Monday, December 28, 2015

दम तोड़ते किसान, यज्ञ करती सरकार



खबर तेलांगना से आई कि मुख्यमंत्री द्वारा खास तौर पर आयोजित यज्ञ के पंडाल में आग लग गई है। बताया जा रहा है कि यज्ञ का पंडाल ही करीब सात करोड़ रुपए का है। पूरे यज्ञ आयोजन में करीब सौ से डेढ़ सौ करोड़ रुपए खर्च का अनुमान है। अब इसी राज्य की एक और हकीकत से रू-ब-रू हो लें तो बेहतर होगा। इसी तेलंगाना में 15 महीने में 782 किसानों ने आत्महत्या कर ली है। क्या इसे साधारण तरीके से लेने की जरूरत है या हमें गंभीरता से ह्यमंथनह्ण करने की जरूरत है कि जिस राज्य में प्रति माह औसतन 52 किसान आत्महत्या कर रहे हैं उसी राज्य में हवन यज्ञ पर करोड़ों रुपए पानी की तरह बहाए जा रहे हैं। तर्क दिया जा रहा है कि प्रदेश में अच्छी बारिश हो, सूखा न हो, सुख-शांति का वातावरण हो, इसके लिए यज्ञ-हवन का आयोजन किया जा रहा है।
पिछले दिनों हैदराबाद कोर्ट में हलफनामा दायर करते हुए तेलंगाना राज्य सरकार ने बताया था कि दो जून 2014 से 8 अक्टूबर 2015 तक राज्य में 782 किसानों ने आत्महत्या की है। ऐसे में तेलंगाना राज्य सरकार से यह भी पूछना जायज है कि जिस राज्य में किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं, उस राज्य में इतने भव्य सरकारी धार्मिक आयोजनों पर इतना व्यापक पैसा खर्च करना किस मानसिकता की परिचायक है। हालांकि, ऐसा नहीं है कि सिर्फ तेलंगाना ही इस तरह की मानसिकता से पीड़ित है। कई दूसरे राज्यों में भी यही परिपाटी चलती आई है। उत्तरप्रदेश भी इसका जीता जागता उदाहरण है। जहां के कई जिले सूखे की चपेट में हैं और वहां सैफई महोत्सव में करोड़ों रुपए पानी की तरह बहा दिए जाते हैं। हर बड़े राज्य में कुछ ऐसी ही प्रवृत्ति देखने को मिल रही है।
हर राज्य की सरकार के बयानों में, राजनीतिक भाषणबाजी में, रैलियों में सबसे ऊपर हमारे अन्नदाताओं का नाम आता है। किसानों को लेकर बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं। पर अफसोस इस बात का रहता है कि सिर्फ राजनीति चमकाने भर के लिए किसानों की बात करके सभी चुप्पी लगा जाते हैं। अभी हाल ऐसे हैं कि देश भर के करीब 271 जिले किसी न किसी तरह से सूखे की चपेट में हैं। यहां औसत से काफी कम बारिश रिकॉर्ड की गई है। कृषि मंत्रालय ने हाल ही में आंकड़े जारी किए थे, जिसमें बताया गया था कि इन जिलों में औसत से करीब 14 प्रतिशत कम बारिश हुई है। हरियाणा और पंजाब में तो स्थिति और ज्यादा गंभीर है। पंजाब में जहां 38 प्रतिशत तो हरियाणा में 32 प्रतिशत कम बारिश हुई है। वहीं, उत्तरप्रदेश में 46 प्रतिशत बारिश कम हुई है। कुछ यही हाल बिहार, महाराष्टÑ और कर्नाटक जैसे राज्यों का है। बताने की जरूरत नहीं कि ये कृषि प्रधान राज्य हैं। कुछ ऐसा ही हाल 2014 में भी देखने को मिला था, जब औसत से 12 प्रतिशत बारिश कम हुई थी और भारत में 4.7 प्रतिशत पैदावार कम हुई थी।  
जब-जब ऐसी स्थिति आती है केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारें किसानों की सबसे बड़ी हितैषी के रूप में खुद को प्रस्तुत करती हैं। पर सच्चाई यही है कि इनका अपनापन कभी भी किसानों को रास नहीं आता है। और तो और किसानों की आत्महत्या का ग्राफ लगातार ऊपर ही होता जाता है। तेलंगाना की तरह आत्महत्या के मामले में महाराष्टÑ खासकर मराठवाड़ा भी पीछे नहीं है। इसी साल महाराष्टÑ में करीब 600 किसानों ने आत्महत्या कर ली। वहीं हरियाणा, उत्तरप्रदेश और पंजाब के किसानों में आत्महत्या की प्रवृत्ति ने तेजी दिखाई है। 
क्यों हमारे अन्नदाता लगातार आत्महत्या कर रहे हैं? इस पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है। किसानों के लिए देश भर में हजारों कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। बताया और प्रचारित किया जाता है कि ये कार्यक्रम किसानों की जिंदगी बदल देंगे। पर मंथन का वक्त है कि क्या ये कार्यक्रम सही अर्थों में किसानों के लिए संजीवनी का काम कर रहे हैं, या फिर इनके नाम पर सिर्फ और सिर्फ वाहवाही ही लूटी जा रही है। किसानों को किसी सरकारी कार्यक्रम या सरकारी मदद की ललक नहीं होती है। उनका तो एक मात्र उद्देश्य होता है कि उनकी फसल ठीक रहे, उसकी मार्केट में सही कीमत मिल जाए, पर होता है इसका उल्टा। किसानों को अच्छे बीज से लेकर खाद तक के लिए भ्रष्टाचार का आइना देखना पड़ता है। फिर सरकार द्वारा मिनिमम सेलिंग प्राइस से लेकर मार्केट तक में मौजूद भ्रष्टाचार से उनका सामना होता है। अगर गलती से किसी किसान ने बैंक से लोन लेकर खेती का रिस्क ले लिया तो फिर उसके लिए मौत के अलावा कोई दूसरा रास्ता ही नहीं बचता है। ऐसे में अगर प्रकृति ने भी अपना रौद्र रूप दिखा दिया तो किसी के पास कुछ शब्द ही नहीं बचते। सरकार सिर्फ आश्वासनों के दम पर किसानों का हितैषी बनने का प्रयास करती है, पर आत्महत्या के बढ़ते आंकड़े इस सच्चाई से परदा उठाने के लिए काफी हैं। 

अब हमें यह तय करना होगा कि हम अपने अन्नदाताओं को किन हालातों में छोड़ रहे हैं। गंभीरता से सोचने और मॉनिटरिंग करने की जरूरत है कि जिन किसानों के लिए हजारों योजनाएं चल रही हैं, क्या सच में उन तक इसका लाभ पहुंच रहा है। किसानों के बढ़ते आत्महत्या के लिए हम किसी सरकारी आयोजन में यज्ञ पर करोड़ों रुपए तो बहा सकते हैं पर इन्हीं रुपयों से क्या किसी किसान का भला भी किया जा सकता था? इन प्रश्नों का जवाब हर कोई   खोज रहा है। अगर अभी इन प्रश्नों का जवाब नहीं खोजा गया तो आने वाले वक्त में काफी भयावह स्थिति का सामना करना पड़ सकता है। वैसे ही अभी कई प्रदेशों के किसान खेती छोड़कर मजदूरी करने या शहरों में हजार दो हजार की नौकरी करने पर विवश हैं। कहीं ऐसा न हो कि गांवों और खेत खलिहानों में हर तरफ हरियाली की जगह सन्नाटा देखने को मिले।

Saturday, December 26, 2015

...‘तुमने पुकारा और हम चले आए’

क्या इसे महज संयोग कहा जाए कि जिस सदाबहार अभिनेत्री साधना के निधन पर पूरे भारत के लोग उनकी फिल्म राजकुमार के गाने तुमने पुकारा और हम चले आए...को याद कर रहे थे, ठीक उसी समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक दूसरे से मित्रवत बात कर थे। कहा जा रहा है, नरेंद्र मादी ने जिस तरह नवाज शरीफ को उनके जन्मदिन पर शुभकामनाएं दीं, ठीक उसी वक्त नवाज शरीफ ने उन्हें पाकिस्तान में डिनर करने का न्योता दे डाला। और संयोग देखिए भारतीय प्रधानमंत्री उसी गाने की तरह.... तुमने पुकारा और हम चले आए, जान हथेली पर ले आए रे.... गुनगुनाते हुए बेखौफ, बिंदास पाकिस्तान के लाहौर में लैंड कर गए। भारतीय इतिहास में यह दिन एक नई इबारत लिख गया। किसी ने कभी कल्पना नहीं की होगी कि कोई भारतीय प्रधानमंत्री वह भी नरेंद्र मोदी इस तरह अचानक न केवल पाकिस्तान पहुंचेंगे, बल्कि पाकिस्तानी सेना के हेलीकॉप्टर से नवाज शरीफ के घर पहुंचेंगे। चाहे मौका नवाज शरीफ के जन्म दिन का हो या उनकी नतिनी के विवाह समारोह का, नरेंद्र मोदी की इस पहल ने भारत-पाक के रिश्तों को एक नई ऊंचाई और ऊर्जा देने का प्रयास किया है।
हाल ही में भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज पाकिस्तान पहुंचीं थीं और सितंबर में नरेंद्र मोदी के पाकिस्तान दौरे पर मुहर लगाकर आर्इं थीं। पर इससे पहले ही नरेंद्र मोदी का इस तरह पाकिस्तान की सरजमीं पर उतरना खास महत्व रखता है। विपक्षियों ने अपने जल्दबाजी वाले कुतर्कों द्वारा एक बार फिर इस पहल को नौटंकी करार दे दिया है। पर भारतीय जनमानस ने सोशल मीडिया के जरिए अपने विचार साफ कर दिए हैं। दो कदम तुम भी चलो, दो कदम हम भी चलें... का फॉर्मुला ही भारत-पाक के रिश्तों के बीच जमी बर्फ को पिघला सकता है यह साफ हो चुका है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में नवाज शरीफ ने पहुंचकर पूरे विश्व को चौंका दिया था। नरेंद्र मोदी के इस अविश्वसमरणीय और साहसिक कदम को भले ही आलोचना और तमाम कुतर्कों की कसौटी पर कसकर देखा जाएगा पर सच्चाई यह है कि लंबे समय से इस तरह के अमन के संदेश का पूरा विश्व इंतजार कर रहा था। हां हमें यह भी जरूर नहीं भूलना चाहिए कि इससे पहले भी नरेंद्र मोदी के राजनीतिक गुरु अटल बिहारी वाजपेयी बस लेकर लाहौर पहुंचे थे, उसके बाद पाकिस्तान का दोहरा चरित्र किस तरह सामने आया था। फर्क इतना है कि उस वक्त भारतीय बस लाहौर पहुंची थी, इस बार इंडियन एयर फोर्स का स्पेशल विमान लाहौर की धरती पर पहुंचा। नरेंद्र मोदी ने अपने इस साहसिक कदम से एक ऐसा संदेश दिया है जो लंबे वक्त तक भारत और पाकिस्तान के साथ-साथ पूरे विश्व में चर्चा के केंद्र में रहेगा। पाकिस्तान की तरफ से सीमा पर पर अंधाधुंध गोलीबारी, घुसपैठ, आतंकियों को प्रश्रय देने, दाउद और हाफिज सईद जैसे मोस्ट वांटेड को अपने यहां शरण देने जैसे कई मुद्दों पर भी बहसबाजी का दौर शुरू हो चुका है।

इसे सीधे तौर पर नरेंद्र मोदी की साहसिक यात्रा से जोड़कर देखा जा रहा है। पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान के लोकतंत्र में सेना की दूसरी भूमिका है। जब-जब इस तरह के शांति प्रयास हुए हैं पाकिस्तानी सेना ने इस शांति में मिर्च डालने का काम किया है। ऐसे में उन आशंकाओं को भी दरकिनार नहीं किया जा सकता कि पाकिस्तानी सेना चंद दिनों में ही कुछ ऐसी हरकत कर डाले जिससे फिर खटास उत्पन्न हो। फिलहाल हमें नवाज शरीफ और नरेंद्र मोदी के दोस्ती का दिल खोलकर स्वागत करना चाहिए।

Monday, December 21, 2015

कोर्ट के फैसले जज्बातों पर नहीं होते


निर्भया  गैंगरेप के नाबालिग आरोपी को रिहा करने के अदालती फैसले के बाद पूरे देश में कानून पर नई बहस छिड़ गई है। कोर्ट ने साफ तौर पर कह दिया था कि कानूनों के दायरे के ऊपर कोई नहीं है और कानून उसकी रिहाई पर मुहर लगाता है। कोर्ट ने जो निर्णय दिया उस पर हायतौबा मचाने वालों को सोचना चाहिए कि कोर्ट के फैसले जज्बातों पर नहीं होते हैं। यह सच है कि निर्भया के साथ पूरे देश का सेंटिमेंट जुड़ा है। पर, इस मामले को लेकर जितनी राजनीति हो सकती है वह भी हो रही है। हमें मंथन जरूर करना चाहिए कि हम राजनीति में उलझें या वह रास्ता खोजें जिससे भविष्य में इस तरह की स्थिति का सामना न करना पड़ा।
सबसे बड़ी राजनीति लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर यानी संसद में हो रही है। जिस वक्त केंद्र सरकार ने स्पष्ट कर दिया था वह इस नाबालिग की रिहाई के पक्ष में बिल्कुल नहीं है। यहां तक कि केंद्र की तरफ से सॉलिसिटर जनरल ने भी सरकार की मंशा साफ कर दी थी। वाबजूद इसके कांग्रेस ने इसे मुद्दा बनाने की कोशिश की। जबकि, दूसरी तरफ हकीकत यह थी कि लोकसभा में सही समय पर जुवेनाइल जस्टिस अमेंडमेंट एक्ट पास हो चुका था। राज्यसभा में इसे पास कराया जाना था। पर कांग्रेस ने अपने हुक्मरानों के बेवजह के मुद्दों पर राज्यसभा ही नहीं चलने दी। नतीजा यह हुआ कि राज्यसभा में यह एक्ट पास नहीं हो सका और कोर्ट ने मौजूदा कानून के तहत उस रेपिस्ट को आजाद करने का आदेश जारी किया, जिसने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था। 
कांग्रेस की राजनीति के बीच बीजेपी ने भी एक राजनीतिक चाल चलने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। भले ही बीजेपी का कोई बड़ा नेता या मंत्री इस मुद्दे पर खुलकर सामने नहीं आया, पर एक ऐसी हवा चला दी गई कि दिल्ली सरकार आजाद होने वाले रेपिस्ट का स्वागत सत्कार करने वाली है। सोशल मीडिया के जरिए दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार पर एक ऐसा जोरदार हमला बोला जिसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी। जबकि, सच्चाई यह है कि मौजूदा जुवेनाइल एक्ट कहता है कि संबंधित सरकार को किसी नाबालिग की रिहाई के बाद उसके रिहेबेटाइजेशन की व्यवस्था करनी पड़ती है। निर्भया गैंग रेप मामले में भी ऐसा ही हुआ। कोर्ट ने जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड और दिल्ली सरकार को इस नाबालिग के पुनर्वास का आदेश दिया था, जिसके तहत दिल्ली सरकार ने उसे सिलाई मशीन और कुछ हजार रुपए देने की बात कही थी। 
हमें मंथन करना होगा कि इतने सेंसेटिव इश्यू पर हम राजनीतिक रोटी कब तक सेंकते रहेंगे। यहां बात सिर्फ निर्भया की ही नहीं है। हर दिन हमारे आसपास ऐसी घटनाएं होती रहती हैं, जिसमें हम चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते हैं। हर दिन हमारे देश में करीब 93 महिलाएं बलात्कार का शिकार होती हैं। ये आंकड़े कागजों में दर्ज हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि निर्भया केस के बाद भले ही देश में रेप के खिलाफ एक अलग तरह की मानसिकता ने जन्म लिया पर हकीकत यह है कि उसी रफ्तार से रेप के मामले भी आश्चर्यजनक तौर से सामने आए। 2012 में भारत में 24,923 मामले रजिस्टर किए गए वहीं, 2013 में इसकी संख्या बढ़कर 33,707 हो गई। इनमें से अधिकतर मामले टीन एज गर्ल्स के साथ घटित हुर्इं। जिस दिल्ली के लोगों ने निर्भया केस के दौरान आंदोलन का झंडा बुलंद किया था उसी दिल्ली को एनसीआरबी ने रेप केस के मामलों में सबसे अनसेफ घोषित कर रखा है। आपको जानकर हैरानी होगी कि दिल्ली में 2013 में 1441 मामले दर्ज हुए। अभी 2014-15 के आंकड़े आने बाकी हैं। अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्थिति और भी चिंताजनक ही होगी। 

निर्भया का मामला इसलिए पूरे देश में चर्चा का केंद्र बन गया, क्योंकि इसने एक आंदोलन का रूप ले लिया था। नहीं तो हर दिन पूरे देश में इसी तरह के बू्रटल केस सामने आते ही रहते हैं। राष्टÑीय राजधानी में हुई इस वारदात ने एक जनआंदोलन का रूप ले लिया था। वही कहानी दोबारा दोहराई जा रही है। एक बार फिर से एक ऐसा माहौल बनाने की कोशिश की जा रही है कि निर्भया गैंग रेप से बड़ा गुनहगार कोई नहीं है। उस गुनहगार से किसी को हमदर्दी होनी भी नहीं चाहिए, पर यह सवाल भी लाजिमी है कि इस तरह के न जाने कितने गुनहगार हमारे और आपके बीच ही मौजूद हैं। क्यों नहीं हम निर्भया के बहाने इस बीमारी को जड़ से समाप्त करने का प्रयास करें। हमें एक ऐसी मानसिकता के खिलाफ जंग लड़ने को तैयार होना होगा, जिसमें ऐसी परिस्थितियों को सिरे से नकारा जा सके। सिर्फ हाथों में मोमबत्ती और मुंह पर काले कपड़े बांधकर, फेसबुक और व्हॉट्सएप पर अपनी डीपी चेंज कर हम निर्भया या उसकी जैसी हजारों लड़कियों को न्याय नहीं दिला सकते हैं। कोर्ट को अपना काम करने दीजिए। कोर्ट कोई भी फैसला सोच समझकर लेता है, न कि जज्बाती होकर। ऐसे में हमें बेवजह कानून पर ऊंगली उठाने से पहले अपने अंदर के मनुष्य को जगाना होगा। हर किसी को समाज में सम्मानजनक तरीके से जीने का अधिकार है, हमारा लोकतंत्र भी ऐसा मानता है। ऐसे में अगर एक नाबालिग कोर्ट द्वारा छोड़ दिया जाता है तो बजाए इस पर राजनीति करने के हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए।

Tuesday, November 24, 2015

‘इंडियंस एंड डॉग्स आर नॉट अलाउड’


इस आलेख के साथ जो तस्वीर आप देख रहे हैं उसमें भारतीय प्रधानमंत्री के साथ ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन दिख रहे हैं। कई दिनों से यह तस्वीर सोशल मीडिया सहित व्हाट्स ऐप पर भी सर्कुलेट हो रही है। साथ में कैप्शन लिखा हुआ है, मोदी जी आगे उस नुक्कड़ से दाएं मुड़ जाइएगा, कुछ देश उधर भी हैं। कल रात मेरे एक और मित्र ने मुझे यह मैसेज इसी संदेश के साथ भेज दिया। मैंने भी उसे जवाब लिख दिया। कहा मित्र इस फोटो को अब इस कैप्शन के साथ पढ़ो। ‘वो देखिए मोदी जी किसी भारतीय की शान में पहली बार अंग्रेजों ने सिर झुकाया है। आप आजादी के इतने सालों बाद पहले भारतीय हो जो ब्रिटेन की संसद में दहाड़ कर आए हो। नहीं तो हम अंग्रेज इंडियंस को कुत्ता ही समझते थे। यहां तक की ट्रेन के डिब्बे पर भी हम लिखते थे, इंडियंस एंड डॉग्स आर नॉट अलाउड।’
दरअसल, बात सिर्फ इस तस्वीर की ही नहीं है। इन दिनों प्रधानमंत्री को लेकर तमाम तरह के ऐसे-ऐसे जोक और मैसेज सर्कुलेट हो रहे हैं जिस पर हर एक भारतीय को शर्मिंदा होना चाहिए। एक तरफ अवॉर्ड लौटाने वाला गिरोह यह कहकर अवॉर्ड लौटा रहा है कि भारत में सहिष्णुता खतरे में है। वहीं, दूसरी तरह बेबाक तरीके से प्रधानमंत्री जैसे गरिमामय पद के खिलाफ अनाप-शनाप भी बोलते हैं। अब इन्हें कौन समझाए कि क्या आपको यह आजादी नहीं लगती कि आप बेबाक तरीके से प्रधानमंत्री के खिलाफ भी बोल सकते हैं। क्यों नहीं आपके बोल फूटते थे जब इमरजेंसी लगी थी? क्यों नहीं इंदिरा गांधी के खिलाफ एक कार्टून बना देते थे। मंथन करने का वक्त है कि हम प्रधानमंत्री जैसे पद की गरिमा का कितना सम्मान करते हैं।
प्रधानमंत्री का सबसे अधिक मजाक उनके विदेश दौरों को लेकर हो रहा है। कोई बजरंगी भाईजान-टू में सलमान को कह रहा है कि कृपया प्रधानमंत्री मोदी को भारत लेकर आएं, कोई उन्हें भारत के भी कई राज्य घूम लेने की सलाह दे रहा है। पर कोई यह बताने को तैयार नहीं है कि प्रधानमंत्री ने ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम के तहत कितने देशों को भारत में निवेश के लिए आमंत्रित किया है। कई ऐसे देश जो भारत को एक गरीब और अविकसित देश के रूप में देखते थे, वे अब भारत में अपना भविष्य का बाजार देख रहे हैं। ब्रेन ड्रेन की समस्या से जो देश सबसे अधिक प्रभावित था उस देश के युवा अब भारत में अपनी संभावनाएं तलाश रहे हैं। हाल ही में ब्रिटेन के दौरे के दौरान ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने जिस तरह तमाम प्रोटोकॉल तोड़कर भारतीय प्रधानमंत्री का स्वागत किया, वह कई मायनों में महत्वपूर्ण है।
जी-20 में शामिल देश हों या फिर सार्क देशों का समूह हो, हर प्लेटफॉर्म पर भारत सबसे आगे खड़ा दिख रहा है। कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने प्रधानमंत्री को अमेरिकी राष्टÑपति के बाद सबसे ताकतवर शख्स माना है। प्रधानमंत्री मोदी ऐसे शख्सियत के तौर पर उभरे हैं जिनकी बात पूरी दुनिया गौर से सुन रही है। स्वतंत्र भारत में शायद पहला दौर है जब वैश्विक स्तर पर भारत इतने सशक्त रूप से विश्व के सामने है। क्या यह सब सिर्फ भारत की गलियों की खाक छानने से मिल जाता? कुआलालंपुर में आसियान देशों के सम्मेलन में जिस तरह भारतीय प्रधानमंत्री की बातों को हर एक राष्टÑ ने सराहा और भारत के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की बात कही वह ऐसे ही नहीं है। इसमें न केवल भारत की हालिया दिनों की दमदार छवि है, बल्कि पूर्ण बहुमत से भारतीय लोकतंत्र में प्रधानमंत्री बनने वाले शख्स का विजन भी है।
कुछ लोग विपक्षी दलों की हां में हां मिलाते कहते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी को भारत पर भी ध्यान देना चाहिए। यहां की भुखमरी और गरीबी पर ध्यान देना चाहिए। अब इन्हें कौन समझाए कि पिछले साठ साल में सिर्फ यही एक राजनीतिक मुद्दा है, जिस पर सरकारें बनती हैं और गिरती हैं, उसमें प्रधानमंत्री मोदी क्या कर लेंगे? कोई यह क्यों नहीं बताता कि प्रधानमंत्री के भारत में नहीं रहने से कौन सा काम अटका हुआ है। अब प्रधानमंत्री कोई म्युनिसिपल कमिश्नर या जिलाधिकारी तो हैं नहीं कि आम लोगों की गली-कूचे की समस्या का समाधान करता फिरें। प्रधानमंत्री के स्तर पर संसद और कैबिनेट में फैसले लिए जाते हैं। कैबिनेट की बैठक में पिछले एक साल में कई बड़े और महत्वूपर्ण फैसले लागू किए गए हैं। जबकि, संसद का हाल किसी से छिपा नहीं है। एक मामूली से मुद्दे को लेकर कांग्रेस ने संसद ही नहीं चलने दी, जिसके कारण कई महत्वपूर्ण बिल पास ही नहीं हो सके। संसद का शीतकालीन सत्र भी जल्द ही शुरू होने वाला है। विपक्षी दल पहले से ही तैयार बैठे हैं कि संसद नहीं चलने दिया जाएगा।
वाह क्या बात है, एक तरफ तो संसद नहीं चलने देंगे, वहीं दूसरी तरफ बयान जारी करेंगे कि प्रधानमंत्री के विदेश दौरे से सभी काम अटके पड़े हैं। जनता को मूर्ख समझने की गलती करने वालों को यह भी समझने और समझाने की जरूरत है कि सिर्फ बयान जारी करने और सोशल मीडिया में कार्टून जारी कर देने से कोई बड़ा या छोटा नहीं हो जाता है। प्रधानमंत्री पद की अपनी गरिमा होती है, उसका अपना महत्व होता है, हमें उसका सम्मान जरूर करना चाहिए।

कुछ लोग कहते हैं कि जब प्रधानमंत्री ही अपनी गरिमा ताक पर रखकर बिहार चुनाव के समय व्यक्तिगत आक्षेप करते फिर रहे थे तो   हम क्यों उनकी गरिमा का ख्याल रखें? यह सच भी है कि एक प्रधानमंत्री को अपनी पार्टी को सिर्फ राजनीतिक लाभ दिलाने के लिए अमर्यादित बयान नहीं देने चाहिए। अपने बयानों पर संयम रखकर भी वह अपनी पार्टी हितों के लिए काम कर सकते हैं। कौन ऐसा प्रधानमंत्री है जो अपनी पार्टी के लिए काम नहीं करता। सभी करते हैं। पर यह काम एक दायरे में रहकर करना चाहिए, क्योंकि पूरे देश ने उन्हें अपना नेतृत्वकर्ता माना है। देश की कमान उन्हें सौंपी है। ऐसे में प्रधानमंत्री के तौर पर उनसे अपेक्षाएं भी बहुत होती हैं। पर हमें भी मंथन जरूर करना चाहिए कि जो प्रधानमंत्री अपने देश की आन-बान और शान के लिए विश्व से लोहा ले रहा है, उसका मजाक उड़ा कर हम क्या हासिल कर सकते हैं। अगर आप प्रधानमंत्री के कामकाज से खुश नहीं हैं तो पांच साल इंतजार करिए। जिस तरह आपको मौका मिला आपने सत्ता परिवर्तित कर दी, फिर आपको मौका मिलेगा। फिर दिखाइएगा ताकत। पर जब तक कोई अपने पद पर है, उस पद का सम्मान पूरी शिद्दत के साथ करना चाहिए। पूरा विश्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कारण इस वक्त भारत की तरफ देख रहा है। यह वक्त आने वाले भारत के भविष्य की रूप-रेखा तैयार करेगा। ऐसे में हमें भारतीय प्रधानमंत्री के पद पर अभिमान करना चाहिए न कि इस पद का भरे बाजार मजाक उड़ाना चाहिए। 

Saturday, November 7, 2015

... दिल की बात बता देता है असली-नकली चेहरा


आए दिन एफएम पर भूले-बिसरे गीत कार्यक्रमों में आप यह गाना जरूर सुन पाते होंगे, जिसके बोल हैं, ‘लाख छिपाओ छिप न सकेगा राज हो जितना गहरा, दिल की बात बता देता है असली-नकली चेहरा।’ दरअसल, भूले बिसरे गीत आज भी इतने प्रासंगिक हो जाते हैं कि एफएम वाले भी अपने श्रोताओं को मजा दिलाने के लिए इन्हें बजा ही देते हैं। अब हाल के पुरस्कार वापसी कार्यक्रमों की तरफ जरा गौर करिए। फिर यह गाना सुनिए और आनंद लीजिए इसके बोलों के।

 जो साहित्यकार, फिल्मकार, इतिहासकार अपने अवॉर्ड लौटाने के कार्यक्रमों में संयुक्त रूप से भाग लेकर अपनी जय-जय करा रहे हैं, उनके कार्यकाल और लेखनी पर भी जरूर गौर करना चाहिए। अवॉर्ड लौटाने की शुरुआत करने वालों की प्रेरणाश्रोत बनीं लेखिका नयनतारा सहगल। पंडित जवाहर लाल नेहरू की भांजी नयनतारा सहगल ने यह कहकर अवॉर्ड लौटा दिया कि मोदी सरकार देश में सांस्कृतिक एकता कायम करने में नाकाम रही है। इसके बाद तो जैसे लाइन लग गई अवॉर्ड लौटाने की। पर किसी ने नयनतारा से यह सवाल नहीं किया कि आखिर भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में ही उन्हें सांस्कृतिक एकता में असहिष्णुता क्यों दिखाई पड़ी? कांग्रेस के शासनकाल में वे उस वक्त कहां थीं जब सलमान रुश्दी को भारत आने से रोक दिया गया था। तब वह कहां थीं जब तसलीमा नसरीन को लेकर इतनी टीका-टिप्पणी चल रही थी। पश्चिम बंगाल सरकार ने उन्हें राज्य में घुसने तक नहीं दिया था, उन्हें भारत छोड़ने पर मजबूर किया गया और उस वक्त उन्हें सांस्कृतिक एकता खतरे में क्यों नहीं दिखी जब भारत ने इमरजेंसी जैसा काला दिन देखा?

दरअसल, भारतीय समाज की यह विशेषता रही है कि भेड़चाल में शामिल होकर लोग अपनी प्रसिद्धि देखना शुरू कर देते हैं। एक लेखक ने अवॉर्ड क्या लौटाया यह देश व्यापी अभियान बन गया। कई ऐसे लेखक भी सामने आ गए और वैश्विक स्तर पर चर्चा पा गए, जो लंबे समय से हाशिए पर थे। इसके बाद तो इतिहासकार और फिल्मकारों का भी असली-नकली चेहरा सामने आ गया। सच्चाई यही है कि अवॉर्ड लौटाने वालों में अधिकतर वैसे ही हैं, जिन्होंने साठ साल तक सत्ता का सुख भोगा है। लुटियंस दिल्ली के गलियारों में कोठियां पाकर सरकार की जयगाथा लिखी है।
यह जगतव्यापी सच्चाई है कि सभी लेखक किसी न किसी विचारधारा से प्रभावित रहे हैं। इसी क्रम में अवॉर्ड लौटाने वालों का इतिहास भी खंगालने की जरूरत है। ऐसा नहीं है कि अवॉर्ड लौटाने की परंपरा नई है। इससे पहले भी देशव्यापी मुद्दों पर अवॉर्ड लौटाए गए हैं। इसी क्रम में खुशवंत सिंह का नाम भी लिया जा सकता है। जब उन्होंने सिख दंगों के विरोध में अवॉर्ड लौटा दिया था। पर उस वक्त उनकी उतनी चर्चा नहीं हुई, क्योंकि उस वक्त मीडिया तो थी पर आज के दौर की तरह हाईटेक इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया नहीं थी। जहां एक शब्द लिखने और बोल देने भर से क्षण भर में आवाज दिल्ली से कन्याकुमारी तक पहुंच जाती हो।
तसलीमा नसरीन ने दो दिन पहले लिखे अपने आर्टिकल में उन बुद्धिजीवियों से सवाल किया है, जो अवॉर्ड वापसी फंक्शन में जी-तोड़ मेहनत कर रहे हैं। तस्लीमा ने साफ-साफ पूछा है कि ‘उस वक्त उनकी बौद्धिकता कहां गई थी, जब उनके खिलाफ पांच फतवे जारी किए गए थे। उस वक्त वे कहां थे जब उनके खिलाफ जुबानी हमले हो रहे थे।’ इस सच्चाई से कोई मुंह नहीं फेर सकता है कि जो लोग अवॉर्ड लौटा रहे हैं, उनका असली चेहरा अब नजर आने लगा है। वैचारिक मुद्दों की लड़ाई कोई नई बात नहीं है। तमाम देशों में इसी पर राजनीति होती रही है, पर अवॉर्ड लौटाने जैसे कृत्य को कहीं से उचित नहीं ठहराया जा सकता है। यह न केवल उस अवॉर्ड का अपमान है, बल्कि भारतीयता का भी अपमान है। किसी को एक नेशनल अवॉर्ड पूरे भारत की तरफ से दिया जाता है। उससे हर एक भारतीय की भावनाएं जुड़ी होती हैं। इसे सार्वजनिक तौर पर भरे बाजार में नीलाम करने को हम विरोध का नाम कैसे दे सकते हैं। अगर किसी को सरकार से जुड़े-कामकाज से आपत्ति है तो इसे व्यक्त करने के हजार और भी तरीके हो सकते हैं। पर एक राष्टÑीय सम्मान लौटाने को बौद्धिकता का पतन ही कहा जाना चाहिए।

हालांकि, इस सच्चाई पर भी मंथन की जरूरत है कि आखिर ऐसा क्या हो गया कि इन तथाकथित बुद्धिजीवियों सहित विपक्षी पार्टी कांग्रेस को बैठे-बिठाए इतना बड़ा असहिष्णुता का मुद्दा हाथ लग गया। ‘मेक इन इंडिया’ और ‘डिजिटल इंडिया’ का नारा देने वाली मोदी सरकार कैसे साहित्य और सांस्कृतिक संस्थाओं को बिसरा बैठी। मोदी सरकार की अगर सबसे बड़ी कमजोर कड़ी की खोज शुरू की जाए तो सबसे पहले उनके अपने नेता ही सामने आएंगे। ये वैसे नेता हैं, जो आए दिन बेवजह के विवादित बयान देने के लिए जाने जाते हैं। सख्त प्रशासक की छवि रखने वाले मोदी इन नेताओं को कैसे बर्दाश्त कर रहे हैं, यह भी विचारणीय मुद्दा है। बिहार चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री ने भी जिस स्तर पर जाकर व्यक्तिगत हमले किए हैं, उसे भी कहीं से स्वीकार नहीं किया जा सकता है। एक प्रधानमंत्री की अपनी गरिमा होती है इस गरिमा को भी बनाए रखने की जरूरत है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो जिस बेहतर विजन के साथ भारतीयता का डंका पहली बार वैश्विक   स्तर पर बज रहा है वह जल्द ही रसातल में मिल जाएगा। 

चलते-चलते
वर्तमान में सोशल मीडिया में सम्मानित लेखकों के बारे में तंज कसा मैसेज सर्कुलेट हो रहा है। मसलन लिखा यहां तक जा रहा है कि लेखक अवॉर्ड इसलिए लौटा रहे हैं, क्योंकि ये अवॉर्ड इन्हें बैठे बिठाए मिल गए हैं। कोई वीरता पुरस्कार क्यों नहीं लौटा रहा, इसलिए कि इसमें जान की बाजी लगाई गई है। शायद इन्हीं बातों से हमारे देश के बहादुर सैनिक भी प्रभावित हो गए हैं। जंतर-मंतर पर ‘वन रैंक वन पेंशन’ के लिए लंबे समय से आंदोलनरत पूर्व सैनिकों ने कहा है कि अगर उन्हें जल्द लाभ मिलना शुरू नहीं हुआ तो वे अपने मेडल लौटा देंगे। उनका यह बयान उस वक्त आया है, जब रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने कहा है कि दिवाली से पहले इसका नोटिफिकेशन जारी कर दिया जाएगा।

Friday, October 9, 2015

गाय को लेकर आंदोलन और दंगे


गो-हत्या पर इन तथ्यों को जानकर हैरान हो जाएंगे आप  पार्ट-3
अब तक आपने पढ़ा कैसे गाय और गो मांस को लेकर समाज में बदलाव आ रहा था। मुगल शासकों की गाय के प्रति क्या सोच थी। एक तरफ मुगल काल के शुरुआती दौर में मुगल शासकों की गाय और गोहत्या के प्रति सोच बेहद नरम थी, पर दूसरी तरफ जैसे-जैसे अंग्रेजों ने भारत में अपनी जड़ें समानी शुरू की वैसे-वैसे गाय को लेकर राजनीति भी शुरू हो गई। अंग्रेजों की रणनीति थी डिवाइड एंड रुल की। अर्थात फूट डालो और शासन करो। मुगल शासकों को भारतीय हिंदुओं ने दिल से स्वीकारना शुरू कर दिया था, जिसके कारण हुमांयू, अकबर, जहांगीर, शाहजहां जैसे मुगल शासकों के दौर में भारत ने समृद्धि की नई ऊचाइयों को छूआ। हिंदु और मुसलमानों में कोई खास बैर सामने नहीं आया। पर अंग्रेजों ने भारत में प्रवेश के साथ ही फूट डालो की रणनीति पर काम किया। अंग्रेजों ने भी सहारा लिया गाय का ही।

पश्चिमी सभ्यता में गो-मांस लोकप्रिय
दरअसल यूरोपियन कंट्रीज में गाय का मांस बड़े चाव से खाया जाता था। भारत में कई क्षेत्रों में यह पूर्णत: प्रतिबंधित था। अंग्रेजों को साथ मिला मुगल शासक औरंगजेब का। औरंगजेब को भारतीय इतिहास का सबसे कट्टर मुस्लिम शासक माना जाता है। अपने पिता शाहजहां से गो-मांस को लेकर शुरू हुए विवाद के बाद उसने कभी शाहजहां की बात नहीं मानी। अंतत: जब उसे शासन मिला तो उसने सबसे पहले गो-हत्या पर से प्रतिबंध हटा दिया। 1658 से 1707 तक उसने शासन किया इस दौरान हिंदु और मुसलमानों के बीच गोमांस को लेकर वैमनस्य पैदा हो चुके थे। औरंगजेब के बाद भी कई मुगल शासकों ने शासन किया, पर गो मांस को लेकर किसी ने संजीदगी से नहीं सोचा। अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने अपने अंतिम दिनों में इस बात को स्वीकार किया कि अंग्रेजों को रोकने का बस एक ही तरीका है कि हिंदुओं और मुसलमानों को एकजूट करें। इसके लिए बहादुर शाह जफर ने भी गाय का ही सहारा लिया। इस अंतिम मुगल शासक ने गो-हत्या को पूरी तरह प्रतिबंधित करते हुए हिंदुओं और मुसलमानों को एकजूट करने का प्रयास किया, पर तब तक काफी देर हो चुकी थी। भारत में मजबूती से पैर जमा चुके अंग्रेजों ने बहादुरशाह को सितंबर 1857 में निर्वासित कर बर्मा भेज दिया। वहीं 1882 में उसका निधन हो गया।
1857 की क्रांति में गो-मांस
  आमिर खान की फिल्म मंगल पांडे में आप 1857 की
क्रांति का बेहतरीन चित्रण देख सकते हैं।
अंग्रेजों के खिलाफ पहले स्वतंत्रता आंदोलन में भी गो-मांस का सबसे बड़ा रोल था। बहादुरशाह जफर ने हिंदुओं और मुसलमानों को एकजूट करने के लिए गो-मांस का सहारा लिया था। यह अभियान 1856 या उससे पहले से ही शुरू हो चुका था। सबसे पहले यह बात अंग्रेजी सेना में शामिल भारतीयों में फैलाई गई कि बंदूक में भरी जाने वाली गोलियों या गन पाउडर के रैपर को गाय की चर्बी से बनाया जाता है। इस गनपाउडर को खोलने के लिए दांतों का सहारा लिया जाता था। हिंदु सैनिकों को यह कतई मंजूर नहीं था कि उन्हें गो-मांस को अपने मुंह में लेना पड़ता है। कई इतिहासकारों का मानना है कि यह महज अफवाह थी कि गनपाउडर का रैपर गाय की चर्बी से बनाया जाता है। वहीं दूसरी तरफ मुस्लिमों को एकजूट करने के लिए यह बात भी फैलाई गई कि गनपाउडर वाले रैपर में गाय की चर्बी के साथ-साथ सूअर की चर्बी का भी उपयोग किया जाता है। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के पीछे चाहे जितने भी कारण गिनाए जाते हों, पर इस ऐतिहासिक सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का तात्कालिक कारण गो-मांस ही बना। सैनिकों के विद्रोह ने भयंकर रूप लिया, पर यह अफसोस जनक रहा कि इस आंदोलन को एक स्थाई नेतृत्व नहीं मिल सका, जिसके कारण अंग्रेजों ने चंद दिनों में ही आंदोलन को कुचल दिया। ठीक इसी वक्त अंतिम मुगल शासक बहादुरशाह जफर को भी बर्मा निर्वासित कर अंग्रेजों ने भारतीयों की रही सही एकजूटता को भी पूरी तरह तोड़ कर रख दिया।

अंग्रेजों का गोमांस के प्रति रवैया
अंग्रेजों के समय हिंदु और मुस्लमानों के बीच एक जबर्दस्त विभाजन रेखा खींच दी गई। सबसे पहला स्लटर हाउस अंग्रेजों ने ही खोला। बंगाल प्रांत के गवर्नर रॉबर्ट क्लाइव ने 1760 में पहला स्लटर हाउस कलकत्ता में खुलवाया। बताया जाता है कि हर दिन यहां करीब तीस हजार गायों की हत्या की जाती थी। इसके बाद अंग्रेजों ने बंबई और मद्रास में भी कई स्लटर हाउस खोलने की इजाजत दी। बताया जाता है कि 1910 ई. तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में करीब तीन सौ आधिकारिक स्लटर हाउस खुल गए थे। गाय के प्रति अंग्रेजों के नजरिए ने भारतीय हिंदुओं में काफी रोष उत्पन्न किया। हालांकि गो-मांस के मामले में हिंदु भी काफी बंट गए थे। बंगाल में हजारों की संख्या में कटने वाली गायों के कारण इसका मांस काफी सस्ते में उपलब्ध था। यही कारण था कि बंगाल में बसने वाले बंगाली हिंदुओं ने भी इसे खाना शुरू कर दिया। हाल यह है कि आज भी पूरे भारत में सबसे अधिक गाय मांस की खपत वाला प्रांत पश्चिम बंगाल ही है। आज भारत के कई राज्यों में गो-मांस पर तमाम तरह के प्रतिबंध लगे हैं, पर जब भी बंगाल में इस पर प्रतिबंध की बात होती है वहां के लोग आंदोलन शुरू कर देते हैं। सच्चाई यही है कि वहां के बंगाली हिंदु इन प्रदर्शनों में सबसे आगे होते हैं।

सिखों ने किया आंदोलन
गो-हत्या को   लेकर सिखों ने सबसे पहला आंदोलन शुरू किया। नामधारी सिखों ने 1870 संगठित रूप से गायों को बचाने की पहल शुरू की। इतिहास में इसे कुका आंदोलन के नाम से भी जाना जाता है। इसके बाद स्वामी दयानंद सरस्वती ने गौ-संवर्द्धनी सभा और गौ-रक्षणी सभा का गठन कर संगठनात्मक रूप से गायों को बचाने की पहल शुरू की। यह एक ऐसा दौर था जब गाय को लेकर राजनीति भी शुरू हो चुकी थी। पर अंग्रेजों के खिलाफ हिंदुओं को एकजूट करने के लिए गाय के अलावा दूसरा कोई जरिया भी उस वक्त के समाज सुधारकों को नजर नहीं आ रहा था। यही कारण है कि विभिन्न संगठनों का गठन शुरू हुआ। धीरे-धीरे गाय को लेकर यह आंदोलन पूरे भारत में फैलता चला गया।

शुरू हुआ दंगों का दौर
एक तरफ जहां गाय और गो-मांस को लेकर हिंदु संगठन एक हो रहे थे, वहीं दूसरी तरफ दंगों की नींव भी डाली जा चुकी थी। आज के उत्तरप्रदेश तब के अवध क्षेत्र में पहला दंगा भड़का। मुस्लिम बहुत क्षेत्र आजमगढ़ जिले के मऊ में भारत का पहला आधिकारिक दंगा सामने आया। यहां से गो-मांस को लेकर दंगों का जो सिलसिला शुरू हुआ उसने जल्द ही बंबई से लेकर पूरे देश दंगों की आग में जलने लगा। ब्रिटिश गजट के अनुसार छह महीने में करीब 40 से 45 कम्यूनियल राइट हुए, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए। ब्रिटिश काल और उसके बाद  गायों और स्लटर हाउस को लेकर 1717 से 1977 तक देश भर में हिंदु और मुसलमानों के बीच 167 दंगों का आधिकारिक रिकॉर्ड मौजूद है। गायों को लेकर शुरू हुई यह राजनीति कई दौरों से होते हुए आज भी उसी मुकाम पर मौजूद है जहां कोई सार्थक हल नहीं निकाला जा सका है। आज गो-मांस को राजनीतिक फायदे के रूप में देखा जाने लगा है। यही कारण है कि देश में साक्षरता की दर बढ़ने के बावजूद धार्मिक भावनाएं भड़काने के लिए गाय का सहारा ही लिया जाता है। हाल में हुई कई घटनाएं इसका जीता जागता उदाहरण है।

गो-हत्या से लेकर गो-मांस तक की यह सीरिज आपको कैसे लगी। हमें जरूर बताएं।

Thursday, October 8, 2015

गो हत्या पर महाराजा रणजीत सिंह ने दिखाई थी दिलेरी

 गो-हत्या पर इन तथ्यों को जानकर हैरान हो जाएंगे आप  पार्ट-2

अब तक आपने पढ़ा कैसे भारत में पहली गो हत्या की कहानी सामने आई। कैसे मुस्लिम देशों से आए शासकों ने बलिदान के रूप में भेड़Þ, बकरा और ऊंट के साथ गाय को भी शामिल किया। आज पढ़िए भारतीय इतिहास के उन शासकों के बारे में जिन्होंने गाय को लेकर अपने-अपने निर्णय दिए और नियम बनाए।

मध्यकाल तक भारत में कई मुस्लिम शासकों का प्रवेश हो चुका है। इसी के साथ वहां की सभ्यता और संस्कृति भी भारत में विद्यमान होती गई। सांस्कृतिक आदान प्रदान ने जहां एक तरफ आर्थिक संपन्नता को बढ़ावा दिया वहीं दूसरी तरह कई तरह की विषमताओं को भी सामने लाना शुरू किया। इन्हीं विषमताओं में से एक थी गो-हत्या। चुंकि भारतीय संस्कृति में गाय को पूजनीय माना गया। वह सुख, संपत्ति और समृद्धि के रूप में भारतीय समाज में मौजूद थी, इसीलिए गाय की हत्या पर धीरे-धीरे हिंदु समाज में विरोध के स्वर उत्पन्न होने लगे। इसी दौर में गो-शालाओं की भी नींव पड़ी। ताकि वहां बुढ़ी हो चुकी गायों को रखा जा सके और उनकी सेवा की जा सके। बावजूद इसके गो-हत्या बद्स्तुर जारी रही। मुस्लिम शासकों के साथ-साथ भारत में अंगे्रज शासन की नींव भी पड़ चुकी थी। पश्चिम समाज में गो-मांस बड़े चाव से खाया जाता था। अंग्रेजों ने भारत में भी गो-मांस को खूब बढ़ावा दिया।
इसी दौरान महाराजा रणजीत सिंह का उदय हुआ। शेर-ए-पंजाब के नाम से प्रसिद्ध महाराजा रणजीत सिंह का जन्म 1780 में गुजरांवाला (अब पाकिस्तान) में हुआ था। 1801 में रणजीत सिंह ने औपचारिक रूप से महाराजा की पद्वी ग्रहण की। उस वक्त पूरे पंजाब प्रांत में सिखों और अफगानों का मिलाजुला राज था। कुछ क्षेत्र में अफगान शासक काफी मजबूत थे। अफगान शासकों द्वारा किए जा रहे उत्पीड़न के खिलाफ महाराजा रणजीत सिंह ने जोरदार हमला बोला। चंद वर्षों में ही उन्होंने पेशावर समेत पूरे पश्तून क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। धीरे-धीरे उन्होंने जम्मू कश्मीर सहित आनंदपुर तक अपना विस्तार किया। इतने बड़े पंजाब प्रांत में हिंदुओं को एकजूट रखने के लिए उन्होंने सबसे बड़ा फैसला गाय को लेकर किया। दरअसल इस वक्त तक मुस्लिमों और हिंदुओं में गाय को लेकर आपसी मनमुटाव काफी बढ़ने लगा था। इसीलिए महाराजा रणजीत सिंह ने हिंदुओं को एकजूट रखने के लिए गाय का ही सहारा लिया। महाराजा रणजीत सिंह पहले ऐसे शासक हुए जिन्होंने पूरे पंजाब प्रांत में गो-हत्या पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया। रणजीत सिंह ने ‘सिख खालसा सेना’ का गठन किया और इसे असीमित अधिकार दिए। गो-हत्या रोकने में भी खालसा सेना ने अहम भूमिका निभाई।
 
महाराजा रणजीत सिंह का दरबार

अफगानों को दूर तक खदेड़ा
पंजाब में गो-हत्या पर प्रतिबंध ऐसे ही नहीं लग गया था, इसके पीछे भी एक दर्दनाक कहानी इतिहास में दर्ज है। दरअसल इस कहानी की नींव पड़ी 1748 में। अफगानिस्तान के शासक नादिरशाह की मौत के बाद शासक बना अहमद शाह दुर्रानी, जिसे भारतीय इतिहास में अहमद शाह अब्दाली के नाम से भी जाना जाता है। 1748 से 1758 तक उसने कई बार भारत पर हमला किया। सबसे बड़ी सफलता मिली 1757 में, जब अहमद शाह अब्दाली ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया। इसके बाद उसने आगरा, मथूरा, वृंदावन को निशाना बनाया।  (जान लें यह वह क्षेत्र था जहां सबसे अधिक गाय पालक थे। यदुवंशियों का यह क्षेत्र गो-पालकों के लिए स्वर्ग था। यदुवंश में अंधक, वृष्णि, माधव, यादव आदि वंश चला, जो आज भी गो-पालकों में सर्वोपरि हैं।) 
हरमिंदर साहिब (गोल्डन टेंपल)
 अब्दाली का मुख्य उद्देश्य इन क्षेत्रों से सबसे अधिक गायों को हांककर अपने देश लेकर जाना था। काफी हद तक उसे सफलता भी मिली। पंजाब के रास्ते अपने देश लौटने के क्रम में उसकी सेना में हैजा फैल गया, जिसके कारण वह कमजोर पड़ गया। यह दौर था जब हिंदुओं और मुसलमानों में बैर और दुश्मनी के बीज अंकुरित हो चुके थे। इसी में खाद डालने का काम किया अहमद शाह अब्दाली ने। अफगानिस्तान लौटने के
 क्रम में उसने सिखों से सबसे पवित्र तीर्थ स्थान अमृतसर के हरमंदिर साहिब (गोल्डन टेंपल) में उसने वह हकरत की, जिससे पूरे पंजाब प्रांत में मुस्लिमों के प्रति जबर्दस्त उबाल आया। अहमद शाह अब्दाली ने हजारों गायों को काटकर गोल्डल टेंबल के सरोवर में डाल दिया। इतना ही नहीं उसने हरमंदिर साहिब को भी काफी नुकसान पहुंचाया। उसका उद्देश्य हिंदुओं को नीचा दिखाना और उनकी भावना को ठेस पहुंचाना था, लेकिन हुआ इसका उल्टा। इससे पूरे पंजाब प्रांत में वह उबाल आया, जो हिंदुओं को एकजूट करने में कामयाब रहा। यह रोष काफी समय तक पंजाब प्रांत में रहा, जिसका लाभ महाराजा रणजीत सिंह ने बखूबी उठाया। उन्होंने अफगान शासन के खिलाफ जमकर युद्ध लड़े और पहले शासक बने, जिन्होंने पूरे पंजाब प्रांत में गो-हत्या पर आधिकारिक रूप से पूर्ण प्रतिबंध लगाया। महाराजा रणजीत सिंह का यह कदम भारत में हिंदू एकता की नजीर बन गई। महाराजा रणजीत सिंह ने न केवल हरमंदिर साहिब का दोबारा कायाकल्प किया, बल्कि पूरे मंदिर को सोने की परत से सजा दिया। इसके बाद से ही हरमंदिर साहिब को स्वर्ण मंदिर या गोल्डन टेंपल के नाम से भी जाना जाने लगा।


मुस्लिम शासकों का गौ प्रेम
ऐसा नहीं था कि मुस्लिम शासकों में गाय के प्रति प्रेम नहीं था। दरअसल मुगल काल में लंबे वक्त तक   गो-हत्या पर तमाम तरह के प्रतिबंध थे। मुगलों के पहले जो भी मुस्लिम शासक भारत आए उनका प्रमुख उद्देश्य भारत में लूट-पाट मचाना था। पर मुगलों ने भारत में राज्य स्थापित करने की ठानी। दूसरी तरफ भारतीय हिंदु मुगलों को भी लुटेरे के तौर पर देखते थे। अपनी इस लुटेरे वाली छवि को धोने के लिए भी मुगलों ने गाय का ही सहारा लिया। बाबर (1526 ई.) ने जब मुगल वंश की नींव भारत में रखी तो उसने हिंदुओं का विश्वास पाने के लिए सबसे पहले गो-हत्या को वर्जित कर दिया।
पुत्र हूमायंू  को लिखी वसिहत जिसे नमाद-ए-मज्जजिफी  भी कहा जता है, में बाबर ने लिखा कि
‘‘ भारत में हिंदुओं पर शासन करने के लिए तुम्हें उनके धर्म, आस्था और भगवान का सम्मान करना होगा। यह भारत में मुगल वंश के स्थायित्व के लिए जरूरी है कि तुम हिंदु धर्म में पूजनीय गाय का भी सम्मान करो। हिंदुओं के दिल में बसने के लिए तुम्हें गाय का सम्मान करना ही होगा। तभी भारतीय हिंदु तुम्हें दिल से अपना शासक स्वीकार कर सकेंगे।’’
 हिंदुओं के साथ लंगर खाते मुगल सम्राट अकबर।
 हूमायंू के बाद अकबर, जहांगीर और अहमद शाह ने भी अपने शासन काल के दौरान गाय को सम्मानित स्थान दिया। बहुत हद तक यही कारण रहा कि मुगलों का लंबा राज भारत पर रहा। कालांतर में हिंदुओं ने भी मुस्लिम शासकों को दिल से स्वीकार किया। पर मुगल शासक औरंगजेब के समय एक बार फिर गाय को लेकर उबाल आना शुरू हुआ। औरंगजेब को जब उसके पिता शाहजहां ने गुजरात प्रांत का प्रभार सौंपा तो औरंगजेब ने वहां गो-हत्या पर प्रतिबंध पूरी तरह हटा दिया। उसकी बर्बरता की कहानी यहीं समाप्त नहीं हुई, उसने गुजरात के सारसपुर स्थित चिंतामणी पार्श्वनाथ मंदिर को मस्जिद में तब्दील करवा दिया। और पहली बार पवित्र स्थान पर भी गाय को मारने की इजाजत दे दी। इसका जबर्दस्त विरोध हुआ। पर औरंगजेब के पिता और उस वक्त के हिंदुस्तान के शासक शाहजहां ने औरंगजेब की हरकत को गंभीरता से लेते हुए हिंदुओं को उनका सम्मान वापस दिलाया। मंदिर को फिर से स्थापित किया गया और एक बार फिर से गो-हत्या वर्जित कर दिया गया। शाहजहां और औरंगजेब के बीच गो-हत्या विवाद के बाद तलवारें खींच गई, जो शाहजहां के मौत तक जारी रही।

कैसी लग रही हैं यह जानकारियां जरूर बताएं और दूसरों से भी शेयर करें।
कल पढ़िए कैसे औरंगजेब कार्यकाल के दौरान गो-मांस के कारण मुगल शासन का पतन होता गया। और जब अंतिम मुगल शासक बहादुर शाह जफर ने एक बार फिर गो हत्या पर प्रतिबंध लगाया तब तक कैसे देर हो चुकी थी। कैसे गो-मांस को लेकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का पहला आंदोलन शुरू हुआ और कैसे बंगाल के हिंदु बंगाली भी गाय का मांस खाने लगे। कैसे ये बंगाली हिंदू आज भी गाय का मांस बड़े चाव से खाते हैं। यह सब बातें अगली किस्त में।

Wednesday, October 7, 2015

गो-हत्या पर इन तथ्यों को जानकर हैरान हो जाएंगे आप



पूरे देश में गाय को लेकर चल रही राजनीति के बीच अगर आपसे पूछा जाए कि इस राजनीति की नींव कहां पड़ी तो आप क्या बताएंगे? क्या आपको पता भी है कि कैसे हिंदु तो हिंदु भारत में गाय को लेकर मुस्लिम शासकों ने भी सम्मान व्यक्त किया था? क्या आप जानते हैं कि कई मुस्लिम देशों में गो-मांस नहीं खाया जाता है? आधिकारिक रूप से भारत में पहला स्लटर हाउस किसने और कहां खोला था? इस तरह की तमाम बातें बहुत कम लोगों को पता है। गो-मांस पर चल रहे विवाद के बीच ‘मुसाफिर’ आपको बता रहा है इससे जुड़ी वो तमाम बातें जिसे जानकर आप भी हैरान हो जाएंगे। तीन किस्तों में यह बातें आपके सामने होंगी। आज पढ़िए पहली किस्त।

किसने कहा गाय हमारी माता है
वेद-पुराणों में गाय को धन, संपदा, समृद्धि का प्रतीक माना गया है। गाय की सेवा को पुण्य कमाने का जरिया बताया गया है। कृष्ण के गोकुल में गाय के सम्मान को पूरी दुनिया तमाम माध्यमों से जानती है। जिस तरह गाय के दूध को सबसे पवित्र माना गया है, उसी तरह गो-मूत्र और गोबर को भी पवित्रता और निरोग होने का प्रतीक माना गया। हाल के दिनों में भी गो-मूत्र से बनी दवाइयों का सेवन किया जा रहा है। गोबर तो गांव के हर आंगन में आपको नजर आ जाएगा।  चाहे शहर हो या गांव, ऊर्जा के लिए गोबर के तरह-तरह के उपयोग होते रहते हैं। वेद पुराणों में गाय की इतनी महत्ता को देखते हुए ही इसे माता का रूप मान लिया गया और कालांतर में यह प्रचलित हो गया, गाय हमारी माता है। हंसी ठिठोली में भी इसका प्रयोग शुरू हो गया, कहा जाने लगा...गाय हमारी माता है, हमको कुछ नहीं आता है।
दरअसल गाय के सीधेपन और भोलेपन के कारण ही गाय हमारी माता.... के साथ ....हमको कुछ नहीं आता की तुकबंदी जोड़ दी गई। आज भी यह दो लाइन बड़े चाव से कही और सुनी जाती है।

गाय के सम्मान में पहली ‘हत्या’ चोल वंश में हुई थी
गाय या गो-मांस को लेकर भारत में अब तक न जाने कितने दंगे और फसाद हो चुके हैं। चंद दिनों पहले दादरी में अखलाख की मौत के पीछे भी गो-मांस की अफवाह ही रही। पर आपको जानकर हैरानी होगी कि सदियों पहले गाय को लेकर पहली हत्या चोल वंश के शासन काल में हुई थी। कैसे हुई थी यह हत्या, जानने से पहले आपके लिए जरूरी है कि पहले नीचे के पैरा में चोल वंश के बारे में समझ लें।
 ‘‘चोल वंश दक्षिण भारत के प्राचीन राजवंशों में एक था। इसे दक्षिण भारत के कृष्णवर्ण आर्य समाज का वंशज भी माना गया है। कात्यायन ने भी अपने धर्म ग्रंथों में चोल वंश का विस्तार से जिक्र किया है। कात्यायन ने वैसे तो कई ग्रंथों की रचना की थी, लेकिन ग्रह्य-संग्रह, छन्द:परिशिष्ट, कर्म प्रदीप और अभिधर्म ज्ञान प्रस्थान नामक ग्रन्थ कात्यायन की प्रमुख रचनाएं हैं। विजयालय को चोल वंश का संस्थापक माना जाता है।  850 से लेकर 870-71 ई. तक इन्होंने शासन किया था। विजयालय के बाद चोल वंश में करीब बीस प्रमुख राजाओं का जिक्र आता है। इन सभी ने करीब चार सौ वर्षों तक राज किया। ’’
चोल वंश में हुई घटना की यह प्रतिकात्मक तस्वीर कई किताबों में मौजूद है।

इन्हीं बीस चोलवंशी राजाओं में से एक राजा हुए मधुनिधि चोल। कहा जाता है कि गाय के सम्मान में इन्होंने अपने पुत्र को मौत की सजा सुनाई। कहानी कुछ इस तरह है कि, राजा मधु ने अपने महल के आगे राजा की अंगुठी के साथ घंटी लटका रखी थी। जो कोई भी फरियादी इस घंटी को बजाता था उसे राजा स्वयं न्याय देते थे। एक दिन उस घंटी को एक गाय ने बजाया। राजा जब बाहर आए तो उन्होंने देखा एक गाय उस घंटी को लगातार बजा रही थी। राजा मधु ने दरबारियों से पूरी जानकारी मांगी तो पता चला कि इस गाय के बछड़े की मौत राजा के बेटे के रथ से कुचल जाने से हुई है। राजा ने गाय को न्याय दिया और जिस तरह बछड़े की मौत हुई उन्होंने अपने बेटे को भी उसी तरह मौत देने की सजा सुनाई। इस सजा के बाद काफी वाद-विवाद होने का जिक्र भी धर्म गं्रथों में मिलता है। माना गया कि आधिकारिक रूप से यह पहली गो-हत्या थी। जिस हत्या की सजा हत्या के रूप में सामने आई। किसी पशु को न्याय दिलाने के लिए इतने कड़े दंड का जिक्र भारतीय इतिहास में इससे पहले कहीं नहीं आता है।

इस तरह प्राचीन काल में भारत में जहां सिर्फ हिंदु राज था वहां गाय को लेकर पहला विवाद चोल वंश में ही सामने आया। क्योंकि भारत में उस वक्त मुसलमानों का उदय नहीं हुआ था, इसीलिए गाय को हमेशा से ही पवित्र और पूजनीय मानते हुए इसका सम्मान किया गया। चोल वंश के बाद गाय को लेकर विवादों का सिलसिला मध्यकालीन भारत में शुरू हुआ।
मध्यकाल में दीवारों पर बनी भित्ती चित्रों में भी गायों के सम्मान को दर्शाया गया
 
मध्यकाल में मुसलमानों का आगमन

चोल वंश के शासन में हुई घटना के बाद मध्यकाल से पहले तक गाय को लेकर किसी तरह कोई विवाद सामने नहीं आया। मध्यकालीन भारत अपने आप में कई प्रगति और विनाश का सूचक बना। तुर्कि, अफगनिस्तान, फारस और अरब की तरफ से मुस्लिम शासकों ने भारत में प्रवेश किया। भारत की समृद्धि को देखते हुए इन शासकों की निगाहें भारत में थी। कई प्रांतों पर कब्जा करते हुए इन मुस्लिम शासकों ने भारत में अपनी नींव रखी। इस्लामिक परंपरा में बलिदान के रूप में अरब देशों में भेड़ों और बकरों को मारने का रिवाज था। यह ठीक उसी तरह था जैसे नवरात्र में पशु बलि की प्रथा हिंदु धर्म में है। सेंट्रल और वेस्ट एशियन अरब कंट्रीज में गो-मांस खाने की रिवाज कहीं नहीं था।   पर कहीं-कहीं ऊंट के मांस का सेवन करने की बात जरूर आती है। कालांतर में भारत आए मुस्लिम शासकों ने कई जगह गो-हत्या की शुरुआत की। और गो-मांस का सेवन शुरू किया। धीरे-धीरे बकरीद के अवसर पर गो-मांस का प्रचलन काफी बढ़ गया। और यहीं से भारत में गो-हत्या को लेकर ऐसा विवाद शुरू हुआ जो आज तक कायम है।


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कल आपको पढ़ाऊंगा कैसे कालांतर में मुगल शासकों ने गाय को सम्मान दिया था, कैसे इन्हीं मुगल शासकों में शामिल औरंगजेब ने गो-हत्या की सारी हदें पार कर दी थी। कैसे अंग्रेजों ने गो-मांस के लिए कोलकाता में पहला स्लटर हाऊस बनवा दिया था, जहां हर दिन रुटीन के साथ तीस हजार गायों की हत्या होती थी।

Tuesday, October 6, 2015

आजम की हरकत पर देश शर्मिंदा है

उत्तर प्रदेश के नगर विकास मंत्री आजम खान हमेशा ऐसी हरकतें करते हैं जिससे भारत में रहने वाले मुसलमानों के प्रति गलत अवधारणा बनती है। धर्म के नाम पर राजनीति की रोटी सेंकने वाले आजम खान ने शायद कभी इस बात पर गौर नहीं किया कि वह एक ऐसे लोकतांत्रिक देश में रहते हैं जहां मुसलमानों को भी वह सभी संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं जो अन्य धर्म, जाति और संप्रदाय को दिए गए हैं। खुद को मुसलमानों के स्वयंभू और सर्वोपरि नेता समझने वाले आजम खान ने हमेशा जाति और संप्रदाय की राजनीति करके मुसलमानों के चेहरे को बदनाम करने का ही प्रयास किया है। शायद यही कारण है कि असद्दुदीन ओवैसी ने भी आजम को हद में रहने की चेतावनी दे डाली है। आजम खान द्वारा दादरी कांड पर यूएन महासचिव को लिखे पत्र पर प्रतिक्रिया देते हुए ओवैशी ने आजम खान की हरकत को खतरनाक बताया है। कहा है कि ऐसी ही हरकतों से ही भारत में मुस्लिमों के प्रति सोच बदलती जा रही है।
दादरी के बिसाहड़ा में हुई वारदात को लेकर आजम खान ने संयुक्त राष्टÑ संघ के महासचिव बान की मून को पत्र लिखकर एक ऐसी हरकत की है जिसने पूरे भारत के लोगों को न केवल चौंका दिया है, बल्कि शर्मिंदा भी कर दिया। आजम खान चाहते हैं कि यूएन महासचिव इस मामले में तत्काल हस्तक्षेप करें। संघ एक गोलमेज कॉन्फे्रंस बुलाए, जिसमें भारत में मुसलमानों और ईसाइयों की खराब दशा पर बात हो। शायद आजम खान इस बात को भूल गए हैं कि जिस लोकतंत्र ने उन्हें लोगों का नुमाइंदा बनाया है, उसी लोकतंत्र में न्यायपालिका भी बैठी है। क्या आजम खान को अपनी न्यायपालिका पर जरा भी विश्वास नहीं है, जो एक भीड़तंत्र द्वारा की गई घिनौनी हरकत को अंतरराष्टÑीय स्तर पर सुलझाना चाहते हैं।
दादरी में अखलाक की मौत ने निश्चित तौर पर भारत की लोकतांत्रिक छवि को नुकसान पहुंचाया है, पर जिस तरह आजम खान ने यूएन महासचिव को पत्र लिखकर अपने घर की बातों को अंतरराष्टÑीय स्तर पर उछाला है, वह सरासर निंदनीय है। आजम खान ने पत्र लिखकर यह स्पष्ट कर दिया है कि वह भारत को कभी दिल से अपना घर स्वीकार नहीं कर सकते हैं। चाहे यहां की जनता उन्हें कितना भी प्यार कर ले। आजम खान इस तरह की हरकत या ऊटपटांग सांप्रदायिक बयानबाजी करते हुए यह बात हमेशा भूल जाते हैं कि इसी लोकतंत्र की बदौलत वो मंत्री पद पर बैठे हैं। इसी लोकतांत्रिक व्यवस्था और न्यायपालिका की बदौलत उन्हें भी न्याय प्राप्त है। नहीं तो जितने बड़े और गंभीर आरोप उन पर लगे हैं, उनमें वह किसी जेल की कोठरी में सड़ रहे होते। अगर इसी भारत में मुस्लिम होते हुए उन्हें न्याय मिला है तो वह कैसे अपने आधार पर अनुमान लगा सकते हैं कि अखलाक के परिवार को न्याय नहीं मिलेगा और इस परिवार के न्याय के लिए वह यूएन महासचिव को पत्र लिख दें। इससे बड़ी शर्मसार कर देनी वाली हरकत कोई दूसरी नहीं हो सकती।
अखिलेश यादव ने जब युवा मुख्यमंत्री के रूप में उत्तरप्रदेश की कमान संभाली तो पूरा विश्व उनकी ओर देख रहा था। उद्योग घरानों से लेकर कॉरपोरेट कंपनियों को भी एक उम्मीद बंधी थी कि उत्तरप्रदेश जैसे फर्टिलाइज स्टेट में निवेश करेंगे। पर आजम खान जैसे स्वयंभू मुस्लिम नेताओं के कारण अखिलेश यादव जैसा पढ़ा-लिखा युवा मुख्यमंत्री भी कुछ नहीं कर सका। हर वक्त उत्तरप्रदेश का कोई न कोई जिला दंगों की आग में जल ही रहा है। समाजवादी सरकार की पुलिस ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस को भी दंगों की आग में झोंकने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। जिस तरह वहां गणेश मूर्ति विसर्जन को लेकर धरने पर बैठे साधु-संतों पर लाठियां बरसाई गर्इं, उसे पूरे विश्व ने देखा है। यह किसके इशारे पर हुआ बताने की नहीं, सिर्फ समझने की जरूरत है। आज बनारस सुलग रहा है। कई थाना क्षेत्रों में कर्फ्यू लगा है। क्या अखिलेश यादव की सरकार इतनी निकम्मी है कि गंगा में मूर्ति विसर्जन की जिद पर अड़े साधु-संतों से बातचीत के जरिए मनाया न जा सके। जिस तरह साधु-संतों पर अपराधियों की तरह लाठियां बरसाई गई थीं, उसी दिन वहां हिंसा की चिंगारी को हवा दे दी गई थी। बनारस में विकास के लिए निवेश करने वाले उद्योग घरानों में अब इस हिंसा के बाद क्या संदेश जाएगा कहा नहीं जा सकता, पर जिस उद्देश्य से उत्तरप्रदेश पुलिस ने वहां काम किया उसका रिजल्ट सामने है।
आजम खान की शर्मनाक हरकत को आॅल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम) के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने भी खतरनाक बताया है। ओवैसी ने कहा कि दादरी में जो भी हुआ, वो हमारे घर का मामला है। उसे अंतरराष्टÑीय स्तर पर उठाना सरासर गलत है। यूपी सरकार आम लोगों को सुरक्षा देने में नाकाम रही है और इसी वजह से उत्तरप्रदेश बदनाम हो रहा है। ओवैसी ने जो कुछ भी कहा उसे भी गंभीरता से सोचने की जरूरत है। क्यों आजम खान जैसे नेताओं के बहकावे में आकर भारत के मुसलमान खुद को दूसरे देश का वासी मानने लगे हैं। इसी देश में जब मुंबई में गणेश पूजा होती है तो नमाजियों को नमाज पढ़ने के लिए गणेश पंडाल में जगह मुहैया कराई जाती है। इसी देश में जब एक मुस्लिम महिला को लेबर पेन होता है तो हिंदू महिलाओं द्वारा मंदिर के अंदर उसकी   डिलिवरी कराई जाती है। इसी देश में उस मुस्लिम महिला द्वारा अपने बच्चे का नाम गणेश रख दिया जाता है। इसी देश के सभी प्रमुख पदों पर मुस्लिम धर्म के लोग अपनी शोभा बढ़Þाते हैं। इसी देश के लोग एलओसी पर अपनी जान की बाजी लगाते हैं। इसी देश के खिलाड़ी को इंडियन टीम का कप्तान बनाया जाता है। पर यह अफसोस जनक है कि इसी देश का एक मंत्री अपने घर की बातों को लेकर विदेशों में अपनी छाती पीटता है।
प्रदेश में लॉ एंड आॅर्डर बनाए रखने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है। फिर इसमें केंद्र सरकार क्या करेगी, यह समझ से परे है। बनारस में लाठियां बरसाकर अपनी दादागिरी दिखाने वाली यूपी पुलिस दादरी की वारदात पर मौन क्यों रही। क्यों नहीं समय पर सूचना मिलने के बावजूद दादरी के भीड़तंत्र को नियंत्रित करने के लिए लाठियां बरसाई गर्इं। क्यों इतनी शर्मनाक वारदात होने दी गई। पूरा देश यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से सवाल कर रहा है। अपनी गलतियों का ठीकरा दूसरों पर फोड़ना आजम खान जैसे नेताओं को बखूबी आता है। अखिलेश यादव के पिता मुलायम सिंह यादव ने कई बार सार्वजनिक मंच से बेटे अखिलेश को इशारा किया है कि अपने अगल-बगल वालों से सावधान रहो। ज्यादा तवज्जो मत दो। विकास का काम करो। कड़े फैसले लो। अपने पिता मुलायम सिंह की बातों को देर से ही सही पर अखिलेश यादव को आज गंभीरता से सोचने की जरूरत है। आजम खान की शर्मनाक हरकत पर उन्हें मंत्रिमंडल से निकालने की बात भी उठने लगी है। अखिलेश यादव से ऐसे किसी कड़े फैसले की उम्मीद पूरा राष्टÑ कर रहा है, क्योंकि जो व्यक्ति भारत को अपना घर, अपना राष्टÑ नहीं समझ सकता, वह उत्तरप्रदेश और समाजवादी सरकार का भला कैसे कर सकता है।

Saturday, October 3, 2015

प्लीज, रेप को धंधा मत बनाइए

अस्सी के दशक से हिंदी सिनेमा में एक ऐसा बदलाव आया जिसने फिल्मी अभिनेत्रियों को बोल्ड रोल करने की इजाजत दे दी। इसी बदलाव के दौर में रेप का सीन भी प्रमुखता से फिल्मों में आने लगा। शबाना आजमी ने तो विनोद खन्ना के साथ एक फिल्म में वह रोल भी किया, जिसने रेप की परिभाषा ही बदल दी। फिल्म में शबाना आजमी ने एक ऐसी लड़की का किरदार निभाया, जो हाईवे पर लिफ्ट लेकर लोगों को अपने जाल में फंसाती थी और उनसे जबर्दस्ती रुपया वूसलती थी। रुपया नहीं देने पर खुद ही कपड़े फाड़ना शुरू कर देती थी और जोर-जोर से चिल्ला कर लोगों को जमा कर लेती थी। आरोप लगाने लगती थी देखिए, यह मेरा बलात्कार करने का प्रयास कर रहा था। बदनामी के डर से लोग अपना सारा रुपया, सोने की अंगूठी आदि हिरोइन को पकड़ा देते थे। यह एक ऐसा दौर था जब लड़कियां उतनी बोल्ड नहीं होती थी। फिर पिछले पांच से सात वर्षों में इस बोल्डनेस में ऐसा बदलाव आया कि आए दिन-प्रतिदिन रेप और रेप के प्रयास के मामले बढ़ते ही चले गए। आज हालात यह हैं कि अगर कोई लड़की अपने साथ दुष्कर्म का आरोप लगाती है तो सबसे पहले उसे ही शक की दृष्टि से देखा जाने लगता है। मंथन का वक्त है कि आखिर यह स्थिति क्यों और कैसे आ रही है।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के हर साल जारी होने वाले आकड़ों में महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों की संख्या में दिनों-दिन बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है। इनमें से भी सबसे अधिक मामले रेप और रेप के प्रयासों के होते हैं। निर्भया कांड के बाद महिलाओं की सुरक्षा के लिए कई नए नियम लाए गए। बदलाव के इस दौर में महिलाओं को और अधिक सबल बनाने का प्रयास किया गया। पर हुआ इसका उल्टा। आए दिन रेप की मिलने वाली शिकायतों में फर्जी केस की संख्या का प्रतिशत बढ़ता गया। यह प्रतिशत आज भी लगातार बढ़ ही रहा है। मेट्रो सिटी में इस तरह के मामले सबसे अधिक हैं। पहले अपनी मर्जी से साथ रह रहे हैं, फिन अनबन हुई तो लड़की सीधे थाने पहुंचती है और अपने साथ दुष्कर्म की शिकायत दर्ज करा देती है। चूंकि, कानून इतने सख्त हैं कि तत्काल आरोपी को अरेस्ट कर लिया जाता है। बाद में कई मामलों में समझौता हो जाता है। ऐसे मामलों में कहने को तो लड़का और लड़की दोनों ही सार्वजनिक रूप से बदनाम होते हैं। पर सबसे बड़ा सवालिया निशान रेप की शिकायतों पर उठता है। शायद इसी कारण हाल के दिनों में रेप की शिकायत करने वाली महिलाओं या लड़कियों को हमेशा ही दूसरी नजर से देखा जाने लगा है। इस तरह के लगातार बढ़ रहे झूठे मामलों के कारण ही सुप्रीम कोर्ट को भी लिव-इन-रिलेशनशिप को लेकर कड़ी टिप्पणी करनी पड़ी है। 
कोर्ट के सामने कई ऐसे मामले आए जिसमें लड़का और लड़की पांच-सात साल से साथ रह रहे थे। अचानक एक दिन दोनों के बीच विवाद इतना बढ़ गया कि दोनों अलग हो गए। फिर लड़की पुलिस के पास पहुंच गई और लगा दिया दुष्कर्म का आरोप। अखबारों की हेडलाइन बनी शादी का झांसा देकर पांच साल तक करता रहा दुष्कर्म। यह बातें समझ से परे है कि कोई शादी का झांसा देकर इतने साल तक रेप कैसे करता रहा। क्या लड़कियों को इतनी भी समझ नहीं है कि कौन उसे धोखा दे रहा है कौन उसका यूज कर रहा है। इसी तरह के बढ़ रहे मामलों पर कोर्ट को कड़ा संज्ञान लेते हुए लिव-इन-रिलेशनशिप के संबंध में अलग से टिप्पणी करनी पड़ी। बावजूद इसके आज भी इस तरह के मामलों में कमी नहीं आई है।
महिलाओं की सुरक्षा और सबल के लिए बने कानूनों का महिलाओं ने ही मजाक बनाना शुरू कर दिया है। किसी से बदला भी लेना है तो छेड़छाड़ का आरोप लगा दो, रेप के प्रयास का आरोप लगा दो। उत्तरप्रदेश के आईपीएस अधिकारी अमिताभ ठाकुर ने तो अपने आॅफिस के बाहर महिलाओं के लिए अलग नोटिस ही चिपका दिया था। उन पर भी एक महिला ने इसी तरह के झूठे आरोप लगाए थे। इन्हीं सब कारणों से आज के दिन में महिलाओं की ओर रेप और रेप के प्रयास के संबंध में दी गई शिकायतों को काफी संजीदगी से नहीं लिया जाता है। हर एक शिकायतकर्ता को शक की दृष्टि से देखा जाने लगा है। हरियाणा देश का पहला ऐसा राज्य बना है जहां सर्वाधिक महिला थाने खोले गए हैं। यहां के हालिया आंकड़े बताते हैं कि सबसे अधिक शिकायत दुष्कर्म और इसके प्रयास के ही आ रहे हैं। यह हैरान करने वाली बात है। हद तो यह है कि कई बार रेप की शिकायत दो-तीन सालों बाद आती है। कोई यह बताने को तैयार नहीं है कि दो साल बाद रेप की याद कैसे आ गई?
इस तरह के झूठे मुकदमों की बढ़ती संख्या का खामियाजा वास्तविक पीड़िता को भी भुगतना पड़ रहा है। ऐसा नहीं है कि महिलाओं के साथ रेप नहीं हो रहे हैं, पर लगातार बढ़ रही झूठी शिकायतों ने सही शिकायतों पर भी ग्रहण लगाना शुरू कर दिया है। अभी भी वक्त है महिलाओं को इस बात को समझना होगा कि उनके लिए बनाए गए कानून कहीं उनके लिए ही अभिशाप न बन जाएं। अभी तो सुप्रीम कोर्ट ने लिव-इन-रिलेशनशिप और कई साल बाद आने वाले मामलों पर टिप्पणी की है, कहीं ऐसा न हो जाए कि कई कानूनों को समाप्त करने की भी पहल शुरू हो जाए। हालांकि इसकी आवाज तो उठ ही रही है कि सिर्फ शिकायत के आधार पर आरोपी को अरेस्ट न किया जाए।  

चलते-चलते
हरियाणा में दो सीनियर अधिकारियों के बीच तलवारें खिंची हैं। मामला सिर्फ इतना है कि एक लड़की ने आरोप लगाया है कि एक पूर्व आईएएस के लड़के ने उसके साथ लंबे समय तक दुष्कर्म किया है। अब एक पुरुष पुलिस अधिकारी लड़की के पक्ष में खड़ा है, जबकि दूसरी महिला पुलिस अधिकारी लड़के को सही बता रही है। कहा जाता है कि महिलाएं महिलाओं का पक्ष लेती है और पुरुष पुरुषों का। पर हरियाणा में रेप के आरोप को लेकर जो हो रहा है वह अलार्मिंग है। अब भी वक्त है महिलाओं को जरूर मंथन करना चाहिए,  कानून उनके संबल के लिए है या दूसरों को परेशान करने के लिए?

Friday, September 25, 2015

नशे में कौन नहीं है ये बताओ जरा


शराब पीना अच्छा है या खराब इस पर तर्क-वितर्क करते लंबा वक्त गुजर चुका है, पर आज तक किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सका है। नतीजे से मतलब यह है कि या तो इसे पूरी तरह खत्म कर दिया जाए, या पूरी तरह लागू कर दिया जाए। हालांकि, विदेशों में इसके ठोस रिजल्ट खोज लिए गए हैं, पर भारत में अभी लंबा वक्त लगेगा। वक्त लगने का कारण यह है कि हम अभी तक एकरूपता में यह तय नहीं कर सके हैं कि भारत में किस उम्र से शराब पीने की अनुमति दी जाए। भारत के ही कई प्रदेशों में पूरी तरह शराब बैन है, जबकि कुछ राज्यों में वोटिंग का अधिकार मिलते ही आपको शराब पीने की छूट मिल जाती है। बहस इस बात पर नहीं है कि शराब जरूरी है या गैरजरूरी, पर मंथन का वक्त है कि शराब कब और कितनी मात्रा में पीनी चाहिए।
मेरे आॅफिस में कई सहयोगी हैं, जिनकी उम्र 22 से 30 साल के बीच है। कई बैचलर भी हैं। सैलरी भी अच्छी मिल रही है। युवा हैं तो मौज-मस्ती का अधिकार भी है। पर इन्हीं सहयोगियों में से एक की वीरवार को देर रात तबीयत इतनी खराब हो गई कि उसे हॉस्पिटल ले जाना पड़ा। डॉक्टर ने धड़ाधड़ चार इंजेक्शन लगाए फिर जाकर पेट दर्द से आराम मिला। खोज खबर ली गई तो पता चला कि लगातार शराब पीने से पेंक्रियाज पर बुरा असर पड़ा है। उम्र कम है। वैवाहिक बंधन में भी नहीं बंधे हैं। सोने पर सुहागा ये है कि हरियाणा में शराब की कीमत भी काफी कम है। पर हमें यह जरूर सोचना चाहिए कि अति हमेशा दुखदायी होती है। शराब पीने से कोई मना नहीं करता है पर अगर संभल कर पिया जाए तो यह उतनी बुरी भी चीज नहीं है।
अगर यह बुरी चीज ही होती तो विश्व भर में इससे मिलने वाला रेवेन्यू क्यों इतना अधिक होता। भारत में ही कई राज्यों का रेवेन्यू शराब बिक्री के कारण काफी अधिक है। यह अलग बात है कि सरकार कभी शराब पीने को प्रोत्साहित नहीं करती, पर इससे होने वाले आर्थिक फायदे के कारण इसे बंद करने के लिए भी नहीं कहती। हां यह भी सही है कि गुजरात, मिजोरम, मणिपुर, नागालैंड जैसे स्टेट में शराबबंदी पूरी तरह लागू है, पर नब्बे प्रतिशत स्टेट ऐसे हैं जहां शराब पीने के मामले में पूरी छूट है। भारत में ही शराब पीने की उम्र को लेकर जबर्दस्त उतार-चढ़ाव मौजूद है। एक तरफ जहां हिमाचल प्रदेश में शराब पीने की न्यूनतम आयु 18 वर्ष तय है वहीं इससे सटे यूनियन टेरिटरी चंडीगढ़ और हरियाणा में न्यूनतम आयुसीमा 25 साल है। आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, जम्मू-कश्मीर, झारखंड, महाराष्टÑ आदि राज्यों में शराब पीने की न्यूनतम आयु 21 साल निर्धारित है। वहीं पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, मेघालय जैसे राज्य जहां शराब की सबसे अधिक खपत है, वहां न्यूनतम आयु 25 साल तय की गई है। हिमाचल प्रदेश के अलावा गोवा, मध्यप्रदेश, सिक्किम और उत्तरप्रदेश में आप 18 साल के होते ही शराब पीने का अधिकार पा जाते हैं।

ऐसी स्थिति में जब भारत में शराब पीने की उम्र तक तय है, तो क्या हम शराब पीने की लिमिट को तय नहीं कर सकते। भारत में सिर्फ मोटर व्हीकल (एमवी) एक्ट में ही इस बात का जिक्र है कि हमें कितनी मात्रा में शराब पीनी चाहिए। एमवी एक्ट कहता है कि आपके खून में ब्लड एल्कोहॉल कंटेंट यानि बीएसी की लिमिट 0.03 परसेंट तक ही होनी चाहिए। यानि, सीधे शब्दों में कहा जाए तो 100 एमएल ब्लड में 30 एमएल एल्कोहॉल ही स्वीकार्य है। इससे अधिक मात्रा पाई जाती है तो आपको एमवी एक्ट के तहत सजा दी जा सकती है। पर समझने वाली बात यह है कि सिर्फ सड़क दुर्घटना से बचने के लिए यह लिमिट तय है। जिंदगी की दुर्घटना के लिए कोई लिमिट तय नहीं है। मेरे आॅफिस के सहयोगी के असहनीय दर्द को चार इंजेक्शन से दूर तो कर दिया गया पर, उसे समझाने वाला कोई नहीं मिला कि कितनी मात्रा में शराब पिओगे तो जिंदगी बची रहेगी।
भारत में यह एक बड़ी विडंबना ही है कि जहां एक तरफ सरकार को शराब से करोड़ों रुपए का राजस्व प्राप्त होता है, वहीं दूसरी तरफ शराब पीकर नशे में किए जाने वाले अपराधों की संख्या भी हर साल बढ़ती ही जा रही है। चाहे शराब पीकर रेप की वारदात हो, छेड़छाड़ हो या फिर मर्डर। हर साल इन आंकड़ों की संख्या राजस्व की तरह बढ़ती ही जा रही है। माना कि सरकार ‘शराब हानिकारक है’ जैसे स्लोगन के साथ विज्ञापन नहीं कर सकती है। पर इतना तो जरूर कर सकती है कि शराब पीने की मात्रा के बारे में युवा पीढ़ी को जागरूक करे।

हम युवाओं को जब वोटिंग का अधिकार 18 साल में देते हैं तो खूब प्रचारित-प्रसारित करते हैं कि अपने वोट का अधिकार कैसे प्रयोग करेंगे। पर वहीं जब शराब पीने का अधिकार देते हैं तो कुछ नहीं बताते। मंथन का वक्त है कि हम कैसे युवाओं को शराब के प्रति जागरूक कर सकते हैं। हम कैसे उन्हें बताएंगे कि कितनी मात्रा में पी जाने वाली शराब आपके शरीर के लिए हानिकारक नहीं है। दरअसल, नशा शराब में नहीं है, नशा शराब की ओवर डोज में है। हमें इसी ओवर डोज पर मंथन करना है। शराबी फिल्म में अमिताभ बच्चन ने भी एक गाने के दौरान शराब का गुणगान किया है, प्रश्न पूछा था कि ‘नशे में कौन नहीं है बताओ जरा’। कहा था ‘नशा शराब में होती तो नाचती बोतल’। इस गाने को तो आज की   युवा पीढ़ी भी खूब चाव से सुनती है और गुनगुनाती है, पर इसी के साथ शराब की ओवर डोज से होने वाले नशे और उसके नुकसान पर मंथन भी युवा पीढ़ी की ही हिम्मेदारी है।


चलते-चलते

दिल्ली में युवाओं की बल्ले-बल्ले
राष्टÑीय राजधानी दिल्ली में शराब पीने की उम्र को लेकर युवाओं की बल्ले-बल्ले हो सकती है। यदि सब कुछ सही रहा तो जल्द ही दिल्ली में 21 साल के युवाओं को शराब पीने का कानूनी अधिकार मिल जाएगा। केजरीवाल सरकार में पर्यटन मंत्री कपिल मिश्रा ने बयान दिया है कि वे इस पर विचार कर रहे हैं। वहीं दिल्ली के डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया ने इस प्रस्ताव के संबंध में कहा कि दिल्ली सरकार के पास अभी तक ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं आया है। यदि ऐसा कोई विचार कैबिनेट के सामने आएगा तो विचार किया जा सकता है। अभी दिल्ली में उम्र 25 साल है।

Monday, September 21, 2015

‘इस्लामोफोबिया’ से बचना होगा मुस्लिमों को

पूरा विश्व इस वक्त ‘इस्लामोफोबिया’ से ग्रस्त है। पश्चिमी देशों में तो ‘इस्लामोफोबिया’ ने इस कदर डर पैदा कर रखा है कि कोई भी मुस्लिम खुद को मुस्लिम कहने से डरने लगा है। हाल यहां तक खराब हैं कि लंबी दाढ़ी रखने वाले सिखों को भी मुस्लिम समझ लिया जाता है। आए दिन वहां सिखों और मुस्लिमों पर नस्लीय हमला होने की खबरें आती रहती हैं। आखिर ऐसा क्यों होता जा रहा है कि ‘इस्लामोफोबिया’ धीरे-धीरे और अधिक गहराई से मन के अंदर अपनी जड़ें जमाता जा रहा है। कमोबेस पश्चिमी देशों जैसा ही माहौल भारत में भी बनने लगा है। यह मंथन का वक्त है। खासकर मुस्लिमों को भी इस संबंध में बेहतर तरीके से सोचने की जरूरत है कि वे ऐसा क्या कर रहे हैं जिसने ‘इस्लामोफोबिया’ को इस तरह हौव्वा बना दिया है। अमेरिका के टेक्सास में 14 साल के स्कूली बच्चे अहमद मोहम्मद की गिरफ्तारी ने ‘इस्लामोफोबिया’ पर नई बहस को जन्म दे दिया है।
अमेरिका के स्कूली बच्चे अहमद मोहम्मद को सिर्फ इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि उसने अपने हाथों से एक घड़ी बनाई। अति उत्साह में उसे स्कूल के बच्चों और टीचर को दिखाने के लिए स्कूल बैग में लेकर स्कूल आ गया। क्लास के दौरान बैग से आ रही टिक-टिक की आवाज ने टीचर्स का ध्यान खींचा और टीचर्स ने बम की आशंका में पुलिस को कॉल कर दिया। पुलिस ने आनन-फानन में बैग को जब्त कर अहमद मोहम्मद को अरेस्ट कर लिया। संदेह इसलिए भी पुख्ता था क्योंकि जिस दिन अहमद मोहम्मद घड़ी लेकर स्कूल पहुंचा था उस दिन 11 सितंबर था। यह वही दिन था जब वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला कर अलकायदा ने पूरे विश्व को शोकाकुल कर दिया था और पूरे विश्व में मुसलमानों के प्रति एक अलग सोच को जन्म दे दिया था।
अहमद मोहम्मद सूडान मूल का है। मोहम्मद के पिता ने कहा कि अहमद को तत्काल सिर्फ इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि दुर्भाग्य से उसके नाम के साथ मोहम्मद जुड़ा है। अहमद मोहम्मद को दरअसल ‘इस्लामोफोबिया’ का दंश झेलना पड़ा। हालांकि, चंद घंटों में यह स्पष्ट हो गया कि अहमद मोहम्मद ने सिर्फ एक घड़ी बनाई थी, पर चंद मिनटों में ही ‘इस्लामोफोबिया’ की इस घटना ने पूरे विश्व का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर दिया। माइक्रो ब्लॉगिंग साइट ट्विटर के टॉप ट्रेंड में अहमद मोहम्मद आ गया। सोशल मीडिया पर इस घटना का इतना जिक्र हुआ कि व्हाइट हाउस को भी सामने आना पड़ गया। अमेरिकी राष्टÑपति बराक ओबामा ने ट्वीट करके कहा ‘कूल क्लॉक अहमद। क्या आप अपनी घड़ी व्हाइट हाउस लाना चाहोगे? हमें आपकी तरह और बच्चों को साइंस के प्रति प्रेरित करना चाहिए। यही चीजें हैं जो अमेरिका को महान बनाती हैं।’ यहां तक कि फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्क ने भी अहमद मोहम्मद का हौसला बढ़ाया। विश्व की कई और नामचीन हस्तियों ने भी इस घटना की पुरजोर निंदा की।
पर सवाल उठता है कि आखिर ऐसी स्थिति पैदा ही क्यों हुई? इसके लिए जिम्मेदार कौन है? क्यों ऐसा माहौल बनता जा रहा है कि हर एक मुस्लिमों को आशंका और भय की दृष्टि से देखा जाने लगा है। यहां तक कि भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्टÑ में भी मुस्लिमों के प्रति दृष्टिकोण बदलने लगा है। यह कहने में तनिक भी गुरेज नहीं करना चाहिए कि इसके लिए स्वयं मुस्लिम ही दोषी हैं। किसी भी पश्चिमी राष्टÑ में अगर आपका नाम मुस्लिम कम्युनिटी को प्रदर्शित करता है तो फिर आप हमेशा आशंका की दृष्टि से देखे जाने लगते हैं। धर्म और मजहब के नाम से राजनीति करने वालों ने कभी इस बात पर जोर नहीं दिया कि मुस्लिमों को बेहतर शिक्षा-दीक्षा प्राप्त कर समाज की मुख्यधारा से बेहतर तरीके से जुड़ने के प्रति प्रेरित किया जाए। कुछ प्रोगेसिव मुस्लिमों ने ऐसा करने की ठानी भी तो उन्हें दूसरे धर्मों का हिमायती बताकर अपने ही समाज में अलग-थलग करने का प्रयास किया गया। यह प्रयास आज भी जारी है।
कश्मीर हो या बिहार, यूपी हो या पश्चिम बंगाल। हर जगह इस वक्त का माहौल ‘इस्लामोफोबिया’ में तब्दील होता जा रहा है। हर शुक्रवार को जुम्मे की नमाज के बाद कश्मीर में आईएस और पाकिस्तान के झंडे लहराकर ‘इस्लामोफोबिया’ को बढ़ावा दिया जा रहा है। पर अब मुसलमानों को भी समझना होगा कि कौन उनके नाम को बर्बाद करने पर तुला है। उन्हें समझना होगा कि पूरे विश्व में कितने मुसलमानों ने अपने कर्माें के आधार पर सम्मान पाया है। नाम कमाया है। प्रतिष्ठा कमाई है। इसी मंथन के साथ अमेरिका में अहमद मोहम्मद के साथ हुई घटना का एक दूसरे पहलू पर सोचने की जरूरत है। दूसरा पहलू यही है कि उसी मुसलमान बच्चे के लिए कैसे पूरा विश्व एक हो गया। क्या भारत और क्या दूसरे पश्चिमी देश, सभी ने एकजुटता दिखाते हुए सोशल मीडिया पर एक ऐसा अभियान चलाया जिसने रातों रात अहमद मोहम्मद को सेलिब्रिटी बना दिया।
भले ही ‘इस्लामोफोबिया’ ने लोगों में आशंका पैदा कर रखी है। भले ही ‘इस्लामोफोबिया’ ने मुस्लिमों के प्रति एक अलग माहौल बना दिया है, पर इस सच्चाई से भी इनकार नहीं किया जा सकता है इसी ‘इस्लामोफोबिया’ के दौर में पूरा विश्व कलाम को सलाम कर रहा है और पूरा विश्व अहमद मोहम्मद जैसे टैलेंटेड बच्चे के लिए पूरी शिद्दत के साथ खड़ा हुआ है। मंथन का वक्त है। आप भी मंथन करिए कि हमें ‘इस्लामोफोबिया’ के झूठे दंश को झेलना है   या प्रोगेसिव बनकर विश्व में एक अलग पहचान कायम करनी है। 
चलते-चलते
एक बार फिर जम्मू-कश्मीर में जुम्मे की नमाज के बाद पाकिस्तानी झंडे लहराए गए। यहां तक की पुलिसबल पर पत्थर भी बरसाए गए। कई मौकों पर आईएस के झंडे भी लहराते जाते रहे हैं। भारत विरोधी नारों की गूंज भी सुनाई देती है। यह भी सच्चाई है कि कश्मीर के अधिकतर मुस्लिम इस तरह की सोच नहीं रखते हैं। पर चंद लोगों के कारण कश्मीर में जो माहौल बन रहा है उसे समझने की जरूरत है। ऐसे लोगों को सामने लाने की जरूरत है जो इस्लाम को बदनाम करने पर तुले हुए हैं।



Saturday, September 19, 2015

एक प्रयोग का मर जाना : मिस यू आई-नेक्स्ट टैब्लॉइड


भारतीय पत्रकारिता के एक टैब्लॉइड यूग का अंत हो गया। अपने प्रकाशन के नौ साल बाद ही भारत का एक मात्र मॉर्निंग डेली टैब्लॉइड न्यूज पेपर ने अपना टैब्लॉइड अस्तित्व खो दिया। आई-नेक्स्ट अब अन्य दूसरे मॉर्निंग डेली न्यूज पेपर्स के साथ ब्रॉड शीट में परिवर्तित हो गया। इस परिवर्तन को भले ही कई अन्य दृष्टिकोणों से देखा जाएगा, पर भविष्य में जब कभी भी भारत में टैब्लॉइड जर्नलिज्म का जिक्र आएगा उसमें आई-नेक्स्ट को भी जरूर याद किया जाएगा।
मुझे आज भी अच्छी तरह याद है जब आई-नेक्स्ट में मेरी इंट्री हुई थी। संपादक आलोक सांवल जी ने मुझसे सीधा सवाल किया था। आप तो ब्रॉड शीट से आ रहे हैं फिर इसमें कैसे एडजस्ट करेंगे। मैंने भी सपाट तौर से कहा था सर भारत में तो यह आपका पहला प्रयोग ही है, फिर आपको टैब्लॉइड कल्चर वाले लोग कहां से मिलेंगे। जो भी आएंगे वो ब्रॉड शीट से ही आएंगे। यह तो परिवर्तन का दौर है, हम भी देखने-समझने आए हैं इस टैब्लॉइड जर्नलिज्म को। इसके बाद उन्होंने ज्यादा कुछ नहीं पूछा।
दरअसल भारत में टैब्लॉइड जर्नलिज्म की शुरुआत कुछ वैसी ही थी जैसे मिड नाइटीज में टीवी पत्रकारिता की। नए-नए समाचार चैनल आ रहे थे। सीनियर पदों पर प्रिंट मीडिया से आए पत्रकारों की भरमार थी। किसी के पास न तो टीवी जर्नलिज्म का अनुभव था और न कोई इतने अत्याधुनिक संचार तंत्रों से वाकिफ था। हां, बस न्यूज सेंस एक ही था, इसीलिए प्रिंट मीडिया से आए पत्रकारों ने टीवी जर्नलिज्म में सफलता के ऐसे झंडे गाड़े, जिसकी मिसाल आज भी दी जाती है।
ऐसा ही कुछ आई-नेक्स्ट के साथ भी हुआ। ब्रॉड शीट के अच्छे-अच्छे पत्रकारों का जुटान शुरू हुआ। 2006 में इसका प्रकाशन शुरू हुआ। शुरुआती दौर में पवन चावला संपादक बने और प्रोजेक्ट हेड बने आलोक सांवल। दिनेश्वर दीनू, यशवंत सिंह (संप्रति : भड़ास फॉर मीडिया के संपादक), राजीव ओझा (संप्रति : अमर उजला में सीनियर न्यूज एडिटर), मनोरंजन सिंह (संप्रति : हिंदुस्तान हिंदी जमशेदपुर के संपादक), प्रभात सिंह (संप्रति : अमर उजाला गोरखपुर के संपादक),  विजय नारायण सिंह (संप्रति : दैनिक भास्कर), मिथिलेश सिंह (संप्रति : राष्टÑीय सहारा), शर्मिष्ठा शर्मा (संप्रति : डिप्टी एडिटर आई-नेक्स्ट) जैसे ब्रॉड शीट के बड़े नाम अखबार के साथ जुड़े। अपने तरह के अनोखे कांसेप्ट और विजन के साथ शुरू हुआ आई-नेक्स्ट उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ और कानपुर में चंद दिनों में ही पाठकों के बीच अपनी पैठ बनाने में कामयाब रहा। फिर तो इसकी सफलता की कहानी आगे बढ़ते ही गई।
  हां इस बात का जिक्र भी जरूरी हो जाता है कि इसी सफलता की कहानी के बीच ब्रॉड शीट से आए बड़े और नामचीन नामों का आई-नेक्स्ट से पलायन भी जारी रहा। पलायन के तमाम कारण गिनाए जा सकते हैं, पर सभी के मूल में इसका टैब्लॉइड  कांसेप्ट ही था। भारत में अब तक न तो टैब्लॉइड जर्नलिज्म को डेली न्यूज पेपर के रूप में स्वीकार्यता मिली थी और ऊपर से आई-नेक्स्ट का कांसेप्ट भी बाईलैंगूअल था। मतलब साफ था, या तो इस नए प्रयोग को बेहतर तरीके से समझा जाए, या फिर मूल जर्नलिज्म यानि ब्रॉड शीट में चला जाए। अधिकतर लोगों ने पलायन का रास्ता अपनाया। यहां तक की संपादक पवन चावला जी भी रुख्शत हुए। पर प्रोजेक्ट हेड आलोक सांवल जी ने इसे चुनौती के रूप में लिया। प्रोजेक्ट हेड के साथ ही आलोक सांवल जी को संपादक का पद भी दिया गया। उन्हें साथ मिला टाइम्स आॅफ इंडिया से आर्इं शर्मिष्ठा शर्मा का। दोनों ने मिलकर अपने तरह के अनूठे प्रयोग वाले डेली न्यूज पेपर आई-नेक्स्ट को धीरे-धीरे आगे बढ़ाना शुरू किया। उत्तरप्रदेश के टायर टू सिटी से शुरू हुआ यह सफर कई दूसरे राज्यों तक जा पहुंचा। इसमें बिहार, उत्तराखंड, झारखंड, मध्यप्रदेश जैसे राज्यों के नाम भी जुड़े।
आई-नेक्स्ट की सफलता ने कई दूसरे राज्यों में न केवल रोजगार के साधन पैदा किए, बल्कि पत्रकारों को एक नए नजरिए से पत्रकारिता करना भी सिखाया। एक से बढ़कर एक प्रयोग हुए। एक ऐसा दिन भी आया जब इंटरनेशनल प्लेटफॉर्म पर भी इसे स्वीकारा गया। वैन इफ्रा जैसे अवॉर्ड ने आई-नेक्स्ट के टैब्लॉइड जर्नलिज्म में चार चांद लगा दिया।
पर इन सबके बीच आई-नेक्स्ट अपने आप से ही जूझता रहा। कभी अपने कांसेप्ट को लेकर, कभी अपने प्रयोगों को लेकर। मैंने अपने कॅरियर का सबसे बेहतरीन छह साल आई-नेक्स्ट के साथ गुजारा। पर इन छह सालों में इसके कांसेप्ट को कई बार बदलते हुए देखा। कभी यह न्यूज पैग के रूप में था, कभी शॉफ्ट स्टोरी के रूप में और कभी न्यूज को ही कई दूसरे एंगल से प्रजेंट करने के रूप में। हर छह महीने बाद होने वाले बदलाव ने कभी भी आई-नेक्स्ट को स्थिरता प्रदान नहीं की। कभी यह सिटी का अखबार बना रहा, कभी सर्कुलेशन के प्रेशर ने इसे गांव और कस्बे में भी पहुंचा दिया। कभी इसमें ब्रांडिंग और इन हाउस इवेंट का इनपुट इतना हो जाता था कि न्यूज गायब हो जाता था कभी कोई अपने प्रयोगों से इसे आगे पीछे करता रहा।
प्रकृति का नियम है बदलाव। यह बदलाव जरूरी भी है। पर एक अखबार के रूप में इतना बदलाव न तो पाठकों ने स्वीकार किया और न ही विज्ञापनदाताओं ने। यही कारण रहा कि आई-नेक्स्ट ने अपनी खबरों, अपनी प्रजेंटेशन, अपने इवेंट्स के जरिए लोकप्रियता तो हासिल की,  पर कभी भी न्यूज पेपर   के रूप में पाठकों का यह फर्स्ट च्वाइस नहीं बन सका। सभी शहरों में यह न्यूज के दूसरे विकल्प के रूप में ही मौजूद रहा। पर इसी सब के बीच आई-नेक्स्ट का विस्तार भी होता रहा।
जैसे-जैसे आई-नेक्स्ट के एडिशन बढ़ते गए वैसे-वैसे ब्रॉड शीट के कई दूसरे अच्छे पत्रकार भी इसके हिस्से में आए। विश्वनाथ गोकर्न (संप्रति : बनारस आई-नेक्स्ट के एडिटोरियल हेड), शंभूनाथ चौधरी (संप्रति : रांची और जमशेदपुर आई-नेक्स्ट के एडिटोरियल हेड), रवि प्रकाश (संप्रति : बीबीसी हिंदी), विवेक कुमार (संप्रति : हिंदुस्तान पटना के सीनियर न्यूज एडिटर), मृदुल त्यागी (संप्रति : दैनिक जागरण), मुकेश सिंह (संप्रति : दैनिक जागरण अलिगढ़ के संपादक),  महेश शुक्ला (संप्रति : आई-नेक्स्ट के सेंट्रल इंचार्ज), सुनिल द्विवेदी (संप्रति : हिंदुस्तान गोरखपुर के संपादक) आदि अपने मूल कैडर यानि ब्रॉड शीट छोड़कर आई-नेक्स्ट से जुड़े। कई लोग कई बार इसे छोड़कर भी गए, लेकिन वापस आई-नेक्स्ट में ही लौटकर आए। छोड़कर क्यों गए और फिर लौटकर आई-नेक्स्ट क्यों आए, यह एक अलग मुद्दा है, पर सच्चाई यही है कि कहीं न कहीं इसके टैब्लॉइड जर्नलिज्म के स्थायित्व को स्वीकायर्ता मिलने के कारण ही वे लौटे।
आलोक सांवल और उनकी बेहतरीन टीम ने आई-नेक्स्ट को जागरण समूह का एक प्रॉफिटेबल बिजनेस मॉड्यूल तैयार करके दिया। यही कारण है कि इंदौर से भी आई-नेक्स्ट का प्रकाशन शुरू हुआ।
वर्ष 2012 में रांची यूनिवर्सिटी में हुए एक राष्टÑीय मीडिया सेमिनार में मुझे भी आमंत्रित किया गया था। उस वक्त मैं आई-नेक्स्ट देहरादून का एडिटोरियल हेड था। मुझे सब्जेक्ट दिया गया था भारत में टैब्लॉइड जर्नलिज्म की शुरुआत, विस्तार और भविष्य। बड़े ही उत्साह के साथ मैंने प्रजेंटेशन तैयार किया था। करीब 12 सौ लोगों की उपस्थिति, जिनमें अधिकर मीडिया संस्थान के बच्चे और पत्रकारों के बीच मैंने टैब्लॉइड जर्नलिज्म के कांसेप्ट और उसके भारत में विस्तार को बताया था। मैंने बताया था कि कैसे यूरोपियन कंट्री में द गार्जियन, द सन, द वर्ल्ड जैसे टैब्लॉइड अखबार लीडर की भूमिका में हैं। कैसे उन्होंने अपनी पत्रकारिता के बल पर बड़े से बड़े अखबारों को धूल चटा दी। छोटे साइज में रहते हुए कैसे इन अखबारों ने बड़े मार्केट पर अपना कब्जा जमा लिया। कैसे इन टैब्लॉइड अखबारों ने अपनी सेंसेशनल खबरों और येलो जर्नलिज्म के ठप्पे को धोते हुए मुख्य धारा की पत्रकारिता में अपनी जगह बनाई। और कैसे ये टैब्लॉइड अखबार आज पश्चिमी देशों के दिल की धड़कन बन चुके हैं। न्यूज पेपर के रूप में पाठकों के फर्स्ट च्वाइस बने हैं। भारत में आई-नेक्स्ट के कांसेप्ट, उसके टैब्लॉइड और बाइलैंगूअल कैरेक्टर को मैंने विस्तार से बताया था। बड़े ही उत्साह से लबरेज मैंने बताया था कि आने वाला समय भारत में भी टैब्लॉइड जर्नलिज्म का ही होगा। धीरे-धीरे ही सही इसे भारतीय पाठक स्वीकार कर रहे हैं। कई शहरों और राज्यों में आई-नेक्स्ट का विस्तार इसका जीता जागता उदाहरण है। मैं इस टैब्लॉइड जर्नलिज्म को लेकर इतना उत्साहित था कि यहां तक कह गया कि देखिएगा कई दूसरे अखबार भी इस तरह का प्रयोग करेंगे। प्रयोग की यह बात मैंने अमर उजाला के कांपेक्ट और हिंदुस्तान के युवा के संदर्भ में कही थी। पर यह बातें आखिरकार बातें ही रह गर्इं।
बदलाव के इस दौर में कल से आई-नेक्स्ट भी बदल गया। बदलाव भी ऐसा कि भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में इसे एक टैब्लॉइड युग का अंत ही कहा जाएगा। भारत में सांध्य दैनिक तो काफी हैं जो टैब्लॉइड जर्नलिज्म को जिंदा रखे हैं, पर आई-नेक्स्ट हिंदी का पहला मॉर्निंग डेली था जो अपने आप में अनोखा था। इसके बदलाव के अनेकानेक कारण हो सकते हैं, पर जब भी भारत में पत्रकारिता के इतिहास पर चर्चा होगी आई-नेक्स्ट के नौ साल के सफर को जरूर याद किया जाएगा। आज मैं भी टैब्लॉइड जर्नलिज्म को छोड़कर ब्रॉड शीट में आ चुका हूं। पर टैब्लॉइड जर्नलिज्म के साथ छह साल के सफर में कई अच्छी और बूरी यादें जुड़ी हैं। सुखद यह रहा कि मैंने भी कुछ वर्ष ही सही टैब्लॉइड जर्नलिज्म को शिद्दत के साथ जिया। मिस यू आई-नेक्स्ट टैब्लॉइड। मिस यू।

Tuesday, September 15, 2015

मीट बैन : धार्मिक हिंसा नहीं तो क्या है?


इन् ादिनों महाराष्टÑ से लेकर गुजरात, पंजाब हरियाणा तक में मीट पर प्रतिबंध को लेकर नया बवाल चल रहा है। शायद यह पहली बार है कि इस तरह के प्रतिबंध को एक अलग दृष्टि से देखने की जरूरत महसूस की जा रही है। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या हम किसी धर्म विशेष को खुश करने के लिए दूसरे धर्म के अनुयायियों के खाने की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित कर सकते हैं? क्या इस तरह का प्रतिबंध सिर्फ शाकाहार की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने के लिए है या फिर यह सब किसी दूसरे उद्देश्य से किया जा रहा है। मंथन का वक्त है कि क्या इस तरह मांस पर प्रतिबंध धार्मिक हिंसा के रूप में परिलक्षित नहीं हो रहा है।

बेशक यह सौ प्रतिशत धार्मिक हिंसा ही है। भारत एक पूर्ण रूप से लोकतांत्रिक देश है। जहां हर धर्म के अनुयायियों को अपने अनुसार रहने, अपने अनुसार खाने-पीने, अपने अनुसार धर्म का प्रचार प्रसार की स्वतंत्रता प्राप्त है। भारत में धार्मिक स्वतंत्रता इस हद तक है कि अगर आप जैन धर्म के मुनी हैं या नागा साधु हैं तो आप सड़क पर पूर्ण रूप से नंगे भी चल सकते हैं, पर अगर आप उस धर्म के अनुयायी या मुनी नहीं हैं और सड़क पर नंगे चलने की कोशिश करेंगे तो आपके खिलाफ तमाम कानूनी धाराओं में कार्रवाई हो सकती है। अगर आपके द्वारा सार्वजनिक रूप से नि:वस्त्र रहने या सड़क पर नग्न चलने की किसी ने शिकायत कर दी तो आपके खिलाफ सार्वजनिक स्थल पर अश्लीलता फैलाने का मामला तक दर्ज हो सकता है। आईपीसी की धारा 294 के तहत आपको जेल भेजा जा सकता है। अगर किसी महिला के सामने आपने इस तरह की नग्न अश्लील हरकत की तो धारा 354 में आपके खिलाफ मुकदमा दर्ज होगा। यहां तक कि 81 पुलिस एक्ट में भी इस तरह का प्रावधान है। आपके खिलाफ सख्त कार्रवाई होगी, बदनामी होगी वह अलग।

तात्पर्य इतना है कि जिस देश में इस तरह की उच्चतम धार्मिक स्वतंत्रता आपको मिली है वहां यह कैसे स्वीकार किया जा सकता है कि आप किसी धर्म के विशेष सप्ताह के दौरान मांस खाने पर प्रतिबंध लगा सकते हैं। मंथन का वक्त है कि इस तरह की जरूरत क्यों पड़ गई? क्या यह सब इसलिए किया जा रहा है जिसका राजनीतिक फायदा उठाया जा सके? या फिर इसलिए किया जा रहा है ताकि सच्चे अर्थ में जानवरों पर हो रहे अत्याचार को रोका जा सके? या फिर इसलिए भी किया जा रहा है ताकि किसी धर्म विशेष को यह संदेश दिया जाए कि आपकी जो मर्जी हो, हम तानाशाह हैं, हम आपके खाने-पीने पर भी प्रतिबंध लगवा सकते हैं। यह बेहद गंभीर विषय है।
हमारे देश में जितने धर्मों के अनुयायी हैं उनमें अगर परसेंटेज निकाला जाए तो मांसाहारियों का परसेंटेज निश्चित रूप से अधिक आएगा। मांस का भक्षण चाहे बीफ के रूप में हो, मटन के रूप में हो, चिकन के रूप में हो या पोर्क के रूप में। कहने का आशय इतना भर है कि किसी धर्म में गाय को मां से भी ऊंचा दर्जा दिया गया है, तो किसी धर्म में सूअर को पाक माना गया है। हैं तो सभी जानवर हीं। फर्क बस इतना है कि उनके ऊपर धर्म का स्वघोषित लेबल लगा दिया गया है। ऐसे में किसी विशेष धर्म के अनुयायियों के पवित्र सप्ताह में मांसाहार पर प्रतिबंध लगाना कहां तक न्यायोचित है? और वह भी सिर्फ गौमांस पर। चिकन, मटन और मछली को इससे अलग रखा गया है।
भारत में सभी व्यक्ति को अपने धर्म के अनुसार रहने और खाने की स्वतंत्रता है। ऐसे में अगर आज बीफ पर बैन लगाया गया है तो कल हमें इस बात के लिए भी तैयार रहना चाहिए कि दूसरे धर्म के अनुयायी भी अपने पवित्र सप्ताह में, पाक महीनों में किसी विशेष मांस के खाने पर प्रतिबंध लगाने की मांग करने लगें। यह विवाद इसलिए भी उठ रहा है क्योंकि जिन प्रदेशों में बीफ पर बैन लगाया गया है वहां किसी न किसी रूप में भारतीय जनता पार्टी की सरकार मौजूद है। ऐसे में किस तरह का संदेश जा रहा है यह बताने की जरूरत भी न हीं है। इस वक्त भले ही बीजेपी का समर्थन करने वाले इसे न्यायालय का निर्णय बताकर अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश में लगे हैं, पर इतना तय है कि बीफ बैन को लेकर शुरू हुई राजनीति आगे भी कई रंग दिखाएगी। बीफ बैन का समर्थन करने वाले इसे पशु प्रेम से जोड़कर भी देख रहे हैं। पर हमें पशु प्रेम और मांसाहार को बिल्कुल अलग करके देखना चाहिए। पशुप्रेम को बढ़ाने के लिए हमें किसी पवित्र सप्ताह या पवित्र माह का इंतजार नहीं करना चाहिए। मंथन जरूर करें कि हम इस तरह की धार्मिक हिंसा को कैसे रोक सकते हैं। यह अलार्मिंग सिचुएशन है। आने वाला समय हमें अलार्म बजाने का मौका नहीं देने वाला है।

चलते-चलते
बॉम्बे हाईकोर्ट ने मुंबई में मीट बैन पर प्रतिबंध मामले की सुनवाई के दौरान शुक्रवार को कहा कि इस तरह की परंपरा गलत है। उधर महाराष्टÑ सरकार ने भी कोर्ट को बताया है कि मीट बैन को चार दिनों से घटाकर दो दिन कर दिया गया है। हालांकि वीरवार को जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने प्रदेश में गौमांस पर प्रतिबंध को सख्ती से लागू करने का निर्देश राज्य सरकार को दिया था। पर यह सच्चाई भी जाननी जरूरी है कि कश्मीर में पिछले 150 वर्षों से गौमांस पर पूर्ण प्रतिबंध लगा हुआ है। ऐसे में मीट बैन के समर्थकों को कोर्ट का हवाला देने वाली बातें नहीं करनी चाहिए।


Friday, September 4, 2015

साहब! सड़क पर कलाम का नाम बदनाम ना करो

बहुत पहले गैंगटोक गया था। वहां का सबसे मुख्य मार्ग, जहां लग्जरी होटल्स की बहार है, सबसे अधिक इटिंग ज्वाइंट्स हैं, उसका नाम महात्मा गांधी मार्ग था। पर यह नाम सिर्फ कागजों और वहां लगे एक शिलापट पर ही दिखता था। पूरे गैंगटोक में किसी से भी पूछ लें कि महात्मा गांधी मार्ग जाना है, वहां जाने का रास्ता बता दें। सब यही पूछेंगे महात्मा गांधी मार्ग? यह कहां है? पर जैसे ही आप पूछेंगे माल रोड जाना है, लोग वहां गलियों से पहुंचने तक का आसान रास्ता बता देंगे। बात सिर्फ इतनी है कि क्या हम किसी सड़क का नाम किसी महापुरुष के नाम पर रखकर उन्हें सम्मान के उच्चतम शिखर पर पहुंचा देते हैं या हमें मंथन करने की जरूरत है कि सड़कों के नाम पर राजनीति न कर उन महापुरुषों के विचारों को जन-जन तक पहुंचाने के प्रति कृतसंकल्पता दिखानी होगी। साथ ही, क्या हमें भारतीय ऐतिहासिकता से जबर्दस्ती छेड़छाड़ करनी चाहिए?
दिल्ली के सबसे ऐतिहासिक औरंगजेब मार्ग का नाम परिवर्तित कर डॉ. अब्दुल कमाल के नाम पर कर दिया गया है। यह फैसला दिल्ली की आप सरकार और उसके अंडर काम करने वाली एनडीएमसी (नई दिल्ली नगर निगम पालिका परिषद) ने इतनी जल्दबाजी में लिया जिसका कोई अर्थ समझ से परे है। स्पष्ट कर दूं कि भाजपा सांसद महेश गिरि, मीनाक्षी लेखी व आप के ट्रेड विंग सचिव ने एनडीएमसी से गत 28 अगस्त को नाम बदलने की सिफारिश की थी और एक सप्ताह के अंदर-अंदर यह हो भी गया। लुटियंस दिल्ली के तकरीबन सारे मार्ग या तो मध्यकालीन मुगल शासकों के नाम पर हैं, या उनके नाम पर हैं जिनके नाम मुगलकालीन शासकों ने रखे थे। ऐतिहासिक तथ्य है कि इन्हीं नामों में सम्राट अशोक के नाम पर भी मार्ग स्थापित है और पृथ्वीराज चौहान के नाम पर भी मार्ग है। बात सिर्फ हिंदु या मुसलमान शासकों या राजाओं की नहीं है, बात यह है कि हम क्यों ऐतिहासिक तथ्यों के साथ छेड़छाड़ करने पर तुले हैं। क्या यह इतना जरूरी था कि एक मुगलकालीन बादशाह के नाम पर जिस सड़क का नाम था वहां एक सर्वकालिक महान व्यक्ति का नाम चिपकाकर उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त कर दें।
मुगल शासक औरंगजेब के चरित्र, उसकी राजकाज की क्षमता के आधार पर लंबी बहस हो सकती है। डॉ. कलाम के नाम का समर्थन करने वाले औरंगजेब को एक निरंकुश शासक तक बताने में नहीं चूक रहे हैं, पर क्या इस ऐतिहासिक तथ्य से भी इनकार किया जा सकता है कि वह हमारे देश का ही शासक था? क्या हम भविष्य में इतिहास के किताबों से भी औरंगजेब का नाम हटाने की सिफारिश कर सकते हैं? क्या इतिहास के प्रश्नपत्रों और यूपीएससी की परीक्षाओं में भी औरंगजेब के नाम से प्रश्न पूछने पर मनाही की घोषणा की जा सकती है? अगर ऐसा नहीं है तो दिल्ली सरकार को इसका जवाब भी देना चाहिए कि औरंगजेब मार्ग का नाम परिवर्तित करने के पीछे क्या और कैसा तर्क था।
इस वक्त सीरिया में आईएस के लड़ाकू एकसूत्रीय काम में लगे हैं, वह काम है वहां मौजूद सैकड़ों साल पूराने ऐतिहासिक इमारतों का ध्वस्त करने का। विध्वंसक बारूद लगाकर ऐतिहासिक इमारतों और खंडहरों को जमींदोज किया जा रहा है। आईएस लड़ाकों की मंशा को आसानी से समझा जा सकता है कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं। तो क्या हमारे देश में भी उसी प्रवृति की एक झलक मिली है। अभी एक मार्ग का नाम परिवर्तित किया गया है, उसके बाद क्या लाल किले और आगरे के किले और ताजमहल की भी बारी आएगी?
सरकार के कदम की सराहना करने वाले अब इस बात की भी मांग करने लगे हैं कि औरंगजेब रोड की तरह ही हुमायंू रोड, अकबर रोड आदि का नाम भी बदल कर नए युग निर्माताओं के नाम पर रखना चाहिए। हो सकता है आने वाले दिनों में ऐसा कर भी दिया जाए। पर इस पर भी मंथन जरूर किया जाना चाहिए कि इन्हीं मुगलशासकों द्वारा लालकिला भी बनाया गया था। इसी लालकिले की प्राचीर से हर साल स्वतंत्रता दिवस की हुंकार भरी जाती है। यही प्राचीर भारत की भव्यता और विराटता के प्रतीक के रूप में पूरे विश्व में नुमांया होती है।
भारतीय स्वतंत्रता में सक्रिय भागीदारी निभाने वाले स्वतंत्रता सेनानियों, नए भारत का निर्माण करने वालों युगपुरुषों और बड़े राजनेताओं के नाम पर सड़कों का नामकरण करने में कोई बुराई नहीं है। पर यह भी मंथन करने वाली बात है कि ऐतिहासिक तथ्यों या नामों से छेड़छाड़ कर हम कौन सा संदेश देना चाहते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि डॉ. कलाम का सम्मान हर एक भारतीय दिल से करता है, पर क्या हम ऐतिहासिक नामों को बदलकर उनका नाम वहां चस्पा कर डॉ. कलाम के आदर्शों का उचित सम्मान कर रहे हैं। क्या हम औरंगजेब की तुलना डॉ. कलाम से कर रहे हैं। इसे भारत सरकार के राणनीतिकारों की ऐतिहासिक भूल के रूप में देखा जाना चाहिए।
हर साल दिल्ली में सैकड़ों नए मार्ग बनाए जाते हैं। दिल्ली और नई दिल्ली में लगातार विकास हो रहा है। सैकड़ों फ्लाईओवर और नए मार्ग इस तरह बन रहे हैं कि दिल्ली के लोग भी हर तीसरे महीने कन्फ्यूज रहते हैं कि किस रास्ते से जाना है। क्या हम ऐतिहासिकता से छेड़छाड़ किए बगैर इन्हीं मार्गों में से किसी एक का नाम डॉ. कलाम के नाम पर नहीं रख सकते थे? क्या यह जरूरी था कि एक ऐतिहासिक मार्ग   के नाम के साथ ही छेड़छाड़ कर हम डॉ. कलाम के प्रति सच्ची श्रद्धा दिखा सकते हैं? अब तो जो होना था वह हो गया। पर मंथन जरूर किया जाना चाहिए कि भविष्य में हम इस ऐतिहासिक भूल को नहीं दोहराएं, क्योंकि बहुत जोर-शोर से मांग हो रही है कि तमाम अन्य वैज्ञानिकों, शहीदों और बड़े हिंदू राजनेताओं के नाम पर सड़कों का नामकरण किया जाए। कहीं ऐसा न हो जाए कि हम भी सड़कों के नाम के खेल में आईएस लड़ाकों जैसा ही कदम नहीं उठाते रहें। ऐतिहासिकता को नष्ट करते रहें।


चलते-चलते
नई दिल्ली नगर पालिका परिषद (एनडीएमसी) द्वारा नाम बदलने के खिलाफ दायर याचिका पर दिल्ली हाईकोर्ट ने एनडीएमसी से पूछा है कि उसने किस आधार पर औरंगजेब रोड का नाम बदलकर एपीजे कलाम रोड किया है? सुनवाई 22 सितंबर को होनी है, पर एनडीएमसी ने तर्क दिया है कि इससे पहले भी वह कई सड़कों का नाम बदल चुका है। एनडीएमसी द्वारा दी गई जानकारी पर आप भी गौर फरमाएं...
1.हुमायुं लेन को बरदुकिल लेन
2.स्टिंग रोड को कृष्णा मेनन मार्ग
3.वेलेसले रोड को जाकिर हुसैन मार्ग
3.कनाट सर्कस को इंदिरा चौक
4.कनाट प्लेस को राजीव चौक
5.कनिंग लेन को माधव राव सिंधिया लेन
6.विलिंगटन क्रिसेंड रोड को मदर टेरेसा रोड

Saturday, August 22, 2015

लात का भूत बात से नहीं मानता


बहुत पुरानी कहावत है कि लात का भूत बात से नहीं मानता है। कुछ ऐसा ही है पाकिस्तान और भारत के बीच औपचारिक संवादों का रिश्ता। एक साल पहले भी कुछ ऐसा ही हुआ था। जब दोनों देशों के बीच उच्च स्तरीय वार्ता को रद कर दिया गया था, क्योंकि पाक ने हुर्रियत नेताओं को न्योता देकर पैंतरेबाजी की थी। पर अब देश की जनता बीजेपी सरकार से यह सवाल पूछ रही है कि आखिर एक साल में ऐसा क्या बदलाव आ गया कि सरकार पाकिस्तान के साथ आमने-सामने बैठकर बातचीत करने पर राजी हो गई है। अगर 23-24 अगस्त को नई दिल्ली में दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के बीच बैठक होती है तो निश्चित तौर पर कई प्रमुख मुद्दों को उठाया जाएगा। पर मंथन का वक्त है कि क्या इस तरह की बैठक से कोई रिजल्ट भी निकल सकेगा। बताने की जरूरत नहीं कि इस तरह कितनी और बैठकों को दौर पहले भी चल चुका है, रिजल्ट आज तक सामने नहीं आ सका है।
दरअसल पाकिस्तान ने हुर्रियत नेताओं को न्योता भेजकर शतरंज की एक ऐसी चाल चली है जिसमें भारत सरकार उलझ कर रह गई है। पिछले दिनों जब विदेशी धरती पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुलाकात हुई थी उसी समय इस बात पर मुहर लग गई थी कि दोनों देशों के सुरक्षा सलाहाकार आपस में बातचीत करेंगे। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह संदेश साफ तौर पर गया कि दोनों देश इस दिशा में सकारात्मक रवैया अपना रहे हैं। इसी बीच पाकिस्तान ने कई पैंतरे चले। पहले जम्मू-कश्मीर की अंतराष्टÑीय सीमा पर जमकर सीजफायर का उल्लंघन किया। सीमावर्ती गांवों में सिविलियंस पर गोलियां दागीं। आतंकियों को सीमापार भेजा। गुरदासपुर में हमला हुआ। बीएसएफ के काफिले को निशाना बनाया गया। सभी का एकमात्र उद्देश्य था कि किसी तरह भारत एक बार फिर इस वार्ता को अपने स्तर पर रद कर दे। ताकि पाकिस्तान अंतरराष्टÑीय स्तर पर यह स्थापित करने में कामयाब रहे कि भारत बातचीत करना ही नहीं चाहता है।
मोदी सरकार के सामने बड़ी चुनौती है। अगर वह बातचीत अपने स्तर पर रद कर देती है तो पाकिस्तान अपने प्रोपगेंडा में कामयाब हो जाएगा। अगर बातचीत होती है तो पूरा देश सवाल कर रहा है कि मोदी सरकार इतना क्यों झुक रही है। चुनाव के पहले जो नरेंद्र मोदी पाकिस्तान को र्इंट का जवाब पत्थर से देने की बात करते थे आज वे इतने खामोश क्यों हैं। पर सच्चाई यही है कि पाकिस्तान कभी इस तरह की बातचीत होेने ही नहीं देना चाहता है। पूरे विश्व को यह बात पता है कि पाकिस्तान में लोकतांत्रिक सरकार होने के बावजूद वहां सेना का सरकार में कितना प्रत्यक्ष हस्तक्षेप है। साथ ही आईएसआई की भूमिका कितनी गहरी है इसे भी बताने की जरूरत नहीं। ऐसे में सेना और आईएसआई यह बात आसानी से कैसे स्वीकार कर लेगी कि इस तरह की बैठक में आतंकवाद का मुद्दा टारगेट नहीं होगा। हाल ही में जिंदा पकड़ाए आतंकी नावेद ने जितने खुलासे किए हैं वह यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि किस तरह पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई भारत को नुकसान पहुंचाने का प्रयास कर रही है। ऐसे में एनएसए स्तर पर होने वाली बैठक में यह मुद्दा जरूर उठेगा। भारत की तरफ से तो एक लंबा चौड़ा डॉजियर भी तैयार कराया जा रहा है ताकि पाकिस्तान को सौंपा जा सके। ऐसे में पाकिस्तान द्वारा भारत के अलगाववादी नेताओं को न्योता देने पर आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए।
भारत ने इससे पहले पिछले साल जुलाई में होने वाली बैठक में अपने विदेश सचिव को इसीलिए नहीं भेजा था क्योंकि उस वक्त भी पाकिस्तान ने अलगवादी नेताओं को न्योता भेजा था। पाकिस्तान ने अब इसी फिराक में अंतिम पैंतरा चला है। ऐसे में मंथन जरूर करना चाहिए कि ऐसी बैठकों का क्या नतीजा निकलेगा। पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार में सबसे गहरी पैठ रखने वाली सेना और आईएसआई कभी भी भारत के साथ दोस्ताना संबंधों को तवज्जो नहीं देगी, क्योंकि इससे उनके अस्तित्व पर संकट उत्पन्न हो जाता है। भारत विरोधी अभियान और विद्वेश के आधार पर ही पाकिस्तानी फौज मुस्लिम राष्टÑ को एकजुट रखती है। खुद पाकिस्तान आतंक से लंबे समय से जूझ रहा है, पर इस बात को पूरा विश्व जानता है कि आतंक का सबसे बड़ा गढ़ भी पाकिस्तान ही है।
भारत ने बेशक एक अच्छी पहल की है और पाकिस्तान के तमाम पैंतरेबाजी के बावजूद अब तक बातचीत रद नहीं की है। पर यह भी समझने की जरूरत है कि लातों के भूत बातों से कभी नहीं मानते। हम युद्ध के जरिए कोई हल भले ही नहीं निकाल सकते, लेकिन पाकिस्तान को काबू में रखने के लिए उस पर कड़ा अंतरराष्टÑीय  दबाव बनाना होगा। भारत को मजबूत तथ्यों और तर्कों के आधार पर पाकिस्तान को बेनकाब करना होगा। अंतरराष्टÑीय स्तर पर पाकिस्तानी झूठ को मजबूती से रखना होगा, तभी पाकिस्तान को काबू में रखा जा सकता है। पाकिस्तान को बेशक सैन्य कार्रवाई से नहीं, पर आक्रामक कूटनीति के जरिए तो दबाया ही जा सकता है। कई मौकों पर भारत ने ऐसा किया भी है। भारत ने फिलहाल पाकिस्तान के राष्टÑीय सुरक्षा सलाहकार सरताज अजीज के साथ होने वाली वार्ता को रद नहीं किया है। यह वार्ता रद भी नहीं होनी चाहिए, ताकि विश्व में संदेश साफ जाए कि   भारत हर तरफ से शांति चाहता है। पर साथ ही इस बात की भी तैयारी करनी चाहिए कि पाकिस्तान पर अंतरराष्टÑीय दबाव कैसे बनाया जाए।

चलते-चलते
पाकिस्तान की तरफ से हुर्रियत नेताओं को न्योता भेजने के बाद भारत ने जिस तरह से अलगाववादी नेताओं को चंद घंटों के लिए नजरबंद कर दिया यह कई मायनों में महत्वपूर्ण है। अब समय आ गया है कि ऐसे नेताओं को किसी भी तरह से छूट न मिले। बहुत हो चुकी है इनकी मनमानी। अब समय आ गया है कि भारत सरकार कड़े कदम उठाए।