यात्रियों को उनके गंतव्य तक पहुंचाने का इंतजाम करते हैं। वहां से बसों, टैक्सी आदि की व्यवस्था मुकम्मल की गई है। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी की यह एक ऐसी देन है, जो भारत और पाक के संबंधों में मील का पत्थर है। यह न कभी बंद हुई है और न भविष्य में बंद होगी।
पूरे विश्व में हमारी छवि खराब है
मुझे यह स्वीकारने में गुरेज नहीं कि पूरे विश्व में हमारी पहचान एक रिलिजियस कंट्री के रूप में हो गई है। लोग हमें एक्ट्रीमिस्ट मानते हैं। कट्टरवादी मानते हैं। कुछ कारणों से ऐसी छवि बन गई है। पर हम इस छवि को तोड़ने का प्रयास कर रहे हैं। पूरे विश्व को स्ट्रांग मैसेज देने के लिए हसन अब्दाल, पंजाब साहिब, गंधार सिविलाइजेशन, बुद्धा हेरिटेज को हाईलाइट कर रहे हैं। इसी साल मार्च में एक इंटरनेशनल कांफ्रेंस का आयोजन करने जा रहे हैं। इसमें तमाम देशों के प्रतिनिधियों को बुलाया जा रहा है। इस कांफ्रेंस का दो प्रमुख मकसद है। पहला यह कि हम सभी देशों को यह मैसेज देना चाहते हैं कि इन हेरिटेज सिविलाइजेशन के प्रिजर्वेशन के लिए पाकिस्तान कई कदम आगे है। दूसरा हिन्दु सिख धर्म सहित अन्य धर्मों के संरक्षण के लिए भी पाकिस्तान तत्पर है। पाकिस्तान में कितनी धार्मिक चीजें मौजूद हैं और उसे पाकिस्तान ने कितना महफूज रखा है, यह बताने का प्रयास किया जा रहा है।
पाकिस्तानी फिल्में भी रिलीज हों
भारत का बच्चा-बच्चा भारतीय फिल्मों का दीवाना है। भारत में कोई फिल्म रिलीज होते ही पाकिस्तान में भी रिलीज हो जाती है। पर वहां की एक भी फिल्म भारत में रिलीज नहीं होती है। यह टू वे कम्यूनिकेशन है। भारत सरकार को इस पर रोक हटानी चाहिए। पाकिस्तान में भारत का एक भी चैनल बैन नहीं है, पर भारत में आप पाकिस्तान का एक भी चैनल नहीं देख सकते हैं। कम से कम न्यूज चैनल तो जरूर ही आॅन एयर होने चाहिए। मीडिया की बातों को एक दूसरे को जानना बेहद जरूरी है। मेरी तो भारत सरकार से गुजारिश है कि न्यूज चैनलों को इन प्रतिबंधों से मुक्त रखा जाए। आप दुआ करें कि पाक और भारत के रिश्ते नार्मल हों। जरूरत इस बात की है कि दोनों कंट्री एक मंच पर आएं तमाम बातों को शार्ट आउट करें। 67 साल तो हो गए रिश्तों में कड़वाहट के अब और कितने साल। दोनों मुल्कों के युवा चाहते हैं बेहतर रिश्ते हों, बेहतर एजूकेशन मिले। दोनों सरकारों को जरूर सोचना चाहिए।

Friday, January 16, 2015

‘शराफत गई तेल लेने’

बाबा जी एक्टर बन गए। डायरेक्टर, कोरियोग्राफर, सिंगर और न जाने क्या-क्या बन गए। गॉड के मैसेंजर भी बन गए। जिस दिन बाबा की फिल्म रिलीज होने वाली थी उस दिन रिलीज हो गई फिल्म ‘शराफत गई तेल लेने’। शायद इसी शराफत गई तेल लेने का डायलॉग मारकर सेंसर बोर्ड की चेयरपर्सन लीला सैमसन ने इस्तीफा दे दिया है। अब शराफत रखकर क्या करेंगे? नेता जब अभिनेता बन सकता है। अभिनेता जब नेता बन कर खादी धारण कर सकता है। खुद को संत घोषित कर लोगों में ‘आशा’ जगाकर ‘राम’ बनने वाला तिहाड़ जेल की रोटी खा सकता है। ‘राम’ का ‘देव’ बनकर 2000 करोड़ रुपए का शुद्ध मुनाफा कमाकर कोई बिजनेस टाइकून बन सकता है। कोई ‘राम’ का ‘पालक’ बन कर अपनी सेना बना सकता है या सत्ता को चुनौती दे सकता है। तो कोई ‘राम’ या  ‘रहीम’ बनकर फिल्मी परदे पर आ गया तो इसमें बुराई क्या है?
      ज्ञान की किस आधुनिक किताब में लिखा है कि कोई बाबा एक्टर नहीं बन सकता है? कहां लिखा है कि धर्म का व्यापार नहीं किया जा सकता? सब कुछ तो हो रहा है। शराफत तो तेल लेने जा ही चुकी है, तो मंथन करिए न कि कोई व्यक्ति राम या रहीम का मैसेंजर क्यों नहीं बन सकता है? हां, यह अलग बात है कि इसी व्यक्ति पर मर्डर और साधुओं के नपंसुक बनाने के गंभीर आरोप हैं पर हम भारतीय संविधान के दायरे में हैं। अभी दोष सिद्ध नहीं हुआ है। मुकदमा चल रहा है। सजा नहीं हुई है। फिर क्या दिक्कत है कि कोई बाबा अपने स्वप्रचार के लिए फिल्म बना ले। देश भर में हर वर्ष हजारों फिल्म रिलीज होती हैं। क्या आप हर फिल्म देखने जाते हैं?
क्या आपको पता भी है कि नई फिल्म शराफत गई तेल लेने में कौन-कौन से एक्टर हैं? शराफत क्यों तेल लेने चली गई है, क्या आपको पता है? इसकी कहानी क्या है चंद लोगों को ही पता होगी। कई लोग तो इस फिल्म का नाम तक नहीं जानते होंगे क्योंकि इस फिल्म की मार्केटिंग उस तरीके से नहीं हो सकी है, जिस तरह से पीके या मैसेंजर आॅफ गॉड की हो रही है। फिल्म से जुड़ा कोई विवाद भी सामने नहीं आया है, जो फिल्म को देखने के लिए लोगों को प्रेरित कर सके। फिल्म का कोई ऐसा निगेटिव एलिमेंट सामने नहीं आया है, जो मीडिया द्वारा मुफ्त की पब्लिसिटी का जरिया बन सके। पीके के साथ विवाद जुड़ते ही इसे न देखने वाले इसे देखने पहुंचे। बॉक्स आॅफिस का ग्राफ गवाह है कि विवाद के बाद इस फिल्म ने अचानक फिर से रफ्तार पकड़ी। आज ग्लोबल मार्केट की रिपोर्ट है कि इस फिल्म ने करीब 620 करोड़ रुपए का कारोबार कर लिया है।
विश्व भर में रिलीज होने वाली हजारों फिल्मों में आप अपनी च्वाइस, अपनी सुविधा, अपने विवेक के आधार पर फिल्म देखने जाते हैं। कोई जबर्दस्ती तो नहीं है कि आप फिल्म देखें ही। चाहे उस फिल्म में कोई नेता अभिनेता बना हो या कोई बाबा। वह फिल्म कोई बायोपिक हो या एक्शन से भरपूर। वो ज्ञान बांटती हो या मनोरंजन। वह अश्लीलता परोसती हो या प्यार। सभी की अपनी च्वाइस है। तो फिर अपनी पसंद से देखने जाइए न। मैसेंजर आॅफ गॉड को लेकर विवाद इतना बढ़ चुका है कि सेंसर बोर्ड की चेयरपर्सन लीला सैमसन ने अपना इस्तीफा भी सौंप दिया है। आवाज उठाई है कि सरकार का सीधा हस्तक्षेप फिल्मों के सर्टिफिकेशन में होता है। शायद उन्होंने जब बोर्ड चेयरपर्सन का पद संभाला तो मंथन नहीं किया था।
        लीला सैमसन अगर उसी वक्त मंथन कर लेतीं तो आज यह बयान न देना पड़ता। मंथन इस बात पर करना था कि जब हरियाणा में सरकार बनती है तो सत्ता पक्ष के करीब चालीस नवनिर्वाचित विधायक राम रहीम के दरबार में मत्था टेकने पहुंचते हैं। चुनाव से पहले सत्ता की चाहत में बड़े-बड़े नेता दरबार में हाजिरी लगाने पहुंचते हैं। ऐसे में अगर इसी दरबार के स्वामी को फिल्मी परदे पर दिखाने की बारी आएगी तो वे क्या कर लेंगी? सैमसन के तर्क थे, फिल्म से सांप्रदायिक सद्भाव बिगड़ेगा, फिल्म रुढ़ीवादिता को प्रमोट करती है आदि..आदि...। ये सभी तर्क तब कुतर्क बन जाते हैं जब फिल्म को सत्ता के गलियारे से हरी झंडी मिल चुकी होती है।
    

एक अनुमान के मुताबिक धर्म गुरु से एक्टर बने बाबा के जितने समर्थक हरियाणा सहित अन्य राज्यों में मौजूद हैं, अगर उन सभी ने फिल्म सिनेमा हॉल या मल्टी प्लेक्स में जाकर देख ली तो क्या पीके और क्या शोले, सभी के रिकॉर्ड टूट जाएंगे। ऐसे में अगर विवादों का तड़का लग चुका है तो आप भी मेरे साथ गाना गुनगुनाइए... अल्लाह जाने क्या होगा आगे, मौला जाने क्या होगा आगे...।

Saturday, January 10, 2015

अभिव्यक्ति का दायरा और दरिया

शार्ली एब्दो के व्यंग्यात्मक अभिव्यिक्ति पर हुए हमले को बेहद चौंकाने वाला कहना सही नहीं होगा, क्योंकि अभिव्यक्ति के दायरे और इसके दरिया बन जाने में फर्क करने की प्रक्रिया अभी शुरू नहीं हुई है। ‘मंथन’ आगे बढ़ाने के पहले हमें सितंबर 2012 की उस घटना को याद करना होगा, जब इसी पत्रिका ने पैगंबर मोहम्मद से संबंधित एक विवादास्पद कार्टून का प्रकाशन किया था। पूरे विश्व के मुस्लिम जगत में एक साथ इतनी तीव्र प्रतिक्रिया की यह शायद सबसे बड़ी घटना थी। बीस से अधिक देशों में हिंसा भड़क उठी थी। हालात इतने खराब हो गए था कि चालीस से पचास लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ गया था। इस हिंसात्मक घटना के बाद पूरे विश्व में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहस छिड़ गई थी। सिर्फ बहस हुई, कोई नतीजा नहीं निकला। न ही इस बात पर मंथन हुआ कि हमें धर्म और आस्था के प्रति अपनी व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति के दायरे को नियंत्रित करने की जरूरत है कि नहीं। अगर उस वक्त ऐसा कुछ होता तो शायद विश्व के सर्वश्रेष्ठ काटूर्निस्ट इस वक्त हमारे बीच मौजूद होते।
पूरे विश्व में धर्म, धार्मिक मान्याताओं या किसी समूह की आस्था से जब-जब मजाक किया गया है तीव्र और तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। कहीं यह प्रतिक्रिया धरना और प्रदर्शन तक सीमित रही, कहीं यह शार्ली एब्दो के आॅफिस में हिंसा के रूप में परीलक्षित हुई। भारत तो अभिव्यक्ति की इस स्वतंत्रता पर हमले का सबसे बड़ा उदाहरण रहा है। आए दिन मीडिया दफ्तरों और मीडियाकर्मियों पर होने वाले हमले इसकी गवाही देते हैं। मैंने अपने इसी मंथन कॉलम में एक बार लिखा था, धर्म या तो उन्मादी बनाता है या आतंकी। आज पेरिस जैसे अल्ट्रा मॉडर्न देश में धर्म के प्रति उन्माद के प्रदर्शन ने बता दिया है कि भारत हो या पेरिस, धर्म और धार्मिक भावनाओं से छेड़छाड़ की तीव्र प्रतिक्रिया ही आएगी।
ऐतिहासिक तथ्य है कि पूरे विश्व को स्वतंत्रता, समानता और विश्व बंधुत्व का पाठ पढ़ाने वाला देश फ्रांस ही है। इतिहास के किताबों में फ्रांस की क्रांति और वहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़े तथ्यों को पढ़ेंंगे तो पाएंगे कि यह देश ऐसे ही इतना आगे नहीं बढ़ा है। पर यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वहां की आबो हवा में आज भी धार्मिक कट्टरता पैठ जमाए है। कुलीन समाज में पले बढ़ने के बावजूद जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को धार्मिक उन्माद का रूप लेते हुए देखें तो यह लाजिमी हो जाता है कि हम इस स्वतंत्रता के दायरे और दरिया के बीच के फासले पर मंथन करें।
बात पेरिस जैसे अल्ट्रामॉड शहर की हो या रांची जैसे टायर टू सिटी की। धर्म पर लोगों की भावनाएं एक जैसी ही जुड़ी होती हैं। साल 2004 की एक घटना याद आती है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद का मोह त्यागते हुए मनमोहन सिंह का नाम प्रधानमंत्री के रूप में आगे बढ़ाया। पूरे विश्व में यह राजनीतिक घटना चर्चा का विषय बनी। भारत के लगभग सभी अखबारों ने इस घटना को प्रथम पेज की खबर बनाई। एक राष्टÑीय हिंदी दैनिक ने इस घटना को कार्टून के जरिए पेश करने की कोशिश की। मदर मरियम की जगह सोनिया गांधी का चेहरा लगाया गया और उनकी गोद में बैठे प्रभू यीशू के रूप में मनमोहन सिंह की छवि प्रदर्शित की गई। सभी संस्करणों में यह तस्वीर प्रकाशित हुई। रांची में भी यह कार्टून प्रकाशित हुआ। दूसरे दिन शहर में इतनी तीव्र प्रतिक्रिया हुई, जिसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी। शाम होते-होते पूरे आॅफिस को क्रिश्चिन कम्यूनिटी और आदिवासियों ने घेर लिया। काफी मिन्नतें और माफीनामे के बाद इस मामले को रफा-दफा किया जा सका। इस घटना की चर्चा यहां इसलिए कर रहा हूं क्योंकि यह घटना भी पेरिस के शार्ली एब्दो पत्रिका के दफ्तर की तरह ही थी। फर्क बस इतना था कि रांची में मशाल लिए क्रिश्चियन कम्यूनिटी के लोग पत्रकारों से माफी मांगने को कह रहे थे, जबकि पेरिस में उन पत्रकारों को खत्म ही कर दिया गया, जो धार्मिक अभिव्यक्ति के दायरे को दरिया समझ रहे थे।
मंथन का वक्त है कि हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का किस हद तक उपयोग करें। खासकर धार्मिक मामलों में। साथ ही उन मामलों में जिनसे किसी समूदाय विशेष की धार्मिक मान्यताओं को ठेस पहुंचती हो। कार्टून अभिव्यक्ति का एक स्वतंत्र और बेहद दमदार जरिया है। पर क्या किसी को इतनी छूट मिलनी चाहिए कि वह धर्म और आस्था के मामले पर भी अपनी आड़ी-तिरछी रेखाओं के जरिए मजाक उड़ाए। पेरिस की घटना के बाद अमेरिकी विदेशमंत्री जॉन कैरी ने कहा कि यह घटना व्यापक टकराव का हिस्सा है, यह टकराव दो सभ्यताओं के बीच नहीं है, बल्कि खुद सभ्यता और उन लोगों के बीच है जो सभ्य दुनिया के खिलाफ हैं। कहने की जरूरत नहीं कि जॉन कैरी की इस बात में पूरे विश्व की भावनाएं जुड़ी हैं। शार्ली एब्दो के दफ्तर पर हमला न केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है, बल्कि आज के इस सभ्य विश्व समाज में व्यंग्य की प्रासंगिगता पर भी प्रहार है। इस तरह की घटना का समर्थन किसी सूरत में नहीं किया जा सकता, पर हां इतना जरूर है कि इस घटना ने पूरे विश्व को धर्म के प्रति व्यंग्यात्मक सोच पर बहस करने को जरूर प्रेरित कर दिया है।

Wednesday, January 7, 2015

ये अक्षरा हैं, इनका सपना था अमिताभ

  जब आई-नेक्स्ट देहरादून आॅफिस में सारिका जी गेस्ट एडिटर के रूप में खबरों की चर्चा कर रहीं थीं, अक्षरा चुपचाप सुन रहीं थीं। बाद में उन्होंने भी अखबारी दुनिया के प्रति अपनी सोच को साझा किया था।

ये अक्षरा हैं। वर्ष 2009 में मम्मी सारिका जी के साथ देहरादून आर्इं थीं। विशेष रिक्वेस्ट पर सारिका जी ने आई-नेक्स्ट का गेस्ट एडिटर बनना स्वीकार किया था। अक्षरा भी आॅफिस आर्इं थीं। सारिका जी में तो गजब का सेंस आॅफ ह्यूमर था ही, बेटी अक्षरा में भी कांफिडेंस कूट-कूट कर भरा था। अक्षरा के नाम के आगे मैं उनका सर नेम ‘हासन’ इसलिए नहीं लगा हूं, क्योंकि उन्हें अपने सर नेम से लगाव नहीं था। लगाव क्यों नहीं है, यह एक पारिवारिक और बेहद ही निजी मामला हो सकता है। पर इतना सार्वजनिक जरूर है कि सारिका और कमल हासन व्यक्तिगत कारणों से अलग हो चुके हैं। अक्षरा कमल हासन की ही संतान हैं। अक्षरा की चर्चा इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि आज मल्टी स्टारर फिल्म शमिताभ का ट्रेलर लांच हुआ है। डायरेक्टर आर बाल्की की यह फिल्म काफी धमाल माचाएगी, ऐसा फिल्मी पंडित कह रहे हैं। फिलहाल इतना जरूर है कि शमिताभ के लिए अक्षरा ने जबर्दस्त मेहनत की है। निर्देशक आर बाल्की तो उन्हें नेक्स्ट बिग थिंक भी कह चुके हैं। 2009 में जब अक्षरा से मुलाकात हुई थी तो मजाक-मजाक में ही पूछ लिया था कि आप भी मम्मी सारिका और बहन श्रुति हासन की तरह फिल्मों में आएंगी क्या? गजब कांफिडेंस से अक्षरा का जवाब था, देखिए फिल्मों में आऊंगी या नहीं, यह तो वक्त तय करेगा, पर इतना जरूर है जिस फिल्म में अमिताभ बच्चन काम
करेंगे, उसी में काम करूंगी। अब यह महज संयोग है या कुछ और पर आज अमिताभ बच्चन के साथ उन्हें खड़ा देखकर इतना जरूर कह सकता हूं कि सपने कभी छोटे मत देखो। देखो तो बड़ी देखो और उसे पालने का माद्दा भी रखो। अक्षरा को उनका सपना पूरा होने पर ढेर सारी बधाई।

Monday, January 5, 2015

बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर, मेल कराती मधुशाला!

कहतें हैं, पी कर बोलने वाला हमेशा सच बोलता है। उसे न दुनिया की फिक्र होती है और न जिंदगी की। वह दूसरी दुनिया में रहता है। शायद इसीलिए दूसरे ग्रह से आने वाली की बात सुनकर ही उसे ‘पीके’ कहा गया। हमारे समाज में भी पी के रहने वालों की बातों को गंभीरता से नहीं लिया जाता है। कहा जाता है वह पी के बहक गया है। बहक इसलिए गया है क्योंकि वह पी के सच बोल ने लगा है। ऐसा सच जो सामान्य तरीके से स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि वह कड़वी होती है। इसी कड़वी सच्चाई को बयां करते हुए हरिवंश राय बच्चन ने अपनी अमूल्य रचना की थी। नाम भी इसे मधुशाला ही दिया। इसी मधुशाला में वे लिखते हैं।
दुत्कारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला, 
ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला, 
कहां ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफिर को? 
शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला।

दूसरे गोले (ग्रह) से आए पीके ने तो जो बात कहनी थी कह दी। उसे जो समझाना था समझा गया। यह बात भी साफगोई से बता गया कि कोई कपड़ा पहनकर तुमने जन्म नहीं लिया है। पर जिंदगी में कपड़ों के आधार पर कैसे तुम पहचाने जा रहे हो। सिख हो तो पगड़ी से पहचान और हिंदु हो तो टीका और माले से पहचान। दाढ़ी बढ़ा ली तो मुसलमान और गले में क्रॉस लटका लिया तो ईसाई। ये सारी बातें यहीं रह जाएंगी। ये सारे जाति धर्म मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और चर्च तक ही सीमित रहेंगे। अब हमारे ऊपर है कि हम कितनी बात समझते हैं, कितनी बात नहीं। पीके की बातों ने करोड़ों रुपयों की कमाई कर ली। उसके ऊपर विरोध-प्रदर्शन को तो कोई असर नहीं पड़ा। अब पीके की बात की खाल निकालने वाले खाल तो नहीं निकाल पा रहे पर पोस्टर जरूर फाड़ रहे हैं। कहीं सेक्यूलरिज्म की बातें हो रही हैं, कहीं इसे टैक्स फ्री करके राजनीतिक रोटी सेंकी जा रही है। कहा जा रहा है कि हिंदु विरोधी बातें ज्यादा कह गया पीके। उसे दूसरे धर्मों पर भी और बकवास करनी चाहिए।
पर सवाल यह है कि अगर पीके ने दूसरे धर्मों पर भी उतनी ही बातें कही होती तो क्या उसका विरोध नहीं करते। क्या उसकी पोस्टर नहीं फाड़ते। हिसाब हुआ बराबर कहकर चुप रह जाते। या कोई और भी कारण है, जिसके ऊपर से कोई परदा उठाना नहीं चाहता। बड़ी बजट की फिल्में, बड़ा नाम, अकूत रुपयों की बारिश जैसे तत्वों से क्या यह विरोध-प्रदर्शन मॉनिटर होता है? इस पर कोई कुछ कहने की हिम्मत क्यों नहीं जुटा पाता है। या इस पर भी मंथन क्यों नहीं किया जाता है कि जब-जब बड़ी फिल्में रिलीज होती हैं उसके साथ कांट्रोवर्सी क्यों जुड़ जाती है। कुछ साल पहले ही ओ माई गॉड जैसी फिल्म भी आई थी। पूरी धार्मिक व्यवस्था की इस फिल्म ने धज्जियां उड़ा कर रख दी थी। क्या गीता और क्या कुरान, सभी की बातों का इस फिल्म में पोस्टमार्टम किया गया था। पर उस वक्त तो कोई विरोध प्रदर्शन नहीं हुआ। यह भी बता दूं कि यह फिल्म चंद करोड़ रुपए का व्यवसाय कर फ्लॉप फिल्मों की श्रेणी में आ गई।
नंगा पुंगा पीके सिर्फ यह बताने की कोशिश करता है कि आप उसे स्वीकार करें जिसने आपकी रचना की है। इस सृष्टि की रचना की है। उसे स्वीकार न करें जो आपके स्वयंभू भगवान बन गए हैं। आपका अपना कोई बीमार है तो तन-मन से उसकी सेवा करें। ईश्वर या अल्लाह से दिल से दुआ मांगें। ऐसा नहीं करें कि उसे तड़पता छोड़कर स्वयंभू भगवानों की बातों में आएं और रांग नंबर को रिसीव  करें। अगर अपने रिमोट को खोजने के लिए पीके को भगवान के पास जाने की सलाह दी जाती है तो वह जाता है। फिर चाहे वह मंदिर में भगवान खोजे, या मस्जिद में। उसके लिए तो गुरुद्वारा और चर्च भी एक समान ही है। उसे तो बस भगवान से मिलना है। भगवान की खोज में वह दर-दर की ठोकरें खाता है। तरह-तरह की सच्ची बातों को बताना है। लोगों की नजर में वह बेवड़ा बन जाता है। वह पीके बन जाता है। पर इससे भी वह संतुष्ट है। क्योंकि ....
धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला, 
मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला,
पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका, 

कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।
मुसलमान औ' हिन्दू हैं दो, एक, मगर, उनका प्याला, 

एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते, 

बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला!