Tuesday, December 30, 2014

यूं तेरा चले जाना

यूं तेरा चले जाना
भारत के सफलतम कप्तानों में से एक धोनी का टेस्ट क्रिकेट से यूं चले जाने की उम्मीद कतई नहीं थी। कौन ऐसा भारतीय क्रिकेटर होगा जो उस कप्तान पर गर्व नहीं करेगा जिसने क्रिकेट के तीनों स्तर पर भारत को सफलता के सर्वोच्य शिखर तक पहुंचाया हो। और कौन ऐसा क्रिकेटर होगा जो ऐसे खिलाड़ी को शानदार विदाई नहीं देना चाहता हो। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। हमेशा से शांत रहने वाला क्रिकेटर जिस शांत तरीके से भारतीय टेस्ट टीम में पर्दापण करता है, उसी शांत तरीके से इसे अलविदा भी कह देता है। कैप्टन कूल नाम की सार्थकता शायद इसी में थी। आॅन फिल्ड जिस तरह अपने अचानक लिए गए निर्णयों से धोनी सबको हैरान कर देते थे, ठीक उसी तरह आॅफ फिल्ड भी इस तरह के निर्णयों के लिए वे जाने जाने जाते थे। अपनी जिंदगी के कई अहम फैसले धोनी बस यूं चुटकी बजाते ले लिए। धोनी की इस विदाई बेला में उस बात का जिक्र भी अहम हो जाता है, जब भारतीय टीम के कई सीनियर क्रिकेटर को एक तरह से धकिया के टीम के बाहर बिठाया गया था। अपने आलोचकों को करारा तमाचा मारते हुए धोनी ने खुद ही टेस्ट क्रिकेट को अलविदा कह दिया। क्रिकेट के पंडित चाहे इसके लिए सौ कारण गिना दें, पर मेरे जैसे लाखों चाहने वालों के दिलों में धोनी ने अपना कद और भी ऊंचा कर लिया है। हां पर इतना अफसोस जरूर रहेगा कि टेस्ट क्रिकेट के मैदान से इस बेहतरनी खिलाड़ी को सम्मानजनक तरीके से विदाई लेनी चाहिए थी। क्रिकेट की शानदार परंपरा का निवर्हन जरूर करना चाहिए था। अपने साथियों को उन्हें वह मौका जरूर देना चाहिए था कि वे उन्हें अपने कंधों पर उठाकर ड्रेसिंग रूम तक पहुंचाएं। स्टेटियम में मौजूद उन हजारों दर्शकों को वह मौका देना चाहिए था कि अपनी-अपनी सीट पर खड़े होकर तालियों की गड़गड़ाहट के साथ वे इस खिलाड़ी को शानदार विदाई दें। अफसोस जरूर रहेगा धोनी कि आपने ऐसा कुछ करने नहीं दिया। पर गर्व इस बात पर रहेगा कि आपने पूरे विश्व को एक शानदार क्रिकेटर को देखने का मौका दिया।

Monday, December 29, 2014

श्री कृष्ण म्यूजियम की यात्रा



कुरुक्षेत्र का नाम तो आपने जरूर सुना होगा। हां वही कुरूक्षेत्र जिसे महाभारत के युद्ध के लिए जाना जाता है। सुनता आया था कि यहां की धरती लाल है। पर आज यह कपोल कल्पना ही नजर आती है।
अंबाला से सड़क मार्ग से कुरुक्षेत्र की दूरी करीब 45 किलोमीटर है। वैसे तो ग्रैंड ट्रैंक रोड पर आप अपनी कार को अस्सी नब्बे की रफ्तार में भी दौड़ा सकते हैं, पर बीच-बीच में बन रहे ओवर ब्रिज के कारण आपको वहां पहुंचने में करीब एक घंटे का समय लग सकता है। यहां पहुंचकर अगर आपको महाभारत, श्री कृष्ण और कुरुक्षेत्र को समझना है तो सीधे पहुंच जाएं श्री कृष्ण संग्रहालय। ब्रह्मसरोवर के सटे हुए यह संग्रहालय है। श्री कृष्ण संग्रहायल में प्रवेश करते ही आपको एक विशाल मानचित्र के जरिए यह बताने का प्रयास किया गया है कि आखिर कुरुक्षेत्र कहते किसको हैं। पौराणिक प्रमाणों के आधार पर बताया जाता है कि कुरुक्षेत्र की सीमा 48 कोस में समाहित है। इसमें आधुनिक करनाल, जींद, पानीपत और कैथल का भी काफी इलाका आता है। इसी 48 कोस की पैराणिक सीमा में महाभारत का युद्ध हुआ था। जानकार बताते हैं कि आज भी इस 48 कोस की सीमा में युद्ध के कई प्रमाण मौजूद हैं। इसी कुरुक्षेत्र की सीमा से होकर सरस्वती नदी का भी प्रवाह था। आज भी इस कुरुक्षेत्र की इस पौराणिक सीमा के अंतर्गत 108 प्राचीन मंदिरों का अस्तित्व है। कहते हैं इसी 48 कोस के चार कोणों  पर चार यक्षों का पहरा होता था। म्यूजियम के अंदर आपको भारत की विभिन्न कलाओं का अद्भूत संगम देखने को मिलेगा। यहां श्रीकृष्ण और महाभारत काल के तमाम संग्रह किए गए अवशेष या तो खुदाई में मिले हैं या विभिन्न राज्यों द्वारा म्यूजियम को गिफ्ट किए गए हैं। काष्ठ कला से लेकर, प्राचीन चित्र कला का बेजोड़ नमूना आपको अपने भारत की प्रचीन कलाओं पर गर्व करने का एहसास जरूर कराएगा। स्कल्पचर के जरिए भी आप महाभारत के युद्ध, कृष्ण की लीला को समझ सकते हैं। मृत्युशैया पर पड़े भिष्म और उनके आस पास मौजूद कौरवों और पांडवों सहित श्री कृष्ण की उपस्थिति पर्यटकों के आकर्षण का विशेष केंद्र है। मंत्रमुग्ध कर देने वाली इस गैलरी के बाद आप जब तीसरी मंजिल पर मौजूद मल्टीमीडिया गैलरी में पहुंचते हैं तो आप खुद को एक रोमांचक दुनिया में पाते हैं। आॅडियो-वीडियो साउंड इफेक्ट के जनिए आपको महाभारत से जुड़े प्रसंगों को समझने का मौका मिलता है। इसी गैलरी में आपको अभिमन्यू के लिए बनाए गए चक्रव्यूह से भी गुजरने का मौका मिलेगा। गैलरी के अंत में आपको यह समझने का मौका मिलेगा कि कैसे श्रीकृष्ण ने देह त्याग किया और कैसे एक स्वाण के साथ धर्मराज युधिष्ठिर का स्वर्गारोहण हुआ। वैसे तो आप अगर देखते जाएं तो पूरे म्यूजियम को एक घंटे में देख सकते हैं। पर अगर इसे समझना है तो गाइड की मदद जरूरी है। मेरा सौभग्य था कि म्यूजियम के क्यूरेटर श्री राणा के सहयोग से चंदर शर्मा जी जैसे प्रखर विद्वान मिल गए। इन्होंने करीब ढ़ाई घंटे में जितना करीब से महाभारत और श्रीकृष्ण से जुड़े प्रसंगों को समझाया वह अकल्पिनय था। हिंदी, संस्कृत और अंग्रेजी पर समान पकड़ रखने वाले शर्मा जी की श्री कृष्ण के प्रति भक्ति-भाव देखकर किसी के भी आंखों में आंसू आ सकता है। ऐसा मेरे साथ भी हुआ जब उन्होंने श्रीकृष्ण और राधा के प्रसंगों को अपने ही अंदाज में सुनाया और दिखाया। शायद भारत के किसी कोने में श्रीकृष्ण को समझने के लिए इससे बेहतर जगह कोई दूसरी नहीं हो सकती। और हां, आप जब कुरुक्षेत्र आएं तो ब्रह्ण सरोवर जाना न भूलें। यह जगह अपने आप में कई कहानियों को समेटे हुए है।

Saturday, December 27, 2014

Musafir: एक धुंध से आना है, एक धुंध में जाना है

Musafir: एक धुंध से आना है, एक धुंध में जाना है

एक धुंध से आना है, एक धुंध में जाना है

संसार की शय का इतना ही फसाना है
एक धुंध से आना है, एक धुंध में जाना है
ये राह कहां से है, ये राह कहां तक है
ये राज कोई राही समझा है ना जाना है।।।


उफ! आज कार में बज रहे इस गाने ने न जाने मुझे क्यों धुंध के उस आगोश में पहुंचा दिया है, जहां मैं खुद को बेहद अपचरिचित सा महसूस करता हूं। जिंदगी की सार्थकता तो इसी में है कि आप धुंध में न पहुंचे। पर जिंदगी की सच्चाई भी यही है कि बिना इस धुंध में पहुंचे आप जिंदगी को जी नहीं सकते। कुछ इसी तरह की उधेड़बुन से हर पल आपका सामना होता है। देहरादून को छोड़े आज पांच महीने होने जा रहे हैं। जब वहां से विदा ले रहा था तो अपनों के आंखों में आंसू थे। ट्रक पर सामान लादा जा रहा था और मेघ भी बरसने को बेताब थे। मुझे भी ऐसा ही लग रहा था कि कुछ अपना यहां छोड़े जा रहा हूं। एक पल को महसूस हुआ कि धुंध ही तो है नया शहर अंबाला। न कुछ दिख रहा था। न कुछ समझ आ रहा था। राह कहां तक है और कहां तक जाना है, यह सवाल भी पूछा था मेरी जिंदगी के हमसफर मेघा ने। बिल्कुल मन नहीं था उसे कि देहरादून छोड़ कर मैं दूसरी जगह जाऊं। शादी के बाद जब वह पहली बार घर से मेरे भरोसे निकली थी तो देहरादून ही आई थी। उसे एक अलग तरह का प्यार हो गया था इस शहर से। इस शहर के लोग और उनसे मिला अपनापन उसे अंदर तक रुला रहा था। गाड़ी स्टार्ट करते ही यह अपनापन आंसू के रूप में उसकी पलकों तक आ गए। मैं खमोशी से ड्राइव करता हुआ, उसी धुंध के आगोश में समाता चला जा रहा था, जहां बिल्कुल कुछ नहीं दिख रहा था। आज सब कुछ सामान्य है। शहर नया है, पर लोग अपने बन चुके हैं। राह अनजान थी पर आज इससे प्यार हो चुका है। रास्ते की धुंध भी छंट चुकी है। हां यह अलग बात है कि आज सुबह कार में बज रहे गाने के बाद जब शाम में बाहर निकला तो अंबाला की सर्दी का अनोखा रूप देख रहा हूं। धुंध इतनी गहरी है कि आॅफिस के बगल में मौजूद टोयटा का शानदार शो-रूम में भी नजर नहीं आ रहा है। फिर वही धुंध है, फिर वही गाना है....संसार की संसार की शय का इतना ही फसाना है, एक धुंध से आना है, एक धुंध में जाना है।

शिकायतें तो हमें मौसम-ए-बहार से है

शिकायतें तो हमें मौसम-ए-बहार से है
मुनौवर राणा लिखते हैं कि..
 थकी-मांदी हुई बेचारियां आराम करती हैं, 
न छेड़ो जख्म को बीमारियां आराम करती हैं।
कहां रंगों की आमेजिश (दिखाने) की जहमत आप करते हैं, 
लहू से खेलिए पिचकारियां आराम करती हैं।कुछ ऐसी ही स्थिति हो चुकी है झारखंड और जम्मू कश्मीर की राजनीति की। एक जगह गैर आदिवासी मुख्यमंत्री की ताजपोशी की औपचारिक घोषणा हो चुकी है, वहीं दूसरी तरफ जम्मू में गैर मुस्लिम मुख्यमंत्री की खोज और ताजपोशी के लिए तमाम समीकरण बैठाए जा रहे हैं। क्या एक राज्य के विकास को सिर्फ इस बात पर तौला जा सकता है कि एक गैर आदिवासी मुख्यमंत्री बन जाएगा तो उसके विकास की रफ्तार दोगुनी हो जाएगी। या फिर हिंदु मुख्यमंत्री बन जाने से एक राज्य की तमाम विसंगतियां दूर हो जाएंगी।
मंथन का वक्त है। क्योंकि झारखंड जैसे राज्य की उत्पत्ति के पीछे वही तर्क हैं जो इस वक्त मुख्यमंत्री की खोज में लगाए गए हैं। चौदह साल पहले जब झारखंड राज्य की स्थापना हुई तो उससे पहले लंबा आंदोलन चला। आदिवासियों के नाम से खूब राजनीति हुई। आदिवासियों के विकास, उनके वजूद और उनकी समाज में सहभागिता को लेकर इतने बड़े-बड़े वायदे हुए जो आज तक प्रासंगिक हैं। पर हश्र क्या हुआ, यह किसी से छिपा नहीं है। 14 सालों से राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजरते हुए इस छोटे से राज्य ने अब तक नौ मुख्यमंत्री देख लिए।
सिर्फ 23 प्रतिशत आदिवासी आबादी वाले झारखंड का सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य, जो नौ मुख्यमंत्री मिले वे आदिवासी ही थे। आदिवासियों का कितना कल्याण हुआ, यह तो जमीनी स्तर पर वही बता सकते हैं। पर इन्हीं आदिवासियों के नाम से मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने वाले एक पूर्व मुख्यमंत्री 25 हजार करोड़ के घोटाले में जेल की हवा तक खा आते हैं। कभी मुंडा, कभी मरांडी और कभी सोरेन के आदिवासी सर नेम से यहां की राजनीति संचालित होती रही। पर विकास का सवाल वहां के आदिवासियों के लिए अभी भी अधूरा ही है। दूसरे राज्यों के र्इंट भट्टे, कल कारखानों और खेतों में मजदूरी करते इन आदिवासियों से पूछा जाना चाहिए कि आदिवासियों के लिए बने स्टेट से उन्हें माइग्रेट क्यों होना पड़ा।
जवाब खोजने के लिए लंबा समय गुजर जाएगा। इसी बीच एक गैर आदिवासी भी 28 दिसंबर को सत्ता की कमान संभाल लेंगे। पर यह सवाल उनका भी पीछा नहीं छोड़ेगा। ठीक उसी तरह जैसे कश्मीर के शासन और वहां की कुर्सी का खेल न तो कभी पूरा विश्व समझ सका है और न भविष्य में समझ सकेगा। एक तरफ जहां राजनीतिक अस्थिरता के बीच झारखंड धीरे-धीरे कई साल पीछे की ओर चलता जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ राजनीतिक स्थिरता होते हुए भी जम्मू-कश्मीर के हालात सुधरने की बजाय बिगड़ते ही जा रहे हैं। आर्थिक रूप असीम संभावनाओं के बावजूद दिनों दिन कमजोर होते जा रहे इस राज्य के विकास के लिए तमाम समीकरणों का मेल किया और करवाया जा रहा है। गैर मुस्लिम मुख्यमंत्री की खोज को इसी समीकरण का प्रमुख हिस्सा माना जा सकता है। पर यहां भी सवाल वही रहेगा, क्या एक गैर आदिवासी या गैर मुस्लिम मुख्यमंत्री बनाकर हम उस राज्य को विकास की उन ऊंचाईयों तक ले जा सकेंगे, जिसकी कभी परिकल्पना की गई थी।
जितनी तेजी से जम्मू-कश्मीर में अलगवाद ने अपनी पकड़ मजबूत की है, उतनी ही तेजी से वहां से विकास कोसों दूर चला गया है। एक समय पर्यटन से होने वाली आमदनी ने यहां की जीडीपी ग्रोथ को टॉप टेन तक पहुंचा दिया था। आज हालात ये हैं कि यहां के युवा दूसरे राज्यों में नौकरी के लिए दर-दर ठोकरें खाने को मजबूर हैं। हालात इस कदर बिगड़े हुए हैं कि इन युवाओं को दूसरे राज्यों में अजनबियों की तरह देखा और समझा जाता है। मंथन करने की जरूरत है कि आखिर यह स्थिति क्यों आई? क्या सिर्फ एक मजहबी मुखिया को बदल देने से या गैर का तमगा जोड़ देने से दोनों राज्यों की जमीनी हकीकत में कुछ बदवाल आएंगे। क्या दोनों राज्य उस संतोषजनक स्थिति तक पहुंचेंगे जिसके लिए सभी दुआएं कर रहे हैं।
हम भारत के लोग काफी संतोषी और प्रगतिवादी होते हैं। हमें उन सच्चाईयों से लड़ना आता है कि कैसे बुरे वक्त के बाद अच्छा वक्त आता है। पूरे देश में फैले झारखंड और जम्मू-कश्मीर के लोगों को भी शायद इन सियासी बदलावों से काफी कुछ उम्मीदें होंगी। शायद इन्हीं उम्मीदों की कहकशां में किसी ने लिखा है कि ...
नदी पहाड़ों से मैदान में तो आती है, 
मगर ये बर्फ पिघलने के बाद आती है। 
शिकायतें तो हमें मौसम-ए-बहार से है, 
खिजां (पतझड़) तो फूलने फलने के बाद आती है।